Skip to main content

Full text of "Sangeet Visharad"

See other formats


ह ता रे अ हल छा 
गोल लिशएल 
इन्टरमीजियेट तथा बी. म्यूज़ ( सद्जीत विशारद 
के विद्याथियों के लिये 


जद 


लेखक--- 
“वसन्त! 


जद 


सम्पादक-- 
लच््मीनारायण गगें 


है 


प्रकाशक--- 
प्रभूलाल गर्ग 
संगीत कार्यालय, हाथरस ( 3. प्र, 


जर 


( सर्वाधिकार प्रकाशक द्वारा सुरक्षित ) 


ब््््क 89 उाबकफंदों एकड़ 
बाप #क्‍च्रा।०व 9-9 7फ. झाद्ावा ढाई 


श्र पद 
#8 4४०8४ 7 ए7४55? 
#ं4ा#/२45 (७ 6 3 








अक्कथई 


/-+>>>२/७९७/३ 


ऐसी पुस्तक ग्राप्य नहीं थी, जिसमें ऐसे परी ्षार्थियों को भनवांछित सामग्री आप्त हो सके | 

विद्यार्थियों की यह कठिनाई प्रकाशक की दृष्टि में भी थी ओर वह 'चाहता था कि इसे तुरन्त 

दूर कर दिया जाय; किन्तु किसी भी निर्माण कार्य की योजना को क्रियात्मक रूप देने में . 
समय तो लगता ही हे | फलस्वरूप 'सद्गैत विशारद? के अकाशन्न मेंभी वर्षों का समय 

लग गया | . 


भावखरडे सद्गीत भहाविद्यालव, गांधव॑ भद्वाविद्याल्षय मंडल, साधव सज्जीत महा- 
वियात्रय, प्रयाग सज्ञीत समिति आदि शिक्षण केन्द्रों के गदेयक्रम़ों के आधार पर इस प्रंथ 
की रचना की गईं है, अतः विभिन्‍न केन्द्रों में परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को इससे यथेष्ट 
लद्वायता आप्त होगी, ऐसा मेरा विश्वास है । | 


सकता है, जिसकी उन्हें अपसे सांगीतिक जीव में “ग-पग पर आवश्यकता पढ़ेगी | 
उस्तक के अकाशन के + *रान्त मेरा परिश्रम पूर्ण तो हो गया, किन्तु इसकी सफलता 


अभी शेष है। यदि विद्यार्थी वर्ग को इस उस्तक के अध्ययन से यथोचित लाभ होता है 
और बे इसे हृदय से अपनाते हैं तो वह सफलता भी दूर नहीं । 


अन्त में उन लेखक नहाजुभावों के प्रति भारी >तजता अकद करते हुए सें उन्हें 
अपना हार्दिक नन्‍्यवाद ओषित करता हूँ। जिन विद्वानों विद्वत्तापूर्ण अन्य का अवलोकन 


ओर मन्थन करने के पश्चात्‌ इस उस्तक की रचना की गईं है उन्र अन्ध ओर अन्थकारों 
के नाम इस अकार हैं... 5 
*-स्नौत रत्ताकर ( शाक्नदेव ) 


. सन्नीत दर्पण ( दासोदर ) 
| हि हि 


छा पड # सद्भीत विशारद # 


दब: चगशज:क::प व कट "कप कक लय जप: क उभानएयालाक पक :5; ए १८: काउबलआाल 7 पा: ख्याक "एप: 2क 'परपना/ 40 उमापाउनन तल; :#47५ववकाधा-*का ८250९: कमए 





४--सद्वगीत सीऊर , 
४--स्नीत पारिजात॑- * 7 
६--ऋ्रमिर पुस्तक मालिफा 
७-+राग विज्ञान 


ए८--सन्नीत कीमुदी 

६--सद्जीत शास्त्र 
१०--सट्ठीत शाल्व विन्नान 
११--सद्गीव बीविका 
१२--सद्गीद प्रदीप 
१३--श्रप्रकाशित राग 
१४--सद्जलीव कला विद्वार 
१४--सद्गीत 
१६--भातसण्डे सद्जीत शास्त्र 
१७--ताल अऊ 
१८--सद्ीव सागर 
१६-मारिफुन्नगमात 
२०--वाद्य सन्नीव अक 


के ( बी० एन० भट्ठ ) 


( अद्दोपल ) हे. कब 
( भातरझण्डे ) 

( पटवर्घन ) 

६ नी० एस० निगम ) 
( एम० एन० सक्‍सना ) 
( बद्री प्रसाद शुक्ल ) 
( प्रजेश वन्धोषाध्याग्र ) 
( कु० घुलघुल मित्रा ) 
( ज० दे० पक्की ) 

( सासिक ) 

( मासिक ) 

( भातरपण्टे ) 

( विशेषाक सद्गीत ) 

( विशेषाऊ सक्लीत ) 

€( राजा नयाव झत्ती ) 

( विशेषाऊ “सट्डीत” ) 


७ >++>आओदि-आदि---- 


विजया दशमी 
अप्वत्‌ २०११ बि० 





विनीत -- 
“बंसन्ता 





सफल संगीतज्ञ बनने के उपकरण 


दवास्तीय संगीत का इतिहास ._ 
संगीत के इतिहास का काल विभाजन “** 
श्रति प्राचीन ( वैदिक काल ), प्राचीनकाल 
मध्यकाल ( मुस्लिम काल ) मे 
,त्राधुनिककाल ( अंग्रेजी राज्य ) 


आलुकणशि का 


[को 


दस थाटों के सांकेतिक चिन्ह हे 
४७ ७२ थाट केसे बनते हैं ः 
१८४ पूर्वाद्द! और उत्तराद्ध के ३६ थाट 
१६ व्यंकट्मखी पं० के कल्पित ख्वरों के पूर्वार् 


२१५ उत्तरी संगीत पद्धति के १२ स्वरों से ३२ थाठ दद 
२७ हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के दस थाट और- 


संगीत प्रचार का श्राधुनिककाल रद उनसे उत्पन्न कुछ राग ७१ 
“ह्वतन्त्र भारत में संगीत ३० व्यंकट्मखी के ७२ मेल रे 
संगीत, स्वर, तीत्र और कोमल ३१ व्यंकट्मखी पं० के १६ थाट और उनके स्वर ७४ 
रद ओर विकृत स्वर, दक्षिणी उत्तरी सज्भीत पं० व्यंकटमखी के जनकमेल तथा जन्य राग ७५ 
- के भेद ४ ३२ (रगलज्ञणम्‌ के ७२ कर्नाटकी मेल. *** ७६ 
उत्तरी ओर दक्षिणी स्वरों की ठुलला “*** ३१३ स्थान, सप्तक. ४ कह: 
नाद ढड ०४ ३५ बर्ण ७ स्व प्र 
श्रुति ४” २६ अलंकार, राग रे 
ख्वरों में श्रुतियों को वांटने का नियम. *** ३७ ८-“रागों की जाति “- प्य्४ 
श्रुति ओर स्वर तुलना*-- श्द ग्राम हे ८७ 
श्रुति स्वरूप ३६ प्राप्वीन अन्थों में २२ श्रृतियों पर तीन ग्राम ८६ 
” प्राचीन तथा मध्यकालीन ग्रन्थकारों की श्रुतियां ४०. आधुनिक ग्राम चक्र ध्यं *** ६० 
” आधुनिक ग्रन्थकारों की श्रुतियां ४२ मूच्छना डे 8 ६१ 
? प्राचीन व आधुनिक श्रुति स्वर विभाजन ४३ घड़ज ग्राम की मूद्छेना ६१ 
२२ श्रतियों पर आधुनिक पद्धति के १२ मध्यम ग्राम की मूच्छना ६२ 
स्वरों की स्थापना ““ ४४ गंधार ग्राम की मूच्छेना ६२ 
तुलनात्मक विवेचन की न ४५.  मृच्छेनाओं की तुलनात्मक परिभाषा ६४ 
स्वर स्थान श्रौर आन्दोलन संख्या ४७ राग के दस लक्षण ६५ 
/ख्विरों की आन्दोलन संख्या निकालना ४७ ]/ राग भेद *-* *** ध्प्‌ 
स्वरों का गुणान्तर प ४७ आश्रय राग रे ध्द 
आन्दोलन संख्या से लम्बाई निकालना ४ दस आश्रय राग *** नल ६७ 
वीणा के तार पर श्रीनिवास के स्वर ४६८०-“राग गाने का समय विभाजन *** हल 

) श्रीनिवास के विकृत स्वर * ५३८” रागों के तीन वर्ग कक हि, 
ओऔनिवास के ५ विक्ृत स्वर “ भू सन्धिप्रकाश शग ६६ 
मझ्जरीकार के १२ स्वर स्थान ५७ रे घ शुद्ध वाले राग १०० 
बीणा के तार पर पद कोमल ग॒, नि वाले राग १०० 

* मतैक्य *** “**.. '*» पू८थ तीत्र म॑ वाले राग * १०१ 
मतमेद के “*” ४६ सज्जीत के दिन रात * १७०३ 
भारतीय तथा योरोपीय स्वर सम्बाद ***  ६०६...अध्वदर्शक स्वर का महत्व १०४ 
याट पद्धति का विकास |. *+- “** ६२ हिं० सं० प० के ४० सिद्धान्त *** १०६ 


दर # सद्बीत विशारद # 


_-जपापपअप्रद्धपाका-फा्मयापक पाना तावदाभ सका: ९५बा७ कह पहारा2 ६ सता 7724७ आ5० एल सा ज़रा पा रकाा ०९ +पाममा काका:समए-परारतामकब मामा अव्माा३ 2-2१ असम, 





राग में विवाटी स्वर का प्रयोग. *_ ११० प्राचीन मिद्वान्त है रड४ 
राग रागिनी पदति ११२ आदत, जिगर, हिसांत्र श्ह६ 
गायरों के गुण अवगुण - ११५ स्वरलिपि पदति 5४७ 
नायक, गायक, क्लावन्त, गाव १२० पिषूुदिगबर पद्धति के स्वरलिपि चिन्ह १४८ 
पढित,सगीत शाजकर, संगीत शिक्षक,कब्बाल २२० _,सावखटे पद्धति के स्व॒एलिपि चिन्द ४ 
अताई गायक, बत्यक, उत्तम यागेयद्वार. १२१ ८८ मन्नीत और रस ६:8० 
म्रध्यम और अघम वामोयक्र ११५३ प्रथम वर्ष से पचम वर्ष तक के ५० रागो 
मीत, गाधर्व, गान तथा मार्ग देशी संगीत. १२४ का वर्णन-- 
ग्रह, अश और न्यास १२५ पिलायल, अ्ल्दैयात्रिलावल, समाज, १५४ 
गायन शैलिया--प्रू बपद ] २६. अमन, बाफी पी 
प्र वषद की जाए वाणी प मैरबी, भूपाली, सारग ( शुद्ध ) १५ 
चार वाणियों के प्रधान लक्षण १२७ उिद्ाग, हमीर रप७ 
ख्याल १२८ देश, मैरव श्भ््द 
टप्पा, उमरी * १२६ भीमपलासी, थागेश्री १५६ 
तराना, निवट, होरी-्घभाए, गजल १३० तिलक्कामोद, आ्रासायरी, केदार १६० 
कब्बाली, दादरा, सादरा, खमसा १३१ देशकार, तिलग १६१ 
लायनी, चतुरग १२१ हिडोल, मारबा, सोहनी श्द्र 
सरगम, रागमाला, लक्षण गीत १३१९ जौनपुरी, मालरेंस ६६३ 
'मजन गीत, कीर्तन, गीत, क्जली १३९ छायानट, कामोट, बसन्‍्त श्ध्ड 
“बेची, लोक गीत १३३ श॒करा, दुर्गा ( समाज थाद ) १६५ 
आल्ट्टा, बारहमासी, सावनी, माड १३४ दुर्गा ( रिलायल याट ), शुद्धक्‍्ल्याण १६६ 
ंगीवातमर रचनाओं के नियम- | १३५४५... गौड सारग, जयजयबन्ती १६७ 
स्वर स्थान, रूपकालाप पूर्वी, पूरियाघनाश्री श्ध््प 
६ आलति, झविर्माय-विरोमाव, स्थाय, ] परज, पूरिया, सिदूरा १६६ 
मुछ चालन, आतिपिक्य, निवरद्ध_ | १३६ कालिगडा, बहार *.. २७० 
/अनित्रद गान है अडाना, धानी १७१ 
विदरी, अल्पत्व, बहुत्वी है १३७. माड, गौडमल्लार, मिंमोटी श्छर्‌ 
पकड, मींड, सत, आन्दोलन, गमक, कण १३८ श्री राग, ललित १७३ 
तान, शुद्धतान, कूटतान, मिश्रतान, १३६. मिया मल्लार, दर्वायी कानडा श्छ्ड 
सके की तान, झटके पी तान, वक्रतान १३६  तोडी, मुल्तानी श्छ्फू्‌ 
अचरबतान, सरोकतान, लडततान, सपाठतान १३६. रामक्ली, विमास ( मैरव थाट ) श्७ध्‌ 
मिरकरी तान, जबड़े वी तान, इलक् तान १४०... पीलू , आखा, पयदीप न. १७७ 
पलद तान, बोलवान, आलाप, बद्त १४०, याणेश्री, पहाडी श्छ्प्र 
आधुनिक आलाप गान--ध्यायी श्ड१ जोगिया, मेघमल्लार १७६ 
अन्त, उचारी, आमीग, आल्ाप में ताल, मात्रा, विलम्बितलय, मध्यलय द्र्‌ तलय १८० 
लय की गत श्डर ठेका, दुगुन, तिगुन, चौगुन  श्पर 
ग्रमक के प्रदार १४३ आडी, कुबाडी, वियाडी, सम श्घश 


रागे का दस विभागे में वर्गीकरण करने का साली, मरी, यति, आइ्वति न श्र 


|्र्क्का 


ट 


री 
| 


] 





# सड़ीत विशारद # 


3 


22 ,3330%0:5 33033: ५०० +५५ ४६७४४ ०७-90:0 ५ अल जल अ3 लुक अर जब बम 





कक 


श्र 
श्द्रे 


ज॒र्बे, क्रायदा, ठुकड़ा 
फललू, चोपल्‍्ली, पलटा, तीया.."** 


मुखड़ा, मोहरा, लग्गी, लड़ी, पेशकारा हरे 
आ्मद, बोल, उठान, नवह॒क्का, रेला | 
परन, ताल के दस प्राण, काल “जे. शत 
क्रिया, सशब्द क्रिया, निशुब्द क्रिया “ 7“ श्दौ४ड 
कला, मार्ग, अ'ग, प्रस्तार और जाति*** १८४ 
ग्रह, लय विवरण हि ** श्थश 
। लय की व्याख्या और उसे लिपिबद्ध करने का ४* 
ढंग «०० **.  इटप 
| मध्यलय, विलम्बितलय और श्रति -- 
| विलम्बितलय ९६ गण श्द4 
/दुगुनलय, तिगुनलय बार *-. श्थय७ 
' चौगुन, अठगुन, क्वाड़ी 5  श्टन 
आड़ीलय, वियाडीलय.. *** ** हटह 


। उत्तरी सद्जीत पद्धति की मुख्य तालें-- 


'कहरवा, दादरा, कपताल, चौताल १६० 
त्रिताल, आड़ा चौताल, तीत्रा “+ १६० 
सूलताल, धमार, रूपक, इकताला १६१ 
'दीपचंदी, पंजाबी, मत्तताल ही «हे हे 
तिलवाड़ा, धीमा इकताला, कूमरा *** १६२ 
प्रह्मताल, गणेशत्ताल, विक्रमताल “४ १६२ 
, गेजम्पा, शिखरताल, यति शेखर *** १६३ 
. चित्रा, वसंत ताल, विष्णुताल ** १६३ 
मणिताल, मंपाताल, रद्रताल. *+** १६४७४ 
2 ठेका टप्पा, अद्भा जिताल, सवायी ४ १६४ 
लक्ष्मीताल, पश्तो, कब्वाली, शूलफाक्ता-** १६५ 
दक्षिण -कर्नाटकी) ताल पद्धति १६६ 


सात तालों के पंचजाति भेदानुसार ३४ प्रकार १६७ 
अठताल के २५ प्रकार 


। ** १६६ 
* कनांठकी पद्धति की सात तालों को न 
' हिन्दुस्थानी पद्धतिमें लिखने का क्रायदा*** २०१ 


बाद्य यन्त्र परिचय, वाद्यों के प्रकार-- 


सितार, सन्तित शंतहास २०३ 
सितार के सात तार, अ्रज्ञ वर्शगन. *** २०४ 
सितार मिलाना हम २०४ 
चलथाट और अचल ताल “*_ २०६ 
सितार के बोल कह *** २०६ 
गत, मसीदखानी, रजाखानी ** २०७ 
जोड़ आलाप, ज़मज़मा, काला ““* २०७ 
कन्तन, मींड, सूत, तबला “* २०७ 
तबले के घराने -* रृब्प 
दाहिना और बांया, तचला मिलाना *** २०६ 
तबला के दस वर्ण “ड २१० 
मुदज्ञ (पखावज) उत्पत्ति, बनावट “** २१२ 
बोल, खुले बोल, बंद बोल, थाप २१२ 
तानपूरा, अंग वर्णन, तार मिलाना २१३ 
वानपूरा छेड़ना, बैठक. **: “5 २१३ 


वॉयलिन, बेला उत्पत्ति, बेला के विभिन्न भाग २१४ 
तार मिल्लाना “: है | २१४५ 
इसराज, मुख्य अंग, तार, परदे, बांसुरी २१५-२१६ 


यन्त्र वादकों के गुण दोष स्श्८ 
सद्भीत विद्वानों का संज्षिप्त परिचय-- 
जयदेव कं २१६ 
शाक्ध देव, अमीर खुसरों २२० 
गोपाल नायक *- 3 २२१ 
स्वामी हरिदास **- आकर “* श२२ 
तानसेन हक “** २१२१३ 
बेजुबावरा, सदारंग-अदारंग न २२५ 
बालकइष्ण बुवा ( इचलकरंजीकर ) २२६ 
रामकृष्णु व्के “* शा *** २२७ 
अब्दुल करीमखां, हक. +४ 5 “शरद 
इनायतखां दम शभ्र६ 
भातखंडे, विष्तुदिगम्बर  *** “** रर६ 


२०० रागों का शास्रीय विवरण. *** २३० 


निकलना... समजाधाचशरनथ, 'करम)कर+क 4पमम&फरमपकम-.. 


. संगीत विशारद. 


- * ६ 


'यह भी प्राय: देखा जाता है कि उनके अन्दर. « 


ह संगीलज्ञ बचने के उच्दार् 


( १ ) पुस्तकालय ओर संगीत 


संगीतकार और संगीतज्ञ के लिये पुस्तकालय रखना नितांत आवश्यक है, बिना 
इसके ये दोनों अपनी सांगीतिक प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि नहीं कर सकते | प्रत्येक संगीतज्ञ 
को चाहे वह छोटे ही रूप में क्‍यों न हो, एक लाइब्रेरी अवश्य रखनी चाहिये। साहित्य 
ओर सद्भीत का घनिष्ट सम्बन्ध हे। इन दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता । 
जिस सद्भीत की प्रष्ठभूमि में उच्च रचनाएँ, रम्य भावनाएँ, सुन्दर विचार, रंगीन एवं 
कलात्मक उड़ाने नहीं होतीं, वह सज्जीत शाश्वत एवं अपूर्व नहीं बन सकता। जीवन के 
ठोस तत्वों पर सद्जीत की नींव होनी चाहिये जिससे विश्व को उज्बल आलोक प्राप्त हो 
सके, शक्तिशाली सांगीतिक उत्पादन मिल सके; सन्नीत की उच्च कोटि की अभिव्यक्ति 
अपने सुन्द्रतम रूप में प्रस्तुत हो सके ओर सल्लीत का स्वरूप पुष्टिकारी होकर विश्व को 
सम्मोहित कर सके । अतः आपका परम कवतंव्य है कि सद्भीत की किसी भी उपयोगी 


पुस्तक को हाथ से न निकलने दें ओर उसे खरीदकर अपने पुस्तकालय का उपकरण बनायें । 


अवकाश के समय आप इन पुस्तकों का मनन कर सकते हैं। आपको यह स्मरण रखना 
चाहिये कि आपको सद्भीत का केवल व्यवहारिक ज्ञान ही कुशल सद्गभीतज्ञ नहीं बना सकता 
जब तक कि आपको सहन्नीत का पूर्णरूपेण शास्त्रीय ज्ञान न हो। यह शाब्लीय ज्ञान 
अध्ययन से ही अजित किया जा सकता है । व्यवहारिक ज्ञान का विकास शाश्रीय ज्ञान 
पर ही आधारित हे। जितना आपका शाख्रीय ज्ञान विकसित होगा उतना ही अधिक 
आपका व्यवहारिक ज्ञान परिपुष्ट होगा । जो व्यक्ति प्रमादी हैं और विधिवत अध्ययन नहीं 
कर पाते, उनकी सांगीतिक प्रतिभा भी अधूरी रह जाती है। सद्नीत की सफलता केवल 
वही नहीं हे जो आपको सल्लीत प्रदर्शित करते समय श्रोताओं द्वारा तालियों की गड़गड़ाहूट 
के मध्य प्राप्त होती है। यह वालियों की गड़गड़ाहुट की ख्याति तो क्षणमंगुर होती है, 
इसमें स्थायित्व नहीं होता, यह केवल चार दिनों की चांदनी के समान होती है। अतः 


यह कला को ऊपर नहीं उठा सकती | इसके लिये आपको सल्लीत साहित्य का पूर्ण अध्ययन 
करना पड़ेगा । 


अध्ययन करते समय अपना दृष्टिकोण संकीर्ण न बनाइये। आपको प्रत्येक पुस्तक 
को चाहे वह भारतीय लेखक की हो अथवा विदेशीय लेखक की, मनन अवश्य करना 
चाहिये। आप इस तथ्य को हमेशा याद रक्खें कि प्रत्येक भाषा में सुन्दर कलाकार हो 
गये हैं, अतः अपने दृष्टिकोण को उदार बनाते हुए आप जो अध्ययन करेंगे उससे आपका 


' , ज्ञान सर्वोन्मुखी होगा। आपके संब्लीत की प्रष्ठभूमि उदार ओर गम्भीर बन जायेगी । 


हमारे यहां के अधिकांश सह्नीतकारों में यह अभाव पाया जाता है। हमारे भारतीय 
सन्नातकार अधिकतर अशिक्षित हैँ, वह अध्ययन की ओर से उदासीन हैं, अतएव उनका 
ज्ञान सीमित दायरे में रह जाता है । वे फिर सड्जीत की दोड़ सें विशेष आगे नहीं बढ़ पाते। 


ह मई ना 


श्र # सद्भीत विशारद # 





को शाश्वत नहीं वना पाते और न लोकप्रिय ही बना पाते हैं। सद्भीत को फ्िस प्रकार 
शुलदस्ते के समान काट-छाटकर दुरुस्त किया जाये, ऊैसे उसको विकसित किया जाये, 
कैसे एक रूप में अनेक रूपों का समन्वय किया जाये कि जिसमे उसकी मौलिकता नष्ट न हो, 
कैसे विभिन्‍न तथ्यों का एडीकरण करके उनमें अनुरुपता लाई जाए, कैसे उसके विभिन्‍न 
रूपों को एक सूत्र में पिरोया जाये, किस प्रकार प्राचीन और नवीन पद्धतियों एवं शैलियों 
को आधुनिक साचे में ढालफर उनका जीवन बढाया जाय और फ़िस प्रकार एक राग में 
से अनेक राग निकालें जाये, आदि अनेक समस्याऐ हैँ, जिन्हें वर्तमान सद्जीवफार सुलमाने 
में घबरा जाता है । इन सब सागीतिऊ समस्याओं को वही सकन्नीतत सुन्दर ढग से सुलमा 
सत्ता दे जिसने सन्नौत के मूल तत्वों का भली भाति अध्ययन जिया दै, जो प्रमादी 
नहीं दे, जो प्रत्येक सब्लीव की पुस्तक को पढने के लिये सेव तैयार रहता है. और उसके 
अनुकूल आचरण भी करता है। आपकी छोटी-मोटी लाइब्रेरी आपकी दिशा में बहुत 

सह्दायता फर सऊती है, वर्ते कि आपके अन्दर सफल सन्नीतत बनने फी पूर्ण इच्छा हो । 
मान लीजिये, आपकी आर्थिक स्थिति आपको कोई भी पुस्तक खरीदने के लिये अनुमति 
नहीं देती तो फिर आप उस अवस्था में हाथ पर हाथ रक्से मत बैठे रहिये, अपितु किसी 
सार्वजनिक पुस्तकालय में जाऊर अपनी इन्छित पुस्तकों की सरोज फरिये ओर मिल जाने 
पर उसऊा अध्ययन कीजिये । जो व्यक्ति सफल सल्लीतज्न बनने का टढ सकलल्‍्प कर लेगा, 
उसे आर्थिक बाधायें कभी नहीं रोक पाती । 


मद्डीत का आदशे हे, ज्ञान के सुनहले रत्नो को एकत्रित करके जाज्वल्यमान प्रासाद 
का निर्माण करना उसका आदशे है सा्वमोमिफ मानव जीवन फा एक्य एवं सगठन । 
सन्नीतज्ष को ऐसी सागीतिक रचना रूजन करनी चाहिये जो प्रान्तों एबं देश की सीमाओं 
की विभिन्‍नताओं के रहते हुए भी एक अव्यक्त सूत्र में मानव द्वित तथा महयोग के विसरे 
हुए पल्लबों का बन्दनचार शिव ओर कल्याण की भावना से कला मन्दिर के चारो ओर 
चाध सकने योग्य हो। इस रम्य आदर्श की पूर्ति तभी द्वो सऊती है, जव॒क्ति आप अपने 
शास्त्रीय ( थ्योरिटीफल ) ज्ञान की अमिवृद्धि ऊरेगे। तभी आपका सद्भीत शाश्वत जीवन 
का आऊाश दीप बन सकेगा । तभी आप ऐसे सगीत का खजन कर सकेंगे जो हमारी 
टोष्टि को सर्वव्यापी चना सझे | सफीर्णता के घने कुहरे को काट सफे । आज हमारे सामने 
एक ही ध्वन्ति, एक ही रूप, बतले हुए सुन्दर आजऊारों में रक्सा जाता है। एफ ही रचना को 
या एक ही राग को विभिन्‍न प्रकार के रग-चिर्गे परियान पहिराय जाते हैं, जैसे विभाकर 
की एक दीप्त रक्ति यातायन के रगीन शीशो से प्रमूत होकर अवनि के विशाल अश्वल पर 
इन्द्र धनुष अऊित कर रही हो, जिसमें कोई स्थायित्व नहीं होता, जिसमें आयी को 
चौंधियाने वाली चमक तो अवश्य होती है लेकिन आत्मा जो आलोकित करने वाला 
टिव्य तेज नहीं । सन्लीतफारों को यह परिस्थिति चास्तविऊ ज्ञान के अभाव में हो गठ है । 
'इधर हमारे सगीतञ्ञ अपने वास्तविक लान के अभाव में छुछ इधर-उथर भटऊ गये है 
और इन भटके हुओं का झुझाय पश्चिमी सगीत की ओर हो गया है। परश्चिस के 
यथार्थवार सागीतिक साहित्य ने हमारे सागीतिक व्यक्तित्व को प्रन्छुन्न कर ही लिया है, 
किन्तु साथ ही हम सगीत की विभिन्‍व मर्यादाओं को लाघरूर उच्छुन्यल्ता के विशाल 
सरझडहर में भी जा गिरे, इसलिये हम राष्ट्र, वर्ग सम्प्रदाय में प्रेम के सरस गीतों को गु जित 
न कर मऊ और ने हम आज को स्ोतिझुता के दामन से स्वार्थ एय स्प्धों के अस्तित्व को मिटा 


७.5८ “ 5 »कू व्यू» कक “ह॥ छ-+- 


ह # संड्रीत विशारद # १३ 
ला या 0 22333: :/333025532. ००४०६ जल इ आम पल अब कप मम हक पर आ मम 
सके | कहने का तात्पय यह नहीं कि आप अपने संगीत का सर्जन संकीर्णता की परिधि 
में करें, ऐसा अर्थ आप कदापि न लगायें, लेकिन हां, अपनी मौलिकता के स्मृति स्तम्भ पर 
विदेशी भावनाओं की पुष्पांजलि न चढ़ायें। हां, आप अपनी प्रतिभा की उपत्यका में 
सुव्यवस्थित ढड्' से सद्जीत का राग इस प्रकार अलापे कि स्वरल्हरी में भारतीय मभान्‍्कार हो 
ओर उस भन्कार में अन्तर्राष्ट्रीय सज्जीत का समन्वय हो। किन्तु समन्वय करते समय 
आप अपने जीवन की प्रबल धारा को विदेशी धरातल की ओर न मसोड़े', अपितु विदेशी 
जीवन की धारा को आप भारतीयता की प्रष्ठभूमि पर प्रवाहित करना सीखें। दोनों 
धाराओं के समन्वय में भारतीय प्रतिभा सर्वोपारि रहे । यदि आपके अन्दर समन्वय 
प्रतिभा का अभाव है, तो आप विदेशी सद्भीत की ओर कभी न देखिये, क्योंकि दोनों 
धाराओं को मिलाने के लिये बहुत उदच्चकोटि की प्रतिभा की आवश्यकता है, जोकि बिना 
, नियमित अध्ययन के प्राप्त नहीं हो सकती । 





स्वृतन्त्र भारत में सद्भीत का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है, अतण्व आपको अपना 
सांगीतिक ज्ञान अधिक से अधिक मात्रा में बढ़ाना चाहिये। स्वतन्त्र भारत में ज्ञानवर्धन 
की अधिक आवश्यकता इसलिये भी है कि आपको विश्व के राष्ट्रों में अपनी सांस्कृतिक 
कला का प्रतिनिधित्व. करना है | आजकल अन्य राष्ट्रों के सांस्कृतिक मण्डल अपने यहां 
आते हैं और अपने देश के दूसरे राष्ट्रों में जाते हैं। इन शिष्ट मण्डलों का ध्येय तभी 
पूरा हो सकता है, जबकि इनके सदस्य गण उद्च कोटि के प्रतिभाशील हों और वे अपनी 
अपूर्ब प्रतिभा की अन्य राष्ट्र के नेताओं, कल्लाकारों के सन्मुख अभिव्यक्त कर सकें, तभी तो 
५ स्वतन्त्र भारत का सांस्कृतिक गोरव बढ़ेगा | इन्हीं सांस्कृतिक मान्यताओं पर एक राष्ट्र दूसरे 
: राष्ट्र से मेत्री स्थापित करवा है। इसलिये सांस्कृतिक.थाती जिस देश की जितनी उच्च 
होगी, वह देश उतना ही अधिक दूसरे देशों को प्रभावित कर सकेगा। अतः अपने देश 
के सान ओर सयौदा की रक्षा के लिए प्रत्येक सड्जीतकार का पवित्र कर्तव्य है कि वह 
पुस्तकालय रग्बने की आदत डाले । 


(२ ) स्वर विज्ञान ओर सड़ीत 


स्वर की विभिन्‍न धाराओं को सांगीतिक रूप देने के लिये स्वर की पूर्ण फ्िलोस्फी 
( तत्वज्ञान ) समझ लेना पूर्ण आवश्यक है, क्योंकि बिना तत्वज्ञान के सममे हुए आप 
उसका सांगीतिक रूप सुन्दर ढक्ल से प्रस्तुत नहीं कर सकते । स्वर के उच्चारण में दस 
प्रकार के सोड़ आते है। पहिले सोड़ पर स्वर को श्नै: प्रसारित करना चाहिए | दसरे 
मोड़ पर प्रसारित किये हुए स्वर में गज भरनी चाहिये। तीसरे मोड़ पर गु'जित 
- वायुसण्डल्न सें गीतों के भावों का इस प्रकार सम्पादून करना चाहिए कि प्रत्येक भाव 
स्व॒र की गहराई सें उपयुक्त हो जाय। चोथे मोड़ पर स्वर में घनत्व शक्ति स्थिर करनी 
चाहिए, पांचवें मोड़ पर आरोह के लिये जितना भी अधिक हो सके उतना अधिक स्वर 
को फेलाइये, जिससे सम्पूण आरोह का दबाब पूर्णरूपेणः बैठ जाये। छटवें मोड़ पर 
स्व॒र संधान करके गीत का प्रथम क्लाइमेक्स ( सीढ़ी ) बनाइये, जिससे आप गीत-सौंदर्थ- 
को स्थिर कर सकें और गीत अमिलेखन कर्ता को इतना समय मिल जाये कि वह आपके स्वर 
चित्र को पूर्ण प्रतिलिपि सर सके | सातवें मोड़, पर अबरोह का प्रस्तुतीकरण करके, थोडे से 


१४ # सद्भीत विशारद # 








पर गीत का दूसरा क्लाइमेक्स निर्माण कीजिये, जहा आपको स्वर का घनत्व इतना 
अल्प कर देना होगा, जिससे उसका सागीतिक रूप सुन्दर बन सफे। नें मोड पर स्वर 
में इतने प्रयाह का आविभाव कीजिए कि उसकी गतिशीलता में गीत के भावों को 
स्वाभाविऊ रूप में आगे बढने के लिये स्वस्थ वातावरण मिल जाये। अन्तिम दसवे मोड 
पर स्वर का तीसरा क्लाइमेक्स बनाते हुए आरोह-अवरोह की दोनों गतियों को 
“अल्पीस बिन्दु” पर केन्द्रित कीजिये | ग्राय यह्‌ देखा जाता है कि गायक गीत 208 
स्वर के उपयुक्त रूपो से अनिमिज्ञ होकर गाता है, जिससे उसके गाए हुए गीतों को 
अभिलेसित करने मे अभिलेसन कर्ता को कठिनाई पढ़ती दे) उसकी सहूलियत के लिये 
आपको स्वर उसी दशा में सोडना पडेगा, जैसा फ्रि स्वर को शिल्पक्ञता आपको विवश 
करे। स्वर फी शिल्पज्ञवा की पूरी थ्योरी आपको जाननी चाहिए। यह थ्योरी लगभग 
बही दे जो आपको ऊपर निर्देश कौ जा चुकी है। स्वर विज्ञान की इस व्यापक थ्योरी 
से गाए हुए गीत पर गायक को अधिक परिश्रम एबं सावधानी वरतनों होगी। प्रारम्भ 
में झुछ बाधायें अवश्य आ सऊती हैं, फ्रिन्तु जब वह परिस्थिति कया अभ्यस्त हो जायेगा 
छब उसको यददी कार्य. सरल दो जायेगा । वास्तव में स्वर की अनेऊ प्रक्रियायें हैं, इन 
प्रक्रियाओं की अनेक उप प्रक्रियाये भो हैं। जिनमें से मुस्य यह हैं--“कौवल्य” 
“चोणेल्य” ' माणील्य”? । “कीवल्य” सें स्वर का अद्ध' घनत्व होता है। “चीणेल्य” 
में स्वर का पूर्ण घनत्व चनरूर रुपये जैसी टकार होने लगती है, जिमसे स्वर में स्पष्टता, 
स्वच्छ॒ता पूर्ण रूपेण आ जाती दे और “माणील्य” में स्वर के तीन सयुक्त धुमाव॑ द्ोते हैँ, 
जिनकी आप दीपक राग मे सुगमता से अभिव्यक्त कर सफते हैं। साणील्य का प्रयोग 
विशेष रागों में द्वी होवा दै, हर स्थान पर लागू नहीं हो सकता । 


(३ ) गोष्टियां ओर सड़ीत 


सागीतिक जीवन को प्रभावशाली एप गौरबपूर्ण बनाने के लिये गोप्ठियों का 
भी अपना भूल्य दे। इनके अभाव में सद्लीतकार की प्रतिभा ऐसी मालूम पढ़ती दे मानो 
किसी सरोवर को चारों तरफ से सीमित कर दिया गया हो, तथा जिसमें पानी के वद्धाव 
का कोई साधन न दो और न पानी के आने का। तो बन्द पानी की क्‍या दशा होगी ? 
यही कि वह छुछ दिलों में सढ़ जायेगा ओर उसमें बढयू पैदा हो जायेगी | इसी प्रफार 
आपका भी यही द्वाल द्वो सकता है, यदि आप अपनी गतिशीलता को सीमित करके चारों 
तरफ के आवागसन से उसे अवरुद्ध कर लेंगे, तो फिर आपके अन्दर प्रवाह नहीं रहेगा 
और जब मनुप्य की प्रतिभा का प्रवाह समाप्त हो जाता है, तो फिर वह पतन के गये में 
गिरता चला जाता है और एक दिन वह सम्पूर्ण रूप से गिर जाता है। फिर वहा 
से उठना असम्मव सा हो जाता है। गोष्ठिया जीवन के माड-मक़ाडों का विनाश 
फरदी हैं और जो जड़ता का कुद्दरा जीवन के इर्ट गिई आच्छादित हो जाता है, उसको 


है ७९ “मे हैं. तथा जीवन को उत्साह, स्फूर्त और नवीन भावनाओं से परिपूर्ण कर 
तीद। 


गोष्ठियों सद्गीतकारों के लिये विशेष उपयोगी हैं, क्योंकि इन गोष्ठियों के अवसर 
पर अनेऊ फलाऊारों का मिलन दोवा है, विचार विमर्श होता है और द्ोता है कला का 


“22:56 पुल ता ल्आ्छूट ता गाचूजनाभा जातक 


# सद्भीत विशारद % १४ 





परस्पर आदान प्रदान | जिससे सद्भीतकारों के वातावरण में एक नूतन चेतना का सूजन 
हो जाता है जो कि उनके विकास का प्रतीक बनती है। सद्भीतकारों को गोष्ठियों में गाने 
सें बिल्कुल संकोच नहीं करना चाहिये, यदि थे संकोचवश उनमें शामिल नहीं होते तो उनके 
सांगीतिक ज्ञान की परिधि सीमित रह जायेगी। सफल सड्जीतज्ञ के लिये समय-समय पर 
गोष्ठियों में भाग लेते रहना उसके विकास का प्रकाश दीप है | ब्रिटेन के विख्यात सद्भगैतज्ञ 
मिस्टर इंलविन उल्फ ने सफल सद्भीतज्ञ बनने के उपकरणों में लिखा है:--“े व्यक्ति 
सौभाग्यशाली हैं जिनको अधिक-से-अधिक गोष्ठियों में शामिल होने का सुअबसर प्राप्त 
होता रहता है, क्यग्रोंकि उनके जीवन का विकास कला की सही दिशा की ओर होगा । वे कला 
के शाश्वत स्वरूप का निर्माण करने में पूर्ण सफल होंगे, वास्तव में गोष्टियाँ सद्गजीतज्ञों के लिये 
संजीवनी शक्ति कही जांय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । विश्व के अनेक सद्बीतज्ञों ने सिर्फ 
गोष्ठियों में शामिल होने के बल पर ही सज्भीत के क्षेत्र में सफलता उपलब्ध की है, जैसे- 
मलाया के मिस्टर थीवन्स, न्यूयाक के मिस्टर रेडयोट और स्वीडन के मिस्टर प्रीनविस । 
लेकिन इन गोष्ठियों में आपको स्पष्ट हृदय एवं खुली हुई आँखें द्वारा जाना चाहिये, ताकि 
आप वहांके महत्वपूर्ण सांगीतिक उपादानों एवं वातावरण को प्रहण करने में पूर्ण सफल हों | 
सिफ़ शामिल होनेसे ही काम न चलेगा, जबतक कि आप सतक होकर हर चीज़ को अवलोकन 
करके प्राप्त न करेंगे, तब तक नग्न हृदय एवं सस्तिष्क से जाकर कुछ भी लाभ नहीं हो 
सकता ! और फिर एक सद्लीतज्ञ को तो और भी सतर्क एवं तीज्र बुद्धि का होना चाहिये 
ताकि वह सद्लीत की श्रत्येक हलचल को, श्रत्येक चहल-पहल को सुगमता से पकड़ सके । 
अगर आप सफल सज्लीतज्ञ बनना चाहते हैं तो आपको समय-समय पर गोष्ठियों में अवश्य 
सक्रिय भाग लेना होगा । 


ओर देखिये फ्रान्स के महान्‌ कलाकार मिस्टर वानडीविस क्‍या कहते हैं:--.“जब 
सांगीतिक ऋखला में अस्त-व्यस्तता आ जाती है, जब सांगीतिक जीवन विश्व खत्न हो 
जाता है, और नव सांगीतिक तथ्यों में परस्पर एक सूत्रता नहीं रहती, तब यद्द गोष्ठियाँ 
सन्नीत के रूप में अनुरूपता लाती हैं और उसको मनोरम बनाती हैं। जिस प्रकार बिना 
लहरों के सागर का सोन्दर्य तुच्छ है क्योंकि बिना लहरों के सागर में गतिशीलता नहीं रहती, 
जो कि उसका जीवनहै; ठीक इसी प्रकार गोष्ठियां सद्जीतकार के विशात्न जीवन में लहरों के 
समान हैं जो उनके जीवन में प्रवाह लाती रहती हैं | बिना प्रवाह के जीवन का क्‍या मूल्य 
प्रवाहपूर्ण जीवन ही जीवन है । 


इन गोष्ठियों को आप सज्लीतकारों के जीवन का “मार्ग-चिन्ह” भी कह सकते हैं, 
क्योंकि यहीं से उनको अपनी कला के सन्तुलन का सही पता चलता रहता हे, क्योंकि यहाँ 
उनको कला कसौटी पर चढ़ाई जाती है, ओर तब पता लगता है कि उनकी कला ओजपूर्ण है 
अथवा नहीं। कसौटी पर चढ़ने के बाद ही किसी चीज़ के खरे-खोटे का ज्ञान हो सकता 
है, उससे पूर्व नहीं। जब आपको अपनी कला की परख पूर्ण रूप से ज्ञात हो जाये, तब 
आप अपना सही क़द्म उठा सकते हैं और फिर आप कला की सही दिशा की ओर बढ़ 
सकते हँ। गोष्ठियों से कला का परिष्कार एवं सुन्दरतम रूप निर्मित होता रहता है। 


कितने 


गो कक में 
------ यों में शामिल न होने से आपको यह नहीं मालम पड़ सकता कि., आप क्रित को 


१६ # संगीत विशारद # 








सकता है। चह्दा आपको कुछ मौलिक सुकाव भी मिल सकते हैं। लोकप्रियता एय कीर्ति 
का 5पार्जन बिता गोष्ठियों के नहीं हो सकता | कल्लाफार कला की साधना जन-समाज फो 
नये सन्देश प्रदान ऊरने के लिप्रे ऊरता है। अगर आप इन सागीतिक उत्सवों में शामिल नहीं 
होंगे तो अपने नय-सन्देश को जनता-जनादन तऊ फैसे पहुँचा सकते हैं और कैसे सामान्य 
लेग आपऊी ऊला से लाभ उठा सफते हैं? लाक-जीयतन को सुन्दरतम बनाने में भी यह 
गोप्ठियाँ पूर्ण योग देती हैं। जहा ये कलाकारों को सफलता की देदीप्यमान मज़िल की 
ओर प्रेरित करती हैं, वहा दूसरी ओर यद्द यद्द लेक जीवन में भी आशा और विश्वास का 
नवीन प्रकाश फैलाती हैं और उनके अन्यफार को नप्ट करने में भी पूर्ण योग देती हैं। 
सद्ठीत की अभिवृद्धि में गोष्ठियो का अपरमित मूल्य है, जिसका हम सहज में अकन नहीं 
ऋर सकते। 


अन्त मे आपसे असुरोव है कि सकल सडद्ठीतज्ञ बनने के लिये “पुस्तकालय, और 
भद्गीत” का ध्यान रसिये और फिर गोप्ठियाँ और सड्जीत जो अनुपातिक ढंग से अपनाने में 
सक्रिय ऊदम उठाइये !' “स्पर-विज्ञाल” फा समझना भी अनिवार्य है, यह तीनों तथ्य 
सद्ठीतञ्ञ के लिये महान पुष्टिफारी एवं शक्तिशाली हैं तथा जीवन ऊो प्रदोप्त करने वाले हैं । 





१७ 
भारतीय सन्नलीत का इतिहास 


० /९/९/७ ९े/%/३/थ६७/९७१७१३३७-० 


सद्जीत कल्ला की उत्पत्ति कब और केसे हुई ? इस विषय पर विद्वानों के विभिन्‍न 
मत हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख इस प्रकार हैः-- 


(१ ) सज्ञीत की उत्पत्ति आरम्भ में वेदों के निमाता त्रह्माजी द्वारा हुई। ब्रह्माजी ने 
यह कला शिवजी को दी और शिव के द्वारा देवी सरस्वती को प्राप्त हुई। सरस्वती जी को 
इसीलिए “बोणा पुस्तक धारिणी” कहकर सद्भजीत और साहित्य की अधिष्ठात्री माना है । 
सरस्वती जी से सद्जीतकला का ज्ञान नारद जी को प्राप्त हुआ, नारद जी ने स्वर्ग के गन्धब्रे, 
किन्नर एवं अप्सराओं को सल्जीत शिक्षा दी। वहां से ही भरत, नारद ओर हनुमान आदि 
ऋषि सड्जीतकला में पारंगत होकर भू-लोक ( प्रथ्वी ) पर सद्जीतकल्ा के प्रचारार्थ 
अबतीर्ण हुए । 


(२ ) एक ग्रन्थकार के मतानुसार, नारद जी ने अनेक वर्षो' तक योग साधना की 
तब महादेव जी ने उन्त पर प्रसन्‍न होकर सद्भीत कला प्रदान की | पावंतीजी की शयन-सुद्रा को 
देखकर शिवजी ने उनके अद्भ-प्रत्यंगों के आधार पर रुद्र वीणा बनाई और अपने पांचों 
मुखों से, पांच रागों की उत्पत्ति की | तत्पश्चात्‌ छटा राग पाती जी के श्री मुख से उत्पन्न 
हुआ । शिवजी के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ओर आकाशोन्मुख से क्रमशः भरव, हिंडोल, 
सेब, दीपक ओर श्री राग प्रकट हुये तथा पाबेती द्वारा कौशिक राग की उत्पत्ति हुई | “शिव- 
प्रदोष” स्तोत्र में लिखा है कि तीन जगत की जननी गोरी को स्वर्ण सिहासन पर बैठाकर 
प्रदोष के समय शूलपाणी शिव ने नृत्य करने की इच्छा प्रकट की। इस अवसर पर सब 
देवता उन्हें घेर कर खड़े हो गये और उनकी स्तुति गान करने लगे। सरस्वती ने वीणा, 

इन्द्र ने बेणु तथा ब्रह्मा ने करताल बजाना आरम्भ किया, लक्ष्मी जी गाने लगीं और 
विष्णु भगवान मृदड्गा बजाने लगे । इस नृत्यमय सद्जीतोत्सव को देखने के लिये, गन्धव, यक्त 
* पतग, उरग, सिद्ध, साध्य, विद्याधर, देवता, अप्सरागण आदि सभी उपस्थित थे | 

( ३ ) सद्नीत दर्षण के लेखक दामोदर परिडत के मतानुसार भी सद्भित की उत्पत्ति 

त्रद्माजी से ही आरम्भ हो ती है । उन्होंने लिखा हैः-- 


द्रृहिणेत यदन्विष्टं प्रयुक्त भरते न च । 
महादेवस्यप पुरतस्तन्मागांख्यं विमुक्तदम्‌ ॥ 


अथात्‌--्रह्माजी ( द्रहिण ) ने जिस सज्जीत को शोधकर निकाला, भरतमुनि ने 
महादेव जी के सामने जिसका प्रयोग किया तथा जो मुक्तिदायक है बह मार्गी सद्भीत 
कहलाता है | 


इस विवेचन से प्रथम मत का कुछ अंशों में समर्थन होता है। आगे चलकर इसी 


श्द # संड्रीत विशारद # 








मे।र से पडज, चातक में रिपम, वऊरा से गाघार, कौवा से मध्यम, कोयल से पंचम, 
मेंढक से धेवत और हाथी से निपाद स्वर जी उत्पत्ति हुई । 


(४) फारसी के एक विद्वान का मत दे कि हजरत सूसा जब पहाड़ों पर घृम-घूमऊर 
बहा की छटा देस रहें थे, उसी वक्त गेव से एक आवाज आई ( आकाशवाणी हुई ) कि “या 
मूसा हक्‍कीफी तू अपना असा (एक अख्ध जो फरझीरों के पास होता है ) इस पत्थर पर 
मार !” यह आवाज सुनकर हजरत मूसा ने अपना असा जोर से उस पत्थर पर मारा तो 
पत्थर के ७ ठुकडे होगये और दरएक टुकडे में से पानी की धारा अलग-अलग बहने 
लगी, उसी जल धारा की आवाज़ से अस्सलामालेक हजरत मूसा ने साव सुरों की रचना 
की, जिन्हे सा रे गम प व नि कहते हैं ! 

(४ ) एक अन्य फारसी विद्वान का थन है ऊ़्रि पहाड़ों पर “मृसीकार” नाम का 
एफ पक्षी हवाता है, जिसकी नाऊ में ७ सरास बासुरी की भाति होते हैं, उन्हीं ७ सूरासे से 
७ स्वर इजाद हुए । 


(5 ) पाश्चात्य विद्वान फ्रायड के मतानुसार सब्नीत की उत्पत्ति एक शिशु के समान 
मनोविज्ञान के आधार पर हुई, जिस अक्रार एक बालक रोना, चिल्लाना, हसना आदि क्रियाये 
मनोविज्ञान की आवश्यकतानुसार स्वय सीस जाता है उसी प्रकार सड्जीत का प्राहुर्भाव 
मानव सें मनोविज्ञान के आधार पर स्वय हुआ । 

(७ ) जेम्स लोग के मतानुयायिओ्रों का भी यही कहना है क्रि पहिले मनुप्य ने 
बेज्नना सीग्या, चलना फिरना सीसा और फिर शनें -शने क्रियाशील द्वा जाने पर उसके 
अन्दर सन्लात स्वत उतन्‍्न हुआ। 

इस ग्रफार सब्बौत की उसत्ति के विषय में विभिन्‍न मत पाये जाते हैं। इनमे कौनसा 
मत ठीऊ है, यह कहना कठिन ही है, अत सद्ठीतकला का जन्म कैसे हुआ, कब हुआ ? इस 
पर अपना कीई निर्णय न देकर हम आगे बढना ही उचित सममते हैं -- 

प्राचीन भ्रथों से सन्नीत के चार सुरय मत पाये जाते हैँ (१) शिवमत या सोमेश्वर 

मत (० ) क्षप्णम॑तत या कल्लिनाथ मत (३ ) भरत मत और ( ४ ) हनुमत मत । 


सद्जीत के इतिहास का काल विभाजन 


भारतीय सड्डीत के इतिहास को निम्नाक्रित ४ भागों से विभक्त किया जा समता है । 
(१) अति प्राचीन काल ( वैदिक काल ) २००० ईसा पूर्व से १००० इंसा पूरे तक । 
(२) प्राचीन काल--वैदिक सास्कृतिक परम्परा समाप्त हो जाने के बाद | १००० 
इंसापूर्व से, सन्‌ ८5०० ई० तक । 
(३ ) मध्यराल ( मुसलिम काल ) ८०५ ई० से १८०० ई० तक | 
*- (४) आधुनिक काल ( अग्रेजी शासन काल ) १८०० डे० से १६४० ३० तक। 


#- संगीत विशारद # १६ 





१ ) अति प्राचीन ( बदिक ) काल 


[ २००० ई० पूर्वी से १००० ईसा पूरब तक ] 


॥ 


/++++ ++++++++++++: 
३ उछ  र७.. 


£ बेदों में $ इस वैदिक काल में सद्भीत का प्रचार था, इसका प्रमाण हमें 
ः सद्बीत ; वेदों से भ्नी प्रकार मिलता हे । ऋग्वेद में मदक्भ, वीणा, वंशी, डमरू 


क%+ +++ ९++++*++++ 


आदि वाद्य यन्त्रों का उल्लेख मित्नता है ओर सामवेद तो सद्जीतमय है ही। 
कहा जाता है कि सामगान में पहले केबल ४ स्वरों का प्रयोग होता था जिनको उदात्त, 
अनुदात्त ओर स्वरित कहते थे। आगे चलकर एक-एक करके स्वर और बढ़ते गये और 
इस बेदिक काल में ही सामगान सप्त स्वरों में होने लगा | इसका प्रमाण “सप्त स्वरास्तु 
गीयन्ते साममि: सासगैबु घे:” साण्ड्ूकशिक्षा की इस पंक्ति से भी मिलता है। 


पाणिणि शिक्षा तथा नारदीयशिक्षा में निम्नलिखित श्लोक मित्रता है, जिसके 
आधार पर सप्त स्वर उनके उदात्त अनुदात्त ओर स्वरित के अन्तर्गत इस प्रकार 
आते थे; -- 
उदाच निषादगान्धारी अनुदात्त रिपभधेवतों । 


स्वरित प्रभवा ह्यते पंडजमध्यमपंचमा ॥ 
अर्थात्‌ 


उदात्त-+++++ अनुदात्त------ स्वरित 
निग ० रेध ० समप 


याज्यवल्क शिक्षा में भी इसी प्रकार का वर्गीकरण मिलता है। वैदिक काल में 
सद्भीत गायन के साथ-साथ नृत्यकल्ा भी प्रचलित थी, इसका प्रमाण ऋग्वेद ( ४।३३॥६ ) 
में आया है “नृत्यमनों अम्ृता”। लिंग पुराण के अनुसार शिव के प्रधान गण 
नान्दिकेश्वर थे । इन्होंने भरतार्णव नामक एक विशाल ग्रंथ नृत्यकल्ा पर लिखा था। बाद 
में इसका संन्षिप्तीकरण “अभिनय दर्पण” सें हुआ। नृत्य करती हुई अनेक प्राचीन मूर्तियां 
भी इसका प्रमाण देती हैँ कि बेदिक काल में नृत्यकत्ना प्रचलित थी। देवताओं द्वारा 


सोमरस पान करके नृत्य करने की प्रथा से भी सद्जीत ओर नृत्य की प्राचीनता का 
समर्थन होता हे । 


(२) प्राचीन काल 


[ १००० ईसा पूर्व से सन्‌ 5०० ई० तक ] 


घ्ड /72 आल बं४ 4 


पौराणि ; इस समय का पूर्वार्ध भाग अर्थात्‌ १००० ईसा पूर्षे ईसवी 
ओऔर : पके का समय पौराणिक ओर बोद्धकाल के अन्तर्गत आता है। इस काल 

$ बौद्धकाल ; में सल्लीत का प्रचार किस रूप सें रहा ? इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं 
5++++++++००++६६६ मिलता, किन्तु उपनिषद्‌ तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर इतना कहा जा 
सकता है कि इस काल में सी सन्नीत किसी न किसी रूप में चालू अवश्य रहा | इसके 
बाद अथाोत्‌ १ ई० से ८०० ई० तक सल्जीतकला प्रकाश में आई। इसी काल में भरत ने 


न्‍ 


२० *# संगीत विशारद ३६ 








“ज्ञादटयशास्त्र” नामऊ प्रसिद्ध ग्रन्थ का निर्माण झिया एवं अन्य अन्थ भी इस काल में लिखे 
गये। भरत के नादयशास्र से प्रेरणा पाऊर ही इस काल में नाट्य और नृत्य का तिशेष 


प्रचार हुआ। एवं इसो काल में ३ ग्राम, २१ मूछना, ७ स्थर और २२ अतियों फ्री अ्र॒णाली 
का चर्सान भी सल्नीत ग्रन्थों में किया गया | 


| 
| 


द्रव 
रा 
2 | 
हित! 

॥ ++०+++++++*४] 


इसी फाल में महाऊवि कालिदास (४०० ई० ) द्वारा सब्नौत 
ओर कविता का प्रचार चारो ओर हो चुका था। राज दरवबारों में 
७ ७ गायक-वादक सम्मानित होने लगे थे। कालिदास ने अपनी रचनाओं 
में सड़ीत का पुट देफर आश्चर्यजनक प्रगति की। उस समय कपिता ओर सल्लीत के 
समिश्रण से सद्दीत में एफ नई चेतना जाग्रृत करने का श्रेय मह्दाऊवि फालिदास को ही दे । 


रामायण 
ओर 


महाभारत 


ञ 
थ्? 
[| 
व 


(॥२३३३२०+२३९++। 








हमारे प्रसिद्ध भ्रथ रामायण ओर महाभारत भी इसी काल में लिखें 
गये ! अर्थात्‌ महाभारत का काल ४०० ईसा पूर्त से २०० ईसरी तक 
ओर रामायण काल ४०० ईसा पूर्वा से २०० ईसवी तक का माना 
जाता है । 


रामायण में एक वर्णन के अनुसार--जय लक्ष्मणजी सुग्रीव के अन्तर महल में 
प्रवेश फरते हैं, तो बह्या वीणा बादन के शुद्ध गायन सुनते हँ। रावण को भी सब्यीत- 
शास्त्र का प्रकाड विद्वाम बताया गया है। इसी प्रसार महाभारत में भी सात स्वरों का 
तथा माधार ग्राम का वर्णन मिलता दूँ । इन दोनों ही ग्रन्थों मे सड्ीत तथा वाद्य यन्त्रों का 
विशेष उल्लेस मिलता दे। भेरी, ढुन्दुमी, मदद, घट, डिमडिम, मुद्दुक, आदम्बर, 
वीणा आदि वाद्यों का उल्लेस हम रामायण में देसते द्वी हैं ।इससे विदित होता दे कि 
महाभारत और रामायण काल में भी मन्नौतकला प्रचार में रही । 


.++९+++ ||) 


॥। 





३३% +९+३+६०++++६) 





ड 3. भरत का नाटयशात्र ४वीं शताब्दी (४००-४०० ६०) की 
£$ भरत ४ मानी जाती है। ी 
ई का $ रचना मानी जाती हूँ। यथ्परि यह एक नाटकीय ग्रथ है, विन्‍्तु इसके 
ई #८-२६ ओर ३० चे यो में सम्बन्धी शा 

$ लाद्यशास्र ३ र ३० थे अध्यायों में सन्नोत सम्बन्धी शास्त्र दिया गया है, 


ई....०-०००«*+०# जिसमें गायन चादन, नृत्य, छ॒ति, स्तर, ग्राम, प्रच्छना और जातियों का 
डल्लेस है | नाट्य भी नृत्य भेणी मे आ जाने के कारण यह समूचा अथ ही सब्बीतकत्ञा 


के अन्तर्गत आ जाता है | आज भी नादूयशास्र प्राचीन फाल के सद्नोतत का एक आधारभूत 
प्रथ माना जाता दै। 


इसी समय के आस-पास भरत के पुत्र उत्तिल द्वारा लिसित “दत्तिलम” म्थ का 
इल्लेस भी मिलता है। यह ग्रथ भी पाचवों शताब्दी के उत्तराधे का माना जाता है। 
इसमे प्रतिपादित सत लगभग भरत से मिलते: 


म -जुलते हैं। दत्तिलम में मर्च्छना की 
परिभाषा नहीं दी गई, जब कि मरत के नादयशाखत्र मे दी गई है । हे 


£ सतह का . जैंटी शताछदी के समय में मतड़् सुनि प्रणीत बृहृद्देशीय अन्य 
बहदूदेशीय ! मि 


लता दे, जिसमें प्राम और मृच्छीना का विस्तृत रूप से उल्लेस किया 
अन्ध ६ गया है। सर्च अथम “राग” शब्द का उल्लेस भी इसी प्रथ में पाया 
5+«+;००77०% जाता है। इससे पूर्व के अथों में राग शब्द नहीं मिलता । मत के समय 


में ७ प्रकार की ग्राम जातिया प्रचलित थीं, जिनमे एक “बढ” राग की जाति भी है। 


ई 
ई 
ह 
हि 


# संगीत विशारद # २१ 


जातक बाकाशया: 2 दशरथ दलाल पक्रसासप7 लय +भद शा का यप कद पका तक उबर उपत 5 पक्का धान इनका मारता तक तप पप्क नस फता भतार ५2 पार काफल+ दल बदतर माााटन 5 उासए री से 





2:+4+++++++++३++++++++++++स्से 7 


$ नारद कृत सातवीं शताब्दी के लगभग “सारदीय शिक्षा” नामक एक 
ई म प्रन्थ नारद का लिखा हुआ मिल्नता है । यहां पर पाठकों को यह 
ई नारदीय शिक्षा न े पे ने जे 60 
६<:4++%++++++++१++++++++++++ <> बता द्ना भी उचित हागा कि यह व्‌ सीारद्‌ नहीं हर | दर्वाष 
हट हक हे च् थ ७० 
नारद के नाम से प्रसिद्ध थे, वरन्‌ यह अपने समय के दूसरे ही नारद है। इस ग्रन्थ में भी 
सामवेदीय स्व॒रों को विशेष य स्व॒रों को विशेष महत्व देते हुए ७ ग्राम रागों का वर्णन किया गया है, जिनके 
नाम इस प्रकार हैः-- धआ न 
५3 कि 





जि कि जा... ४४4 कि 0 
१ षांडव, २ पद्मम, ३ मध्यम, ४७ षड़जग्राम, £ साधारिवा, ६ केशिकमध्यम और 
७ सध्यस ग्रास । हि 


सातवीं और आठवीं शताब्दियों में दक्षिण भारत सें भक्ति आन्दोलन का विशेष 
जोर रहा, अतः भक्ति ओर सज्गजीत के सामंजस्य द्वारा जगह-जगह कीतेन और भजन 
गाये जाने लगे, इस प्रकार धार्मिक भावना का बल पाकर इस काल में सन्लनीत का यथेष्ट 


प्रचार हुआ । बा आआ फ्रेफ़ा-:कज->7 अर की 
डे ७ >> 5४ ल्केफडफ 


४4 कह, आठवीं शताब्दी में नारद का छ्कृ आर ग्रंथ सड्गेत सकरन्द्‌ 


++++ 


नारद कृत हि २ हर 2. 
4 प्रकाश में आया, जिसमें राग रागनियों की कल्पना पुरुष राग और 
सड़ीत सकरंद * में वि न 
3,,.५५५५५५++०७५+++/० ख््री रागों के रूप में प्रथम बार की गई । कहा जाता है कि इसी के 


आधार पर आगामी गअन्थकारों ने राग रागनी वर्गीकरण किये । 


++++++' 


न्‍वतन«लानन्‍ककी “-+-०-ाय “न सवानाण-2म उलक्न--पमाण, 


( ३ ) मध्य काल ( मुसलिम काल ) 
[ सन्‌ ११०० ई० से १८०० ई० तक ] 


मुसलमानों का आगमन भारत में ११ वीं शताब्दी में हुआ | इसी समय से भारतीय 
सन्नीत सें परिवर्तत आरम्भ हुआ। भारतीय सद्जीत शासत्र ( 7#6097 ) उस समय तक 
संस्कृत भाषा में होने के कारण मुसलमान उसे समभने में असमर्थ रहे, फिर भी गायन 
चादन ( क्रियात्मक सन्चीत ) में उन्होंने अच्छी उन्‍नाति की | नये-नये रागों का आविष्कार 
किया एव तरह-तरह के नवीन संगीत वाद्य बने, जिनका तत्कालीन मुसलिम बादशाहों 
द्वारा आदर हुआ और गायक-बादकों का सम्मान होने लगा । 


इसके बाद १२ वीं शताब्दी में सद्नीत की दशा विशेष अच्छी न रही, क्‍योंकि इस 

| काल में मुहस्मद गोरी तथा अन्य सुसलिसों द्वारा हिन्दू राजाओं से युद्ध होता रहा, जिसके 

कारण देश में अव्यवस्था फेली, अतः सद्भीत प्रचार के मार्ग में भी बाधा पड़ना 
स्वाभाविक ही था । 


६2+३६+%+++९++६+++++++ २ 


जयदेव कृत | १२ वीं शवाब्दी के उत्तराधे में गीत गोविन्द” नासक संस्कृत के एक 
गीतगोविन्द ; असिद्ध ग्रन्थ कौ रचना हुई। इसके रचयिता प्रसिद्ध कवि और सल्लीतज्ञ 
६ ........७५5 जयवेव हैं, जिन्हें उत्तर भारत का प्रथम गायक होने का सम्मान प्राप्त था । 

गीत गोविन्द में राधा-ऋष्ण सम्बन्धी ग्रबन्धगीत हैं, जिन्हें आज भी अनेक गायक 


+६+++$++++ 


२२ # सडद्भरीव विशारद # 








ताल-स्वरो में वाघकर गाते हैँ। जयदेव ऊबि का जन्म वद्भाल में बालपुर के निरूद्स्थ 
केन्डुला नामक स्थान में हुआ था, जहा पर अब भी प्रतिवर्ष सब्डीव समारोह मनाया 
जाता है | १ 


गीत गोविन्द की विशेपता पर मुग्घ होकर सर एडविन आरनॉल्ड ( 5 20जा 
काधा0 ) ने अंग्रेजी में इसका अनुचाद “॥6 ताक 5णाछढ रण 50789” अर्थात 
“भारतीय गीतों के गीत” इस नाम से किया है । 


१३ वीं शताब्दी के उत्तराध में परिडत शाह देव ने “सद्लीत 
रख्नाकर” ग्रथ की रचना की। इसमें नाठ, श्रुति, स्वर, ग्राम, 
मृन्छना, जाति इत्यादि का विवेचन भल्ली प्रऊार फ्िया गया है । 
5 दक्षिणी और उत्तरी सन्नीत विद्वान इस ग्रथ को सद्जीव का आधार 
ग्रथ मानते हैं। आधुनिक ग्रन्थों मे भी सड्जीत रत्नाकर के अनेक उद्धरण पाठकों ने देसे 
होंगे। शह्नदेव ने अपने इस अथ में मतद्र से अधिक विवरण अवश्य दिया है, किन्तु 
सैद्वान्तिक दृष्टि से मत लगभग एक सा है । 


शाह देव का समय १२१० से १२४७ ई० के मध्य का माना जाता है, यह देव- 
गिरि ( दौलतावाद ) के थादव बशीय राजा के दरबारी सड्डीतन्न थे। 


इसके पश्चात ( १४००--१८०० ई० ) सद्लडीत का विकास काल माना जाता है । 

१३ चीं शतान्दी के समाप्त होते द्वी अर्थात १४ वीं शताब्दी के पूर्वार्थ में दक्षिण पर यवनों 

के आक्रमण होने से देवगिरि यादन घश नष्ट हो गया | जिसके फलस्परूप भारत ]र॒तीय सड्गीत 

ओर सभ्यता पर भी यवनों का प्रभाव पडे बिना नहीं रहा। इसी समय मुस्लिमों द्वारा 

फीस्स के रागी का आगमन भारत में प्रारम हो गया। टिल्ली का शासन सुलतान 

अलाउदीन सिलजी के ह्वाथ मे था, इसी समय ( १२६६--१३१६ ६० ) से सड्जीतक्ला 
की विशेष उन्नति हुई । 

त्द्रॉँ 


4 


॥++++९+++++++२+ ९० 
ध्व 
न्दि। 
| 
प्पं 
न्ध 


2 


५ 
र्ड 
क्त। 
सद्भडीतरत्नाफर ३ 


अमीर खुसरो 
का समय 


॥॥ 





इसी समय के लगभग एलजी के दरबार में दज़रत अमीर 
सुमरो नाम के एक प्रसिद् ओर कुशल गायक राज मत्नी थे, 
3. ईन्‍्होंने अनेक नयीन राग, नवीन वाद्य और ताले की रचना को, 
इससे सज्ञीतकला विकास की ओर अग्रसर हुई । इनके विपय से कहा जाता है कि अमीर 
सुसरो ही बह प्रथम तुझे थे जिन्होंने अपने देश के रागों जो भारतीय सड्भीत मे मिलाकर 
एक नयीनता पेढा को। 


फ्द्य जाता है क्लि गोपाल नायक नामऊ प्रसिद्ध गायक भी, इसी दरबार में 
आगया था ओर अमीर खुसरो से उसकी सद्बीत प्रतियोगिता भी इिल्ली में हुई 


अमीस्सुसरो दवारा आविष्कृत गीतो के प्रकार, ताल, तथा साज्ो का उल्लस भी 
यहा पर सक्षिप्त रुप में कर देना अनुचित न होगा --- 


गीतों के प्रकार--गजजल, कव्याली, तराना, खमसा, रयाल | 
कु राग--जिल्फ, साजगिरी, सरपर्दो, यमन, रात की पूर्या, बरारी तोडी, पूर्वी इत्यादि । 


।३+++++++++++ || 


%०३३३+++४++*+॥ 





% सड़ीत विशारद # ५३ 


कि 


जिम बी नकल कल किन कलकिकल कलश की अल लकी ५ 3 3... तनु सुुुु॒॒हबननादशाधाकााकताकाककामााानभभभाााा 


_उरााधाधााालाधााााा्रधााधााााानना न काका कक कथा कक कमाए काक कक कप फ--_स_>+_-___++_ 


तालें--कूमरा, आड़ा चौताला, सूलफाक, पश्तो, फरोदस्त, सवारी इत्यादि । 
, वाद्य-सित्तार, त्तबला । 


गोपाल नायक ने भी कुछ रागों का भी आविष्कार किया । जिनमें पीलू, वडहंस 
सारंग और विरम्‌ उल्लेखनीय है । 


++++ ै++++++३+++$ 4-+++ :_: 


हा 9 १४ वीं शताब्दी में लोचन कवि ने हिन्दुस्थानी सन्जीत पद्धाते पर 
ई बे ; एक प्रसिद्ध ग्रन्थ राग तरंगिणी' लिखा, कुछ लेखक लोचन का समय 
राग 
ढ्दु थस जयद्‌ ब 
; तरंगिणी .; १२ वीं शताब्दी बताते हैं, किन्तु लोचन कवि ने अपने प्र दे 


ई....५++००००००»५ ओर विद्यापति के उद्धरण दिये है ये दोनों शाख॒कार क्रमशः १२ वीं 
ओर १४ वीं शताब्दी के हैं अतः लोचन का समय इस हिसाब से १५ वीं शताब्दी ठीक 
नहीं बैंठता । इसमें प्राचीन राग-रागनी पद्धति को छोड़कर थाट पद्धति अपनाई गई हे 
इन्होंने सभी जन्य रागों को १९ जनक मेल्ों ( थाटों ) मे विभाजित किया है, अथौत्त्‌ कुल 
१९ थाट सानकर उन्तसे अनेक राग उत्पन्न किये हैं। अपना शुद्ध थाट इन्होंने वतेमान 
काफ़ी थाट के समान साना है। राग तरंगिणी के अधिकांश भांग मे विद्यापति के गीतों 
पर विवेचन है । 


। 





१४४६- १४७७ इईँ० के लगभग विजयनगर के राजा के द्रबार में 
सद्गीत के सुप्रसिद्ध पंडित कल्लिनाथ थे। इन्होंने शाह देव कृत 
£ सड्भीत रत्ताकर की टीका विस्तृत रूप से लिखी। यह टीका 


यद्यपि संस्कृत भाषा में ही थी तथापि उसके द्वारा अनेक सद्जीत शाख्रकारों ने यथोचित 
ज्ञाभ उठाया | 


कल्लिनाथ द्वारा 
रत्नाकर की टीक 


([]++4+++++++*+॥ 


|| 
ई 
्ई 
4 


के ++++++ ++++++ ||) 





स्न्प् 


सुटय+4+++++++++++++++++++++++ जे 


सुलतान हुसेन पन्द्रहवीं शताब्दी में ( १४४८-१४६६ ई० ) जोनपुर के बादशाह 
शक सुलतान हुसेन शर्की सद्जभीत कला के अत्यन्त श्रेमी हुए हैं। 
क५५+++++++++++०++++5.. इन्होंने ख्याल गायकी ( कल्लावन्ती ख्याल ) का आविष्कार किया 


एवं अनेक नवीन रागों की रचना कौ । जेसे, जोनपुरी तोड़ी, सिन्धु-भेरवी, रसूली तोड़ी 
१२ प्रकार के श्याम, जौनपुरी, सिन्दूरा इत्यादि | 


4 
++++ '++++++#++ 


इसी समय अर्थात्‌ १४८४-१४५३३ ई० के बीच उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन 
ने जोर पकड़ा । भजन कीतैन के रूप में सदड्भरीत का जगह-जगह उपयोग होने लगा । 
साथ हो साथ बंगाल सें चेतन्य महाप्रभु एव अन्य भगवद्धक्तों द्वारा संकीर्तन का प्रचार 
हुआ, जिसके द्वारा सब्जीत को भी यथेष्ट बल प्राप्त हुआ | 





4. लात रामामात्य. सन्‌ १४४० ई० के क्गसग कर्माटकी सद्भजीत का एक प्रसिद्ध 
| आला ' अन्थ “स्वस्मेल कलानिधि” रामामात्य द्वारा लिखा गया। जिसमे 
स्व॒स्मेलकलानिधि ; बहुत से रागों का वर्णन दिया गया है। यद्यपि उत्तर भारत की 
सद्भीत पद्धति से इस ग्रन्थ का सीधा सम्बन्ध -नहीं है तथापि इसका 

अध्ययन सज्ञीत जिज्ञासुओं के लिये अब भी आवश्यक समझा जाता है। असन्‍्नता की - 


हि सो मु 


कर 


२४ # सदड्जीत विशारद # 








ध््थि है सोलहबीं शताब्दी ( १५४६-१६०५ ई० ) में सद्ठीत की विशेष 

| £ उन्नति हुई, यह बादशाह अकबर का समय था। अकबर संड्जीत के विशेष 

समय | भैमी थे, इनके दरवार में 3६ मन्नीतन्न थे) जिनमें प्रसिद्ध सन्नीतन्न तानसेन, 
चैजूबावरा, रामदास, वानरग स्रा के नाम चिशेष उल्लेसनीय हैं । 






|| इसमे पहिले तानमेन राजा रामचन्द्र के यहा रहते थे, इनके सन्नीत 
और १? की प्रशमा सुनकर अरूबर ने तानमेन को अपने दरबार में प्रधान गायक 
वैजबायय के स्प से रस्ख़ा । कह्दा जाता है ड्लि वानमेन ओर चैज़ू बाबरे की सल्लटीत 
प्रतियोगिता भी एक बार हुई | तानसेन ने कुछ रागो का आविष्कार भी 
किया, जिनमें दग्यारी कान्‍्द्रा, मिया की सारग, मिया की मल्दार इत्यादि रागों के नाम हैं. । 
तानसेन के सद्जीत से प्रभायित द्वार इनके अनेक शिष्य भी होगये थे, बाद में यह शिप्य 
थर्ग दो भागों म बेंटगया --(१) रवाविये, जो तानसेन द्वारा आमिप्कृत रघाब बजाते थे 
श्र (7) बीनकार जा प्रीणा बजाते थ्रे। वीनकारों के प्रतिनिधि रामपुर के वजीर सा 
तथा रवायियों के प्रतिनिधि मोहम्मद अली गया रामपुर रियासत चाले माने जाते थे । 


ह6:4+९३९३३००३+०९३+०ह 






हुए मी 5 अनवर के समय से ही स्वामी हरिदास वृदावन के एक प्रसिद्ध सगीतज्ञ 
३ ई मद्दात्मा हुए हैं। इनका जन्म सम्बत १४६६ भाठ्रपद शुक्ता ८ ( सन्‌ 
१ हरिदास | 

६] 


0 १४१२ ६० ) में हुआ, तानसेन इन्दीं के शिप्य थे । स्वामी जी के शिपष्यों 
द्वाग सद्गीत का प्रचार अनेऊ नगरों में सली प्रसार हुआ। कहा जाता है कि स्वामी 
हरिदास जी अपने समय के सर्य शेछठ सन्नीतज्ञ थे । इनके विपय में एक ऊंथा इस प्रकार 
बताट जाती है कि एफ दिन तानसेन से अकबर पूछ बैठे क्रि तानसेन ! ऐसा भी कोई 
गायक है जो तुम से भी सुन्दर गाता ही । इस पर तानसेन ने अपने गुरु स्वामी हरिदास 
का नाम बताया | अकपर ने उनका गायन सुनने की इच्छा प्रकट की, किन्तु तानसेन ने 
फ्ह्य कि दरबार मे तो वे नहीं आयेंगे, तब एक नवीन युक्ति से काम लिया गया। अकबर 
ने अपना चेप बदल कर तानसेन का तानपूरा लिया और तानसेन के साथ स्वामी जी के 
यहाँ जा पहुँचे । जब स्वामी जीं से गाने का आग्रह क्या गया तो उन्होंने अपनी अनिन्‍्छा 
प्रकट बी | तब तानसेन ने एक चाल चली, उसने जानबूम +र स्वामी जी ऊे सामने एक राग 
अशुद्ध रुप में गाया । स्यामी जी से न रहा गया उच्हींने वह राग स्वय गाजर तानसेन 
को बत्ताया | इस प्रकार अकबर की इन्छा पूर्ण हुई | स्वामी जी के गाने से प्रभावित होकर 
अफ्बर ने तानसेन से पूछा कि तानसेन तम इतना सुन्दर क्यों नहीं गाते ? 


तानमेन ने उत्तर टिया, जहापनाह ! मुझे जय दरचार री आज्ञा द्वोती दे तभी 
गाना पड़ता है, फिन्‍्तु गुरुजी की अन्तर आम्मा प्रेरणा करती है तभी ये गाते हैं. इसीलिये 
उनऊे सद्जीत सें एक विशेषता है । 


हू अफ्बर के समय में ही ग्यालियर के राजा मानसिद्द तोमर द्वारा 
राजा | “ालियर का प्रांसद्ध सन्नीत घराना चालू हुआ । घुपद गायऊी के 
आविष्मार का जय भी राजा मानसिंह को ही दिया जाता है। 


35«५4५५५०५५५५५५७००७५»»०००७- इन्हीं के सप्तय में श्सि: अर आह +तप> पाक का पी परपजह 


फकजलनल बटन 
ले नचलत 
अफकलन अननामलभ न 


# सड्गीत विशारद # २५४ 





७ मनन न ननाननीनीन नानी नागिन नम नननीनन-+यीननीनाननननमन-पननननिनिनीय मनन ननन-मपनमन3+3नमभ-. 


सोलहवीं शताब्दी सन्नीत और भक्ति काव्य के समन्वय की दृष्टि से 
| कह । अत्यन्त महत्वपूर्ण रही; क्‍योंकि इसी शताब्दी में सूरखागर के रचयिता 
कबीर; एवं गीति काव्य के प्रकाएड विद्वान महात्मा सूरदास, रामचरितमानस के 
तुलसी : यशस्वी लेखक गोस्वामी तुलसीदास, हिन्दू-मुसलिम एकता के प्रतीक 
मीरा सन्त कबीरदास तथा सुप्रसिद्ध कवियित्री और भजन गायिका मीराबाई 
हारा भक्ति पूर्ण काव्य के प्रचार से सद्नीतकल्ला भगवद्प्राप्ति का साधन बनकर उच्चतम 
शिखर पर पहुंची । 


उपरोक्त चारों सनन्‍्तों के जीवनकाल बिं० सम्वत्‌ के हिसाब से इस प्रकार होते हैं:-- 
कबीरंदास जन्म सम्बत्‌ १४४५६ मृत्यु १४७४ विक्रम 


सूरदास 99 १) १५४७० १9 १६०० १9 
तुलसीदास 2 ? श्शषश्ूछ ? श्षण०ण ? 
मीराबाई ? ? १४६० ”, १६३० ? 


ईंसवी सन्‌ की दृष्टि से उक्त चारों भक्तों का समय १४००-१६०० ईं० के मध्य को 
माना जा सकता है| इनके भजन ओर पद अमर होगये हैं ओर आज भी भारत के घर- 
घर में इनका प्रचार है । 


+++++++++4++++++ 


कक $ १५६६ ई० के लगभग, सद्भीत के एक कर्नाटकी पंडित पुण्डरीक विद्ठल 
! विहुल॒ आरा लिखे हुए सज्लीत सम्बन्धी ४ ग्रंथ मिलते हैं ( १ ) सद्रागचन्द्रोद्य 
$ के अ्न्थ£ (+ ) रागमसाला (३) राग संजरी (४) नर्तन निर्णय | यह पुस्तकें 
2 अर बीकानेर लाइब्रेरी में सुरक्षित हँ | का 

-जहांगीर का राज्य ( ९७ वीं शताब्दी ) 
न २ कक क्क्‌ 
$ सोमनाथ कृत ५ से १६२७ इंसवी तक जहांगीर का राज्य रहा ! इनके 
£ राग विवोध द्रवार मे वलास खा, छत्तर खां, खुस्मदाद, से त » पेरवेज़दाद 
ड3०,+००+०+००.. आर हमजान प्रसिद्ध गबेये थे। इसी शासनकाल में दक्षिण भारत 
के राजमुन्द्री स्थान निवासी पंडित सोमनाथ ने सन्लनीौत का ग्रंथ “राग विवोध” लिखा | 
इसका रचना काल ग्रंथकार ने स्वयं शाके १५३१ (अथोत्‌ १६१० ई०) आश्वनि शुद्ध तृतीया 
बताया है | इसमें उन्होंने अनेक वीणाओं का वर्णन किया है तथा रागों का जन्यजनक 
. पद्धति से वर्गीकरण किया हे । 


+++++%++++++-+ ३ ++++ ++++++ 


पं० दामोदर कृत 


। 
ई 
ः 


)++++++++++++[|) 


++ 


(| 


जहांगीर के समय में ही हिन्दुस्थानी सद्भीत पद्धति पर १६२५ 
६६ पे म्‌ कि ० $. 
सह्ीत दर्पण ०सें सल्लीत दर्पण” नामक ग्रन्थ का निर्माण _पं० दामोदर ने 
+++++++++-+++++++ ++++-+-+++ या | इ्सस सन्नीत रत्नाकर के भी बहुत सं श्लोक कुछ 
परिवर्तेंन के साथ मिलते हैं। राग-रागनियों के ध्यान! शीर्षक से जो देवरूप इसमें 
4०] 2. च्प " रु में 
उपस्थित किये हैं वे अत्यन्त आकर्षक ओर मनोरंजक हैं। इसमें स्व॒राध्याय और 
रागाध्याय का विस्तृत रूप से वर्शव किया गया है। सर विलियम जोन्स की पुस्तक 
यु ० न प्तु + 
- वग8 प्रापशंध्थ] 06868 96 प्ग्रातघ७” द्वारा यह भी पता चलता है कि सड्रीत- 


[[#++/++++++++ 


[++++++++++++! 
दी 6७ 


कद. अैसफनक “55. अल+>जाहनपार-। 
'ृल्‍गयुइक॑ण्म-०+क पर चाफकक ७७ 3 3... 


श्द्‌ # सद्भीठ विशारद # 








दर्षणु का फारसी अनुवाद भी होचुका है। इसके गुजराती तथा हिन्दी अनुवाद भी 
वर्तमान काल में होगये हैँ, इससे इस प्रन्थ की लोफपग्रियता या आमास भल्ली प्रकार 
मिलता दे ।# 
जा क १६६० ई० के आसपास शाह्व देव गुरू परम्परा के शिप्य 
व्यकटमसी पढित ने दक्षिण पद्धति के आधार पर सद्गीत का एफ 
द्व्त मिंत 58 
चतुर्दडिग्रकाशिका । मय चतु्द एडिग्रक्ाशिका? निर्मित क्‍या । इसमें गणितानुसार सप्तक 
फ्रे ९२ स्वरों से ७० मेल अथीत्‌ थाट और एक थाट से ४८४ रागों 
उत्पत्ति सिद्ध की है ।७० थाटों मे से १६ थाट जो दक्षिणी पद्धति में प्रयोग डिये जाते हैं 
इनका विपरण तथा इस थाटो से उत्न्‍न ४४ रागों पा विचरण भी इस पुस्तक में टिया है । 
[ शाहजद्दा का समय--१७ वीं शताब्दी ] 
शाहजहा का शासनकाल १६२८-१६४५८ ४० माना जाता दूँ। यह्‌ बादशाह खुद 
गाना जानता था । इसके उर्दी भाषा के गाने अत्यन्त मधुर और आऊर्षक होते थे। गायकों 
रा इसके यहा इतना आदर था कि अपने दरवारी गयेया टैरगग्या और लालसा को इसने 
चादी से तुलयाकर ४४००) से प्रत्येक को पुरुस्कृत क्रिया | इनके अतिरिक्त शाहजद्दा के 
दरबार में प्रसिद्ध गायक रामदास महापट्टेर ओर जगन्नाथ भी थे । 
[ श्रीरगजेब का समय-- १६४८ $० से १७०७ $० ] 
ओऔरगजेब आलमगीर सन्नीत का कट्टर शत्रु था, उसे सन्नीत से इतनी चिढ थी कि 
एफ दिल हुक्म निकाल दिया कि सय साज़ दफना दिये जॉय । इसके समय में यव्यपि सब्नीत को 
राजाशअय नहीं रहा,मिन्तु प्रथर रूपसे मब्डीतज्नों की साथना यो औरणगज़ेय भी नहीं रोफ सका । 
पा 779... सत्रदवी शवाद्ी के पूर्वार््ध में उस समय के सद्नीत विद्वान 
सर्त पडित अद्वोवल ने सन्‌ १६४० 4० के लगभग हिन्दुस्तानी मन्नीत 
[ संगीत पारिजात | पारिजात | फा एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ “सगीत पारिजात” लिखा | इसी पडित ने 
गीत पारिजात | स्चे श्रथम वीणा के वजने वाले तार की लम्बाई पर भिन्न-भिन्न 
नाप से अपने शुद्ध तथा मिक्ृत स्व॒रों की स्थापना की | अद्दोवल का शुद्ध थाट भी लोचन 
की भाति आजसल प्रचलित काफी थाट के समान था। पारिजात का फारसी अनुवाद 
१७२४ ई० में श्री दीनानाथ द्वारा हुआ ओर हिन्दी अनुयाद श्री कलिन्द जी द्वारा १६७१ ई० 
में होकर सद्भीत कार्यालय हाथरस से प्रकाशित हुआ | 


| कॉतुऊ पारिजात के परचात हृदयनारायणदेव ने 'हृटय फीतुक” 


हृदय प्रकाश | ओए दैट्य प्रकाश” चद दो म्न्थ लिसे, जिनमे 'अद्दोवल का 
च्द्रि प कप पर रे त्यु 
अलनुररण करते हुए १० स्वर स्थान वीणा के तार पर सममाये हैं | 











>> लनर> 


मायमह़ के सन्नीत विद्वान प० मावभट्ट ने सद्लीत के ३ ग्रथ भी ( १६७४- 
१७०६ ४० के लगभग ) लिसे (१) अनूपविलास (+ ) अनूपाकुश 
ग्रन्थ | (३ ) अनपसब्डीत रत्ताऊर। भानभट्ट इचिण पद्चति के लेखक थे, इनका 


शुद्ध थाट 'मुस़ारी” हैं। २० मेल (थारों ) में इन्दोंने सब्र रागों का 
पविमाजन ऊज़िया दूँ । 





५ सल्ञीत ढर्षण का हिली अनुयाद १६४० ६० में सन्नीत कार्यालय हाथरस से प्रकाशित हुआ है । 
गुजराती अनुपाद थी रतनमी लीनाथर टक्कर द्वारा इससे पहिले ही प्रसशित दोचका था | 


$ सड्ीत विशारद # ह २७ 





प्न्ली मुहम्मद शाह रंगीले-( अठारहवीं शताब्दी ] 


सदर १८ वीं शताब्दी के पूर्वा्ध ( १७१६-१७४० ई० ) में मुगल वंश 

| के अन्तिम बादशाह मुहम्मद शाह रंगीले हुए। सद्भीत के यह अत्यन्त 
प्रेमी थे, बहुत से गीतों में इनका नाम प्रायः आजकल भी पाया जाता है। 
रँंगीले के दरबार में दो अत्यन्त प्रसिद्ध गायक सदारंग और अदारंग थे, जिन्होंने हज़ारों 
ख्यालों की रचना करके अनेक शिष्य तेयार किये। वास्तव में ख्याल गायकी के प्रचार का 


श्रेय सदारंग और अदारंग को ही हे, इन्हीं के ख्याल आज सर्वत्र प्रचार में आरहे हैं |# 
इसी समय में शोरी मियां ने “टप्पा” इंजाद करके प्रचलित किया । 


अदारंग 





अठारहवीं शताब्दी के उत्तराद्ध में सज्जीत साधना साधारण रूप से चलती रही । 
इधर मुसलिम शासकों की शक्ति क्षीण होने लगी और अंग्रेजों का पंजा धीरे-धीरे भारत 


किक 


पर जमने लगा । इस उथल्न-पुथत्न में सद्ीतकला बड़े-बड़े राजाश्रयों से प्रथक होकर 


स्वतन्त्र रूप से एवं कुछ छोटी-छोटी रियासतों में पलने लगी. 2>-त्त्त्ताा 


हि ॥ इसी समय में श्रीनिवास पंडित ने “राग तत्ववोध” नामक 
के प्रसिद्ध पुस्तक लिखी । जिसमें इन्होंने भी पारिजात कार की भांति 


|. राग तल्वव तंत्ववीधि १२ स्व॒रस्थान बनाकर अपना शुद्ध थाट आधुनिक काफी थाट के 
। अप समान निश्चित किया । मध्यकाल्लीन ग्रन्थकारों में श्री निवास 
पंडित ही अन्तिम ग्रन्थकार हैं । 


४ १ 





। सह सारामत इसीकाल में ( १७६३-१७८६ ई० ) तंजौर के मराठा महाराजा 
ई और तुलाजीराब भोंसले द्वारा सल्जीत साराम्रत नामक पुस्तक लिखी ग 
ई 
सारामृत में दाक्षिणी सड्गीत 
£ रागलच्षणम्‌ जीत साराम् र्‌ ज्ञात पद्धांत का वर्णन किया है 


++३+९++३+३+++++++++++++++ उस आर णझबर थाट स्वीकार करत हुए ५ मेल ( थाटों ) द्वारा १ ५ 6 
जन्य रागों का वर्णन किया है । 


राग लक्षणम अन्थ में रागोत्रादक ७२ थाट मानकर उनके द्वारा अनेक रागों का 
विवरण स्वरों सहित दिया है । यह ग्रन्थ भी दक्षिण की प्रचलित सद्भजीत पद्धति का आधार 
प्रन्थ माना गया है | इस पर मूल लेखक का नाम तो नहीं दिया गया किन्तु इस ग्रन्थ की 
प्रस्तावना से पता चलता है कि तंजोर के ही एक गृहस्थ के है यहां से यह प्राप्त हुआ था। -+ 


( 9 ) आधुनिक काल (अँगरेजी राज्य)... 


अंग्रेज, भारतीय सद्भीत को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे, साथ ही साथ ऑँग्रेजी 
सम्यता का अभांव रियासतों पर भी पड़ने लगा | जिसके फल स्वरूप राजा लोग भी सड्भगीत 
के प्रति उदासीनता का भाव प्रकट करने लगे ओर इस प्रकार रियासतों से सद्गीतज्ञों को 





#% कुछ लेखको के मतानुसार कलावंती ख्याल गायकी का प्रचार जौनपुर के सुलतान हसेन शर्की 
द्वारा माना जाता है । 


की जजजल+त3 ० भ 
कक 


"सरल कान पन्‍्टाे पड जक-- 








््च्न स्थ्नाी जजिधान जता साजिणओओण> न 
जी ४ +आः 


हब * 3डलथन>>कका मर, 532४ छ४४- 4४७ कक: 33020 0० पर ककआ ३० हक ५ 30/5०७४७७७४७४७७॑ार्आ 


श्दध # सद्भीत विशारद # 


नशा तरनएनाापाकभादा-+पनना १ साल +++ आमलारथरमकरप मृत पाक ९ "कर शाधाकदालथकन व: घमर<+काकत कर ८९ >मकम तारक ०० इ० 3० पाए जपरपनअम स-४ ८२०७० 7०05 ए >> कप + राम खलआजकन, 


जे आशय प्राप्त दोरहा था उसमें वाधा पड़ने लगी। फिर भी कुछ सास-खाम रियासततों 
में विभिन्‍न घरानों के सज्जीतन्त सन्लीत साधना में तल्‍्लीन रहे । साथ ही उन दिलों सद्भीत 
का प्रवेश भले घरों में निपिद्र माना जाने लगा, इसफा भी एक विशेष कारण था 
फि इस समय में शासन वर्ग की उदासीनता के कारण सन्नीतकला निःृप्ट ओेणी के 
व्यवसायी स्त्री-पुरुपो में पहुँच चुकी थी । अत नयपरीन शिक्षा प्राप्त सभ्य समाज का इसफे 
प्रति उ्पेक्ता रफ़ना स्वाभाविक ही था। किन्तु सद्जीत के भाग्य ले फिर पलटा ग्याया और 
कुछ प्रसिद्र ऑग्रेजा ( सर विलियम्स ज्ञान, केप्टेन डे, कप्टेन विलर्ड आदि ) ने भारतीय 
सट्डीत का अध्ययन करके इस पर कुछ पुस्तफे लिगीं, जिनका प्रभाय शिक्षितवर्ग पर अच्छा 
पडा और सद्गीत के प्रति अनादर का भाव धीरे-वीरे घटने लगा। 
हद मखार रका छत आधुनिक काल में, सर्या प्रथम यिलावल को शुद्ध थाट मानकर 
००2 | १८१३ ई० में पटला के एक रईस मुहम्सद रज़ा ने नगमाते आसकी! 
नगमाते आसफो ई जि 
ई, ई, नाम पुस्तक लिसी | इन्होने पूर्वा प्रचलित राग-रागनी पद्धति 
का सण्डन करके अपना एक नयीन मत चलाया, जिसमें ६ राग ओर ३3६ रागनी मानकर 
उसका नये ढग से विभाजन ऊफ़रिया । 


४02 00: १७७७-१८०४ ई० में जयपुर के भह्ाराजा सपाई प्रतापसिद 


ह:++++++००९० 
! कप मल ई जले एक विशाल समीतत कास्फ्रेस का आयोजन करके चढें-यडे 











गीत सार सगीत कलायिदों को इक्ट्टा क्या और उनसे विचार विनिमय 
फरने के पश्चात्‌ “सगीत सार” नामक एक पुस्तक लिसी, जिसमें 
चिल्लावल थाट को ही शुद्ध थाट स्त्रीफार किया गया है । 
क /0०४०००ह.... इससे पश्चात्‌ १८४२ ई० में भरी क्ृप्णानन्द व्यास ने 
ठप्णानन्द 
कल पान लक डक ईत ६ “स्गीत राग कल्पद्रुम” नामक एक चडी पुस्तक लिखी, 
शग कल्पेटम जिसमें उस समय तक के हजारों ध्ुपठ, रयाल तथा श्न्य 
30,०००» गीत ( विना स्प॒रलिपि के ) डिये हैं । 
उत्तरीय भारत में इस समय राग वर्गीकरण की नई पद्धति बनासे की योजना चल 
रही थी और उधर तजीर दक्षिणी सगीत का विशाल केन्द्र बन गया था, जद्दा अनेक 
प्रसिद्ध सह्जीत विद्वान त्यागराज, धश्यामशास्त्री सुवराम दीक्षित आदि सह्जीत कला का प्रचार 
कर रहे थे । 
इस परिवर्तन फाल में भी बगाल के राजा सर सुरेन्द्र मोहन टैगौर में तथा अन्य 
कुछ पिद्लनों ने राग-रागनी पद्धति का ही समर्थन ऊरते हुये कुछ पुस्तकें लिखीं, जिनमें 
युनिवर्सल हिस्द्री आफ म्यूजिक? का नाम पिशेष उल्लेपनीय है। 


सज़ीत प्रचार का आधुनिक काल ( १६००-१६५७० ई० ) 


न इस आधुनिक काल में सब्जीत के उद्धार और प्रचार का जेय भारत की ० महान 
विभूतियों को है, जिनके शुभ नाम हैं भ्री विप्णुनारायण भातसण्डे और श्री 
विष्णु दिंगम्वर पल्ुस्कर। दोनों ही महानुभावों ने देश में जगह-जगह पर्यटन करके 
सज्नीत कला का उद्धार क्िया। जगह-जगह अमेफ सल्लौव विद्यालयों की स्थापना की । 
सब्लीत सम्मेलनों हारा सज्जीत पर विचार विक्तिमय ररए जिसके फल भपकण उमतपणाध्रातता 


प[करक्रसरकत +ू 








'ध। 


आो३३+9+३+++३++++६+: 


| 


।+++०+++++++- 








ह # सड्जीत विशारद # 
में सल्लीत की रुचि विशेष रूप से उत्पन्न हुई। इस काल में शाख्रीय साधना के साथ-साथ 
संगीत में नवीन प्रयोग द्वारा एक विशेषता पैदा करने का श्रेय विश्वक्वि श्री रवीन्द्रनाथ 
ठाकुर को है, इन्होंने प्राचीन राग रागनियों के आकर्षक स्वर समुदाय लेकर तथा अन्य 
कलात्मक प्रयोगों द्वारा रबीन्द्र सज्लीत' के रूप में एक नई चीज सल्लीत प्रेमियों को दी । 
रे म  क कीलल ज पक री विष्पतु नारायण भातखण्डे का जन्म बम्बई प्रांत के 


श्री भातखण्डे रे हर 
। हे बालकेश्वर नामक स्थान में १० अगस्त १८६० ई० को हुआ | इन्होंने 
८फओे में बी० ए० और १८६० में एल-एल० बी० की परीक्षा पास 
£ उनकेग्रन्‍्थ $ ३ सें बी० ए० और १ 


4...» की | इनकी लगन आरम्भ से ही सज्ञीत की ओर थी। १६०४ में 
आपकी ऐतिहासिक सज्नीत यात्रा आरम्म हुई , जिसमें आपने भारत के सैकड़ों स्थानों का 
अ्रमण करके सड्जीत सम्बन्धी साहित्य की खोज की। बड़े-बड़े गायकों का सन्जीत सुना 
और उनकी स्व॒रलिपियां तैयार करके “क्रमिक पुस्तक मालिका” में प्रकाशित कराई, जिसके 
६ भाग हैं। थ्योरी ( शास्त्रीय ) ज्ञान के लिये आपने हिन्दुस्थानी सल्जीत पद्धति के ४ भाग 
मराठी भाषा में लिखे#। संस्कृत भाषा में भी आपने लक्ष्यसज्ञीव ओर “अभिनव राग मंजरी” 
नामक पुस्तकें लिखकर प्राचीन सज्जीत की विशेषताओं एवं उसमें फैली हुई श्रान्तियों पर 
प्रकाश डाला | श्री भातखण्डे जी ने अपना शुद्ध थाट बिलावल मानकर थाट पद्धति 
स्वीकार करते हुए १० थाटों मे' बहुत से रागों का वर्गीकरण किया। 

१६१६ ई० सें आपने बड़ौदा में एक विशाल सद्लीत सम्मेलन किया, इसका उद्घाटन 
महाराजा बड़ौदा द्वारा हुआ। इसमें सद्जीत के विद्वानों ढ्वारा सल्लीत के अनेक तथ्यों 
पर गम्भीरता पूर्वक विचार हुए और एक “आल इरिडिया म्यूज़िक एकेडसी” की स्थापना 
का अस्ताव भी स्वीकृत हुआ | इस म्यूजिक कान्फ्रेन्स में भावखण्डे जी के सन्लीत सम्बन्धी 
जो महत्वपूर्ण भाषण हुये वे भी ऑँग्रेजी में “0 50070 सांझणांत्थ 5प्राएए रण ६6 
प्ञ० ए एएए9०० 7709?7 न्ञासक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हें । ( इसका 
भी हिन्दी अनुवाद सल्लीत कार्यात्रय से प्रकाशित हो चुका है ) 

बाद में आपके प्रयत्न से अन्य कई स्थानों में भी सन्नीत सम्मेलन हुए तथा सन्लीत 
विद्यालयों की स्थापना हुईं जिनसें लग्बनऊ का मैरिस म्यूजिक कालेज ( अब “भातखण्डे 
कालेज आफ़ म्यूजिक” ), गवालियर का माधव सह्नीत महा विद्यालय तथा बड़ोदा का 
स्‍्यूज़िक कालेज विशेष रल्तेखनीय हैं। 

इस प्रकार इन्होंने अपने अथक परिश्रम द्वारा सड्जीत की महान सेवा की और संगीत 
बे में एक नवीन युग स्थापित करके अन्त में १६ सितम्बर १६३६ को आप परलोक 
वासी हुए। 





सन्‌ १६११ के लगभग लाहोर के रहने वाले एक सद्भीत 
विद्वान राजा नवाबअली खाँ मातखण्डे जी के संपर्क में आये। 
राजा साहेब ने अपने एक प्रसिद्ध गायक नजीर खां को आचार्य 
६ भातखरडे जी के पास सद्जीत के शाखीय ज्ञान तथा लक्षणगीतों 
को सीखने के लिये भेजा और फिर उदू' में सद्नीत की एक सुन्दर पुस्तक “मारिफुन्नगमात” 
ना बा बी 


20. 


% इनका हिन्दी अनुवाद भातखरडे सद्भीत- शासन के नाम से सद्भीत कार्यालय हाथरस से 
. . प्रकाशित हो गया है। शनि सम आर 


तर 0 कून चकमन>> जे, 


राजा नवाबअली 
लिखित 
“मारिफुन्नग़मात” 


+++#++++++++++++!|[) 


[++++++++++++++++][)) 


॥॥॥ 





/ 





३० # सज्जीद पिशारद्‌ # 








की गई बाद में ( सन्‌ १६५० में ) इसका हिन्दी अनुयाद सद्जीत कार्यालय द्वाथरस से 
प्रकाशित हुआ | जिससे द्विन्दी के सद्जीत विद्यार्थियों को बहुत लाभ हुआ। 


री 





५ 


अं दर औ विप्सु दिगम्बर जी पलुस्कर का जन्म १८७० ईसपी में 
ई कह दि ६ आवशी पूर्णिमा के दिन छुरुन्दवाड ( बेलगाय ) में हुआ ! आपको 
| परुत्कर | सन्नीत शिक्ता गायनाचाये प० वालक्ृ"ण बुचा से प्राप्त हुई । १८६६ 





ई० में आपने सद्नीत प्रचार के हेतु भ्रमण आरम्म किया | पलुस्कर 


जी ने अपने सुमधुर ओर आकर्षक सद्बीत के द्वारा सद्नीत प्रेमी जनता को आत्म विभोर 
कर दिया | पडित जी के व्यक्ति के प्रभाव से सम्य समाज में सब्लीत की ज्ञालसा जाग 
उठी, जिसके फलस्थरूप सद्बीत के ऊई बियालय स्थापित हुए, जिनमे लाहदोर का गान्धव' 
महाविद्यालय सर्व प्रथम ५ मई १६०१ ई० को स्थापित हुआ । बाद में बम्बई का गान्धव 
महाविद्यालय स्थापित हुआ आर यही मुरय केन्द्र बन गया। पडित जी का कार्य' आगे 
बढाने के लिये उनके शिप्यो के सामूहिक प्रयत्न से “गान्यव महाविद्यालय मण्डल” करी 
स्थापना हुई, जिसके बहुत से जेन्द्र विभिन्‍न नगरों में स्थापित हो चुके हैं 

सन्‌ १६२० ई० से पलुस्कर जी कुछ पिरक्त से रहने लगे ये, अत १६२२ में नासिक 
में रामनाम आधार आञ्म आपने सोला | तबसे आपका सल्लीत भी “रामनाम मय” हो 
गया । इस प्रकार सह्लीत को पत्रिन्र वातावरण में स्थापित करफे श्रन्त में यह सद्गीत का 
पुजारी २१ अगस्त १६३१ को मिरज में प्रभु वाम को प्रस्थान कर गया । 

पसण्डित जी द्वारा मनज्जीत की कई पुस्तके भी प्रकाशित हुई थीं, जिनमे से कुछ के 
नाम ये हें --सद्गीत वालयोव, सद्गीत बाल प्रकाश, स्वल्पालाप गायन, सन्नीत तल्वदर्शक, 
रामप्रयेश, भजनाम्ृत लहरी इत्यादि । 


आपकी स्व॒रलिपि भातसण्डे पद्धति से मिन्‍न दे। प्रोफ़ेसर डी० बी० पलुस्कर, जो 
प्‌ नर हा (२ सर हूँ 
वर्तमान गायओ़े में एक अन्छे गायऊ माने जाते हैं, आपके ही सुपुत्र हैं । 


खतन्‍त्र भारत में सड़ीत 


भारत स्व॒तत्र होकर जबमे अपनी राष्ट्रीय सरकार स्थापित हुई है, तबसे सज्लीत का 
प्रचार दुतिगति से देश मे बढ रहा है जगह-जगह स्कूल ओर कालेजों में मद्नीत पाठ्यक्रम 
में सम्मिलित द्वो गया है, एव छुछ विश्व विद्यालयों की घी० ए० परीक्षाओं में सद्नीत भी 
एक विपय के रूप में रख दिया गया हैं| इबर रेडियो द्वारा भी सगीत फा प्रचार दिनो 
दिन बढ रहा दै। छुछ सिनेमा फिल्मा से भी हमे अच्छा सगीत मिलसका है। सगीत की 
अनेक शिक्षण सस्थाये भी विभिन्‍न नगरों मे सुचारू रूप से चल रही हैं। देश का शिक्षित 
पर्ग संगीत की ओर विशेष रुप से आकृष्ठ होफ़र अब सगीत का महत्व सममने लगा है । 
कुल्ीम पराने के थुवक-युत॒ती ओर कन्यारे सगीत शिक्षा ग्रहण ऊर रही हैं एप जन- 
साथारण में भी सगीत के श्रति आशातीत अभिरुचि उत्पन्न हो रही है। इधर सगीत 
सम्पन्धी पुस्वके भी अच्छी-अच्छी प्रकाशित होने लगी हैं। सगीत कला के विकास के 
लिये यद्द मप्र शुभ लक्षण हैं, आशा है निऊूट भविष्य में दी भारतीय समीत उच्चतम 
शिपर पर आसीन होकर अपनी विशेषताओं से ससार का सार्म दर्शन करेगा । 





च्९ 


| का 
सद्भात 
गीत॑ वाद्य तथा नृत्य॑ त्रय॑ संगीतमुच्यते | ( सन्नीत रत्नाकर ) 


गीत वाद्य और उूत्य यह तीनों मिलकर संगीत” कहलाते हैं वास्तृव में यह तीनों 
कल्ायें ( गाना बजाना और नाचना ) एक दूसरे से स्व॒तन्त्र हैं, किन्तु स्व॒तन्त्र होते हुए 
भी गायन के अधीन वादन तथा वादन के अधीन नर्तन है। प्राचीनकाल में इन तीनों 
कल्नाओं के प्रयोग एक साथ ही अधिकतर हुआ करते थे । 


सद्गीत शब्द गीत शब्द में 'सम! उपसर्ग लगाकर बना है । सम यानी सहित और 
गीत यानी गायन। गायन के सहित अर्थात्‌ अंगभूत क्रियाओं ( नृत्य ) एवं बादन के 
साथ किया हुआ काय संगीत कहलाता हे । 


नृत्यं वाद्यानुगं ग्रोक्‍्तं वाध॑ गीतालुवृत्ति च | 
अतो गीत प्रधानत्वादत्राउडदाव भिधीयते | 
; सड़ीत रत्नाकर”? 


अथीोत्‌--गायन के अधीन बादन और बादन के अधीन नर्तन हे, अतः इन तीनों 
कलाओं में गायन को ही प्रधानता दी गई है ।. 


स्वर 


सद्जीत में काम आने 'घाली वह्‌ आवाज़ जो मधुर हो, कानों को अच्छी लगे 
जिसको सुनकर चित्त प्रसन्‍न हो, उसे स्वर कहते 


आगे जो २२ श्रुतियों का विवरण बत्ताया गया है, उन्हीं में से ७ शुद्ध स्वर चुने 
गये हैँ जिनके पूरे नाम यह है:--( १ ) पड़ज ( २) ऋषभ (३ ) गान्धार ( ४ ) मध्यस 
( ४ ) पंचम ( ६ ) घेवत ( ७ ) निषाद । इन्हें ही संक्तेप में सा रे ग स प ध नि कहते है। 


तीव्र और कोमल स्वर 


ऊपर बताये हुये ७ शुद्ध स्वर कहे जाते हैं, इनमें स और प॑ यह तो “अचल?” स्वर 
माने गये हैं क्‍योंकि यह अपनी जगह पर कायम रहते हैं, बाकी पांच स्वरों के दो-दो रूप 
फर दिये हैँ क्‍योंकि यह अपनी जगह से हटते रहते है। अतः इन्हे' विकारी स्वर भी 
कहते हैं। इन्हें कोमल, तीत्र इन नामों से पुकारते हैं। 


किसी स्वर की नियत आवाज को नीचे उतारने पर वह कोमल स्वर कहलाता है 

और कोई स्वर अपनी नियत आवाज से ऊँचा जाने पर तीत्र कहलाता है। रे, ग. घ. नि 
यह चारों स्वर जब अपनी जगह से नीचे हटते हैं तो कोमल बन जाते हैं और जब इन्हें 
४“ हि अपने नियत स्थान पर ऊपुर पहंचा दिया जाथगा तो इन्हें. तीत्र य्रा- श्र: कहेंगे. 


१ 


झ२ # सल्लीत विशारद # 





अकबर लक कम मरननकायरएनसप््च्च्च्खि्टः 
किंतु 'म' यानी सध्यम स्तर जब अपने नियत स्थान से हटता है तो वह नीचे नहीं जाता, 


स्येडि उसका नियत स्थान पहिले ही नीचा है, अत म स्वर जब हटेगा यानी विकृत 
होगा तो ऊँचा जाकर म तीत्र कहलायेगा ओर जब फिर अपने नियत न्थान पर आजायगा 
तब कोमल या शुद्ध ऊहलायेगा। गयवैयों फी साधारण बोल चाल में फोमल स्परों को 
“उतरे स्पर” और तीज स्पसे का “चढ़े स्वर” ऊहने हैं। अंग्रेजी भाषा में फोमल स्वरो 
को 79६ 700०४ एब तीत्र स्वरो को 50079 ९०६०८ कहते हैं.। 


शुद्ध ओर पिकृत स्वर 


ऊपर हम बता चुके हैँ कि स और प यह २ स्पर अचल हैं। यह कभी विक्ृत नहीं 
होते अर्थात्‌ अपने स्थान से नदी हटते | बाकी पाच स्वर अपने स्थान से हटते रहते हैं! 
जय कोर्ट स्व॒र अपने स्थान से हटता है, वह चिक्रत स्यर कहलाता है। रेग व नि अपनी 
जगह स हटकर नीचे आये तो इन्हें विकृत स्वर कहा जायगा या कोमल कहा जायगा 
ओर म अपने स्थान भें हटकर ऊँचा होगा तब सम पिक्त या तीन्र कहा जायगा । 
इस प्रकार २? अचल ५ शुद्ध ओर ५ बिकृत सत मिलकर १२ स्वर हो गये । 
इन्हे पहिचानने के लिये भातसण्डे पद्धति में इस प्रकार चिन्ह होते हैं -- 
स॒ प अचल या शुद्ध स्तर। इन पर कोर्ट चिन्ह नहीं दाता । 
रेग म व नि शुद्ध स्पर, इन पर भी फोट चिन्ह नहीं होता। 
रेगुम॑ वनियपिकृत स्वर (इनसे रे ग ध न्ति फोमल हैं और मध्यम 


तीत्र दै। ) 
विष्णु डिगम्वर १द्नति में निम्नलिग्पित चिन्द् होते हैं -- 
सर्प अचल प शुद्ध स्वर 


रे गम ध नि शुद्ध स्वर 
रिगूमू व्‌ नि पिकृत स्वर (इनमेरे ग ध नि फोमल हैंओर 
मध्यम तीज्न है ) 
इनके अतिरिक्त उत्तरी सट्जीत पद्ति मे कुछ अ-य चिन्ह प्रणालिया भी चल रही है, 
किंतु मुस्य रूप से उपरोक्त २ चिह अणाली ही प्रचलित हि !। कोमल तीत्र के अतिरिक्त 
सप्तक तथा मात्रा आदि के अन्य चिन्द भी लगाये जाते हैँ, जिनका विवरण इस पुस्तफ 
में आगे चलकर नोटेशन ( स्परलिपि ) पद्धति के लेस में विस्तृत रूप से दिया गया है। 


दक्षिणी ( कर्णाटफ्री ) और उत्तरी मद्भीत के भेद 


भारतवर्ष मे टो सह्लीत प्रणालिया प्रसिद्ध हैं -- 
( १) कर्णाटकी सद्लीत प्रणाली (५ ) हिन्दुस्थानी सदन्नीत प्रणाली | कर्णाटकी 
सन्नीत पद्धति को ही दक्षिणी सह्ठीत पद्धति भी कहते हैं। यह मद्रास प्रात, मैसर तथा 


(«कर वक 
्यल्य लाये चअचत्रित क्ले ॥ 





# सद्भीत विंशारद # .. हेड 





हिन्दुस्थानी सन्नीत प्रणाली को ही . उत्तरी सन्नीत पद्धति भी कहते हैं .यह मद्रास 
4 है दि रा भार कर्क लि 
प्रांत, मेसूर तथा आंध्र देश को छोड़ कर शेष समस्त' भारत में प्रचलितः है. । | 


वास्तव में इन दोनों सद्भीत पद्धतियों के मूल सिद्धांतों में विशेष अन्तर नहीं है। इन 
दोनों पद्धतियों में जे! समानता और भिन्‍नता है वह देखिये:-- 


. समानता 


१-दोनों पद्धतियों में ही शुद्ध व बिकृत मिलकर कुल १२ रवर स्थान हें | 
२-दोनों पद्धतियों में ही उपरोत्त १* स्वरों से थाट उत्पत्ति होकर राग गाये बजाये 


जाते हैं । 
३-दोनों पद्धतियों में आलाप गायन स्वीकार किया गया है। 
४--दोनों में हो आलाप एवं तानों के साथ चीज़ें गाई जाती हैं । ु 
४-जनन्‍्यजनक ( थाट राग ) का सिद्धान्त दोनों में ही स्वीकार किया गया है । 


पु 


हे ' भेद 


१--उत्तर सल्लौत पद्धति में और दक्षिण सज्लीत पद्धति में यद्यपि स्वर स्थान बारह ही माने 
गये हैं, किन्तु दोनों के स्व॒र तथा नामों में अन्तर है । 


२--उत्तर सन्जीत पद्धति में केवल १० थाटों से रागों की उत्पत्ति हुई है, किन्तु दक्षिण पद्धति 
में ७२ जनक. थाटों का प्रमाण मित्रता है। 


की की चीज़ें, कानड़ी, तेलगू , तामिल_इत्यादि भाषाओं में रची हुई 
होती हैं और उत्तरी सन्नात पद्धति के गीत त्रजभाषा, हिन्दी, उद्‌', पंजाबी, मारवाड़ी 
इत्यादि भाषाओं में होते हैं। 


४-दोनों पद्धतियों के ताल भिन्न होते हैं। 

५--दोनों सन्नीत पद्धतियों में स्वर उच्चारण एवं आवाज़ निकालने की शैलियां भिन्‍न- 
सिन्‍न है । 

६--इन पद्धतियों में राग अपने-अपने स्वतन्त्र हैं। अर्थात्‌ दक्षिणी राग उत्तरी रागों से 
समानता नहीं रखते । 


७--दक्षिण पद्धति की शुद्ध सप्तक को 'कनकांगी! अथवा मुखारी मेल कहते हैं, किन्तु 
उत्तरी सन्नीत के शुद्ध स्वर सप्तक फो 'बिलावल थाद? कह्दा गया है। | 


उत्तरी ओर दक्षिणी स्व॒रों की तुलना 


_.. कनोटक ( दक्षिणी ) तथा हिन्दुस्तानी ( उत्तरी ) दोनों ही पद्धतियों में एक सप्तक 
भे १२ स्वर माने गये है, किन्तु उनके नासों” में कहीं-कहीं परिवर्तन हो गया हे, जैसे 


फाशकया कुक कल ल्‍थ.. नत0 कण न +9 


अउरीया- तक 





३४ # संड्रीव विशारद # 


अ्सासतसहाबाभाकात ९; #माा धरा पााप2ता९जरमकर४- डर भा उभर रस ५ उप 20 तप आग दा टन क० 0४ वर्मा सलपररछ का उकटासारप कप परम नाआा ३४ पवराक०ए+प मम; आपको जम उ. 


>कमममननन क पस पक एन क ५ननकाभन पाल पर ऊ मन सन पक मा पा न व सपा कप पान पाक पक कप नम. 
कर्नाटकीय शुद्ध रे, ध हमारी हिन्दुस्थानी पद्धति के कोमल रे, ध के समान हैं. तथा दमारे 
शुद्ध रे- ध उनके शुद्ध ग- नि हैं। 


हिन्दुस्थानो स्वर | फर्नाटकी ( दक्षिणी ) स्वर 
१्सा सता 
२ कोमल रे शुद्ध रे 
३ शुद्वरे पच श्रुति रे या शुद्ध ग 
४ कोमलग पट श्रुति रे, साधारण ग 
& शुद्ध अन्तर गे 
६ शुद्ध म शुद्ध मं 
७ तोब्रम प्रति मं 
छः पं प्‌ 
६ कोमल घ शुद्ग ध 
१० शुद्ध घ प्रच श्रुति ध, या नि शुद्ध 
१९ कोमल नि पट श्रुति ध, या कैशिक नि 
१० शुद्ध नि काऊली नि 


क्योंकि हमारे कोमल रे घ॒ उनके शुद्ध रे, ध हैं. और हमारे शुद्ध रे ध उनके शुद्ध 
ग- नि हैं, अत उनके (कर्माटकी) स्व॒रो के अनुसार शुद्ध स्पर सप्तक इस प्रकार होगा ८ 


सा रे ग॒ म॒ प ध नि-- क््नौॉट्फी 
सा रे रे म प ध॒ ध-- हिन्दुस्तानी 


उपरोक्त कर्नाटकी शुद्ध सप्तक को दक्षिणी विद्वान 'मुसारी मेल” कहते हैं। कर्माटकी 
स्व॒रों से किसी स्वर को कोमल अवस्था में नहीं भाना गया है, अर्थात्‌ उनके शुद्ध स्वर ही 
सबसे नीची अवस्था में हैं ) जब उनका रूप बदलता है अर्थात्‌ विकृत होते हैं तो थे और 
नीचे न हटकर ऊपर को जाते हैं, जैसे शुद्ध रे के आगे उनका चतु श्रुति रे आता है, 


इसी को वे शुद्ध ग कहते हैं. और शुद्ध ग के आगे साधारण ग फिर अन्तर ग॑ नाम 
उन्‍्दोंने दिये है. 





श्ध्‌ 
नाद, श्रुति ओर स्वर विवेचन 


नाद 


नकार ग्राणनामानं दकारमनलं विदु॥ । 


जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादो$मिधीयते ॥ 
--सज्भीतरत्नाकर 


अथात्‌ 'नकार! यानी प्राण ( वायु ) वाचक तथा 'दुकार' अग्नि वाचक हे, 
अतः जो वायु और आग्नि के सम्बन्ध ( योग ) से उत्पन्न होता है, उसी को नाद! 
कहते हैं | 
आहतोषनाहतश्चेति द्विधा नादो निगधते । 
सोय॑ ग्रकाशते पिंडे तस्मात्‌ पिंडोडभिधीयते ॥ 


अर्थात्‌ नाद के २ प्रकार माने जाते हैं, आहत तथा अनाहत। जो देह ( पिण्ड ) 
से प्रकट हुआ है, उसे पिण्ड नाम प्राप्त होता है । 


अनाहत नाद---जो नाद केवल ज्ञान से जाना जाता है, जिसके पेदा होने 
का कोई खास कारण न हो, यानी जो बिना संघर्ष या स्पर्श के पेदा हो जाय, उसे 
अनाहत नाद्‌ कहते हैं। जेस दोनों कान ज़ोर से बन्द करने पर भी अनुभव करके देखा 
जाय तो “घन्न-घन्न” या साँय-साँय” की आवाज़ सुनाई देती है | इसी अनाहत 
नाद की उपासना हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि करते थे | यह नाद मुक्तिदायक तो है, किन्तु 
रक्तिदायक नहीं | इसलिये यह सद्भीतोपयोगी भी नहीं है, अथात्‌ सज्जीत से अनाहत नाद 
का कोई सम्बन्ध नहीं हे । 


आहत नाद---जो कानों से सुनाई देता हे और जो दो वस्तुओं के संघ या 

जा तर 
रगड़ से पैदा होता है, उसे आहत नाद कहते हैं। इस नाद का सद्नीत से विशेष 
सम्बन्ध है। यद्यपि अनाहत नाद को मुक्तिदाता माना गया है, किन्तु आहत नाद 
को भी भवसागर से पार लगाने वाला बताकर सड्भीत दर्पण! में दामोदर परिडत 
ने लिखा हैः -- 


स नादस्त्वाहती लोके रंजकी भवभंजकः । 
श्रुत्यादि द्वारतस्तस्मात्तदुत्पत्तिनिरुप्पते ॥ 


भावार्थ--आहत नाद व्यवहार में श्रुति इत्यादि (स्वर ग्राम मूच्छेना ) से रंजक 
>« “धिनकऋण भव-भंजक, भी रण उ ज्त्पन्त ७ 
गुक, भी बन जाता हे इस कारण उसकी उत्पत्ति का वर्णन करता हैं।_ 


ब02/४०३४-५ कप ४ म ०१२४२ 2406 


३६ %# संगीत भिशारद # 
न्‍सरममायराहाआा5 ६2 पद 2७+ अमन 2६320: सपा ५ "रा. शा कम त.३४४०५१३ मम धरा (कि मापन कनापकात३9.२७७#धम मजाक पाल पकएक कल 
लय जा आय मय न मा क 
अपरोक्त उद्धरणों से यद् सिंद्ध होता है कि आहतनाद ही सन्नीत के लिये उपयोगी हँ। 
इसी नाद के द्वारा सूर-मीरा इत्यादि ने अ्रभु सान्निव्य आप्त किया ।7 ५ 


नाद के सम्बन्ध में तीन बातें ध्यान मे रहनी चाहिये।-- 


(१) नाद का छोटा-बडापन ( ॥(०8॥70706 ) 
(२) नाद की जावि अथवा गुण ( 77घ्यां/6 ) 
(३) नाद का ऊचा नीचापन ( एप्ली ) 

(१) लाद का छोढा-बडापन--जों आवाज्ञ नजठीऊ हो ओर धीरे-धीरे सुनाई पढे, 
उसे छोटा नाद कहँगे, ओर जो. आवाज दूर से आरदी दो, तथा जोर-ज्ोर से सुनाई पडे, 
उसे बडा नाद कहेंगे । 

(२) नाद फ्री जाति--नाद को जाति से यद्द मालुम होता दे कि जो आवाज आा 
रही है, वह किसी मनुष्य की हे, या किसी वाजे से निऊुल रही है । उदाहरणार्थ एक नाद 
हारमोनियम, सारगी, सितार, वेला इत्यादि से प्रकट हो रहा है, ओर एक नाढ फ़िसी गयैये 
करें गले से प्रकट हो रहा है, तो हम साढ प्रकट होने की उस क्रिया को ढेस्से जिना दी यह 
बता देंगे कि यह नाट किसी साज फरा है या किसी मनुष्य का ) -हसी क्रिया को पद्िचानना 
'नाद की जाति! कहलाती है । 


(३) नाद का ऊँचा-नीचापन--नाद की उच्च-तीचता से यह मालुम होता है कि 
जो आवाज़ आरही है, वह ऊँची है या नीची । मान लीजिये हमने सा स्वर सुना, इसके 
बाद रे स्वर सुनाई दिया और फिर ग सुनाई दिया । इस प्रकार नियमित ऊँचे स्वर सुनने पर 
हम उसे उदच्च-नाद कहेंगे, ओर सा स्व॒र के नीचे नि, व, प इत्यादि स्वर सुनाई दिये, तब उसे 
नीचा नाद फहेंगे । इसी वाव को और अच्छी तरह इस प्रकार सममके, कि कोई भी नाठ 
हवा में थरथराहट या कम्पन होने पर वैदा होता है। यह कम्पन एक नियमित घेग यानी 
रफ्तार से तथा शीघ्रतापूर्वऊ होता है, तभी हमारे कानों को बह सुनाई देता ” । अत्येक 
नाद उत्पन्न दोने के लिये कम्पन का वेग प्रति सैकिण्ड निश्चित होता है, कम्पन का बेग 
जितना अधिऊ होगा, उत्तना ही नाद ऊ चा होगा, ओर कम्पन् सख्या कम होने पर इतना 
ही नाद नीचा हो जायगा। याद रहे कि यह कम्पन स स्था नियमित ही होगी, अनियमित 
कम्पन से शोरगुल द्वी पैठा होगा, नाढ नहीं । जैसे--फ्रिसी वाजार की भीड मे या भेले में 
कोई जोर से चिल्ला रहा है, कोई वीरे वोलरदा है, फरिसी ओर बच्चे रो रहे हैं, कोई हँस 
रद्य है, तो इन क्रियाओं के द्वारा वायु में जे कम्पन होंगे, वे अनियमित ही तो होंगे, और 
यह अनियमित कम्पन शोरगुल ही कहलायेगा | इसके विरुद्ध एफ व्यक्ति कुछ गा रहा है, 
या बाजा बजा रहा दे, तो उसको आवाज़ जे ऊम्पन हवा में नियमित रुप से होंगे, और ये 
इमें अच्छे भी मालुम होंगे, वस उसे ही सद्हीवोपयोगी 'नाद? कहेंगे । 


श्रुति-- 
नित्यं गीतोषयोगित्तममित्रेयत्वमप्युत [ 
लले प्रोक्त सुपर्याप्त सर्गीतश्रुतिलक्षणम्‌ ॥ -- 


तर 


$# सद्भीत विशारद #. ३७ 


बन्‍--_-_-_ब पक >मानव जनक 





अर्थात-बह आवाज जो गीत में प्रयोग की जा सके ओर एक दूसरे से अलग एवं 
स्पष्ट पहिचानी जा सके, उसे 'श्रुत्ति” कहते है । 


तस्य द्वार्विशतिभेंदाः श्रवणात्‌ श्र॒त॒यो मता। । 
.-/ हृदयम्यंतरसंलग्ना नाड्यो द्वार्विशतिमेताः: कु 


-स्वस्मेलकलानिधि 

अ्थात्‌ हृदय स्थान में २२ नाड़ियां लगी हुईं हैं, उनके सभी नाद स्पष्ट सुने जा 
सकते हैं। अतः उन्हें ही श्रुति कहते हैं। नाद के बाईस भेद माने गये हैं । 

हमारे संगीत शाखरकार प्राचीन समय से ही २२ नाद मानते चले आ रहे हैं। 
चह नाद क्रमशः: एक से दूसरा ऊ चा, दूसरे से तीसरा ऊ चा, तीसरे से चोथा ऊ चा, इस 
प्रकार चढ़ते चले गये हैं। इन्हीं २२ नादों को “श्रुति! कहते है । क्योंकि श्रुतियों पर 
गायन में सव साधारण को कठिनाई होती, अतः इतर २४ में से १९ स्वर चुनकर गायन 
काय होने लगा | इन १४ स्वरों में ७ शुद्ध स्वर ओर ४ विक्ृत स्वर होते हैं। २२ श्रुतियों 
में यह ७ शुद्ध स्वर क्रमशः १, ४, ८.१०, १७, १८, 7१ वीं श्रुतियों पर साने गये हैं। 
जिनका नाम प्रड़ज, रिषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धेवत और निषाद है; इन्हीं के संक्षिप्त 
नाम सा, रे, ग, सम, ५, ध, नि हैं। 


३ |, में ध 
खरों में श्रुतियों को बांदने का नियम-- 
चतुश्चतुश्चतुश्चेव पड़जमध्यमपंचमाः । 
द द्वू निषादगांधारो त्रिस्नीरिषभधेवतो ॥ 
“--संगीत रत्नाकर 
अथोत--षड़ज, मध्यम और पंचम इन तीनों स्वरों में चार-चार श्रुतियां हैं। 
निषाद गान्धार इन दोनों स्वरों भे दो-दो श्रतियां तप्रारिषम और पैवत में तीन-तीन 
श्र॒ुतियां हैं, इस प्रकार २२ श्रुतियां ७ स्वरों में बांद दी गई । इसे अधिक स्पष्ट इस 
प्रकार समझ लीजिये कि हारमोनियम बाजे की एक सप्तक में जो १४ स्वर ( परदे ) 
होते हैं, वे इन २२ श्रुतियों में से ही चुनकर बनाये गये हैं। अतः हारमोनियम में तो 
श्रुतियां सुनाई नहीं दे सकतीं, किन्तु किसी सी तार-वाद्य वीणा, सारंगी, द्लिरुबा, सितार 


इत्यादि पर श्रुतियां सुनी जा सकती है। कुशल्न गायक गले से भी इन्हें प्रकट कर सकते हैं । 
अब हम -उद्गहरणार्थ १ तार पर २२ श्रुतियां दिखाते हैं; 


१२३ ७४४ ६७८ ६१० ११ १२ १३ १४ १४ १६ १७ १८ १६२० २१५ २२ 


ततििित।ख।आिएििएए। 

















इ्८ # सड्जीत विशारद # 








छोटी-छोटी लझीरों पर श्रुतिया है, और बडी-बडो लकीरों वाले शुद्ध 
हु 
स्वर हैं । 
यहा पर एऊ बात बता देना आवश्यक प्रतीत होता है कि यद्यपि पुराने और नये 
प्रन्यफार २२ श्रुतियों को १२ स्वरों पर बाटने का उपरोक्त नियम स्वीकार करते हैं, किन्तु 
हमारे कुछ प्राचीन तथा सध्यकालीन प्रन्थकार अपना प्रत्येक शुद्ध स्वर अतिम शुति पर 
कायम करके इस प्रकार सानते है । 














सा रे ग 


नि 


अथौत्त्‌ चोथी श्रुति पर पडज, सातवीं पर रिपभ, नवीं श्रुति पर गान्धार, तेरहवीं 
पर मध्यम, सत्रहवीं पर पचम, बीसमीं पर घैयत ओर बाईसवीं श्रुति पर निपाद | 


इसके विपरीत आधुनिक विद्वानों एप. प्रन्थकारों ने, जैसा कि हम ऊपर 
बता चुके हैं । पहिली श्रुति पर पडज, पाचवीं पर रिपभ, आठवीं पर गान्धार, 
दसवीं पर मध्यम, चोदहवीं पर पंचम, अठारहवीं पर बैवत ओर इक्कीसवीं श्रुति 


पर क कायम जिया है । आधुनिर प्रचलित सन्नीत पद्धति में यही नियम 
मान्य है । 


श्रुति और खर तुलना 


श्रुतय स्थु स्व॒राभिन्‍्ना श्रावणत्वेन हेतुना। 
अहिरुए्डलवत्तत्र भेदोक्तिः शास्रसम्मता॥ 
रस सर्वाश्च श्रुतयस्तत्तद्रागेष स्व॒रतां गता। । 
रागाः हेतुत्य एतासा श्रुतिसब्ैव समता ॥ 


-+सिद्ठीत पारिजात? 


आर्थात्‌-जे सुनी जा सफती है, श्रुत ऊद्दलाती दै। श्रुति और रपर मे भेद 
इतना ही दे कि जितना सर्प तथा उसकी कुण्डली में। यही भेद शास्त्र सम्मत है । ओर 


वे सब श्रुत्तिया ही रामों में स्यर का रूप वारण कर लेती हैं तथा इन श्षुतिया के कारण रूप 
राग ही है, अतएव #ति ऐसी सत्ता ही सम्मत ह्दै। 


विज्वामयसु ने लिया दै--“कणसर्शाखुतिश्नेया स्थित्या सैबस्वरोस्यतै?-- 
25 स्पर्श, मींड, सूत से &७ति तथा उस पर ठदरने से वही स्वर हो 
जाता है। 


स्थाप्ड नशा में प्रचलित है | 


| # सद्भीत विशारद # ३६ 
ह &शमएजलपकट/ उधम ापयदाआतउ कम नपउउइक- 4 भमवलतक>9 कान क४5५ सन अत उ< भात5 मदर पा पलक च का एप शाधर पर शक स्पउत भा उप आानाातल 5 रू प्रसपा5पफउ लक अत असलामउकर 
सद्भीत दर्पशकार दामोदर पंडित ने श्रुति और स्वर का भेद इस प्रकार बताया है:--- 
भ्रुत्यनंतरभावित्व॑ यस्यानुरणनात्मकः | 
स्निग्धश्व रंजकश्चासी स्वर इत्यमिधीयते॥ 
स्वयं यो राजते नादः स सघरः परकीर्तितः । 


भावार्थ--श्रुति उपन्‍न होने के पश्चात्त जो नाद तुरन्त निकलता है तथा जो प्रतिध्वनि 
रूप प्राप्त करके मधुर तथा रंजन करने वाला होता. है, उसे स्वर कहते हैं। जो नाद स्वयं ही 
शोभित द्वोता है ( मधुर लगता है ) तथा जिसे अन्य किसी नाद की अपेक्षा नहीं होती, 
उसे “स्वर” सममंना चाहिए । हे 





इस व्याख्या से भी यही निष्कषे निकलता है कि टंकोर मांत्र से जो क्षणिक ध्वनि 
च्ग्रो / 92. 
( आवाज़ ) पैदा हुई, वह श्रुति हे ओर फिर तुरन्त ही वह आवाज स्थिर होगई तो बह 
६६ 
स्वर” है । 


भ्रुतिख्वरूप:-- 
स्वरुपमात्रश्रव॒णान्नादी5नुरणन बिना । 
भ्रुतिरित्युच्यते भेदास्तस्या द्वाविशतिमंता! ॥ 
। --सड्भीतदपेण 


अथोत्‌ू--प्रथेमाघात से अनुरणन ( प्रतिध्वनि ) हुए बिना जो हस्व ( टंकोर ) नाद 
घत्पन्न होता है, उसे श्रुति सममकना चाहिए। 


श्रुति और स्वर देखने में यह दो नाम अवश्य हैं; किन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाय तो 
भ्रुति और स्वर में कोई विशेष अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों ही सज्लीतोपयोगी आवाजें हैं, 
दोनों का ही प्रयोग गायन-वादन में होता है और दोनों ही आवाजें स्पष्ट सुनी जा सकती है 
अब श्रुति और स्वर का भेद सरलता पूर्वक सममाते हैं:-- 


श्षति-सुरीली ध्वनियों के एक समूह में से सन्जीत के प्राचीन पंडितों ने २२ श्थान 
ऐसे चुन लिये, जिनकी आवाज़ें परस्पर नीची ऊंची हैं और जो सल्नीत में उपयोगी सिद्ध 
: हुई हैं। इन्हें ही श्रुति कद्दा है। 


स्वर--इसके बाद उन्हीं २२ ध्वनियों में से १९ ध्वनि ऐसी चुनेली गईं, जिनकी 
आवाज़ें परस्पर नीची ऊँची हैं, किन्तु उने २२ ध्यनियों में परस्पर जो अन्तर 
( १ ४२०४], ) है, वह बहुत ही सूक्ष्म है ओर इन १२ ध्वनियों में जो परश्पर 
अन्तर है चहू उनसे कुछ अधिक है । यही कारण है कि श्रुतियों के अन्तर को साधारण 
सन्नीतज्ञ की अपेक्षा एक उत्तम सद्नीतज्ञ ही अनुभव कर सकता है, किभ्तु श्वरों के अन्तर 
( फ़ासले ) को साधारण सल्भगीत प्रेमी भी पहचान लेते हैं। १२ ध्वनियों को फिर और भी 
संक्षेप किया तो ७ ध्वनि ही रह गईं। यह ७ शुद्ध स्वर हुए और वे १२ स्वर शुद्ध व 
---विक्रेत मिलकर हये। 


बी तजरा+ ० जला 





५ मदन ल. » जल  अ कलमी जिम 


४० # सद्गीत विशारद्र + 


न्‍रदाात"आलन॥/९७०१७/॥2९ पड यह ााा%ामभासणजान- ५ परधताला पास ५ कार: 3:0:ल्‍: लापता थार / मर ता कमा २६१४ ना इक पा धाात नकद: ल्‍4पक सदा रात पकानानल न नकनकथ_ 








किसी राग में छोई स्वर छगाते समत्र कोट-कोई गायक यह ऊहते देंसे जाते हू कि 
इस राग फा कामल पैंवत कुछ ऊ चा दूँ, तो इसका अर्थ यद्द नहीं फ्ि वद्दा पर कोमल की 
बजाय तीन्र बैवत लगेगा । उद्यदरणार्थ याग पूर्ती में भी कोमल घेचत लगता दे ओर मैरव 
में भी किन्ठु ग॒ुणी सन्नीतज्ञों का कहना दूँ कि पूर्वी में लगने वाला कोमल धेवत भैरव राग 
ऊँ फोमल वैयत से ? शुति ऊँचा है । इसी ग्रक्रार यह भी कहा जाता दूँ कि समाज राग के 
अपरोब में लगने घाली कोमल निपाद से, समाज के आरोह की कोमल निषाद १ श्रुति ऊ ची दे । 
इसका अर्थ यह हुआ कि समाज ऊे आरोह में जो फोमल निपाद लगेगी वह तीत निपाद 
की ओर कुछ सींचकर इस प्रकार ले जाई जायगी हि तोन्न निपाद को तनिऊ छूकर शीघ्र 
ही अपने स्थान पर वापिस आजाय, क्योकि यदि बद्मा अधिक देर लगगई तो वह श्रुति- 
प्रयोग न होरर स्वर प्रयोग होजायेगा । इस प्रकार दूसरे स्वर का तनिक स्पर्श करना या 
छूत्ा “फण” कहलाता ८ ओर ऊपर फह्या ही जा चुका है कि कश-मींड-सूत द्वारा जब 
स्वर दिग्याया जाता दे तम तक तो वह श्रुति है और उस पर ठहरने से बह्दी स्व॒र फ्हलाता है 
उपरोक्त नियेचन से श्रुति श्रोर स्वर की तुलना में निम्नलिसित ४ सिद्धान्त निश्चित हुए -- 


१--श्रुति २० होती हैं और स्वर ७ या १२ 


२--श्रुतिया का परस्पर अन्तर था फ्रासला ( ॥7/0एं ) रचरी की अपेक्षा कम 
होता दै । स्व॒रो का परस्पर अन्तर श्रुतियों फ्री अपेन्ता अधिक होता दै । 


३--कण मींड ओर सृत द्वारा जय किसी सुरीली ध्वनि फो व्यक्त क्रिया जाता है 
तब्र तक तो वह श्रति दे ओर जद्दा उस पर ठहराव हुआ तो उसे स्वर कहेंगे । 


४--्व॒ुति ओर स्थर की तुलना मे अहोवल पडित ने सद्नीत पारिजात में सर्प और 
कु डली का जो उदाइरण दिया है, उसके अनुसार सर्प की कुडली तो श्रुति है और सर्प 
स्वर है | कुडली के अन्द्रर जिस प्रफार सर्प रहता है उसी प्रकार श्रुतियों के अन्दर 
स्वर स्थित हैं ह 


प्राचीन तथा मध्यकालीन ग्रन्थकारों की श्रुतियां 


प्राचीनफाल में सन्नौत के दो झुर्य ग्न्थकार भरत और शाह्नदेच हुए हैं। 
पाचलथी शताव्ती से पहिले ही भस्त ने अपना असिद्ध ग्रथ “नाख्यशास्र” लिखा 
ओर तेरहवीं शताब्दी में शाह्देव ने 'सद्भीत रत्नाकर” नामक ग्रन्थ लिखा, 
जिसका प्रभाण आज भी चहुत सी सद्जीत पुस्तको द्वाए मिलता है । इन दोनो 
पडिते ने अपने-अपने ग्रन्थ में श्रुतयि का नर्णेन भी ऊिया है, जिसमे इन देने ने 
एक मत से छुल २० श्रुतिया ही मानी हैं, साथ ही उनका श्रुति स्वरविभाजन भी 
एक द्वी सिद्धान्त पर हुआ दे। अथोत्‌ ये देने द्वी पडित अपने सघरे का पररंपर 
सम्बन्ध मालुम करने के लिये छुति झा एक निश्चित नाद स्वीकार करते थे, यानी 


हे पध कण, म्पण, साड, सूत स ख्लात तथा उस पर ठटरने से वद्दी स्वर हो 
|! हम 


है # सड़ीत विशारद # ४9१ 





वे सब श्रुतियों को समान मानते थे। उनकी पहली श्रुति से दूसरी श्रुति जितने फासले पर है 


उतना ही फासला उन्होंने समस्त श्रुतियों में रक्खा है। इसी फासले या अन्तर को 
“अत्यांतर” कहते हैं। | 


“पड़ज ग्रामवीणा” पर भरत की श्रुतियां-- 


भरत का कहना है कि, ऐसी दो वीणा लेकर जिनमें सात-सात वार चढ़े हुये हों, 
बडे 5 णाओं के च््ी 
पड़ज ग्राम में मिल्षाओ। दोनों वीणाओं में जो _सात-सात तार चढ़े हुये हैं, उनको 
७ सरों में मिलाने का ढद्ल भरत इस प्रकार बताते हैं:-- 


पड़ज--यह स्वर॒ चौथी श्रुति पर रहे । 


रिपम--. सातवीं ” 
गंधार-- ?” नवीं ” 
मध्यम-- -? तेरहवीं १9 
पंचम-- ” सत्रहवीं ” 
घैवत-- ”  बीसवीं ” 
निधाद-- ? बाईसवीं ” 


इस प्रकार की वीणा जो तैयार हुई, वह “षड़ज गाम की” “अचल वीणा” 
कही जायगी । 


इसके पश्चात्‌ षड़ज गरम वाली इन दो वीणाओं में से एक वीणा लेकर 
उसका केवल पंचस का तार १ श्रुति कम करदो, और अन्य तारों को उसी प्रकार रहने दो 
अर्थात्‌ इस वीणा का पंचम वाला तार १ श्रुति नीचा होगया, बाकी सा रे ग॒ म 
थ नि यह ६ तार अपने-अपने स्थान पर कायम रहे। यह मध्यमगाम वीणा 
कही जायगी | के 


..._ इसके बाद, .इसी वीणा के शेष ६ तारों को भी एक-एक श्रुति कम कर दो, 
तो यह “चलवीणा” कही जायगी। इस चल वीणा पर सवरों की स्थिति इस 
प्रकार हो जायगीः-- 


स्वर- सा रे ग म प ध से 
अति नं८-२ ६ ८ १२ १६ १६ २१ 


अथात उपरोक्त सातों स्वर क्रमशः तीसरी, छटी, आठवीं, बारहवीं, सोलहनीं 
उन्‍नीसवीं और इक्कीसबी श्रुति पर पहुँच गये। ऐसा होने से यह स्पष्ट है कि पहिली 
पड़जगाम बोणा या अचल वीणा! से चलवीणा के सातों स्वरों में एक अ्रति का 
अन्तर होगया | हि 


कम भ्‌ न है हा 
.. इसके पश्चात्‌ भरत्‌ लिखते हैँ कि चलंवीणा के प॑चम को फिर एक श्रुति से कम 
करदो, और उसी प्रकार शेष ६ स्वरों को भी एक-एक श्रुति सीचे करदो तो स्वरों की 
---«भफथिति इस अकार हो जायगी। छः 


७२ # सड़ीत विशारद # 


:सर्ायानदकमपरवाााय मान नाप कान्माकाल्‍ परम तनापाधयइफत १ १७४९७ मीभएन्‍्या शत पतन ५04१ लता धरना भला ५ कक प्रा >कपरभामकाल्‍ कर्म नासफस्‍ लाया 


सा रेगमपवनतनि 
२ ४ ७९११ १५ श्य २ 








ऐसा होने से चलबीणा के ग॒ और नि जोफि ७ ओर २० नम्बर की श्रुतियों पर 
स्थिति हैं, अचल वीणा के रे और व से मिलने लगेंगे क्योंकि अचल वीणा के रे-व भी 
क्रमश ७ और २० नम्बर की अआतियों पर स्थित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि चलवीणा 
और अचल बीणा के स्वर में २ भ्तियों फा अन्त हो गया ! 


इसी प्रकार भरत ने चलवीणा के स्वर जो १-१ अति फ्म करके आगे ओर बताया दे, 
इसमे यह सिद्ध होता है कि, उनकी श्रुतिया परस्पर समानता रखती थीं, क्येकि यदि 
उनके आपमसी-फासले कम या य्यादा होते तो “अचल वीणा” का उपरोक्त स्वर निर्देशन 
सम्भप द्वी नहीं या। भरत के इसी सिद्धात अर्थात्‌ “समान श्रुत्यान्तर” को शाज्ञ देव 
भी मानते हैं । 


इसझे विरुद्ध मध्यफालीन विद्वानों ने श्रुतिया तो एक सप्तक में २२ ही मानी हैं, किंतु 
वे “समान शुत्यान्तर” वाले सिद्धात को स्वीकार नहीं करते। 


१४ वीं सदी से १८ वीं शताबढी तक के मध्यकरालीन विद्वानों में मुगय चार विद्वानों 
के सन्नीत-प्न्थ उल्लेसनीय हैं । 


(१) रागतरगिणी--यह अन्थ लोचनकवि ने १४ वी शताद्वी के आरम में लिसा। 
(० ) सब्बीत पारिजात---यह अन्थ प० अद्दोवल ने १७ वी शताब्दी के पूर्वार्ध 
में लिखा । 

(३ ) दृश्य कौतुक और हृढयप्रकाश--यह दोनों अथ हृदय नारायण देव से 
१७ वी शत्ताब्दी के उत्तराधे में लिसे। 


(४ ) राग तत्व विवोध--१८ वीं शताब्दी ऊे पूवरार्थ मे यह श्रथ श्रीनिवास पडित 
ने ज्िसा | 


चीणा के तार पर १२ स्वरा के स्थान निश्चित करने का सर्व प्रथम प्रयास 
“सद्भजीत पारिजात” के लेसक अद्दोवल परिडत ने क्रिया, इसके बाद हृदय नारायण 
आर भी निवास ने भी वीणा के तार पर स्परों की स्थापना अदहोवल के अनसार 
हीकीदे। 


यत्यपि भध्यकालीन परिद्यान “चतुश्चतुश्चतुश्बेव_” वाले श्लोक के अल्ुसार 
सात स्व॒रों का विभाजन २० श्रुतियों पर स्वीकार करते हैं, तथा प्राचीन परिडतों के 
अनुसार ही उन्होंने भी प्रत्येफ़ शुद्ध स्वर फो उस स्वर की अन्तिम श्रुति पर स्थित 
झिया है, हे प्राचीन ओर मच्यकालीन विद्दानों में श्रुतियों के समान आअतर पर 
मत भेद 


आधुनिक भ्रन्थकारों की श्रुतियां-- 


अपर बताये हुए श्राचीन और मध्यक्रालीन श्रण्कारों के विवेचन द्ाशा यह बताया 


5 है कि इन्दोंने अपना प्रत्येक श्र खर झन्तिमु श्वतत्‌ पर,,निश्थित्‌ (किया है 
| ) 


# सड़ीत विशारद # छ१े 





इसके विरुद्ध हमारे आधुनिक ग्रन्थकार अपना प्रत्येक शुद्ध स्वर श्रुति प्रथम पर स्थापित 
करते हैं। आधुनिक ग्रन्थकारों में “अभिनव राग संजरी” के लेखक भरी विष्णु नारायण 
भातखरडे का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने श्रुतियों के विभाजन के बारे में इस 
प्रकार लिखा हेः-- 

वेदाचलांकश्रुतिषु त्रयोदश्यां श्रुती तथा । 

- सप्तदश्यां च विंश्यांच दा्विंश्यां च श्रुती क्रमात्‌ ॥ 

पड़जादीनां स्थिति प्रोक्ता शुद्धाउ्या भरतादिभिः | 

हिन्दुस्थानीयसंगीते श्रुतिक्रमविपयेयः । 

ऐते शुद्धस्‍्वरा। सप्त स्वस्वाचश्रुतिसंस्थिताः ॥ 


अथौत्‌--भरत इत्यादि प्राचीन शासत्रकारों ने श्रुतियां शुद्ध खबरों में इस क्रम से 
बांटी हैं कि पड़ज चौथी श्रुति पर, रिषभ सातवीं श्रुति पर, गान्धार नवीं पर, मध्यम 
तेरहवीं पर, पंचम सत्रहवीं पर, धेवत बीसवीं पर और निषाद बाईसवीं श्रुति पर स्थित है । 
किन्तु हिन्दुस्थानी संगीत पद्धति में श्रुतियों को ७ शुद्ध स्वरों पर बांटने का क्रम इसके 
विपरीत रखकर प्रत्येक शुद्ध स्वर प्रथम श्रुति पर स्थापित किया गया है। 


इस प्रकार आधुनिक ग्रंथकार पहिली श्रुति पर षड़ज, पांचवी पर रिषभ, आठवीं पर 


गांधार, दसवीं पर मध्यम चोदहवीं पर पंचम, अठारहवीं पर घेवत और इक्कीसवीं श्रुति 
पर निषाद कायम करते हैं । 


प्राचीन व आधुनिक श्रति खर विभाजन--- 


निम्न लिखित कोष्ठक में प्राचीन ग्रन्धों ढ्वारा, श्रुतियों का शुद्ध स्वरों पर विभाजन 


दिखाया गया है, साथ ही आधुनिक सज्लीत ग्रन्थकारों ने शुद्ध स्वर कौन-कोन सी श्रुतियों 
पर माने हैं, यह भी दिखाया गया हे । 














श्रुति। प्राचीन ग्रन्थों के आधुनिक संगीत पद्धति के 
. | श्रुति नाम 

नं० शुद्ध स्वर स्थान अनुसार शुद्ध स्वर विभाजन 
१ तीब्रा '** 9 क० ० ०क मनन न्न्न मनन ह घड़ज 

२ | कुमुद्गती ह 

३ | सनन्‍्दा * 

४ | छन्दोवती * पड़ज 

४ | दयावती । रिषभ 

६ | रंजनी 

७ |रक्तिका रिपभ 








गांधार 





४४ # संद्लीव विशारद # 
सफाया कापानमतासपापासकस्कामक्‍ानान्‍॒ततकमड॒प रा पान पमारार जब फपरााा तरययवारदाक कसा कदर पारा पथ प;ान्‍फप5१ामा तय परप धरा नारा "कारन खकाल, 








१० | वजिका ४ | अध्यक्ष 
११ | प्रसारिणी से 

१२ | ग्रीति 

१३ ' मार्गनी ४  सध्यम 

१४ | चिंती ५52 7” । पचम 
१५ रक्ता 
१६ | सदीपिनी 
१७ | अलापिनी * | पंचम 
मदती 

रोहिणी ॥ 
र्म्या घैवत 


छ्ग्रा । 
क्षोमिणी निपाद 


यह तो हुआ श्रतियों का शुद्ध स्वर त्रिभाजन ) श्रव रददे « विक्ृत स्थर ! उसके 
लिये यह नियम दे कि जिस श्रुति पर शुद्ध स्प॒र कायम हुआ दै, उससे तीसरी श्रुति पर आगे 
वाला विक्वत स्वर आयेगा ) इस प्रकार शुद्ध खवरों से दो-ढो श्रुति पर विक्ृत स्वरों की 
स्थापना फरने पर यह तालिका बनेगी -- 





+ 





श्प घेचत 
१६ 


742 


२ 











निपाद 








ब्द 





२२ श्रुतियों पर आधुनिक पद्धति के १९ खबरों की स्थापना-- 








कील | के. | लिप्त... श्रुति नाम | स्वर । स्वर आदोलन 

१] तीब्रा सा ( अचल ) २४० 

२ | कुमुद्वती 

३ | मा! रे ( कोमल ) २४४, 

४ | बछुठोवत्ती दा 
४ ।& दयावती * रे वीम ) घर 

६ । रजनी & 
७ | रक्तिका ग॒ ( कोमल ) श्य्म 

हे दी ग( कीघ्र ) रेगडड.. 

१० | चजिका मे ( कोमल ) ३२० 

११ | असारिणी 


«रे | प्रीति में ( तीत् ) अश८१ 2 


% सड़ीत विशारद # . छप 











१३ | मार्जनी “४४, ४ दो 0 | 

१४। जिती”*'. ४ ४ प (अचल ) ३६० 

१४ | पक्ता" डे +४+ ला कर पल 
१६ | संदीपनी *“ “” | घ॒ ( कोमल ) ३६१३७ 
१७ | अलापनी के हे पी" ० लेजर 
् मदन्ती*** न्न्न न्न्न घ ( तीब्र ) ः १०४ 

२० | रम्या'ाौ ४४ ४: नि.( कोमल ) ७३२ 

२१ । जग्रा हैक. नि (तीत्र ) ४४५प्ईदच 

श्र च्ोभसिणी 3 5 न दा दर 5 अर 

१ | तीब्रान॥ ४5 ४ । सां ( तार ) | धु८० 





अब हम प्राचीन, मध्येकालीन ओर आंधुनिक संगीत ग्रन्थकारों का एक तुलनात्मक 
चाट देकर यह बताते हैं कि श्रति स्वर के बारे में उनके विचारों में कहां-कहां एकता 
ओर मतभेद है:-- 
प्राचीन-मध्यकालीन ओर आधुनिक ग्रन्थकारों का श्रुति-स्वर के बारे में 
हि विवेच 
- ... तुलनात्मक विवेचन 


(१) वे सिद्धान्त जिनपर तीनों ग्रन्थकार एकमत ह“ँ। 





प्राचीन ग्रंथकार मध्यकालीन ग्रन्थकार आधुनिक ग्रन्थकार 
( भरत-शाह्ल देव आदि ) | (अरहोबल, श्रीनिवास, लोचन) ( भातल्लण्डे आदि ) 
रर श्रुतियां एक सप्तक | *२ श्रुतियां एक सप्तक | २२ श्रुतियां एक सप्तक में 
में मानते हें । में मानते हैं । मानते हैं। ' 
शुद्ध तथा विक्ृत १२ | शुद्ध तथा विक्ृत १२ | शुद्ध तथा विक्रृत १२ स्वर 
स्वर इन्हीं २२ श्रुतियों | स्वर इन्हीं २२ श्रुतियों पर | इन्हीं २२ श्रुतियों पर बांटते 
पर बांटते हैं। बांटते हैं। हे । 


चीनी त+न+ 





घड़ज, मध्यम, पद्चम को को 
श्षतियां प्राचीन मन्थकारों की तरह । प्राचीन तथा मसध्यकालीन 
४-७४ श्रुतियां, निषाद 


धार व २० आातिया इन्होंने भी उसी प्रकार | ग्रंथकारों के अनुसार इन्होंने 
ओर रिपभ-बैवत की | ये. विभाजन स्वीकार | भी इसी नियम का पालन 
३-३ श्रुतियां मानकर | करके प्राचीन “सिद्धान्त | करके उनका मत स्वीकार 


स्रों हे की स्थापना | स्वीकार किया है। किया है | 
करते है । 


छ्द # संगीत विशारद # 








इस प्रकार यदि किसी स्वर का भुणातर हमे मालुम हो तो पढ़ज की आदोलन 
सरया २४० को उसमे गुणा कर देने से उस स्वर की आदोलन सख्या निकल आती दे । 
चाहें जिस स्वर का आदोलन सरया निकाली जाय, ऊितु पडज की मदद बिना वह नहीं 
निकल सफझेगी क्योंकि पडज ही सब स्वरो का आधार है | हु 


तार की लम्बाई के नाप से भी स्व॒रों का गुणातर निकल आता है। जैसे पडज के 
तार की लम्बाट ३५ इन्च है ओर मध्यम की लम्याई २७ इन्च है। अब हमसे इसका 
गुणान्तर निकाज्ञा तो ३६ में २७ करा भाग डिया, इसऊा अर्थ हा जा डे इस प्रकार 


फा स्वरान्तर है । अब इसी गुणान्तर या स्व॒रान्तर 


हि: 
इ्े 
के लेकर मध्यम स्वर की आन्दोलन सरया मालुम की जाबे तो इस प्रफार निकलेगी 


हा >६२४०--३२० क्योंकि पडज की मानी हुई आन्देलन सस्‍या २४० है और पडज 


पड़्ज ओर मब्यम में 2 ३फकाया 


मध्यम का स्परान्तर ई है इसलिये $ फो २४० से गुणा करके आसानी से मध्यम की 
आन्दोलन सर्या ३०० निकल आई। इसी प्रकार पचम की आन्दोलन सख्या निकालने के 
लिये सा--३६ इ च, पर-२४ इंच इनऊा स्व॒रान्तर हुआ ई$ यानी ई इसको पडज की 
आन्दोल्म सरया २४० से गुणा कर दिया तो औै»२४०७३६० 'प! की आन्दोलन 
सरया निकल आई | 


यह तो हुआ स्वरो की लम्बाई से आन्दोलन सस्या निकालने का नियम | अब यह 
बताते हैं कि आन्दोलन सरया से स्वरों की लम्पाई किस प्रकार निकलती है-- 


आन्दोलन संख्या से लम्बाई निकालना 


अगर दो स्प्रे की आन्दोलन सरया हमे मालुम हो तो उनकी लम्भाई भी निकाली 
जा सकती हे और यदि उनमे से एक ही स्व॒र की लम्बाई मालुम होतो गुणा तर 
( स्व॒रान्‍्तर ) निकाल कर लम्बाई मालुम की जायेगी। उदाहरणार्थ --पडज और मध्यम 
की आन्दोलन सस्याओं से हम म यम स्वर की लम्बाई मालुम करनी है, तो इस प्रफार करेंगे - 
पडढजर--२००” सध्यम ३०५” इनका गुणान्तर हुआ इ58--३ इस गुणान्तर का पडज की 
लम्बाई ३६ इब्ध में भाग दिया गया ३६-४5-२७ इ च मध्यम की लम्बाई निकल आईं। 
यहा पर एक बात ध्यान से रखनी चाहिये कि लम्बाई से आन्दालन निकालने मे तो स्व॒रान्तर 
का पडज की आन्दालन सस्‍या से गुणा करना दोगा ओर जब आन्दोलन से लम्बाई 
निमनली जायगी तब पडज की लम्बाई में उस स्व॒रान्तर का भाग देना होगा । इस प्रकार 
मालुम होगा कि तार की लम्बाई ओर स्वर को आन्दोलन सख्याका सम्बन्ध बिल्कुल 
चला दे। लम्बाइ घटेगी तो नाद या आवाज ऊँची होगी, जैसे सा की लम्बाई ३६ इच 
परी०४इच दी रह गई। सासेप फ्री आवाज तो ऊँची द्वो गई फिन्तु लबाई कम हो 
गई । इसके विरुद्ध स्पर ऊँचा होता है तो आन्दोलन स रया बढती है ओर स्वर नीचा 
होता दे तो आन्दोलन सस्या ऊम द्वोती दे | जैसे सा की आन्दोलन स रया २४० है और 
_ मी चढ़कर ३६० हो गई। 
पका है। जे 


# संगीत विशारद # 8६ 


2 23330: 3. 32303 505५-33: 2४2 ५५०७४ ४ वह ५लब लए ३५८2 लक रब थक पक कसर कप रथ पेय 


इस प्रकार ध्वनि ( नाद ) की दृष्टि से स्वर स्थानों का स्पष्टीकरण करने के लिये 
दो साधन हुए:-- 

(१) प्रत्येक ध्वनि के एक सैकिस्ड में होने वाले तुलनात्मक आन्दोलन बताना । 

(२) वीणा के बजने वाले तार की लंबाई के भिन्न-भिन्न भागों से ध्वनि की 
ऊंचाई निचाई बताना। 

हमारे प्राचीन ग्रन्थकारों को इनमें से पहिला साधन या तो मालुम नहीं था या 
उन्होंने उसका उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा । उन्होंने अपने ग्रन्थों में दूसरे साधन 
की ही चर्चा विशेष रूप से को है। प्रथम साधन ,की चचौ आधुनिक ग्रन्थकारों तथा 
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई है । 

सद्भजीत के इतिहास का मध्यकाल १४ वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी तक माना 
जाता है, इसमें सद्भीत के विद्वानों ने सद्भजीत पर कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे | जिनके नाम हैं- 

(१) सन्नीत पारिजात (२) हृदय कोतुक (३) हृदय प्रकाश (७) रागतत्वविवोध 
इत्यादि । * 

इनमें से मुख्य श्रन्थ सल्नीत पारिजात' हे, जिसके लेखक हैं अहोबल पंडित । 
इन्होंने ही सबे प्रथम वीणा के तार कीं लम्बाई के विभिन्‍न भागों से १२ स्वरों के ठीक-ठीक 
स्थान निश्चित किये। इसके पश्चात्‌ श्रीनिवास पंडित ने भी अपने लिखे हुए ग्रन्थ 
राग तत्व विवोध!' में १२ स्वरों के स्थान बताये है । 

प॑० श्रीनिवास ने वीणा के ३६ इंच लम्बे खुले तार पर पड़ज स्वर मानकर क्रमश 
बारहों स्वरों के परदे बांधने का ढड्ढ बताया है । 

पसिडित ओनिवास के स्वरों की स्थापना का. नियम सममभने से पहले हमें यह ध्यान 
रखना आवश्यक है कि भी निवास का शुद्ध थाट आधुनिक “काफी थाट” था, अर्थात्‌ 
इनके शुद्ध थाट में गन्धार ओर निषाद कोमल थे, जबकि हमारे सन्नीतज्ञ आजकल शुद्ध 


थाट बिलावल मानते हैँ। इसी प्रकार अन्य मध्यकालीन ग्रंथकारों के ७ शुद्ध स्वरों में 
ग--नि कोमल होते थे । उनके ७ शुद्ध स्वर इस प्रकार थे:-- 








सा (शुद्ध ) प ( शुद्ध ) 
रे ( तीत्र ) घ (तीत्र ) 
ग (कोमल ) नि ( कोसल ) 
स ( कोमल ) 





वीणा के तार पर श्रीनिवास के स्वर-- 


सबसे पहले श्रीनिवास परिडत, तार पड़ज और मध्य षड़ज का स्थान वीणा पर 
इस प्रकार बताते हैं 


पूवात्ययोश्वमेबोश्व॒मध्ये तारकसः स्थिति: | 
>>- ----..... ....प्रदर्ध _ खतितारस्थ - सस्व॒रस्य_ स्थितिर्भवेत्‌ ॥ 








पड़ज ( तार सप्तक ) 


मेरु से घुड्य तक जो वीणा का तार सिंचा हुआ है, इसऊे ठीऊ वीचों बीच में 
तार पडज स्थित दै। अथीत्‌ ३६ इच लम्बा तार मानकर उसके २ भाग करने पर 
28-२४ १८ 8 च पर तार पडज बोलेगा । 
सा 
मेर०..३३। | _____:_:  _:  ट0घुडच 
श्द्च चढ़ 


सा ( पड़ज मध्य सप्तक ) 


पूरे ३६ इच लम्बे खुले वार फो ग्रिना ऊिसी जगह दवाये छेडा जाये तो मध्य 
सप्तक का पडज चोलेगा । 
सा 


मेरु० ०घुडच 





३६ इन्च 

इसके बाद बताते हैं, अतितार पडज ओर मध्यम स्व॒रों के स्थान -- 
मध्यस्थानादिमपडजमारम्पातारपड जगम्‌ | 
सन्त कुर्यात्तदर्थे तु स्वरम मध्यममाचरेत्‌ ॥ 


सों (अतितार पढ़ज ) 
_. _ छुडच और तार पडज ( सा ) के बीच में जो १८ इन्च स्थान है उसऊे सध्य स्थान 
में अतितार पढ़ज स्थापित है अर्थात सा से ६ इन्च आगे जाकर अति तार पडज 
बोलेगा | 
सा सा सा 
हु | 
३६ कर 





० घुडच च्‌ 


मध्यम--- 
मेरु और तार पड़ज के वीच में जो १८६३ च वार है, उसके २ भाग ६-६ इ च के 
हुए, अ्रत मध्यम स्वर १८+ ६८-२७ इ च पर बोलेगा। श्रर्थात्‌ सा और सा के बीच से 





मध्यम स्वर है | 

सा मम सा 

पर | ॥ | भ 
इ्ट्ष् पे श््दट्च श्प्द्र्च डे 


पंचम-- 
भागत्रयसमायुक्त तत्यन्न फारितवम मत्रेत । 


पू्रभागद्याठगं स्थापनीयोड्थ पचमः ॥| 
पचम ब््य्ः श्री लन्ड 
हा तक इस मकर बताते हैं कि मेरे और तार मत के सीस से कलम 
की चढ़कर रे६० दें! गई डर 
दल 


बदल 


% सड़ीत विशारद # ५१ 


नि लिलिकिकिमीशलकिकि नकली» .ु॒॒बइइलाइााााााककाााााााााा ना थक नष भा नाना ता: 
िनशाशकनानकन आन क ५ कक का कक कक कम रस 
३ बराबर भागों में बांट जाय तो १८--२८-६ इंच पर पद्नम स्वर बोलेगा । इस प्रकार 
पद्म स्व॒र लम्बाई घुड़च से १८--६--२४ इंच हुई । 


प्‌ सां 
05 रमेश शीनमी लि आम लरलकम 2 मल मन या जी मन 
३६ ः ५4. श्८ 
गान्धार 


पृडजपंचममध्ये तु गान्धारस्थानमाचरेत्‌ । 
पडजपंचमर्ग खत्रमंशत्रयसमन्वितम्‌ ॥ 


घषडज और पद्चम के बीच में गन्धार हे। अथौत्‌ गन्धार स्वर पतन्चम से ६ इंच 
बांई ओर होगा और घुड़च से गन्धार की लम्बाई २४--६८-२३० इंच होगी । 
सा ग्‌ प्‌ सां 
पा  म अ 
३६ ३० २७ श्प ४ 
ध्यान रहे श्री निवास का यह गन्धार वर्तमान प्रचलित कोमल गन्धार है क्‍योंकि 
इन्होंने अपने शुद्ध थाट में ग - नि कोमल लिये है। 
ह रिपमि 
तत्रांशहयसंत्यागात्‌ पूर्वभागे तु रिभवेत्‌ । 


रिषभ स्वर को इस प्रकार बताते हैं कि पड़ण और पद्चम के बीच के स्थान के 
३ भाग करके सेरु के पूब भाग सें रिषभ स्वर बोलेगा सेरु और पन्नम के बीच का स्थान 
१२ इंच हे तो १९---३-४ मेरु से चार इंच पर रिषभ हुआ, इस प्रकार घुड़च से रिषभ 
की लम्बाई ३६--४ ८ ३२ इंच हो जायगी | 


सा रे प्‌ - सा 
न नए | | | | 
- श६ श्य्‌ २४७ श्ष 
रे घव 
- त्‌ 


पंचमोत्तरपड़जाख्यमध्ये घेवतमाचरेत्‌ ॥। 


पद्चम और तार षड़ज के मध्य स्थान में धेवत स्वर स्थित है ऐसा श्री निवास पंडित 
का कहना है, किन्तु प-सां के बीचोंबीच में घैबत स्थापित करके जब हम बजाते हैं तो 
कुछ रचा अथ्थौोत्‌ चढ़ा हुआ बोलता है, इस थोड़े से अन्तर के लिये श्री निवास का 
कहना है कि “स्व॒रसंवादिताज्ञान स्वरस्थापन कारणम” इसका भावार्थ यही है कि रिषभ का 
स्थान निश्चित्‌ दोजाने पर बैवत का स्थान “पड़जपद्चम भाव” से कायम कर लेना चाहिए। 
घेचत के उपरोक्त श्लोक में “सध्ये” का अर्थ बीच न मानकर क्षेत्र मान लेने से सब ठीक 
__ नोजातना से | >घदज़ परव्तस भाव का उ्युथे सदी ले क्रि. स्किय, पत्माण पाए 


नाग टओ फिक्‍ए2 दम 2,--+- 


प्र्र # सद्भीत विशारद # 


>रपरालह+9कर सास ाल-यामर पका मत अए उाकरेजडा4 6 पापीषजाप हक पक 5 नाक पारा क जदरयाकनिए:१यरद जाए टा।ड "प्र स॥अरूट जय राहरकपेमका की जाधपरा नाप आान०६५:3%:#04%52 #पलसपमलल 





डेढगुना ऊ चा है उसी प्रकार रिपभ से ढेढ्युना ऊ'चा बेचत है, गन्धार से डेढगुना ऊचा 
लिपाद है और मध्यम स्वर से डेढगुना ऊचा तारपडज होगा । 


इस हिसाब से रिपम का पंचम हुआ थैयत। गयार का पचम हुआ निपाद । 


सध्यम का पंचस होगा तार पडज। इस प्रकार “पडजपश्चम भाव” की निम्नलिसित 
४ जोडिया बनी | 


सपयो रिधियोश्मेय तथेव गनिपादयो। । 
संवाद; समतो लोके मस्योः स्वरयोरमिथः ॥ 


अर्थात, सा-प, रे-ध, ग-नि, म>सा। ये सवाद मह्ढीतज्ञो में 
प्रसिद्ध हैं ही । 


पड़ज ओर पद्चम स्वरों की ऊचाई नीचाई का सम्बन्ध ही पडजणपद्चम भाव 
कहलाता है, जिसका गुणान्तर १-.अर्थात डेढ दाता दै। पडज की लम्बाई ३६ इच है 


इसमे डेढ का भाग दिया तो ३६--१ ः व्ू२४ इंच पर पश्चम होगया | इसी प्रकार पश्चम, जो 


कि २४ हच पर स्थित है डेढ से शुणा कर दिया तो २९०२६ श्र ३६ इच पर पडज 


द्वोगया । अब इसी हिसाव को लेकर अर्थात्त्‌ पड़ज पद्चम भाव से रे - थ की दूरी निकाली 
गडे तो इस प्रकार निकल्ली -- 


चू कि रिपभ की लम्बाई ३२ इच दे तो ३२--१ 


न 


“397 ९ २०-१६ 
म्त्येर इ इसलिये (१दरइ्च पर 


घैचत स्वर स्थित हुआ। 
सा रे पु घ सा 
9 हाथ 
इ8... 3२ सह फल. ८ 
निषाद 


पसयोगेध्यमागे स्यात्‌ भागत्रयसमन्विते | 
पूर्भागद्यय त्यक्त्था निपादों राजते स्वरा ॥ 


पंचम और वारपडज की लम्बाई के 3 भाग करऊे पहिले २ भागों को छोड दिया 
जाये तो तीसरे भाग पर निपाद स्वर होगा | पद्चम और तारपडज के बीच को लम्बाई 
६ इन्च है, इसके तीन भाग किये गये &--3७२ इन्च | क्योकि पडज की लम्बाई ९८ 
इच है, अत १८--२५०२० इंच पर निषाद स्व॒र स्थापित हुआ। ह 


बह क्त-/---..0.ह0ई.080$0ह8[$हईहऔईह३॥ह॥ह8ह0॥े 
छा. 5 ड्ढ शक हि] श्ध 


प्‌ पी घढकर ३६० दो गई। ध्ययााा अर 


क सद्भीत विशारदं # ५३ 


वायाप्ाअयाान-अधानअर4ा४०७ कब भरता 0 (एल जाप 0204 2027: रान्‍प्ााताजएला2/पपाककारतालक्> द्राध नया उ्ाक पर यउपक पर प्यार पा 5 राइस या 0 कप आया एलता मारा» 
मा यम न 2  फ-+८« २>मकम- 6“ पतन मिल पक पलक नल नल 9+2८+न लत कल 


ध्यान रहे यह निषाद हमारा कोमल निषाद है, ऊपर हम बता चुके हैँ कि श्री निवास 
ने अपने शुद्ध थाट में ग- नि यह दोनों स्वर वे लिये हैं, जिन्हें हम आजकल कोमल 
ग-नि कहते है। 


उपरोक्त वर्णन के अनुसार श्रीनिवास पंडित के शुद्ध स्वर स्थानों को लम्बाई 
आपन्दोलनों सहित्त इस प्रकार हुई:-- 


श्रीनिवास के शुद्ध स्वर-- 








स्वर स्वर का पूरा नाम . - ... तार की लेबाई 0, 
संख्या 
सा षड़ज ( मध्य सप्तक ) ३६ इन्च २४७० 
सां घड़ज ( तार सप्तक ) श्प !? धुप० 
सं पड्ज ( अति तार सप्तक ) : ६ 7? ६६० 
सर सध्यम ( मध्य सप्तक ) श७ ?” ३२७० 
प पंचम ( ? ) र््ट ! ३६० 
हे गंधार ( द ) ३० ! श्घ८ 
रिपिसम (६ ”! ) ् २७० 
पु घेवत ( ” ) रश्जू- ५; ७०४ 
न - निषाद ( ” ) २० !? ४३२ 


है ज् 
वह तो हुए औनिवास के शुद्ध स्वर, अब रहे ४ चिक्रृत स्वर ( यानी को मल रिषभ, 
फोमल धेवत, तीत्रतर मध्यम, तीत्र गंधार और तीज्र निषाद । श्रीनिवास पंडित गधार और 


निषाद के विक्वृत होने पर उन्हें तीत्र गंधार और तीत्र निषाद कहते हैं, जबकि हमारी पद्धति 
सें ग- नि विक्रत होने पर कोमल ग - नि कहलाते हैं। 


श्रीनिवास के विकत स्वर 
कोमल रे | 


भागत्रमोदिते .मंध्ये: मेरोक्टमसंज्ञितात । 


भागदयोत्तर॑ मेरो! कूर्यात्‌ कौमलरिस्वरस | 


मध्य सा औरं शुद्ध रे के बीच में तारं की जितनी लम्बाई है उसके धीनें भाग किये 
....__ खेती कवक उपे जाजपडे स्थायी पशै था भेऊ मे हमसाओं उतपा एक >पपकनन को कक ने मा क- ॥ 





प््छ # संगीत विशारद # 
सरकार 7रंन्वकपका0क: चर मनदडाद का पाप ाकत फराकत- कार ाापन5 २ नकदाप तप भ्तपपडर2€तदापज: ० पदक कर भनततारकन१०5४ उप 220८ ए८:+रटर सा धयरआ ५2२० कएस कर जन कवर. 
सा और रे फा अन्तर ४इ च है, इसके तीन भाग ऊजिये तो अत्येऊ भाग डे इच 
हुआ । क्‍योंकि रे की लवाई घुडच से ३२ इच दूर दे अत ३२--३८०३३१ इच पर 
फामल रे स्थापित हुआ। नीचे के चित्र मे पडज ओर शुद्ध रिपभ ऊे तार की ४३ च 
ई दिखाकर ३ भाग करके कोमल रिपम ढिखाया जाता है -- 
सा रे | 


| | 


श्धः कि 3३३7 
तंत्र 

मेरुघवतयोम॑ध्ये तीत्रगाधारमाचरेद । 

मेरू ( पडज ) ओर घैवत के बीच में तीम्र गन्वार हैँ। मेम और ध का अन्तर 

इस प्रकार है ->स ३४--घ २१६८-१४६ इसका आधा हुआ ७३ इच। अत तीजत्र 

गान्धार की लवाई घेवत से ७३ हुई और घुडच से हुई २१६ --७३--२८३ इच। नीचे 

के चित्र मे मा और व के बीच में तीघ्र गन्धार दिसाया है । 
सा गण 


द्द् दर] 
तीत्रतर मध्यम 
भागत्रयविशिष्ठेस्मनू. तीत्रगान्धारपडजयो! | 


पूर्वभागोत्त मध्ये मे तीघतरमाचरेद्‌ ॥ 
तीत्र गान्‍्यार और तार पडज के मध्यम के तीन भाग करके प्रथम भाग पर 


तर मध्य स्थापित द्वोगा। त्तीत्र ग और तार सा का अन्तर दपछु--१८ १ण्ड 


श्य 


। 


७ 
5 
क्र 


2 अ किये १_३२ 
अभाव चुए हुआ इसके ३ भाग किये गये तो न २३८०८ इंच का श्रत्येफ भाग होगा। 








:% तीघ्तर मध्यम घुडच से १८+ “---+ >इच की दूरी पर होगा । नीचे ऊे 
चअत्र म तारपडज ओर तीज्र गन्धार के बीच में तीन्र मध्यम का स्थान देखिये -- 
ग रस स 
न | | 
सफदर 44 0 हि श्र 
हे कोमल घेवत 


भागत्रयान्विते मध्ये पचमोत्तरपड़जयो।। 
फोमलो घेवतः स्थाप्यः पूर्वमागे विवेकिभिः || 
पचम ओर तारपडज के बीच के तार की 5इच ल्बाई के ३ भाग करें तो फोमल 
घब॒त पचम से पहले भाग पर होगा । क्योऊि पचम की लबाई घुडच से २४ इच हे इसमे 
में + पाये जायेंगे तो २० इच पर कोमल घेवत उपरोक्त श्लोक के अनुसार होना चाहिये । 


फ-नर कर बरत हट ज्यिसएाए एफ खनओि 


%# सड़ीत विशारद # ५५ 





पृडज पंचम भाव से ही निक्रालना होगा तम्ती कोमल थेवत का सही-सही स्थान 
मालुम हो सकेगा । 

जिस प्रकार पडज पंचम भाव द्वारा शुद्ध घेवत की | बाई शुद्ध रिषम की सहायता 
से निकाली गई थी उसी प्रकार कोमल रिषम की सहायता से कोमल धेचत की लंबाई 
निक्लेगी:--- 


रे की लंबाई ३३ * है इसमें डेढ़ का भाग दिया ३३.० - श्र द् ्ड >< 


अथात कोमल घेबत की लंबाई घुडच से २०--इ'च बिलकुल 


तीतच्र निषाद-- 
तथेव घसयोमेध्ये भागत्रयसमन्विते । 
पूवेभागद्दयादृध्ये' निषाद तीत्रमाचरेत्‌ ॥ 
घैेवत और वार षड़ज की लम्बाई ( जो कि न इन्च है ) इसके तीन भाग किये 
जायें तो धोवत से दूसरे भाग पर तीत्र निषाद स्थित होगा । अथीत्‌:-- 
घेवत २१ इ - तार षड़ज १८ 5 बयरे न्‍+ - इच का प्रत्येक भाग हुआ 


और घुड़च से तीत्र निषाद की लम्बाई १८+ _+- १६ _ इ'च हुई। नीचे के चित्र में 
धेबत ओर तार षड़ज के ३ भागों में तीत्र निषाद देखिये:-- 


घ मिलन अििििफ सां 
२१. 3 म 


इस प्रकार श्री निवास के पाचों विक्रृत स्वर निश्चित हुए जिनको लम्बाई 
निम्नलिखित नक्शे में देखिये । 


--श्री निवास के ५ विक्ृत खवर-- 


कर खरकादानाण | वकील... | चलन... | स्व॒र का पूरा नास 
[ 












तार की लम्बाई आन्दोलन 





१ ै है ०4 
रे | कोमल रिषस ( मध्य सप्तक ) | हा रच गज 
भे | तीजन्रगां । श्८-- ? ३० 
धार श ३ ये 4३ 
र्म॑ तीब्रतर सध्यम 9) स्श्रू- 3) | ्धः र श्र 
घ फोमल धोषबत आर 500 8 ३८८ 
झ् 5 3६ घ प्र 
ले 
2 याद बे 0 5 आओ | 9४२ 





प्र्८ # सद्नांत विश्राद # 





वीणा के तार पर 
श्री निवास तथा मंजरीकार के स्वर स्थान तथा आंदोलन संख्या 





ओऔ निवास के स्वर स्थान | मजरीफार के स्वर स्थान 








आन्दोलन लम्बाई | आन्दोलन 


पडज शुद्ध ३६ इच। रछ४० पड़ज 2६ इच| २४० 
| 
रिपभ कोमल ३३च श श्श्ध्यू रिपम कोमल | रे४ ” | न्श्क 


स्व॒र नाम लम्बाई स्पर नाम 

















रिपम शुद्ध 3० ?| २७० रिपम तीत्र 
गन्धार शुद्ध, ३० ?।| मप्फ८ गधार कोमल 
्‌ १७ 
गन्धार तीत्र ८ ११ के तीत्र 
न्धार ती रेणद | ३०१३३ गवार तीत्र 
मध्यम शुद्ध २७. ?”| ३२० मध्यम कोमल 


३४... | है 
मध्यम तीत्रतर | २४ न रे४४पपृच्र मध्यम तीत्र 33८ 





पचम शुद्ध श्छ ?| ३६० पंचम रछ ? | ३६० 


२२--- 9 ३८८- हि मे 
घैवत कोमल हद ”| शेपमणू घैवत कोमल रद” | शेप 
हि 
चैवत शुद | इशचू ”| ४०४ चैचत तीत्र २९” ४०५ 
निपाद शुद्ध २०. ”| ४३२ निपाद कोमल | २० ४३२ 
हि 8 [4 -४ 
निपाद तीत्र ध्ध्यू ”| ध्थ्ग्वृद निषाद तीत्र शा ध्श्न्ुर 
पडज शुद्ध (त्तार)। १८ ”| ४४० तार पडज श्प घ्ु८० 





उपरोक्त तालिका से यह स्पष्ट है कि श्री निवास के सभी शुद्ध स्वर स्थान मजरीकार 

ने मान लिये हैं, केबल कुछ पिक्ृत स्व॒र स्थानों ऊे बारे में इन दोनों विद्वानों के मत नहीं 

मिलते श्रव आगे हम यद्द लिसते हैं क्रि इनका मतैक्य तथा मतभेद कौन-कौन सी 

बातों पर दे । 

मतंक्य ( समानता ) 

(९) दोनों द्वी विद्यम कोमल पैयत तथा शुद्ध घैयत को पडज पचम भाय से निकालकर 

चीऋफओं 2, है क्लोफपिरक व्टफओओे में + 
न्वटाप जयिग ता ० बघ ५ + 
छू >मशतर ला नानात 


7 7 हा 3.0 


# संद्भीत विशारद # 


वारयाला ममता पाक फाएकरतहत भा का कमाना दान सतादकत, तप सर पहना पाक८0 कला भदररप पाना लात समलकत करा भत्ता ्पआाउ काया । पारा पक सा उ/ा रख बरट कद ताक प एक) 


४५€ 





२--दोनों ही विद्वानों ने तीत्र निषाद को भिन्‍न रीति से वीणा के तार पर स्थापित करके 


एकमत से उसकी लम्बाई ( १६३ इच्च ) स्वीकार की हे । 


] 


३--दोनों ही विद्वानों ने कोमल रिषभ, तीत्र सध्यम और कोमल घैवत यह ३ स्वर वीणा 
के तार पर भिन्न-भिन्न रीति से स्थापित किये हैं। 


४--कोमल रे, कोमल ध. और तीत्र म॒ को छोड़कर शेष स्वर स्थान दोनों ही विद्वानों के 


एक से है । 


५४--दोनों ही विद्वानों के शुद्ध स्वरों तथा कोमल गन्धार और कोमल निषाद के स्थानों को 
वर्तमान सद्जीतज्ञ मानते है और वे हिन्दुस्थानी सद्भीत पद्धति में प्रचलित है । 


मतभेद ५ असमानता 2 ह 


अओऔनिवास 


१--शुद्ध थाट में गंन्धार निषाद कोमल 


रखते है। 
२--हमारे काफी ठाठ को शुद्ध थाठ मानते हैं । 


३--सा ओर रे के तार की लम्बाई के तीन 
भाग करके सा से दूसरे भाग पर कोमल रे 
स्थापित करते है, जिसकी लम्बाई घुड़च 
से ३३ इच्ब होती हे । 

४--कोमल पघैवत 
करते हैं । 


२२३ इञ्व पर स्थापित 
४--तीत्र निषाद १ ध्ट इन्च पर स्थापित 
करते हैं। ु 
६--तीघ्र निषांद का स्थान निकालने के लिये 
तींत्रध ओर तार षड़ज के तार की 
लम्बाई के तीन भाग करके तीत्र ध से 


दूसरे भाग पर तीव्र नि बीणा पर 
करते है । 


७--तीत्रतर मध्यम ३४. इन्च पर स्थापित 
करते है। 


८--कीमल रिषस ३३३ इन्च पर स्थापित. 


करते हैं, क्योंकि इन्होंने सा और रे की 
लम्बाई के ३ भाग करके कोमल रे को 








मंजरीकार ( भातखरडे ) 





१-शुद्ध थाट में गन्धार निषाद तीत्र (शुद्ध) 
रखते हैं। 


२--बिलावल थाट को शुद्ध थाट मानते हैं । 


३--सा और रे के तार की लम्बाई के दो 
भाग करके इन दोनों स्वरों के ठीक 
सध्य में कोमल रे की स्थापना करते हैं, 
जिसकी लम्बाई घुड़च से ३४ इच्ध 


होती है। 

४-कीमल_ घेबत २२ इन्च पर स्थापित 
करते है । 

४--तीत्र निषाद १६ इन्च पर स्थापित 
करते हैं । 

६--षड़ज पंचम भाव से तीब्र निषाद की 


लम्बाई निकाल कर वीणा पर इसका 
स्थान निश्चित करते है। 


७-तीत्र मध्यम २४-- इन्च पर स्थापित 


चर 
करते है । 
प--कीसल_ रिषभ ३४ इन्च पर स्थापित 
करते है| क्‍योंकि इन्होंने सा और रे 
की लम्बाई के २ भाग करके उनके मध्य 


_ |! में कोमलररि ८७. 
के हे मा हे 


निज जलल++ या, गये हम्यर अयागा एएि उम्म्यया मो । 





६० # सद्जीत तिशारद %# 








६--कोमल रे, कोमल ध और तीम्रतर म | ६--इनऊे कोमल तीत्र या शुद्ध और पिक्ृत 
को छोडकर बाकी सत्र शुद्ध और सभी स्थर एक मत से वर्तमान हि दु- 
विक्ृत स्प॒र॒ वर्तमान हिन्दुस्थानी सज्लीत | स्थानी सह्दीत पद्धति से प्रचलित हैं। 
पद्धति में प्रचलित हैं। 


१०-कोमल रे, तीघ्रतर॒ म और कोमल घ | १०-कोमल रे तीन्र म और कोमल ध इनके 
यह तौन स्वर सड्जीत पारिजात तथा यह तीनो स्पर स्थान मध्यकालीन ग्रन्थ- 
अन्य मध्यकालीन प्रन्थफारों के आधार कारों से मेल नहीं ग्पाते। यह इनके 
पर हैं। स्वय आविप्कारक हैं । 


भारतीय तथा योरोपीय स्वर सम्बाद 


हिन्दुस्थानी सड्जीत पद्धति में जिन स्परो को सा, रे, ग, म, प, ध, नि कहा जाता है, 
पश्चिमी ( ऑग्रेजी ) सद्जीत पद्धनि में इन्हें 700 ॥२७ | 77४ 50 ..8 56 कहते है 
उन्होंने अपने निर्यारित स्पर स्वेंडर्ड के लिये सप्त स्वर्रों के सक्तषिप्त नाम या इशारे इस 
प्रकार कायम ऊिये हैं. 


०८7० छ छ ७ 8 8 इन स्वर सकेतों के आधार पर द्वी पश्चिमी तथा 
अन्य देशों के सज्जोत कलाकार ( &॥08 ) अपने-अपने वाद्य (॥४प्रश० ॥7तप्रशशथा) 
तैयार करते हैं। 


ऑमग्रे जी के उपरोक्त स्व॒रों की तुलना यदि हिन्दुस्थानी सल्लीत पद्धति के स्वरों से की 
जावे तो दोनों में काफी अन्तर दिखाई ठेता है। यद्यपि पश्चिमी सड्जीतज्ञ अपने ७ स्परों 
क्रो हमारी सद्भीत पद्धति के लगभग विलाबल थाट अर्थात्‌ शुद्ध स्वर सप्तक के समान 
मानते हैं, किए भी हमारे और उनके स्वर की आन्दोलन स स्था में ऊछ अन्दर दिसाई 
पड़ता है । इसका कारण यह है फ्ि हमारे और उनके स्वरान्तर अलग-अलग हैं | 


थे अपने सात स्वर्रो जो तीन भागों में विभाजित फरते हैं. (१) मेजरटोन श०]०- 
7०7० (२ ) माइनरटोन (707 [0०78 ( ३ ) सेमीटोन 50॥॥ 707७ पश्चिमी विद्वानों 
से अपने सात स्वरो का परस्पर अन्तर अर्थात स्परान्तर निकाल फर उनकी आन्दोलन 
स ख्या निश्चित की दे, इनके स्वरान्तर ( फासिले ) इस प्रफार हैं -- 


०-0० |6 7-8 | छह | फ-० | 6-0 | ४-5४ ४-८ 
डे ० 4६ र्ः श० १६ 
मद 


६; 
& श्र | ८ & द्द हू 


| इन म्वरान्तरों में पहला, चौथा और छंटा स्वरा-तर मेजरटोन दूसरा और पाचवां 
खरातर माइनरटोन तथा तीसरा और सातवा स्वरान्तर सेमीटोन कहलाता है । 
उपरोक्त स्वरान्तरों के द्वारा ही परश्चिसी सह्ीत, परिडितों ने स्व॒रों की आन्दोकन 
५ ० घरीजण हुक सकार निश्चित की है -- -_ 





४ सज़ीत विशारद # छ्र्‌ 








आप मम आंदोलन 
संख्या (मंजरीकार) 


हिन्दुस्थानी में ... पश्चिमी 
उन्तके स्वर नाम | आंदोलन संख्या 








| 








रे कोमल २४५६ २४४प-ु 
8, रे तीत्र २७०५ म्७छ० 
ग॒ कोमल श्पप | स्प८ 

| १७ 

१) ग तीक्र ३०० ! ३०११ 
पा से कोमल ३२० | ३२० 
| हे 

१ । श ९2 

म॑ तीजत्र ३३७-- इशप्दूड 
(5 प॒ (अचल) ३६० । ३२६० 
| ३ 

ध्‌कोमत्त ३८७ रेपशदृदु 
घ॒ तीब्र 8०० > १०४ 
नि कोमल थ्र्श्र भरेर 

_9 
सा (तार) ४८० | ४८० 


उपरोक्त नकशे से यह स्पष्ट है कि पश्चिमी विद्वानों द्वारा निर्धारित किये हुए रे कोर 
ग॒ तीब्र, में त्तीत्र घ॒ कोमल, ध ॒तीत्र तथा नि तीत्र इस ६ स्वरों के आन्दोलन मंजरीः 
अथवा हिन्दुस्थानी सद्गीत पद्धति के आंदोलनों से मेल नहीं खाते | केवल सा अचल, रे रत 
ग॒ु कोमल, म कोमल, प अचल ओर नि कोमल के स्वरान्दोलन ही हमारी पद्धति से ठीक-? 
मिलते हैं। 


नोटः--कुंल सद्गजीत विह्यनों का मत है कि अं ग्रेजी स्वरों में से |; को सा मान 
ही सप्तक कायम करनी चाहिये । 


! ॥ ॥ बीवी हि दा। ॥ 6 
४0 ॥ | ख्ड्ा हू] पी ह# 
४३ आग के ४४ 
5 
हक] ऋ5> का 


हा] 


थाट पति का विकास 





१५ वी शताब्ली के अन्तिम पाल मे रागतरगिणी के लेसक लोचन कवि ने रागों 
के वर्गीकरण की परम्परागत शैली ग्राम और मूच्छना का परिमार्जन करके मेल अथवा 
थाट को सामने रकया | उस समय तक लोचन क्यि के लेसानुसार १६०० राग थे जिन्हे 
गोपिया कृष्ण के सामने गाया करती थीं, किन्तु उनमे से ३६ राग प्रसिद्ध ये। उन्होंने इन 
सब बसेडों फो समाप्स करके १६ थाट या मेल इस प्रकार कायम ऊिये -- 

२-भैरपी २-टोडी ३-गौरी ४-कर्नाट ई-फ्रेदार ६-£मन ७-सारग ८-मेघ 
६-वनाओ १०-पूर्वी ११-मुसारी १२-दीपक | 


लोचन के मेल थार्टों को जन्य राग व्यवस्था इस प्रफार हैं।-- 


१-मैरवी --१-मैरबी २-नौलाम्वरी | 
२-तोडी --१-तोड़ी । था 
३-गीरी --१-मालब २-श्री गोरी ३-चैती गौरी ४-पहाडी गौरी ४-देशी तोडी 
६-देशिकार ७-गौर ८-त्रियण ६-मुल्तानी १०-धनाशी ११-वसत १२-रामकरी 
१३-गुजेरी १४-बहुली १४-रेबा १६ भटियार १७-पट १८-पचम १६-जयतश्री 
२०-आसायरी २१-देगगवार २२-सेँववब्यासावरी २३-शुणऊरी ) 
४-कंणोट--१-कानर +-वेगीश्वरी कानर ३-स्म्बाचती ४-सोरट ४-परज ६-सारू 
७-जैजयती ८-ककुमा &-कामोद १०-कामोदी ११-मौर १०-सालफौशिक 
१३-हिंडोल १४-सुप्राही १४५-अडाणा १६-गौर कानर १७-शी राग । 
४-कैटार -“-१-करेदारनाट २-आभीरनाट 9-सम्बावती ४-शफ्रामरण ४-विहागरा 
६-हम्मीर ७-श्याम ८-छायानाट ६-भूषपाली १०-भीमपलासफा ११-कौशिफ 
१२-मारू | 
६-इमन --१-इमन ?-शुद्धकल्याण ३-पूरिया »-जयतकल्याण | 
७-सारग --१-सारग २-पटमजरी ३-बृन्दावनी ४-सामत ४-बडहसक | 
उत्मेव -मेघमस्लार २-गोडसास्ण दे-लाट #-वेज्ञावनी #४-अज्ैया ६-सुहदू 
७-देशी सुहु 5-देशाग्य ६-शुद्ध नाट । 
६-वनाओ -१-वनाश्री ? ललित । 
१०-पूर्वी --१-पूर्वी ॥ 
११-मुखारी -१-सुफ़ारी | 


+# सज़णप पनद्ारुणू के  झ 





लोचन के बाद बहुत समय तक मेल या थाट के बारे में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई । . 
१६४४ ई० के लगभग श्री हृदयनारायण देव ने लोचन के उक्त थार्टो के वर्गीकरण की 
पुष्टि करते हुए इस प्रकार व्याख्या की:-- 


१-भैरवी- शुद्ध स्वर 'सांशन्यासा च सम्पूर्णा पड्जादिभेंरवी भवेत्‌ | 
२-कर्नौट--कर्णाटख्रय सम्पूर्ण: पड़जादिः परिकीर्तित!: ॥ 

दे 0 
३-सुखारी -कोमल घेवत “'ध कोमला मरुखारी स्पात्यू्णाधादिक मूधेना |! 


४-टोड़ी -कोमलपेभपैवतो, तीत्रतरगांधारनिषादों च। 
कोमलपभधा पूर्णा गांशा तोड़ी निरूप्यते ॥ 


४-केदार-गांधार और निषाद । 

६--यमन -तोव्रतर गान्धार, धेवत और निषाद | 

७--मेघ--- | 

८-ढंदयराम-तीव्रतम गांधार, मध्यम ओर निषाद 
धस्यतीत्रतमत्वेष्ध तथा तीव्रतमो मनी । 
इह्ैबोत्य छ्षिता पूर्णा हदयाद्यारिभोच्यते ||! 


६--गौरी-- 
१०-सारंग--- 
११-पूवौ-- 
१२-धनाओभी-- 


सत्रहवीं शताब्दी में थाटों के अन्तर्गत रागों का वर्गीकरण प्रचार में आगया थां 
जो उस समय के प्रसिद्ध ग्रन्थ सज्जीत पारिजात और रागविबोध से स्पष्ट हे। इसी काल में 
ओलिवास ने मेल की परिभाषा करते हुए बताया कि राग की उस्त्ति थाट से होती है और 
थाट के तीन रूप हो सकते हैं औड़व, पाडव और संपूर्ण । उसके पश्चात सत्रहवीं शताब्दि 
के अन्त तक थाटों की संख्या में विद्वानों का विशेष मतभेद रहा । उदाहरणाथ राग विबोध 
के लेखक ने थाटों की संख्या २३ बताई, स्वरमेलकलानिधि के लेखक ने २० बताये, 
चतुद॒ण्डिप्रकाशिका के लेखक ने १६ लिखे आदि । 


दक्षिणी सद्नीत पद्धति के विद्यान लेखक पं० व्यंकटमखी ने था्ों की संख्या निश्चित 

करने के लिये गर्ित का सहारा लिया और पूर्ण रूप से हिसाब लगाकर थाटों की कुलननिश्चित 

संख्या ७२ बताई | इसके बारे में अपने दृढ़ विश्वास के साथ उन्होंने कहा कि इस संख्या में 

सब्लीत के जनक भगवान शंकर भी घटाबढ़ी नहीं कर सकते । ७२ में से व्यंकटमखी ने १६ 

आट काम चलाऊ चुनलिये, जिनकी तालिका आगे दी जायगी। व्यंकटमखी की इस थाद 
७४०७७७७छ७७७2७0७ 


० 000 0॥0:00000७ ०0०७ कि आए ्आ अप: लम--- का फौ-+२००२क्क्ज-- 


६४ # सद्जीत विशारद # 





हम मम++परनयननन नमन + कक कक न कक न  ड पक मकर कक ०2 ००००००2०>म 
सस्या को ठक्तिणी सद्जीतन्नो ने तो अपनाया किन्तु उत्तरी चिद्दा्नों पर इसका विशेष प्रभाव 
नहीं पडा ) फिर भी उत्तर भारत फे मद्गीतज्ञ थाटों की कुल निर्पारित ७३ चाली सस्या को 
गलत नहीं मानते | थाटो की यह सख्या अंधिक होने के कारण उत्तरी पद्धति के लिये 
अनुकूल नहीं रही, अत आधुनिक काल के विद्वान सद्गीताचाये प० विप्णुनारायण भातसडे 
ने उक्त ७२ थाटों में से केयल्न १० थाट चुनकर समस्त प्रचलित रागों का वर्गीकरण किया, 
जिसे उत्तर भारतीय मद्गीत वियार्थियों ने अपना कर राग-रागिनी की प्राचीन पद्धति से 
अपना पीछा छुडाया । इस प्रकार लोचन कवि से आरम्म होकर यह थाट पद्धति चक्र 
काटती हुई भरी भातसण्डे के समय म आफर बै्लानिक रूप में स्थिर होगई । 


थार व्यास्या 


मेलः स्व॒ससमृहः स्पाद्रामव्यननशक्तिमान्‌ | 
+श्रभिनयरागमज्जरी 


ऋआयोतू-मिल्ए ( थाट ) स्वर के उस समृह को झदते हैं, जिससे राग उत्पन्न हो 
सऊँ। नाद से स्वर, स्परों से समऊ ओर सप्तक से थाट तैयार दवोते हैँ । 


पक सप्तऊ में शुद्ध बिकृत ( कोमल दीघ् ) मिलकर छुल १० स्प॒र दोते हैं, यद्‌ पहले 
बताया द्वी जा चुका है | इन्दीं १+ स्व॒रों करी सद्दायता से थाट तैयार होते हैं। थाद को ही 
सरकृत में 'मेल' कहते हैं.। 


(१) यद्यपि था १२ खरो से तैयार किये गये हूं, किन्तु एक थाट में ७ स्थर ही 
लिये जाते हैं, यह ७ स्थ॒र उन्हीं १० स्वरों में से चुन लिये जाते हैं। 


(7) घे सात स्वर, सा रे गम प ध नि इसी क्रम से ओर इन्हीं नामों से 
होने चाहिये । यह दो सकता है कि उपरोक्त ७ स्वरों में कोई कोमल यथा कोई तीत्र लेलिया 
जाय, गरिन्‍्तु सिलसिला यही रहेगा । राग में यह स्पर इस क्रम से हों था न हों, किन्तु थाट 
में इस क्रम का होना आवश्यक हू। राग से ७ स्वर से ऊमर भी हो सफते हैँ, किन्ठु थाट मे 
७ स्वरों का होना जरूरी हैं । अर्थात्‌ थाट करा सम्पूर्ण होना आवश्यक है, क्योंकि बहुत से 
ऐेसे राग हैं जिनमें सातों स्वर लगते हैँ, इमलिये थाट में सातों स्वरा का द्ोला आवश्यक है, 
अन्यथा उनसे सम्पुर्ण जाति ऊ राग तैयार फरने में अमुविधा होगी । 


हे (३) थाट मे आरोह-अगरोह दोले का होना जरुरों नहीं दे, चल्कि इसमें केवल 
आरोह ही होता है । 


(?) थाद में एफ ही स्पर के दो रूप ( कोमल व तीघ् ) साथ-साथ भी आ सरते हैं। 


(<) थाट में रजकता का द्वोना आवश्यक नहीं है, यानी यह जरुरी नहीं कि याट 
मुनमे में कानों को अच्छा दी लगे । कारण, थाट से क्रमानुसार ७ स्पर लेने ज़रूरी होते हैं 
ओर कभी-कभी एक स्वर के + स्वरुप ( कोमल तीत्र ) भी साथ-साथ आ सफते है 
इसलिये पत्येक थाट में रजकता का रहना सम्भव है ही नहीं । ह 

_ ५) चाठ को पहचानने के लिये, उसमे से उत्पन्न हुए करिप्ती श्रसुख राय का 
अधीलत-त+ -_--०- थे न ्ू तक 


>फ्रकज के विज है. 
कट पट पलपल 9 नल औरन चलन 


* सद्जीत विशारद # ह ६५ 





उत्पन्न ( पेदा ) हुआ है, इसीलिये इस थाट का नाम भी “सेरव थाट” रख दिया । इसी 
प्रकार अन्य थाटों के नाम रखे गये हैं। प्रत्येक थांट में स्वर तो केवल ७ ही होते हैं लेकिन 
उनके स्वरों में कोमल तीत्र का अन्तर पड़ जाता है । इस अन्तर या फर्क से ही तरह-तरह के 
थाट बना लिये गये हैं। 

यमन बिलावल और खमाजी, भेरव पूरवि मारुव काफी । 

आसा भेरवि तोड़ि बखाने, दशमित ठाठ चतुर गुन माने ॥ 


| की 
चतुर पंडित की इस कविता से १० थाटों के नाम आसानी से याद हो जाते हैं । 
नीचे १० थाटों में लगने वाले कोमल व तीब्र स्वर दिखाये गये हैं:-- 


दस थाटों के सांकेतिक चिन्ह 
यमन या कल्याण थाट--सा 


१ रे ग म॑ प ध निसखसां 
२ बिलावल थाट-- सा रेग मप धनिसां 
३ खम्ाज थाट-- सा रे गम प धनिसां 
४ भैरव थाट-- सा रेगमप धनिसां 
४ पूर्वी थाट-- सा रे ग॒ म॑ प ध्॒‌ नि खां 
६ मारवा थाट-- सा रे ग म॑प धनिखसखसां 
७ काफी थाट-- सा रे ग॒ु सम प घ नि सां 
८ आसावरी थाट -- सा रे ग॒ म॒ प घ॒ निसां 
६ भेरवी थाट-- सा रे ग॒स प धघ॒ नि सा 
१० तोड़ी थाट-- सा रे ग॒ म॑ प ध नि सां 
७२ थाट कंस बनते हैं ? 


एक सप्तक के १९ ख्वरों से ७२ थाट कैसे बनते है, इसे सममाते हैं । 

सा रे रे गुग म म॑ प घ्‌ घ निनि। 

इन १२ रवरों में से कुछ देर के लिये म॑ (तीज्र मध्यम) हटा दीजिये और ऊपर की 
सप्तक का सां जोड़कर स्वर संख्या १२ पूरी कर लीजिये | अब यह स्वरूप होगया । 

सा रे रे ग॒ग म॒ प ध॒ ध नि नि सां। 

इस स्वर समुदाय के २ भाग कर दिये तो पहिले 
पूवाध और आगे के ६ स्रों के समुदाय को उत्तराध॑ कहेंगे । 

पूवार्ध 

सा रे रे ग॒ग म प्‌ घ॒ ध निनि मां 

अब के. देखिये कि प्रत्येक ६ स्वरों के समुदाय को उलट-पत्नट कर रखने से 
बे 5 वाले कितने “सेल” बन सकते हैं। पहिले पूर्वार्ध वाले स्वर समुदाय को 

कर चलते हें:-- 


हक व लन न टीन यीन लक निनन मनन कक निनाजत- जलन नननानन्‍ सन नमन निसमना न..+ममनन-+--3क, 


5 स्वर वाले समुदाय का नाम 


६६ # सड़ीत विशारद %# 








पूर्वार्ध । उत्तरार्ध 
नसा मे रे ऊर -प धघु ध सा 
ग्न्सा रे गू म सज्प धव॒ मति सा 
३-सा रे ग म ३>प ध नि सा 
छनसा रे गम मे ४-प ध ने सा 
इ्न्सा रे ग मे ४-प घ नि सा 
इ>्सा गृ ग म ६इ--प नि नि सा 





उपरोक्त प्रजारो के अलावा और कोई नवीन प्रकार का मेल इन स्वरों से नहीं वन 
सकता। अब इन दोनों को आपस में मिलाया गया तो 5८६३६ थाट बने, जो 
निम्नलिसित हैँ. -- 
पूवाध और उत्तरार्ध के ३६ थाठ--- 











(४१) | ( +# ) 
सा से रे म॒ प ध्‌ृ |ध सा।!|७+-नसा रे गु म प ध ध सा 
२--सा हे रे म प्‌ थे मि सा|फ्न्‍सा रे ग म पे घ नि सा 
३>-सा रे रे भप ध नि सा [६-सा रे गु म प ध॒ नि सा 
४-सा है रे म प ध तसिि सा।१०ससा मे गु म प घ नि सा 
इ्-सा रे रे म प्‌ थे नि सा १६-सा रे मु म प ध सि सा 
६-नसा रे रे म प नि नि सा। सा रे ग॒ म प नि सि सा 
( ३) । ( ४) 
१३-सा रे ग मं प घ व सा|१६-सा रे गु म प ध घ सा 
शए-सा रे ग म प घ नि सा |“«चसा रे गु म प घ नि सा 
शन्सा रे ग मे प ध्‌ नि सा|नशन्‍सा रे गु॒ म प घ सि सा 
शबन्सा रे ग मं प वे नि सा नन्‍नसा रे ग म प घ नि सा 
न्‍सा रे ग मं वे छ नि सा|उ3-सा हे ग सम प घ नि सा 
उासा रे गम प्‌ नि नि सा |4४-सा रे ग॒ सम प निनि सा 


% सद्भीत विशारद # ६७ 














श् 8६) | ( ६ ) 
रए-सा रे ग मं प्‌ ध ध सां |३११-सा ग॒ ग म प धघ॒ ध सां 
२६-सा रे ग मे प ध्॒‌ नि सां |श्र-सा गु ग म प ध॒ नि सां 
र७छ-सा रे ग॒ सम प्‌ ध्‌ृ नि सां १३-सा गु ग म प ध्‌ नि खां 
श्प-सा रे ग म प नि सां | १४-सा गु ग म प नि सां 
श६-सा रे ग म॒ प इश-सा गु ग म प निसां 


३०-सा रे ग म॒ प 


5? थ अ#श 
ठ्रा 
28] 


घ 
घ 
नि सां | १६-सा गु ग स प नि निसां 


उपरोक्त पूर्वार्ध ओर उत्तराध के मेल से उत्पन्न हुए ३६ थाटों में केवल शुद्ध मध्यम 
ही लिया गया है। अब अगले २६ थाट भी इसी तरह तैयार होंगे। फकी केवल इतना 
हो जायगा के शुद्ध मध्यम की जगह उनमें तीत्र मध्यम लग जायगा । इस प्रकार ७२ थाट 
होजाते हैं। अर्थात्‌ दोनों मध्यमों से ३६ ५८२७-७९ थाट उत्पन्न होगये। उपरोक्त ७२ 
प्रकारों के अलावा अन्य कोई नवीन प्रकार इन स्वरों से नहीं बन सकता | 

एक शंका--- 

यहां पर यह शंका होना स्वाभाविक है क्रि जब थाट सदैव सम्पूर्ण होता है अर्थात्‌ 
उसमें सातों स्वरों का होना जरूरी है तो क्‍या कारण है कि थाट नम्बर ? में ग॒नि वर्जित 
होगया है, तथा थाट नम्बर ३१ में रे नि वर्जित होगया है, एवं अन्य कुछ थाटों में भी रे 
व कुछ थाटों में ग वर्जित होगया है ? 

इसका उत्तर यह है कि पं० व्यंकटमखी के बारहों स्वर हमारे ग्रचल्नित १२ स्वरों के 
समान नहीं थे। उनमें प्रति सैकिण्ड में होने वाले आंदोलन आधुनिक १२ स्वरों के 
आंदोलनों से मिन्‍न थे । व्यंकटमखी ने थाट को सम्पूर्ण बनाने के लिये अपने स्वरों के 
कुछ ओर ही नाम रख लिये थे। जेसे--पूर्वाधे सप्तक में हमारे यहां सारेरेम रखा 
गया हे उन्होंने वहां इसे सा रा गा मा इस प्रकार नाम दिया है, देखिये:-- 

व्यंकटमखी पंडित के कल्पित स्वरों के पूषार्ध-- 
हमारी पूर्वाध सप्तक | - व्यंकटमखी के कल्पित नाम 








सा रे रो म्‌ १>-सा रा गा मा 


| 
र्-सा रे ग म ग्न्सा रा गी मा 
३-सा रे ग म इल्‍सा रा गू मा 
४सा रे ग म्‌ ४नसा री गी मा 
ध्जसा रे ग म शध्ासा रू गी समा 


# सड्रीत विशारद # द््८ 
न्‍२ारमऋराा८+तच७ ३ स८भवानरापार न ताक ०0६७११७७५#पश ० काश जद/भा09 ८१. सादर तार भा कवाभरभापरातााका समा ताकग 5५/२०० ६ भा; पाए स्पा) चभरमइक+बाक 








हमारी उत्तराध सप्तफ | ब्यक्टससी के कल्पित नाम 
>प धृ्‌ू व सा -प धा ना सा 
म्+ज्प ब॒ ति सा स्--+प धा नि सा 
३--प घू नि सा इ+>प धा न्‌ स्रा 
४--प घ ति सा ४-प थी नी सा 
४ध्ौनप थे नि सा ४-प थधू नी सा 
६-प नि नि सा घ-प घू _नू सा 





इस अरार स्वरों को कल्पित सज्ञाए देकर उन्दोंने थाट की सम्पूर्णता कायम रखो दै। 
इस युक्ति से उनके ७२ थाईों में फोई भी स्व॒र वर्जित दिग्याई नहीं देगा । 


अपरोक्त ७० थादों में से हिन्दुस्तानी सद्भीत पद्धति में केयल १ 9 थाट ही प्रचलित हैं. 
क्योंकि इनसे ही हमारा काम भली भाति चल जाता है] इनके नाम और स्पर इस लेस के 
आरम्भ में बताये ही जा चुऊे हूं 


उत्तरी सड़ीत पद्धति के १९ खरों से १९ थाट 


यद्द बताया जा चुका ईँ कि ज्य कटमसी पढित के स्वर हमारे स्वरो के समान नहीं थे, 
इसलिये उन्होंने अपने स्वरों क्रे हिसाच से ७० थाट बनाये ) ऊितु यद्रि हम व्य कटमसी के 
स्व॒रों पर ध्यान न देकर अपनी हिन्दुस्तानी सद्गीत पद्धति के १३ स्व॒री के अनुसार धाट 
रचना करें तो उनके अनुसार केयल 3३२ थाद ही बनने सम्भव हैं। वह ऊफ़िस प्रशार 
बनेंगे, यह बताया जाता दे । 


सप्तऊ के पूर्वाद्न और उत्तराग ? भाग पहिले की तरह फर लीजिये (१) सा रे रे 
गृग म और (7 ) १ घ ध निनिसा। 





सप्तक के प्रथम भाग से सप्तऊ के दूसरे भाग से 
्लसा रे ग॒ म स्न्प घ ते सा 
म्--सा रे ग मे स+प घ नि सा 
इ--सा रे ग्र॒ म ३-प घ नि सा 
7-सा रे ग मे 9-प घ नि सा 


इस प्रकार चार स्व॒र वाले ८ मेल बनाने के वाट अब इनकी मिलाकर ७ स्वर वाले 
मेल बनाये जाएँ तो 92४०-१६ मेल इस प्रकार बसेंगे -- 


# सड़ीत विशारद # द ६६ 





' शुद्ध मध्यम वाले १६ मेल 





7 --सा रे ग॒ म॒ प ध॒ निसां। ई४-सा रे ग म॒ प धनिखसां 
२--सा रे गु॒ स प घ्॒‌ नि सां | # ६--सा रे ग म॒ प धनिसां 
३-- सारे ग॒म प धनिसां। ७-सा रे ग म॒ प ध निसां 
४-- सा रे गु स प थ नि सां। ८उ+-सा रे ग म॒ प धनिसां 
# ६-- सा रे ग॒ म. प घ॒ निखसां १३- सा रे ग म॒ प ध॒ निसां 
१०-सा रे ग॒ म॒ प-ध निसां। १४-स्रो रे ग म प ध॒ निसां 
के ११-सा रे ग॒ म॒ प्‌ ध नि सां।# १४-सा रे ग सम प ध निसां 
१₹-सा रे ग॒ म प धघ नि सां | # १६-सा रे ग स प ध निखां 











उपरोक्त १६ थाटों में शुद्ध मध्यम लगाया गया है, अब यदि हम शुद्ध की बजाथ 
तीत्र सध्यम लगाकर बिलकुल इसी प्रकार से स्व॒र लिखें तो १६ मेल और बन जायेंगे । 


तीव्र मध्यम वाले १६ थाट ( मेल ) 





सा रे ग॒ म॑ प॒ ध॒ नि सां |४-सा रे ग म॑ प ध नि सां, 
#२- सा रे गु म॑ प धृ नि सां #द-सा रे ग म॑ प ध्‌ नि सां 
३-सा रे ग॒ म॑ प ध नि सां |[७-सा रे ग म॑ प ध नि सां 
४-सा रे गु म॑ प ध नि सां क#प-सा रे ग म॑ प ध नि सां 
६-सा रे ग॒ र्म प ध नि सां |१३-सा रे ग म॑ प ध निखसां 
१०-सा रे ग॒ म॑प ध॒ नि खां १४-सा रे ग॒ म॑ प ध्‌ निसां 
११-सा रे ग॒ म॑ प॒ ध नि सां |श्शू-सा रे ग म॑ प ध निखसां 
श्र-सा रे ग॒ म॑ प॒ ध नि सां #१६-सा रे ग म॑ प ध निसां 


इस प्रकार १६ मेल शुद्ध मध्यम वाले और १६ मेल तीत्र मध्यम वाले मिलकर 
१६ + १६-३२ सेल हमारी पद्धति से बन सकते हैं और इनमें सिलसिले बार स्वरों में से 
कोई स्वर भी नहीं छूटा तथा एक स्वर के दो रूप पास-पास भी नहीं आ ये। 


# उपरोक्त ३२ मेलों में फूल के निशान वाले हमारे प्रचलित १० थाट भी 
मोजद है | देखिये: 


छ० # सड्भीत विशारद # 








शुद्ध मध्यम वाले १६ सेलों मे--- तीत्र सध्यम वाले १६ मेलो से -- 
त० ३ पर भेरवी थाट २ पर तोड़ी थाट 
न० ६ पर भैरव थाट 5 पर पूर्वी थाट 
न० «८ पर आमावरी थाट झ पर मारवा थाट 
न० ११ पर काफी थाट १६ पर कल्याण थाट 


न० १५ पर समाज याट 
न० २६ पर बिलावल थाट 


यत्यपि हमारी पद्मति से उपरोक्त ३० थाट ही सम्भव हैं, फिर भी व्यकटमसी के 
७० थाट का मिद्ठान्त इसलिये मानना पडता है फ्ि इसके आपिप्कारक व्यकटमसी 
पडित ही थे और उन्होंने अपने देश की अर्थात्‌ कर्माटफी पद्धति के स्थरों से ७० थाट 
बनाने का जो सिद्धान्त सय से पहले ईजाद क्रिया, गणित के अनुसार वह बिलकुल ठीक था | 
सिन्तु उन्होंने ७० थाटों में से १४ थाट अपना काम चलाने को ऐसे चुन लिये जिनसे 
दक्षिणी रागों का बर्गाकरण फ्रिया जा सकता था। इसी प्रकार उत्तरीय विद्वानों ने 
अ्परोक्त ७० थाों में से ३२ थाद ऐसे चुने जिनके अन्तर्गत उत्तरीय हिन्दुस्थानी सन्नीत 
पद्धति के रागा का वर्गकिरिण सम्भय हो सकता था। फिर अपना काम चलाने के लिये 
३० में से केवल १० थाट उत्तरीय सब्जीत मे चालू रफ़्से गये, जो आजतऊ भ्रचलित हैं। 

इन १० थाठा को भी ३ यर्गो में तिभाजित किया जा सकता है -- 


प्रथम वर्ग 


कल्याण 
बिलावल + 
समाज 
दूसरा यर्ग 
भेरव | 
[ अ 


रे, व, ग, शुद्ध चाले रागो के लिये 


पूर्ती 
सारवा 
तीसरा वर्ग 


काफी 
पु 
भैरवी गे: मि/ 7 
अल (( 
आसावरस ग॒, नि कोमल बाले रागौं के लिये 


तोडी 


रे कोमल तथा ग, नि शुद्ध चाले रागो के लिये 


इस प्रकार इन १० था्दों के अन्तर्गत हमारे पत्येफ समय के रंग आस है 
इसीलिये भावसण्डेजजी ने १० थाट लेऊर शेप सब थाट विदेशीय समझ कर 
छोड दिये। 


७-५५०५०००५-+०-००००-+०-३०००--४४५+०७-५-७+ब्म>--म >४+->०>-लनन, अर अजित भम्वाअफ५->सा ५ सटपकतकनज जा रअन्‍कतारपकजकाट अंक फानए+मन्‍त 


र पड़ोत विशारद # 9१ 








| वि 


हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के १० थाट 
॒ ओर 


उनसे उत्पन्न. कुछ राग 


+ +४३०-- की 2७-०७०-- 


( १ ) कल्याण थाट के राग 


१-यंमन २-भूपाली ३-शुद्ध कल्याण ४-चन्द्रकान्त ४-जयतकल्याण ६-मालभी 
७-हिन्दोल ८-हमीर ६-केदार १०-कामोद ११-श्याम १२-छायानट १३-गोडसारद्न । 


(२ ) बिलावल थाट के राग 


२-बिलावस शुद्ध २-अल्हैया बिलावल ३-शुक्लबिलावंल ४-देवगिरी ५-यमनी 
६ए-ककुभ ७-नटबिलावल ८-लच्छासाख ६-संरपदा १०-बिहाग ११-देशकार १२-हेम* 
कल्याण, १३-नटराग १४-पहाड़ी १४-सांड १६-दुगों १७-मलुहा १८-शंकरा, इत्यादि । 


( ३ ) खमाज थाटद के राग 


-मिकीटी २-खमाज ३-द्विप्तीय दुर्गा ४-तिलंग ४-रागेश्वरी ६>खम्बावंती 
७-गारा ८-सोरठी ६-देस १०-जैजैवन्ती ११-तिल्ककामोद्‌, इत्यादि 


वीक किक 
(४ ) भेरव थाट के राग 
२-भेरध॑२-रामकली ३-बंगाल भैेश्व ४-सोराष्ट्रंक ४-प्रेभात ६-शिवभे रवे 


७-आनन्द भेरव ८-अहीर भैरव ६-गुणकली १०-कालिछ्षड़ा ११-जोगिया १९-विभास 
१३-मेघरंजनी, इत्यादि 


( ५ ) पूर्वी थाट के राग 


१-पूर्वी २-पूयोधनाओी ३-जेताओशी ४-परज ४-श्रीराग ६-गौरी ७-मालंची 
८+त्रिवेणी ६-टंकी १०-बसन्त, इत्यादि । 


७२ # सड़ीत विशारद # 








(६) मारवा थाद के राग 


१-मारवा २-पूरिया ३-जेत ४-मालीगीरा £-साजगिरी ६-च्राटी ७-ललित 
घ-सोहनी ६-पचम १०-भटियार ६१-विभास १२-भम्पार इत्यादि । 


( ७ ) काफी थाट के राग 


१-काफी २-सैंथवी ३-सिंदूरा -घनाश्री »-भीमपत्लासी ६-यानी ७-पटमजरी 
झ-पटदीपफी «-हसकसुणी १०-पील ११-चागेश्वरां १२-सह्ाना १३-सूद्दा १४-मुघराई 
१५-नायकीकान्ह्रा १६-देवसाग्य २७-वद्धार १८-बृन्द्रावनीसारद १६-मध्यमादिसारदध 
*+-सामतसारद्द २१-शुद्धसारद्ध २२-मिय्रासारद्द २३-बरढहससारब्न २५०-शुद्धमल्लार 
२५-मेघ २5-मियामल्दार २७-सूरमल्लार र८-गीडमल्लार, इत्यादि । 


(८) साधरी थाट के राग 


१-आसावरी *-जोनपुरी ३-देवगावार ४--सिंघुमैर्यी ४-देसी ६-पटराग 
७-कौशिफकानडा र-दरवारीकान्दद्मा ६-अडाणा १०-ट्वितीय नायफी, इत्यादि | 


( ६ ) भैरदी थाठ के राग 
१-मैसवी २-माक्केस ३-आसावरी ४-बनाओ ५-पिलाससानीतोडी, इत्यादि । 
( १०) तोड़ी थाट के राग 


१-तोडी ( १४ प्रकार की ) +-मुल्ञतानी इत्यादि ) 





यद्यपि उपरोक्त १० थाटों द्वारा और भी बहुत से राग उ्लन्न दोते हैं, फिन्तु यहा 
स्रास-सास पचलित रागों ज्त ही उल्लेस झिया गया दै। 


+ 


# सड़ीत विशारद # 


नशीली कली नली ज जल लक लक 2 3 ाााममााााााााकाकाशााााााााक्रामकाााााााकाा बा भाभातया भार ना 


व्यंकटमखी पंडित के ७२ मेल ( थाट ) 





'१--कनकाम्बरी 
२--फेनब्युति 
३--सामवराली 
४--भानुमती 
४--मनोरंजनी 
६--तनुकीर्ति 
७--सेनाग्रणी 
८--तोड़ी 
: ६--मभिन्‍नषड़ज 
१०-नटाभरण 
११-कोकिलरव 
१२-रूपवत्ती 
१३-हेजुज्जी 
१४-बसनन्‍्त भैरवी 
१४-मायामालवगील 
१६-वेगवाहिनी 
१७-छायावत 
१८-शुद्ध माल्वी 
१६-संकार शभ्रमरी: 
२०-रीतिगील 
२१-किरणावली 
- २२-श्रीराग 


२३-गौरि बेलावली 


22४ 


नली लक ललननन न +नहनपन किक सलतकनान फीकलिल >रलताकमननन न +कना किन कनाक न जननन- ० १ > ० 


हे 
2626 आातआ 


२४-शरावती 

२६-तरद्धिणी 
; 
र८-केदारगौल 























२६-शंकरासरण 
३०-नागाभरण 
३१-कलावती : 
३२-चूड़ामणि 
३३-गंगातरंगिणी 
३४-छायानाट 
३४-देशाक्षी 
३६-चलनाट 
३७-सौगन्धिनी 
१८-जगमोहिनी 
३६-वरालिका 
४०-नमोमणी ' 
४१-कुम्मिनी 
४२-रविक्रिया 
४३-गीवौणी 


४४-भवानी 


०६-स्तवराज 
४७-सोवीरा 


न छम+ 





४४-शैवपन्तुवराली - 


। 
हे 


००-९८“ +बंम७कर उन 3२.८ 


४६-घधवल्षाड़ः 
४०-नामदेशी 
४५९-रामक्रिया 


४२-रमामनोहरी 


४४-वबन्शावती 
अ#ए-शासला 
अ६-चामरा 
४७-समयुति 
| #८-सिंहरव 
#६-घामवदी 
| ६०-नैषध 
६१-कुन्तत् 
६२-रविप्रिया 
६३-गीवश्निया 
६४-भूषावती 
६४५-शान्तकल्याणएए 
। ६६-चतुरज्धिणत 
६७-सन्तानमंजरीे 
६८-ज्योत्ति 





£४-धौत्पंचस 


(%८००५-३-०-२०+०-०+---न+७८७००००: 


७०-नासामरि 





७१-कुसुमाकर 


४३-गमकक्रिया - 


७३ 


४ ४४४७४:७ आशा ऋण 


रॉ 


9४ # संगीत विशारद # 








व्यकटमखी पडित के १६ थाट ( मेल ) और उनके स्व॒र 
































थाट नाम सा।(रि ग म॒ | प बच | नि 
१--मुसारी शुद्ध | शुद्ध | शुद्ध शुद्ध शुद्ध | शुद्ध शुद्ध 
+--सामवराली 99 छछ साधारण छ 33 ठ् काफली 
३--भूपाल 9१ ६४ | 9 95 99 कैशिक 
४--हेजुज्जी 39 99 अन्तर क्र 539 93 शुद्ध 
श्-चसन्त मैरवी [! |! श्र 9 6४ | 7? | कैशिक 
६--गील 99 क्र ही 95 99 ढ् कोफकली 
७--मैरवी ? पचश्ुति | साधारण | ” |”? | ” | कैशिक 
८--अआहीरी 9 95 छः 3 । 99 99 99 
घी 99 ् हि | 99 पचश्रुति 99 
१०-काभोजी फ्र 2 अन्तर 99 93 3« है 
११-शकरा भरण |” |?” ह है थन्‍ ?. _ काकल्ली 
१२-सामत 4 हा, १2 ? | पटमुखर ह् 
१३-देशाक्षी ? पट्युति| ? 9 2 | पचश्रुति 9 
१४-नाट ५ 8 93 4 95 पटश्र॒ुति 39 
१४-शुद्ध वराली [? | शुद्ध शुद्ध बराली | ? शुद्ध 
१ ६-पतुवराली 92 ग्र साधारण | 99 क्र 93 
१७-शुद्धरामक्रिया 99 है शन्तर क्र 9 59 95 
१८-सिंहरव ” (पचश्रुति | साघारण / ”» | » | पचमभ्रुति | कैशिक 
१६-कल्याणी श्र | अन्तर 79 हक [!] काकली 








| 


५०० अ 2375-54 5 +प/% 0 ७०७७-७२ ४ 200 3 # ४ एंटी ४ आशा 2 आज 


# सद्भजीत विशारद # ७५ 





पं० व्यंकटमखी के जनकमेल तथा जन्यराग 


“चतुदरिडप्रकाशिका” में प॑० व्यंकटमखी के १६ थाटों से उत्पन्न हुए रागों की 
नामावली इस प्रकार दीगई हेः-- 





जनक मेल. । जन्य राग 
१ मुखारी १ मुखारी 
२ सामवराली १ सामवरात्ती 
३ भूपाल १ भूपाल २ भिन्‍नषड़ज 
४ वसनन्‍्त भैरवी | १ बसंत भैरवी , 
५ गौल गोल २ गुडक्रिया ३ सालंगनाट ४ नाद्रामक्रिया ४ ललिता 
क्‍ ६ पाडी.७ गुजेरी ८ वहुली ६ मल्लहरी- १० साबेरी ११ छायागौल 
१२ पूवंगोल १३ कर्णाटक १४ बंगाल १४ सौराष्ट् 
६ आहीरी १ आभेरी २ हिन्दोलवसन्त 
७ भैरवी १ भैरवी २ हिंदोल ३ आहीरी 9 घंटारव ४ रीतिगौल 
८ ओराग ९ आओ ४२ सालगभरवी ३ धन्यासी ४ मालवश्ी ४ देवगांधार 
६ आंधाली ७ बेलावली ८ कन्‍्नडगौल 
६ हेजुज्जी १ हेजुज्जी २ रेवगुप्ति 
१० कांभोजी १ कांभोजी २ केदारगोल ३ नारायणगौल 


११ शंकराभरण ९ शकरासरण २ आरभी ४ नागध्वनि ४ साम ४ शुद्धवसन्त 
६ नारायणदेशाक्षी ७ नारायणी 


१२ सामनन्‍्त १ सासन्त 
१३ देशाक्षी १ देशाक्षी 
१४ नाट. १ नाट 


१४५ शुद्धवराल्ी १ वराली 

१६ पंतुबराली १ पन्तुबरात्ी 
१७ शुद्धरामक्रिया | १ शुद्ध रामक्रिया 
१८ सिंहरच -| ६ सिंहरब 


१६ कल्याणी १ कल्याण 


७द्‌ # सड्भीत विशारद # 
_>रप८ड28४ काका ८६ कादर 3० एक सपा कक पाइप अाभनन न ४० "पासवान ९५५५: ल्‍ मास उप ामाा७१-१8: [५१७ कमाल 025. 


रागलच्षणम्‌ के ७२ कर्नाठकी मेल 





परिढत व्यकटमसी के वाद फर्नाटकी सद्गीत की एक पुस्तक “रागलक्षणम” ओर 
लिखी गई, उसके लेसक ने भी ऊर थाट मानकर इससे लगभग ४०० जन्य रागों की 
उयत्ति बताई द। इस अन्य के अनुसार ऊन थाट आजकल कर्नाटक्री सद्नीत पद्धति में 
प्रचलित हैं। इसे वे अपना आधार अथ मानते हैं। 

राग लक्षणम के लेग्क के स्व॒रो में ओर व्य कटमसी के स्वर नामों में कद्दी-कहीं 
अन्तर पाया जाता है। नीचे फ्री तालिका में हम अपने प्रचलित हिन्दुस्तानी पद्धति के 
१० स्वर्रों के साथ-साथ व्य कटमस्ी और राग लक्षणम्‌ के स्वर दिग्माते हैं. 








हिन्दुस्तानी स्वर॒| व्यकटमसी के स्व॒र रागलक्षणप्‌ के स्वर 
श्न्सा सा सा 
२-रे (कोमल) | शुद्ध रि शुद्ध रि 

३--रे (शुद्ध) | पचश्र॒ति रिया शुद्ध ग चतुश्नुति रि या शुद्ध ग 


४--श ( कोमल ) | पट श्रुति रि या साधारण गे पट श्रुति रि या साधारण ग 


इ-म (शुद्ध) शुद्ध मं शुद्ध म 

७--म॑ (तीत्र ) । पअत्ति मया वराली म प्रति मं 

घ्-प प प्‌ 

६-ध (कोमल ) | शुद्ध शुद्दघ 

१०-ध (शुद्ध ) | पच श्रुति घ या शुद्ध नि चतुश्र॒ुति घ या शुद्ध नि 


। 
| 
क्‍ 
४-ग (शुद्ध ) | अन्तर ग अन्तर ग 


११-नि ( कोमल )  पटश्ुति घ या फैशिक नि पटश्रुति घ या कैशिक नि 
श्र-नि ( शुद्ध) | काकली नि काऊली नि 


23 5 न मम उस मा 5 
अप आगे की तालिका में रागलनणम ग्न्थ के अनुसार ७२ मेल नाम और स्वरों 
सदिव ठिये जाते हैं। इसमें आरम्भ के ३६ मेल शुद्ध मध्यम वाले हैं. और उसके 
वाद के ३६ सेल प्रति मध्यम चाल्ले हैं । 


४६ सद्जीत विशारद्‌ # छछ 


नमन निधन मा ण 


रागलक्षणम्‌--( कर्नाठकी पद्धति ) के ७५ थाठ ( ननननता ता दू यर ( फेस ) और उसके सर. ) और उनके स्व॒र 


( शुद्ध मध्यम चाले ३६ मेल ) 

















थाट ( मेत्न ) नाम | सा नि 
१--कनकांगी । 
२--रनागी के. 
३--गानमूर्ति का 
४--वनस्पति , के. 
४--मानवदी का 
६--तानरूपी है 
७--सेनावती शु. 
८--हनुमत्तोड़ी के. 
६--घेनुका का. 
१०-नाटकप्रिय के. 
११-कोककिल्प्रिय का, 
२१२-रूपवती ु 
१३-गायकप्रिय शु, 
१४-बकुलाभरण के. 
१ का, 
१६-चक्रवाल च्‌. | के. 
१७-सूय कांत का. 
८-हाटकांवरी ५; 
१६-मंक़ार ध्वनि शु, | शु. 
.._ २०-नद भैरवी 987 * + 
हु घर 277 दल अ आफ 58775 49 ललनभाजा 3 


्ः ०० हि 


पु 








छ्ट # संद्भीत विशारद # 
२१-कीरवाणी सा | शुद्र | साधारण (शुद्ध | प शु [का 
२२-गरहराप्रिय है छ है] ६ | नच कै 
२३-मोरीमनोहरी झा छः की ». 2 फा 
२४-वरुणप्रिय 799 5 | 9 ६9+9छ घ | 
२४-माररणजनी ६ है बखन्तर । है शु शु 
२६-चाम्फेशी जे ॥ 9 का 9..| 99 छठ कै 
२७-सागी 9 9 3 मा] »  फा 
5प८-हरिफाभोजी | मी] छ » |» | च कै 
२६-वीरशफकरामर्णु है 9 5 ठ्क 9. |» 9 का 
३०-नागानन्दिनी 99 9१ 9. न 9 9 प्‌ 95 
हि १-यागप्रिया है] श्र ॥ | 9 शु शु 
३०-रागबधिनी छल नि हर के 
३३-गागेयभूषणा | हि छः 3 | 9 | 9 का 
३४-वागघीश्वरी.._ |» [४ |» |» | च | करे 
३४५-शुलिनी ] क्र |] 9 | 99 9 का 
३६-बलनाट का] के$ 9 कि 9 प्‌ ट 
( शुद्ध मध्यम वाले ३६ मेल ) ९ 
३७-सालग सा |शु | शुद्ध | प्रति | ? | शु | शु 
इ८-जलार्णव ? अर | | ः कै 
३८-मालयराली 225। ९ १ छः 9 करा 
४५०-नवनीत डर रथ ढ़ | 95 | च्च्‌ कै 
४१-पावनी ठग | 3 99 । 2] 9 का ॥ 
४२-रघुप्रिय शक! ५ दि प्‌ 99 है 
?रे-गवायोबी » |? साधारण |” |” | शू श_ | ह 




















7७% ्शांडं४थ्७७ऋ ता 0४७4 ७४७-22७७:७४७७४०४०७७७७ ७७७७७ या अंत 2 5 केक 22 कद अड अेद कक २2३३८ “केक हम 
+ 


४४-भवप्रिय 


४४५-शुभपन्तु वराली 
४६-षड़विधमार्गिणी 


४७-सुवरणौद्भी 
४८-वद्व्यमरि 
४६-धवलाम्बरी 
५४०-नासनारायणी 
५१-कामसवर्धनी 
४२-रामप्रिय 
४१-गमनशिय 
४४-विश्वम्भरी 
४५-श्यासलांगी 
४६-घण्मुखभ्रिय 
४७-सिहद्रमध्यम 
_ ४८-हेमवती 
४६-धर्मवती 
६०-नीतिमणी 
३६१-कांताणी 
६२-ऋषस प्रिय 
६३-लतांगी 
६४-बाचस्पति 
६४-सेचकल्याणी 
६६-चित्राम्बरी 


सता 


हर 


चर 


१ 


च्् 


# सद्भीत विशारद % 


शुद्ध | साधारण | प्रति 


१) 


है 


शु, 


शु. 


शु, 


का. 


शु. 


७96 











# सड़ीत विशारद # ८० 


८८ आपि स्वरूपिणी | सा | शुद्ध। अन्तर [ग्रति | रजासफण ण छा कक फट [| छ [के झु | 


६६-धातुवर्धिनी ख््ह्छ झ. 9 | कऋ # का 
७०-नासिका ? 9 2 9.99 व की 
७१-कोसल | है 99 | 99 99 का 
७२-रसिऊत्रिया छछ छ कओ  छ पे. | » 
200 20027: कर कस 


अ5 अज! ४5 कल टली 22: >विकरज नमन 2. तल 
इन ७२ थादो से लगभग ४०० रागो की उत्त्ति भी बताई गई है । उपरोक्त तालिका 
में खरा के सत्षिप्त इशारे इस प्रकार सममिये -< 


शु - श॒द्ध 

प -- पदश्नुतिक 

च्‌ -- चतु श्रुतिक 
के -- कौशिक निपाद 
का -- काकली निपाद 


साधारण--साधारण गधार 
अन्तर-- अन्तर गन्धार 
प्रति -- प्रति मध्यम 


राग लक्षणम के ७२ था्टों की जो तालिका ऊपर दी गई है, उसमे अपने हिन्दुस्थानी 
पद्धति के १० थाट भी मिलते हैं, उनके नाम और नम्बर इस प्रकार हैं -- 





हिन्दुस्थानी १० थाट | दक्षिणी पद्धति के मेल व नम्बर 

कल्याण मेच कल्याणी - ६४ 
+ जिलाबल हे घीर शकरामरण २६ 
३ ग्रमाज हरि काम्मोजी म्प 
2 भैरव | सायामालवगौल १४ 
४ पूर्वी फामवर्धिनी ४१ 
६ मारवा | गमनशभिय ४३ 
७ काफी “ सरहरप्रिय हर 

आसावरी नट मैरी २८ 
६ मैरी हनुमत्तोडी + ८ 
१० तोडी ॥ शुमपन्तुवराली ५ 


८१ 


नाद अथोत आवाज़ की ऊँचाई और नीचाई के आधार पर उसके मन्द्र, मध्य 
और तार. ऐसे तीन भेद माने जाते हैं। इनको “नाद स्थान” ( ए००७ रि०४#०7 ) 
कहते हैं। इन तीन नाद स्थानों में एक-एक सप्तक सानकर क्रमशः मन्द्र सप्तक, सध्य सप्तक 
ओर तार सप्तक कहलाते हैं। इस प्रकार ३ सप्तक होती है| यथा:--- 


प्रथम सप्क मन्द्रं द्वितीयं मध्यर्म स्सृतम । 
तृतीय तारसंज्ञ स्थादव॑ स्थानत्रयं॑ मतम्‌ ॥ 
“अभिनवरागमंजरी 


अ्थोत्‌--पहिली सप्तक को मन्द्र, दूसरी को मध्य और तीसरी सप्तक को तार सप्तक 
कहते है । इस प्रकार तीन सप्तक मान्ती गई हू । 


सक्क 


० को 
सप्तक--का अर्थ है सात | क्योंकि एक स्थान पर ७ शुद्ध स्वर निवास करते हैं, अतः 
इसका नास सप्तक' हुआ । 


ध्वनि की साधारण ऊँचाई में जब मनुष्य बात करता है अथवा आ 5 5 5 इस 
प्रकार आल्ाप लेता है, उसे 'मध्य सप्तक' कहते हैं, किन्तु जब कभी गाने बजाने में नीचे 
को आवाज ले जाने की आवश्यकता होती है, वहां पर “मन्द्र सप्तक” के स्वर काम देते हैं 
ओर जब मध्य सप्तक से भी ऊंचा गाने की आवश्यकता पड़ती है, तब “तार सप्तक” के 


स्वर स्तैमाल किये जाते हैं | 


मन्द्र सप्तक के स्व॒रों को बोलने या गाने में हृदय पर, मध्य सप्तक के रबरों को 
लक 


बोलने में कप्ठ पर ओर तार सप्तक के स्व॒रों का व्यवहार करने पर तालू पर ज़ोर लगाना 
पड़ता है । 
मन्द्र सप्तक--जिस सप्तक के स्वरों की आवाज़ सबसे नीची हो, अथवा मध्य सप्तक 
से आधी हो, उसे मन्द्र सप्तक कहते हैं, भातखंडे पद्धति में इसके स्वरों की पहिचान 
यह्‌ है:-- 
सा रे गृ म्‌ पृ ध्‌ नि (सन्द्र सप्तक ) 


मध्य सप्तक--मन्द्र सप्कक से दुगुनी आवाज़ होने पर मध्य सप्तक कहलाता है। 
सध्य का अथ है बीच, यानी न अधिक नीचा न अधिक ऊ'चा। इसके स्व॒रों पर कोई 
चिन्ह नहीं होता । 
सा रे ग॒ स प ध नि(मसध्य सप्तक ) 


तार सप्तक--मध्य सप्तक से ढुगुनी ऊँची आवाज होने पर तार सप्तक कहलाता है। 
इसे उच्च सप्तक सी कहते हैं। इसकी पहिचान के लिये स्वरों के ऊपर एक बिन्द लगा 
दिया जाता है, जेसे:-- 


मां. हें गं म॑ ६ धघ॑ सि (तार सप्तक ) 


टन कक क+->>नकन>नक+- का तो पल >नत+ >> 











है के 722 05४ कक १ तब टच है 2! 


८२ # सद्जीत घविशारद # 


अपना: नारा अप ादाउा भा कर ट॒क (दल कादर ना माला ता: 0" #पपमत: अपार पारस कम न्‍ सपाध अमन पान न _ एप पर जराप४ रकम ाजट लए समन ाकरध मानकर 


नोट--यद्यपि एक सप्तऊ में ७ स्वर कहे गये हैं, किन्तु पिछले प्रष्ठों मे बताया जाुका दै क्रि 
कफोमल-दीत् रूप करके स्वरों की सरया एक सप्तक में १२ हो जाती हैँ, देसिये 
बारह-वारह स्वरों की इस ग्रफ़ार तीन सप्तऊ होती हैं -- 








सा रे रेंग॒ग म म॑ प धर घ निनि ! मन्द्र सप्तक 


सा मै रे ग॒ग म म॑प घ ध नि नि।| मध्य सप्तक 





सा रेंएेंगूगम म॑ प ध॒थधनेंनि 


तार सप्तक 








९ 
च्‌णु 
गान क्रियोच्यते वर्णः स चतुर्धा निरूपितः। 
स्थाग्यारोह्यररोही च सचारीत्यय लक्षणम्‌॥ 
>-अभिनवरागमजरी 


अर्थात्‌-गाने को जो क्रिया दै उसे वर्ण कहते हैं। वर्ण ४ प्रफार के होते हैं निन्‍्हें 
(१) स्थायी, (२) आरोही, (3) अपरोही ओर (४2) सचारी वर्ण ऊहते हैं । 


(१) स्थायी वर्ण--एफऊ द्वी स्वर वारम्बार ठहर-ठहर कर बोलने या गामे की फ्रिया 
को स्थायी वर्ण कहते हैं, जैसे--सा सा सा सा, रे रे रेरे या गय गग। स्थायी का 
अर्थ है ठद्दरा हुआ । 


(?) आरोही बर्ण-नीचे स्वर से ऊँचे स्थरों तक चढने या गाने की क्रिया को 
आरोदी वर्ण कहते हैं। जैसे हमे पडज से आगे स्पर बोलने हैं--सा रे य म पथ नि 
यद आरोदी वर्ण हुआ। 


(३) अवरोही वर्ण--ऊँचे स्व॒र से नोचे स्वरों पर आने या गाने की क्रिया को 


अवरोही वर्ण कहते है। जैसे पढ़ज स्वर से नीचे के स्वर बोलने हैं तो सानिवप सम 
गरे सा यह अबरोही वर्ण हुआ । 


(४) सचारी वर्ण -स्थायी, आरोही और अपरोही उपरोक्त तीनों वर्णों के सयोग 
थानी मिलावट से जय स्वरो की उल्लट-पलट की जाती है, अर्थात्‌ जब तीनों वर्ण मिलकर 
अपना रुप टिखाते हैं, तब इस क्रिया को सचारी वर्ण ऊद्ते हैं। 


नोट--गाते चजाते समय उपरोक्त चारों वर्ण कास में लाये जाते हैं। कोई गायक जब गाना 
गा रद्दा हो तो उसे गाने में उपरोक्त चारो वर्ण अपसश्य ही मिलेंगे, क्योकि इनके 
बिना गायन क्रिया चल नहीं सकती । 


० ॥ ७ [प्व)५ ६ डर ६ «६०४ ७-7 $ मं ४, "४ कर श् < कम 


# संगीत विशारद # ८३ 





| अलंकार 
प्राचीन ग्रंथकार “अलंकार” की परिभाषा इस प्रकार करते हैं:-- 
विशिष्टवर्णसंदर्भभलंकारं -प्रचच्षते । 
अर्थात कुछ नियमित वर्ण समुदायों को अलंकार कहते हैं । 


अलंकार का अर्थ हे आभूषण या गहना | जिस प्रकार आभूषण शारीरिक शोभा 
बढ़ाते हैं, उसी प्रकार अलंकारों के द्वारा गायन की शोभा बढ़ जाती है । अभिनवरागमंजरीः 
में लिखा हेः-- 


शशिना रहितेव निशा विजलेव नदी लता विपुष्पेव । 
अविभूषितेव कांता गीतिरलंकारहीना स्यात्‌ ॥ 


अर्थात -जैसे चन्द्रमा के बिना रात्रि, जल के बिना नदी, बिना फूलों के लता 
एवं बिना आभूषणों के ली शोभा नहीं देती, उसी प्रकार अलंकार बिना गीत भी शोभा 
को प्राप्त नहीं होते । 


अलंकारों को पलटे भी कहते हैं। गायन सीखने से पहिलले विद्यार्थियों को अलंकार 
सिखाये जाते हैं, क्योंकि इनके बिना न तो अच्छा स्वर ज्ञान ही होता है और न उन्हें 
आगे संगीतकला सें सफलता ही मिलती हे। अलंकारों से राग विस्तार में भी काफी 
सहायता मिलती है । अल्ंकारों के द्वारा राग की सजावट करके उसमें चार चाँद लगाये 
जा सकते हैं। तान इत्यादि भी अलंकारों के आधार पर ही बनती हैं, जैसे सारे गरे गम 
गम प5। रेग रेग सप सप घड। इत्यादि । 


अलंकार वर्ण समुदायों? में ही होते हैं। उदाहरण के लिये एक वर्ण समुदाय को 
लीजिये, सा रे ग सा इसमें आरोही और अबवरोही दोनों वर्ण आगये हैँ। यह एक सीढी मान 
लीजिये, अब इसी आधार पर आगे बढ़िये, ओर पिछला स्वर छोड़कर आगे का स्व॒र 
बढ़ाते जाइये, रे ग॒ म रे यह दूसरी सीढ़ी हुई, ग म॒ पग यह तीसरी सीढ़ी हुईं, इसी प्रकार 
बहुत से अलंकार तैयार किये जा सकते हैं। शुद्ध खवरों के अलावा कोमल तीत्र सरवरों के 
अलंकार भी तैयार किये जा सकते हैं, किन्तु उनमें यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि 


4५ 


बज. ० हें ण कि स रण हक लं बज ७७ रे ७ 
जिस राग में जो स्वर लगते है, वे ही स्वर उस राग के अलंकारों में लिये जावें | 


| राग-- 
योध्यं ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्ण विभूषितः । 
रंजकी जनचित्तानां स रागः कथितों बुचे ॥ 
-सद्भीतरत्नाकर 


प्व % संगीत विशारद $ 
्ाशनाकपउनातरा रा -जा-222 न ३७०-:ल्‍0 दर ताक एव माइक 525०० पापा पाक काानड ७ 
“माभापन ना कारक पाप नमन न कान + न भ परम कम कमल रन 
आर्थात्‌-ध्वनि की वह विशिष्ट रचना जिससे स्वर तथा वर्णो के कारण सोन्दर्य 
होता दै, जो मनुष्य के चित्त का रजन करे यानी जो ओताओ के मन को प्रसन्न फरे 
बुद्धिमान लोग उसे “राग” कहते हैं। 


राग में निम्नलिखित बातों का होना जरूरी हैः-- 


(१) राग किसी थाट से उसन्‍न होना चाहिए। 
(२) ध्वनि (आवाज ) की एक विशेष रचला हो । 
(३ ) उसमे स्वर तथा वर्ण हों । 
(४ ) रजफता यानी सुन्दरता हो । 
(४ ) राग में ऊम से फम £ स्वर अवश्य होने चाहिये | 
(६) #राग से एक ही स्पर के ढो रूप पास-पास लेने को शास्त्रफारों ने निषेध 
किया है। जैसे--म ग या म म॑ इत्यादि । है 
(७ ) शग में आरोह तथा अवरोह का होना आवश्यक है। क्‍योंकि इनके बिना 
राग का रुप पहिचाना नहीं जा सकता । 
(८) फिसी भी राग में पडज ( सा ) स्वर वर्जित नहीं द्वोता | 
( « ) मध्यम और पचस यह दो स्वर एक साथ तथा एक ही समय कभी भी 
वर्जित नहीं होते । 


(१०) राग से वादी-सम्पादी स्वर अवश्य रहते हैं, इन स्वरों पर ही विशेष 


जोर रहता हे। 
रागों की जाति- 


पहिले यह बताया जा चुका है कि थाट के ७ स्व॒रो में से ही राग तैयार होते हैं, 
ओर यह भी वताया गया था कि थाट मे ७ स्वर होने जरूरी हैं, किन्तु राग मे यह जरूरी 
नहीं कि ७ ही स्वर हों, अत फिसी थाट के ७ स्परों में से ४-६ या ७ रपरों को लेकर जब 
कोई राग तैयार क्रिया जाता है, तो जितने स्पर उस थाट में से लिये गये हो, उसी आधार 
पर उनकी जाति निश्चित की जाती है | 





इस प्रकार स्वरो की सट्या के अनुसार रागौं के ३ भेद माने गये हैं जिन्हे औडव, 
पाडव ओर सम्पूर्ण कहते है -- 
(१) ओड्व राग--जब झिसी थाट में से जोई से ढो स्पर घटाकर ( वर्जित करके ) कोई 
राग जउलनन्‍न दोता है अर्थात्‌ जिस राग में ५ स्वर लगते हैं. उसे 


# सोठ--नियम न० ६ के पिदुद्ध कुछ राग ऐसे मी हैं जिनमें एक ही स्वर के दो रूप पास 
पा श्राजते है, जैसे--ललित दिद्वाग, केदार इत्यादि । किन्तु इन्हें इस नियम के अपयाद स्वरूप 
। सममना चाहिये | बा 


् 


[४ 





# सेज्ञीत विशारद # बल बललनक ३0४४८ 4477 कली लिक सम 






््न्न्््््ल्ड्््टिडिसिजिय १०७७ नक नानक 


६ राग” कहते है से. न्‍जीणज-++++ 
बा कया है; जंसे--भूपाली मालकोप इत्यादि । ध्यास रह कि सा स्वर कसी 
जाता | 
(१) पाड़व राग--किसी थाट सें से केवल १ स्‍्व॒र॒चजित करके जब कोई राग उत्पन्न होता 
2 अर्थात्‌ जिस राग सें ६ स्वर ॒स्तैसाल किये जाते हैं, उसे षाडव राग कहते हैं। 
. खि-नसारवा, पूरिया इत्यादि 
(३) सम्पूर्ण राग--थाट से कोई भी स्व॒र रचना न घटाकर खातों स्वर जिस राग में 
ल्लंगते हूँ, .डसे संपूर्ण जाति का राग कहते हैं। जैसे यमतल, बिलावल, भैरव और मैरवी 
इत्यादि । ऊपर बताई हुईं तीन जातियों के रागों के आरोह तथा अवबरोह सें क्रमशः ४-६ 
स्वर हैं, लेकिन कुछ राग ऐसे भी हैँ जिनके आरोह में ५ तथा अवरोह में ६ स्वर लगते 
हैं अथवा आरोह में ७ ओर अवरोह में ५ रबर लगते हैं, ऐसे रागों को पहिचानने के 
लिए ग्रंथंकारों ने उपरोक्त ३ जातियों सें से हर एक जाति की तीन-तीन डप-जातियां 
ओर बनादी हैं, इस प्रकार ६ प्रकार की जातियां बनी | 














(१) कि 
| ] | हा 
१ सम्पूर्ण सम्पूर २ सम्पूर्ण बाड्व ३ सम्पूर्ण ओड॒व 
(२ ) षाडव 
सा "पपपप्पिपयपयपयययपपय।णण + 
| | | की 
१ पाडव सम्पूरों २ ओडुब षाडव ३२ पाडव ओऔड़व 
( ३ ) औड॒व 
| हु 
हि कक 
९ ओडुव सम्पूर्ण २ ओड्व-पाडव ३२ ओड़व ओड॒व 


इस प्रकार ३ जातियों से ६ उप जातियों की उत्पत्ति हुई, अब इनका पूर्ण विषरण 

देखिये:-- 

९--सम्पूर्ण-सम्पूर्श--जिस राग के आरोह में भी ७ स्वर हों और अवरोह में भी ७ स्वर 
हों, उसे सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति का राग कहेंगे | 

२--सम्पूर्स-पाडव--जिस राग के आरोह में सात स्वर और अवरोह में ६ स्व॑र लगते हीं, 
उसे सम्पूर्ग-षाडव जाति का रांग कहेंगे | 

३--सस्पूर्ण औडव--जिस के आरोह में ७ स्वर ओर अंबरोह में ५ स्वर हो | 

४--षाडव सम्पूर्र--आरोह में $ स्वर ओर अबरोह में ७ खर।,; . हि 

४--पाडव-पाडव--आरोह में भी ६ स्वर हों तथा अंबरोह में भी ६ संवर हों । 

६--षाडव-ओडुब--आरोह में ६ स्वर और अबरोह सें पांच स्वर हों। - 

७--ओडुबव सम्पूर्र--जिसके आरोह में ५ स्वर और अवरोह में ७ स्वर हों । 

८प--ओडुव षाडव--जिसके आरोह में £ स्वर और अवबरोह में ६ स्वर हों | 

3085 आरोह में भी ४ स्वर हों तथा अवरीह- में भी ४ स्वर 
लगते हों । 


कक अतप-- धर हक 
अ्लललनर जज» - 
# #७९४६७४७ ४ है 0 को को. मर 


८६ # सड्ीत विशारद # 


सवाल जापर८गीएा-+क नकारा अावारप हाअलाररामका:अप सप्रापतपर५4 सामान कक" शध्का रथ >ाए०नत २८ वोला+दकारत: २६ अदटरवअरू पहन रचा? पता अपना मे २५०0७ सवा मकरम हे पए 40475 एववान्‍मक दा तयाथ 





रागों की इन जातियों से राग सगया मालुम हो जाती है । दे गये उपरोक्त « जातियों 
में किस प्रकार १० थाटों के द्वारा ४८७ राग तयार हुए । 


सम्पूर्ण-सम्पूर्ण--इससे केयल १ राग ही मन सका, क्योंकि आरोह में भी ७ स्व॒र 
हैं और अवरोह मे भी ७ रपर हैं। 


सम्पूर्ण पाडव--5स जाति के 5 राग बन मत़ते हैं. क्योकि आरोह तो सम्पूर्रो 
रखते जाइये आर अपरोह में प्रत्येक बार १ स्पर बदल कर छोडते जाइये । 

सम्पूर्ण औड़ब--इमके आरोह में ७ स्वर रुमते जाइय्रे और अपरोह से २ स्तर 
( बन्‍ल-पटलकर ) छोडते जाइये तो इससे १५ राग यने । 


पाडय मम्पूर्ण--आरोह में 5 स्वर होने के कारण, 5 बार एक-एक बठलकर छोडने 
से, इसके भी 5 राग बने । 


पाठडव-पाडब--इसफे आरोह से ६ बार एक-एक स्वर बदलकर रग्या तो 5 टफड़ें 
हुए इसी प्रकार अपरोह में मी एसा ही किया तो 5»: 55-३६ राग इस जाति से बने । 


पाडव-ओऔड॒ुब--इस जाति के ६० राग हो सकते हें, क्योंकि आरोह में १ स्पर 
छोडने से & ओर अवरोह मे दो-ठो स्पर छोडने से १५ अर्थात १५ ३८६५-८० राग बसे । 


औड्ब सम्पूर्श--आरोद में + स्तर छोडने से १५ प्रकार यने, और अवरोह तो 
इसका स पूर्ण है, अत इस जाति से १५ राग हुए | 


ओडुव पाडय--क्योंकि इसफे आरोह में प्रतियार कोई से + स्वर छोडने पढ़े तो 
१५ प्रकार बने ओर अयरोद में १ स्वर प्रतिबार छोडना पड़ा तो ६ प्रकार बने, इसलिये 
१४ २८६७०६० राग इस जाति से अन्न हुए । 


औडपय-अऔड॒ब--इस जाति के सयसे अधिक अर्थात्‌ *४ राग हो सऊते हैं, 
क्योंकि आरेह मे प्रतियार २ म्पर छोडने से १४५ प्रफजार चने ओर अबवरोह में भी ऐसे ही 
२ स्वर छोड़ने से १५ प्रकार चने तो १५७ १४--२२४ राग तैयार हुए। 


इस प्रकार एक थाट की ६ जातियों से ४८४ राग बने, जा निम्नलिसित नक्शे द्वारा 
सष्ट किये जाते हैं -- 














न० जाति | आरोह के स्यर | अपरोदद के स्पर | राग तैयार हो 
| द 

१. सम्पूर्ण-सम्पूर्ण ७ | ७ १ 

२ | सम्पूर्र-पाडव ७ | ६ 5 

३ | सम्पूर्ण-ओऔडुब ७ ्‌ १४ 

०2 | पाड्व-सम्पूर्री ग ६ ७ ध 





# सड़ीत विशारद # -<७ 





...]...ह............................................................................-नन>त-तबन-नन नी नीली तन >७त::ए:-नअनरफसनतओ डडन्‍इञइन्‍इ&लठल उ>न्‍ डइ उऊऊ--  कक्‍कफकरफससफससनतअक्‍उफस कफ स$ न्ससससससफकसकफससाआफससोससइअइड55फसफकस फज़ससस ससससकनससइस-स-ी- 5 
4 अनननननन-++-ल मनन ननमनीननननगन-नमभनननननानिनीननीनीनक॑-नीनन नमन नीतिगत नीननीनीनीनीनीनी-ननीनीी नी नी न्‍ी.].38-.ी--न्‍न्‍3 - ५ स्‍ंक्‍+ 


मी नस मल लीड, कल जि काल बड़ दल 


की 
लच्ला. कई #ि जीन करू ७ 


नर ने असम 


) 


जानकारी तो रखनी ही चाहिए। 
ं 0७00०: आ्णणा या 2 अजमाकी न लीनशक कब 


री लनननमनपनान न नली अि+ हा आइऑिननान ऑन निजी अजित अक हे अनिल प्लस निभाने. अनानिव्लाननन जन +०-क+-न+ बकूनकननकनसक-एआक-+० >> इक-ऊ९०००५०५ ६. 3३६; ).33 “तक: + आज 2७-०४: 








४ पाड़व-षाड़व धर हः ३६ 
६ | पाड़व-औड़व ६ ५ ६० 
७ ओडुव-सम्पूर्रा 4 ७ ५ १४ 
>> ओडुव-घाडव ५ ६ ६० 
६४ । ओऔड़ब-ओऔडुब ्‌ | » २२४ 

१ थाट की ६ जातियों से उत्पन्न रागों का कुल जोड़ ४८७ 





जब १ थाट से ४८४ राग तैयार हो सकते हैं तो उत्तरी सद्भीत पद्धति के १० थाटों 
से ४८४ & १०-०४८४० राग बने ओर दक्षिणी सद्भीत पद्धति के ७२ थाटों से ४८४ »< ७२ +- 
३४८४८ राग तैयार हो सकते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और भी राग केवल वादी स्वर 
को बदल देने से उत्पन्त हो सकते हैं, इस प्रकार यद्यपि रागों की संख्या और भी अधिक 
बढ़ सकती हे, किन्तु प्रचार में २०० रागों से अधिक दिखाई नहीं देते, क्योंकि राग में 
रंजकता होनी आवश्यक है इस बन्धन के कारण राग संख्या मर्यादेत सी होजाती है । 


आम 
अथ ग्रोमास्त्रयः ग्रोक्ताः स्वर सन्दोहरूपिणः । 
पृड्जमध्यमगांधारसंज्ञाभिस्ते समन्धिता।ः ॥६७॥ 
--सन्डनीत पारिजात 


प्राम के सम्बन्ध में अहोबल पंडित उक्त श्लोक में बताते हैं कि स्वरों का एक समूह 
हो प्राम कहलाता है। ग्राम ३ होते हैँ, जिन्हें पड़ज, मध्यम तथा गान्धार इन नामों से 
घोषित करते हैं । 


दामोदर पंडित 'सद्बलीत दर्पण? में लिखते हें:-- 
ग्रामः स्वस्समृहः स्यात्मूच्छेनादे! समाश्रयः । 
तो हो धरातले तत्र स्यात्‌ षड्जग्राम आदिमः ॥७४॥ 
हितीयो मध्यमग्रामस्तयोल॑क्षणमुच्यते | ७६ ॥ 
अथत्त-मआम ख्रों का समुदाय है । ग्राम का आधार मूच्छौना है, इस लोक में 
भाम दो हैं, उनमें से पहला षड़ज ग्राम है और दूसरा मध्यम ग्राम है......... - ॥ 


इस प्रकार संस्कृत ग्रन्थों में ग्रामों की परिभाषा देखने में आती है। श्री भातखंडे जी 

का कहना है कि प्राचीन ग्राम रचना प्राचीन सद्भीत में उत्तम रूप से प्रयुक्त थी; परन्तु इस 
० जे. हर पिच यों हक 96 

समय हमारे सद्भीत सें बेसी नहीं है । फिर भी सल्लीत के विद्यार्थियों को ग्राम के विषय में 


प््८ $# संगीत गिशारद # 


-अका:काएए पड: ल्‍कतपा पाल: पवार 77747 प्रकार जाया प्रइसाना-: पाना" म्हानभा5३२0या०मसया० ४०७५" ॥:7:धप;+८४ ९ :्रपकपरपआसञा00५2४५८-पाम दल पाप्करूा रमन ५०२ शाम फककडकरा. 





ऊपर डिये पारिजात के ब्लोफ के अनुसार आम तीन प्रकार के हुए -- 
१--पड़जग्राम २--मध्यमग्राम ३--मंधारग्राम 


गम्धार म्राम के बारे में यह बताया जाता हैँ कि यह फ्िसी श्रफरार वरातल से हटकर 
देवलोक पहुँच गया । यह वास्तव में निपाद ग्राम था क्योंकि इसका आरम्भ निपाद स्वर 
से होता था, झिन्तु गन्वर्बों द्वारा उसका प्रयोग होने के कारण उसका नाम गन्धर्व्राम हुआ 
फिर आगे चलकर इसका अपश्रन्श रूप गधारम्ाम होगया । 


है, १2 अ 2 व बज अ्षतियों शत 
७ रपये में जो २० श्रुतिया हैं उनके समृह को ग्राम ऊहते हँ। स्परों पर अ्तियों के 
बाठने के सिद्धान्त -- 


चतुश्चतुश्चतुश्चैच.. के अनुसार 9-७-६- १३ - १७- २०-मर्‌ 


हा] 


इन श्रुतियों पर क्रमश -- सा रेग म प थनि 


इस प्रकार स्व॒रो को स्थापित करने पर जो ग्राम बनता है उसे पडज ग्राम कहेंगे | 
थरदि इस श्॒त्यन्तर में तनिक भी फरक पडेंगा तो वह पडज ग्राम नहीं माना जायगा। श्रव 
मध्यम प्रास इस प्रसार होगा कि पचम स्वर को जो कि ?७ वीं श्रुति पर है, दृटारर १६ थीं 
पर ले आया जाय्। जैंसे -- 


ग्र्- - ६ -“- १३ - १६ - २०७ - २ 


पर 
सा रे ग मम प ह। नि 


2 । 


यह होगया मध्यम ग्राम | अब गन्धार ग्राम इस प्रकार होगा कि रिपभ स्पर एक 
ति नीचे उतरऊकर 5 वीं श्रुति पर, गान्वार १ श्ुत ऊपर चढकर १०वीं पर, पैवत १ श्रुति 


०] 


ना, 


नीचे उतरकर १८ वीं पर और निपाद १ श्रुति ऊपर चढकर पहली श्रुति पर स्थिर होगा ! 
इस प्रकार -- 

28-६5 - १० - १३ - २६ - १६ - १ 

मा रे ग स्‌ प्‌ .च नि 


जिस प्रकार भिन्‍न-मिन्‍न गायों से मिन्‍म-भिन्‍्न प्रकार के मनुष्य रहते हैँ, उसी 
प्रजार सद्गीत के मिन्‍न-मिन्‍्न प्रार्मों! में मिन्‍न प्रकार ऊे अन्तर ( फासले ) पर स्पर रहते है । 
अत स्वरों को मिनत-भिन्‍न प्रफार से श्रुतियों पर स्थिर फरने के लिये ही प्राचीनफकाल 
में “आराम” की उत्तत्ति हई। अय आगे के एक नफ्शे से प्राचीन ग्रन्थों के आवार पर तीनो 
पार्मों फो ६२ श्रुत्तियों पर एक साथ दिखाया जाता है -- 


ड़ 


# सद्भीत विशारद # । दि 


व्यय तारा भा बा राएवा+ अल कमतत4ध शा बन पा क्‍क्क् का < अल पअखता्ा तक वात चाचा रक्त का उस पा उ करवाकर तरउस आता आ 4 जदक2 72707: रहा पता २5 पाक 














प्राचीन अ्नन्धों में 
कि [५ 
२२ श्रुतियों पर तीन ग्राम 
श्रुति नं०। श्रुति नाम | पड़जग्राम | सध्यमग्राम | गंधारप्राम 
१ तीत्रा ००% न्ग्ग ४2४४ ग्न्न हनन न्न्म ग्न्न ७० ७७० 
र्‌ कुमुद्ठती नग्न *्म्० न्न्ग >्गन ब्न्न >०० न्न्क 
5] सदा: ३ हुक हल: | अर करके जग ॥ हे! डेट 
४ | छुंदोवती “* “* | पडज षपडज | षडज 
््‌ दयावती ००० ००० ००० न्०्० न्ग्० नग्न ०००० नी न्ण्क 
६ | रंजनी “ हक “ | रिषभ 
७ | रक्तिका' “ | रिपभ रिषभ हर 
ह ८ रोद्री जन ब्न० नग्न |... ४6० + 
६ 
१० 
११ 
१२ प्रीति न्ग्० नग्न ग्ग० >०० न ० 


। 
क्रोधी नग्न. ०००. ००० गन्धार गन्धार ग्न्न. ००० 
वजिका '** न नस ण्०्०्० 0 ढ 5 १० _्म् गन्धार 
प्रसारिणी 6४ ०० ०० ००० बह 2० ७० 68% 
श्३ सा्जनी “४” “४ "४ | मध्यम | मध्यस 
१ ज्षिति ७ «|» १० ढक न्ग्ग ३०७७ ह्क्स्व 
१५ | रक्ता ॥०/ हा हे | न ही [हल हे» 
१६ संदीपिनी न्म्न न्म्०्क नमन न्ज्ण पंचम 
१७ | अलापिनी “** “*।( पंचम |" * 
हि श्८ मदंती ४गड।. “2557 55६७ नग्न"... ४०० | 8२० ५९०० 
१६ रोहिणी ४६७: -* डुंढां8 बे ७३०, ००५ कह कि कक 
| 


2२ 
घेंवत 
5 ७० क्ष्क 


२० | रम्या” ४“ “| घेवत | घेवत 
२१ ज्ग्रा कक #७क ७७% कक 98% ही ] ओम] 


शए | क्षोमिणी “** “| निषाद निषाद |: 
१ तीत्रा कक क्ष्कक न 








निषाद 





यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों सें सिन्‍न-मिन्न प्रकार से श्रुतियों पर ग्राम दिखाये गये हैं, 
किन्तु बहुमत इसी पक्ष में हैं, जैसा कि. उपरोक्त कोष्ठक ( नक्शे ) में दिखाया गया है । 
उपरोक्त कोष्ठक को देखने पर विदित होगा कि सध्यम ग्राम के स्वरान्तर अधिकांश रूप में 
घड़ज ग्राम के ही अनुसार हैं, केवल पंचम को १ श्रुति चींचे माना गया है। गन्धार ग्राम में 
रिषस तथा घेवत स्वर उपरोक्त दोनों श्रामों के रिषम घेवत स्वरों से एक-एक श्रुति नीचे 
साने गये हैं और गन्धार निषाद स्वर एक-एक श्रुति ऊंचे माने गये हैं। 


ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थकार इस प्रकार ग्राम योजना से अपने 


ननलन-+++++ि++न+++र ।- मा +-उ ४०० ह+ 8. ह का मु 


कि नपएने, पीयलता--जिल्स फेल ल्न्शले _ होंगो किस्ले ग्राम रचना का यह टुडे 


(“8 5०-20 कील रन 


8० # सड्जीत विशारद # 
कमफिमममिमिल भी निकिक जज सील कक जा कल» ााममलुभाुलााााााधनाााधशााकभा ता बात भा कातना न 
आज की १२ स्व॒रो की प्रणाली पर लागू नहीं होता, 'इसलिये वर्तमान सद्नीतज्ञ उपरोक्त 


लत पु जे 23 5 ० ञ् 
प्राचीन ग्राम योजना फो आधुनिक सद्नीत के लिये निरर्थक ही सममते हैं| 





सद्गीत के छुछ आधुनिऊ ग्रन्थों में तीन ग्रामों का कोप्ठक वर्तमान १२ खबरों के 
हिसाव से इस प्रकार ठिया है -- 


आधुनिऊ ग्राम चक्र--- 
























































१ 4 धर घर १० १२ 
फाजणथयथयायपपनपिानापनायपथपपपिपपपैपपा/ 7 
बा रे [ | ग | प्‌ ब्‌ नि. | पढ़ल ग्राम 
५ अछ४7६ ८८4 £ 
सा | रे | ग | मम पृ धरनि (गधार ग्राम 
“7 मव्यम 
सा रे । ग मे [प।घ|। नि ।| गम 


स्वरी के ऊपर जो नम्बर दिये हैं, वे हारमोनियम के परदे। के नम्बर मान लिये जाय 
तो इस ग्राम चक्र से हमारे शुद्ध और विकृत १५ स्वर आसानी से निकल आते हैं । 
क्योंकि हास्मोनियम वाज़े की जिस चाभी या परदे पर पड़ज स्पर भाना जाता है, उससे 
तीसरे पर शुद्ध रे, पाचवे पर शुद्ध ग, छेटे पर शुद्ध म, आठवे पर प, दसवे पर शुद्ध घ 
ओर वारदये पर शुद्ध नि होते हैं। इस प्रफार इन ७ शुद्ध स्व॒रों का “पढ़ज ग्राम” होगया । 
इसे हम अपना शुद्ध बिलाचल थाट भी फद्द सकते हैं। इसके बाद हमने पडज गाम के 
४ नम्बर के शुद्ध ग को सा मानरर स्व॒र रींचे तो हमें मैरवी थाद ऊे सभी कोमल स्वर 
मिल्गये, क्योंकि गन्धार स्वर को सा मानकर हमने स्वर सींचे थे, अत यह “गघार ग्राम”? 
हुआ। इसके पश्चात्‌ हमने पडज गुम के ६ नम्बर “म” स्वर को सा मानफर स्वर सींचे 
तो इस समर में हमे तीत्र मध्यम मिलगर्ट, स्योकि पडज ग्राम के पचम पर रिपभ बोली, 
चैवत पर शुद्ध गधार ओर निपाद पर तीत्र सध्यम | इस प्रफार यह्‌ “मध्यमग्राम” हुआ 
ओर इससे हमे कल्याण थाट ऊे स्वर प्राप्त होगये। * 


ग्रामों का यह विवेचल आधुनिक “स्केल चेन्‍्म की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध 
दो सकता है, किन्तु यदि वारीकी से ढेग्या जाय और स्वरो के आन्टोलनों का हिसाब लगा- 
कर रपरान्तरों की जाच क्री जावे तो यह विवेचन गणित फी कसौटी पर ठीऊ नहीं 
उतरेगा । फिर भी द्वास्मोनियम याज़े पर उपरोक्त नियम से ३ गुमों के द्वारा शुद्ध विकृत 
४२ स्वर निकालने का यह ठक्ल सरल और सुवोध है। 





६१ 
न 
मच्छेना 
हे हु छ 
क्रमात्स्यराणां सप्तानामारोहेश्चावरोहणम््‌ 
मूच्छेनेत्युच्युते ग्रामत्रये ता। सप्तसप्त च॥ &६२॥ 
अर्थात्‌-सात स्वरों का क्रम से आरोह तथा अवरोह करना मूच्छेना कहलाता हे । 
तीन ग्राम हैं, उनमें से प्रत्येक की ७-७ मूच्छनाऐं' है । 
तत्र मध्यस्थपड़जेन पड़जग्रामस्य मूच्छेना | 
प्रथमारभ्यते5न्यास्तु निषादायेर धस्तने! | ६४ ॥ 
--सन्लीत दर्पण 
सध्यस्थान के पड़ज स्वर से षड़ज ग्राम की पहिली मूच्छ॑ना आरस्म होती हे । 
शेष छै मूच्छेनाऐ' स्वर ( पड़ज ) के नीचे के निषादादि स्वरों से शुरू होती हैं । 


७ 


इस प्रकार  गूामों से २१ मूच्छ॑ना प्राचीन शास्त्रकार बताते हैँ। नीचे उनके नाम 


नी 


कप ब्े 
ओर स्वर दिये जाते हैः-- 


पड़ज आम की मूच्छैना-- 




















नं० | नाम मूच्छना | आरोह अवरोह 

१ । उत्तरामन्द्रा सा रे गसप धनि| निधपमृगरेसा 
२ | रजनी नि सारे गस प धध प मसमग रेखानि 
३ | उत्तरायता ध्‌ू निसा रे ग म पप मस ग रे सा निध 
४ | शुद्ध पड़जा प्‌ ध्‌ृ नि सा रे ग म|स ग रे सा नि धप 
४ मत्सरीकृता मृ पृ धृ नि सा रे ग।ग रे सा निध्‌ पृ म्‌ 
६ | अमश्वक्रान्ता ग्‌ मृ पृ ध्‌ नि सा रे रे सा निध्‌ पृ म॒ ग्॒‌ 





अभिरुदूगता |रे गृ मृ प्‌ ध्‌ नि सा|खसानि धृ पृ मग रे 





हर 


# संगात विशारद # 


रा काकाफा+->उक न अााइललातइातच: उमा: 7.3: आतद002२7-चवा:7:अ2 अपर थचटव पाता यडर "05: अधरपनाधदजकर रन अनक न कक ८६७२* अपन नाक ९ उप ानार+क परत मछ ०-५ सरकार टाराकार- +०० ० 





मध्यम ग्राम की मूच्छेना-- 





१ | सोवीरी 
२ | हरिणाश्वा 
३.| फ्लोपनता 
४ | शुद्धमध्या 
2. सार्गी 

६ । पौरपी 

| 


| ब्श्यका 


म॒प धनिखारं 
गम॒पवबनिसा 
रेगमपव नि 
सा रेगमपचव 
नि सारेगमप 


घधनिसा रेगम 





प दच्ुनिसारेग 


ग 


रे 


मे 


गरेंसानिघपम 
गें सानि घ प॒ मग 
सानि बच पममगमग रे 
निधपम मग रेसा 
व पमग रेसानि 
पृ मग रे सानि व 


मग रेसानिधप 


व कक जय न लक पा की 
गन्धार ग्राम की प्रच्छेना--- 


भोट--प्राचीन शास्त्रों मे गन्धार ग्राम को ही निपाद ग्राम भी कहा है, अत इस ग्राम की 
पहली मूर्ऊना निपाद स्प॒र से ही आरम्भ होती है -- 





नि न्ञन्दा 


3 । 


विशाला 
सुमुसी 
विचित्रा 


रोहिणी 


न्क #€ ०८ ० 


सु््ा 


6 


आओलापा 


नि सारे गगमपसचघच 


घ निसा रेंगम प 


प्‌ ध निसा रेंगम 


सम प्‌ धनिखारेंग 
गम पघध निखार 
रे ग सम पथधनतनति सा 


सा रे गमयधतनि 


ग 
रे 
सा 


नि 





प॒भ ग रेंसा नि 
मगरेंखानिवब 
गरेंसानियबप 
रे सा नि धपम 
सानिधपममग 
निघपमग रे 


घपमगरेसा 


गान्चार ग्रास की इन ७ मूच्छुनाओं के बारे मे दपैणकार कहता है -- 


अर्थातत--इनका प्रयोग स्वगैलोफ मे 
गया । इस प्रकार दपणशुकार ने फेवल श्छु 
२९ मूच्छेनाओं के दे दिये हैं । 

सगीत के विद्यार्थियों को यहा 


ताश्चस्व्गे प्रयोक्तव्या विशेषादत्र नोदिताः ॥६६॥ 


होता है । इसलिए विशेष वर्णन नहीं किया 
मुच्छनाओं का ही उन्लेस किया दै, यद्यपि नाम 


है। पर यह बता देना उचित होगा कि हमारे प्राचीन 


शाक्षकारो ने मूच्छनाओं के जो स्पर दिये हैं, उन्हे केवल आरोह-अवरोह ही न सममः 


# सड़ीत विशारद # 8३ 





लिया जावे, बल्कि इनके अन्द्र जो रहस्य छिपा हुआ है, उस पर ध्यान देकर ही प्राचीन 
मूच्छेनाओं की उपयोगिता जानी जा सकती है । वह रहस्य क्या है, यह नीचे के उदाहरणों 
से भत्ती प्रकार जाना जा सकता है। 


जिस प्रकार हमारे यहां रागों की उत्पत्ति थाटों से हुईं है, उसी प्रकार प्राचीन ग्रन्थों 
में मूच्छनाओं के द्वारा मिन्‍न-मिन्‍न राग उत्पन्न करके बताये हैं। प्राचीन ग्रन्थकार अपने 
किसी राग का वर्णन करते समय यह नहीं कहते थे कि इसमें अमुक स्वर तीत्र या कोमल हैं 
बल्कि वे कहते थे कि इस राग में अमुक मूच्छना है । उदाहरणार्थ:-- 


पड़जग्राम की पहली मूच्छना “उत्तरामन्द्रा” को लीजिये, इसमें सा, रे, ग, म, प, 
बह 
घ, नि, यह सात शुद्ध स्व॒र हैं । 


आजकल की बोलचाल में हम इसे अपना शुद्ध ठाठ बिल्लावल” कहेंगे और इसी 
बिलावल ठाठ के अन्तर्गत जब किसी राग में शुद्ध स्व॒र भ्रयुक्त होंगे, जैसे गुणकल्ी” तो 
हम कहेंगे कि गुणकली में सब शुद्ध स्वर लगते है और यह बिलावल ठाठ का राग है | 
किन्तु ऐसे राग का वर्णन करते समय प्राचीन ग्रन्थकार कहेंगे कि गुणकली में पड़ज ग्राम 
की पहली मूच्छना हे। 


अब दूसरी मूच्छना लीजिये, जिसका नाम रजनी! है । ध्यान दीजिये प्रथम मूच्छना 
( उत्तरामन्द्रा ) के पड़ज स्वर पंर इसका निषाद हे, रिषभ पर इसका षड़ज हे, गांधार पर 
इसका रिपभ है एवं इसी क्रम से उसके मप ध निखवरों पर इस मूच्छना के ग सप घ 
स्वर हैं, तो पहली मूच्छना के रिषभ को दूसरी मूच्छीना में पड़ज स्वर मानकर हमने स्वर 
खींचे तो नतीजा क्‍या हुआ ! 


सा रे ग म॒ प्‌ ध नि--पहली मूच्छना 
नि सा रे ग॒ु म॒ प ध-दूसरी मूच्छना 


नतीजा यह हुआ कि इस प्रयोग से हमें दूसरी म॒च्छ॑ना में निषाद और गन्धार 
कोमल मिल गये और चूँकि रिषभ स्वर को पडज सानकर यह मूच्छना निकली है, इसलिये 
गृन्थकार इसे 'रिपस को मूच्छीना! या रजनी? इन नामों से सम्बोधित करेंगे और हम 
अपनी भाषा में इस दूसरी मूच्छेना को 'काफी ठाठ5? कहेंगे; क्‍योंकि इसमें हमें ग नि कोमल 
स्वर प्राप्त हुए हैं । 


इसी प्रकार तीसरी मूच्छना ( उत्तरायता ) में सब स्वरों की स्थिति कोमल होजायगी 
क्योंकि पहली मूच्छ॑ना ( उत्तरामन्द्रा ) के गन्धार को इसमें षड़ज माना गया है:-- 


सा रे ग॒स प्‌ ध नि-पहली मूच्छना 
ध्वनि सा रे ग॒ म प--तीसरी मूच्छेना 


इस प्रकार के कोमल स्वर॒ जब हमारी किसी रचना में आयेंगे तो हम उसे भैरवी 
थाट का राग ही तो कहेंगे; किन्तु प्राचीन गृन्थकारों की भाषा में ऐसे राग को गन्धार की 
मच्छेना का राग कहा जायगा, क्योंकि इसमें शुद्ध गंधार को स्वर सानकर तीसरी मृच्छना 
निकाली गई थी। अथवा वे इसे “उत्तरायता” की सूच्छना का राग कहेंगे । | 


६६ # सड्भीत विशारद # 





(३) सकीर्ण--जिस राग में २ रागों से अधिक रागों का मिश्रण या मिलावट दो उसे 


सफीर्ण राग कद्दते हैं. 
बाढी, सम्बादी, अनुवादी, विवादी । 


राग के नियमा से वादो, सम्वादी आदि स्परों का भी एक महत्वपूर्ण स्थान द्वोता दे 
डसे बताते हैं -- 
चघादी स्वरस्तु राजा स्पान्मत्री सवादिसंन्नितः | 
स्व॒रो विवादी बैरी स्थादलुवादी च भृत्यवतः ॥ > 
-+अभिनवरागमजरी 


अर्थात्‌--वादी स्वर को राजा के समान ओर सम्बादी स्वर को मत्री के समान, 
विवाटी स्वर को वैरी ( दुश्मन ) के समान और अनुयादी स्वर को सेवक के समान 
सममना चाहिए। 


(१) बादी--राग में लगने पाले स्परो मे जिस स्वर पर सब से अविक जोर रहता दे, 
अथया जिसका प्रयोग अधिक या बारम्वार ऊिया जाता है, उसे उस राग का 
धवादी स्वर! कहते हैं.। 

(२ ) सम्वादी--यह बादी स्व॒र का सहायक होता है, तभी तो इसे मन्त्री की पढवी 
शाञ्रों ने दी हे। यह वादी स्वर से कम तथा अन्य स्प॒रो से अधिक अयोग किया 
जाता हू । वादी स्वर से चौथे या पाचववें नम्बर पर सम्वादी स्थर होता है | 

(३ ) अलुवादी--बादी और सम्बादी के अतिरिक्त जो स्पर राग में लगते हैं, थे अनुधादी 
कहलाते हैं। 

(४) बिवादी-पिचादी का वास्तविर अर्थ तो बिगाड पैठा करने वाला ही होता दे 
अर्थात्‌ ऐसा स्प॒र जिससे राग का स्वरूप निगड जाये ।इसीलिये विधादी को शत्रु ( वैरी ) 
की उपमा शाल्लों में दौगई है। इसे वर्जित स्थर भी कद्दू सफते हैं। इतना सम होते हर 
भी कभी-कभी राग में बियादी स्व॒र फा प्रयोग भी ऐसी कुशलता से कर टिया जाता हद 
जिससे कि राग में एक विचित्रता पैदा होजाती है । जैसे यमन राग से दो शुद्ध गवारो के 
चीच में शुद्ध म लगादिया जाता है तो इसका सौन्दय कुछ बढ हो जाता है । इस प्रफार 
विवादी स्पर का प्रयोग छुशन गायफ करते हैं। 


आश्रयराग 


+__ , हिन्दुस्तानी सगीत पद्धति में ऐसा नियम दै कि किसी थाट का नाम उस थाद से 
पैंदा होने चाले राग के नाम पर रस दिया जाता हे । अत जिस जन्य ( पैदा द्ोने वाले ) 
राग का नाम थाठ को दिया जाता है, उसीफी आश्रय रागः फहते हैं जैसे -- स रे गा में 
प्‌ घु नि इस स्वर समुदाय में बिदित होता है फि यह सैर थाट है। इसका नाम 
भेरब थाट इस लिए रफ़्पा गया, फ्योंकि इन्हीं म्वरों से ओर इसी थाट से प्रसिद्ध राग 
'मैरय' की इसत्ति हुई हे । इस पार यह 'सैरव” आय राग हुआ | इसीलिये किसी भी 
आर मे पैदा द्वोने वाले जन्य रागों मे आश्रय राग का थोड़ा-बहुत अन्श अवश्य ही दिसाई 


कप 2 वी: बिकने 3० टित ब  4 7 ६००४ 


लक 


# सड़ीत्न विशारद # ॥॒ 8७: 


नलिनिननिनििमिफिििकि अल... ूु॒इइभाााााााााााााााााकाााााााााााधाधधनााधााध धाधधाााधाधााधतध॒धाााका भा भाई 


देता है, किन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिये कि आश्रय राग सभी जन्य रागों का उत्पादक है। 
य रागों का उत्पादक तो थाट ही माना जायगा | 


आशय राग को ही थाट बाचक राग भी कहते ह। उत्तरी पद्धति में कुल १० आश्रय 
राग माने गये हैं, जो निम्न लिखित नकशे में दिखाये जाते हैं:-- 


१० आश्रय राग 


कु 














* जाम थाट | थाट के स्वेर आश्रय राग।| रागों के आरोह अवरोह 
+ १ बिल्लावल द बिलावल | सारेगम पध निसां 
सांनिधपसमग रेसा 

! २ कल्याण सारेगमंषधनिखां यसन सारेगम॑पधनियसां 

सांनिधपमंगरेसा 

, ३ खमाज | सारेगसपथधनिसां खमाज [ स्लागस प ध निखसां 
सांनिधपमग रेसा 

« ७ भैरव सारेगमपथुनिसां भैरव सारेगमप धुनिसां 

सांनिधपमगरेसा 

< ४ पूर्वी सारेगमं॑पध॒निसां पूर्वी सारेगमंपधतिसां 
सांसिधपमंगरेसा 

“६ मारवा  सारेगम॑पधनिसां मारवा सारे गम धनिसां 


सांनिधर्म गरे सा 
“७ काफी सारेगुमप धनिखसां काफी सारेग्मपधतनिसां 
सांनिधपमगरे सा 


« ८ आसावरी | सारेगुमपधनिखां आखसावरी [सा रे म॒ प धुसां 
; सांनिधप मग्रेसा 
६ भैरवी | सा रेगम पधनिखां भैररी सारेगमपधनिसां 

; ह सांनिधपमगरेसा 

१० तोड़ी |सारेगु्मपधनियखसां तोड़ी सा रेगमंपधनियसां 


सांनिधपमंगरे सा 
ध्यान रहे कि थाट में केवल आरोह ही होता है तथा खातों स्वर पूरे होते हैं, किन्तु 
राग में आरोह व अवरोह दोनों का होना आवश्यक हे चाहे स्वर सात हों या कम हों । 


के अनक ननीजितीज फ एफ ऊचणणण धाणाओ कलश 


नानी लिाजजजा ताजा: आझऋघा” >घ््पा ४5 
पक... डे ही ५ के, हे डे नी 











हज 





ध्द # सड़्रीत विशारद # 








राग गाने का समय विभाजन 


हिन्दुस्तानी सगीत पद्धति में रागो का गायन समय दिन ओर रात के २४ घरों के 
भाग कर बाटा गया ह्ै। पहला भाग--१२ बजे दिन मे १४ यजे रात्रि तक कोर दूसरा 


भाग १० बजे रात्रि से १२ बजे दिन तक | इनमें पहले भाग को पूषे भाग ओर दूसरे भाग 
|, उत्तर भाग उहते हैं । 


पूर्व राग--जो राग दिन के १० बल्ले से रात्रि के १९ चले तक के ( पूर्व भाग ) 
समय मे गाये बजाये जाते हैं, उन्हे “पूर्वराग ! कहते हैं। 
उत्तर राग--जो राग १२ बजे रात्रि में दिन ऊँ १२ बजे तक के (उत्तर भाग ) 
समय में गाये वजाये जाते हैं, उन्हे “उत्तर राग” ऊहने हैं । 
पूर्तरराग और उत्तरराग को ही प्रचार में पृर्वीग बादी तथा उत्तराग बादी राग भी 
कहते हैं| यहा पर यह बता ठेना भी आयश्यक दै कि इनको पूतीग बादी या उत्तराग 
वादी राग क्यों कहते है ? 
सप्तक के ७ शुद्ध स्वर में तार सप्तक का सा मिलाकर सा रे गम, प व नि सा इस 
प्रकार स्व॒रों की सरया ८ फरली जावे ओर फिर इसके २ हिस्से करठिये जाय तो “सारे ग 
मे” यह सप्तक का पूरपौद्ध होगा और “प्‌ थ नि सा” यह उत्तराग क्या जायेगा। 
पूथाग बादी राग--- 
जिन रागो का वादी स्वर सप्तक के पूर्वान्न अर्थात 'सारेग भ! इन स्वरो से से 
द्वोता है, बे पूर्याज्न चादी राग ऊहलाते हैं। ऐसे राग प्राय दिन के पूर्व भाग यानी १२ बजे 
डिन से १० बजे रात्रि तक के समय मे गाये जाते हैं । 
उत्तराग बादी राग-- 
जिन रागो का वादो स्पर सप्तक के उत्तराग अर्थात्‌ पथ निसा इन स्वरों में से 
हाता है, वे उत्तराग बादी राग ऊह्दे जाते हैं | ऐसे राग प्राय दिन के उत्तर भाग अर्थात्‌ १२ 
बजे रात्रि मे १२ बजे दिन तक ही गाये वजाये जाते हैं। 
उपरोक्त वर्गीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है फ्रि राग के बादी स्प॒र फ्लो जान लेने पर 
उस राग के गाने का समय मालुम होजाता है, जेसे --आसखावरी का वादी स्थर थैवत है 
यानी सप्तऊ का उत्तराग स्व॒र है तो इसके गाने का समय भी प्रात फाल है। यादी रात्रि के 
१० बजे से दिन के जारह बले तक फा जो समय ( उत्तर भाग ) है, उसी के अन्तर्गत 
प्रात काल का समय आजाता है | और यमन का वादी स्पर गन्धार है, जो फि सप्तक के 
पूवांग में से ज्ञिया हुआ स्वर है, अत यमन राग के गाने फा समय रात्रि का प्रथम 
प्रहर है जोकि दिन के १२ बजे मे रात्रि के १२ बल्ले तक के ( पूर्व भाग ) क्षेत्र मे आता है| 
इसलिये यमन पूर्वाद्भघादी राग कद्दा जायगा और आमावरी फो उत्तराग वादी राग कहेँगे | 
उपरोक्त विवेचन पर सद्जीत विद्यार्थियो को यह शका होना स्वाभाविक है कि मैरवी 
मध्यम वाटी स्वर है जोकि सप्तक का पूतीग स्वर हुआ, फिर ज़्या कारण है झरि भेरवी 
का गायन समय प्रात काल बताया गया है । उपरोक्त वर्णन फे अनुसार तो मैरपी का गायन 
समय दिन का उत्तरभाग अर्थात्‌ १० बजे दिन से १२ बजे रात्रि होना चाहिए? 
त्रा तकाल का समय तो “उत्तरभाग” के अन्तर्गत आता है, फिर भैंरवी का बादी स्यर 


# सड्भीत विशारद # 88 





वादी है, जो कि सप्तक का उत्तरांग स्वर है फिर क्यों इसे पूर्व भाग ( रात्रि के प्रथम प्रहर ) 
में गाते हैं ? 
उपरोक्त शंकाओं का समाधान यह है कि हिन्दुस्तानी सद्जीत पद्धति में यद्यपि सा रे 
गम को सप्तक का पूर्वाज्ञष और प॒ ध नि सां को उत्तरांग कहा गया है, किन्तु कुछ पूर्वाज्ज 
वादी तथा उत्तरांग वादी स्वरों को उपरोक्त वर्गीकरण में लाने के लिये पूर्वाज्ग का क्षेत्र 
सारेगसमपओर उत्तरांग का क्षेत्र मपधनिसां इस प्रकार बढ़ाकर माना गया है। 
इस प्रकार सप्तक के २ भाग करने से सा, म, प यह तीनों स्वर सप्तक के उत्तरांग-तथा पूर्वाद्ध 
दोनों भागों में आजाते है। ओर जब किसी राग में इन तीनों स्वरों में से कोई स्वर वादी 
होता है, तो वह राग पर्वाज्ग़वादी भी हो सकता है और उत्तरांग वादी भी हो सकता है। 
ऊपर वर्णित भेरवी और कामोद राग इसी अ्णी में आजाते हैं, अतः भेरबी में 
मध्यम वादी होते हुये भी यह उत्तरांग वादी राग माना जा सकता है और कामोद में पंचम 
वादी होते हुए भी उसे पृ्वाद्श बादी राग कह सकते हैँ, क्योंकि यह दोनों ही राग सप्तक के 
' बढ़ाये हुए क्षेत्र में आजाते हैं। इसी प्रकार अन्य कुछ राग भी इसी श्रेणी में आकर 
अपना क्षेत्र बनालेते है । अतः यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जब किसी राग में बादी 
स्वर सा, म, प, इनमें से कोई स्वर हो ओर यह बताना हो कि यह राग पर्वाद्ग वादी हे 
या उत्तरांग वादी तो उस राग के गाने का समय देखकर तथा सप्तक के उत्तरांग और 
पर्वाज् भागों के दोनों प्रकारों को ध्यान में रखकर आसानी से बताया जा सकता हे कि 
अमुक राग पर्वाद्नवादी हे या उत्तरांग वादी । 


स्वर ओर समय को दृष्टि से रागों के ३ वर्ग 


ः हेन्दस्तानी सद्भीत पद्धति में रागों के गाने-बजाने के बारे में समय सिद्धान्त 
( (वा76 4]609 ) प्राचीन काल से ही चला आरहा है। यद्यपिं प्राचीन रागों में एवं 
अवीचीन रागों में समय सिद्धान्त पर कुछ मतभेद हैँ जिसका कारण रागों के स्वरों में उज्नट फेर 
होजाना है, तथापि यह तो स्त्रीकार करना ही पड़ेगा कि हमारे प्राचीन सज्जीत पंडितों ने 
रागों को उनके ठीक समय पर गाने का सिद्धान्त अपने ग्रन्थों में स्वीकार किया है। जिसे 
आज के सल्ञोतज्ञ सी स्वीकार करके अपने रागें में समय सिद्धान्त का पालन कर रहे हैं। 
हिन्दुस्थानीयरागाणां त्रयो वर्गों: सुनिश्चिता । 
स्व॒रविकृत्यधीनास्ते लक्ष्यलक्षणकोबिंदे: ॥ 
“भन्लक्ष्यसंगीतम. 
स्वर और समय के अनुसार हिन्दुस्थानी रागों के ३ वर्ग मानकर कोमल तीजक्र 
( विकृृत ) स्वरों के हिसाब से उनका विभाजन किया गया है:-- 
( १) कोमल रे और कोमल ध वाले राग । 
(२ ) शुद्ध रे ओर शुद्ध घ वाले राग । 
(३ ) कोमल ग॒ और कोमल नि वाले राग । 
सन्धिप्रकाश राग--- 


ऊपर बताये हुए ३ वर्गा' में से प्रथम वर्ग अर्थात्‌ कोमल रे और कोमल ध वाले राग 
सन्धिप्रकाश रागों की श्रेणी में आ जाते है। ध्यान रहे इसवर्ग में रे, ध कोमल के साथ-साथ 


जज जहर आधतणड शव पकलट | स्व 
हेड # सद्गीत विशारद # 


ग तीव्र होना जरुरी है। क्योंकि ग यदि फोमल होगा तो वह तीसरे वर्ग मे आजायगा | 
दिन और रात की सन्धि यानी मेल होने के समय को सन्धिकाल्न कहते हैं। प्रात काल 
सूर्योदय से कुछ पहले ओर शाम को सूर्यास्त मे कुछ पढिले का समग्र ऐसा होता दे जिसे 
न तो ठिन द्वी ऊह्ट सऊते हैं न रात ही | इसी समय फो सन्धिप्रफाश की वेला कहा गया दे 
ओर इस वेला में जो राग गाये बजाये जाते हैं, उन्हें ही सन्धिप्रकाश राग कहते हैं। 
जैसे भैरव, कालिंगड़ा, मैरवी, पूर्वी, सारवा इत्यादि | सन्धिप्रकाश के भी २ भाग 
माने गये हैं। क 

( १ ) प्रात कालीन सन्विप्रकाश राग और (२) सायकालीन स्विप्रकराश राग । 
जो राग सूर्योद्य के समय गाये वजाये जायेगे वे प्रात कालीन सथिप्रकाश राग होंगे ओर 
जो सर्याग्त के समय गाये जायगे उन्हें सायफालीन सधिप्रकराश राग कहेंगे। 


सधिप्रफाश रागों में मध्यम म्वर यडे महत्व का दूँ। प्रात कालीन सधिग्रकाश रागों 

में अधिकतर मध्यम कोमल यानी शुद्ध होगा और सायकालीन सन्धिप्रफाश रागों में अधिकतर 
कप भैर ्े ० 

तीजन्र मध्यम मिलेगा। जैसे मैरव ओर फालिड्डा प्रात काज्ञीन सधिप्रकाश राग हैं, क्योंकि 


इनमे शुद्ध मध्यम है और पूर्वों अथवा मारवा सायकालीन सथिप्रफाश राग हैं, क्योंकि 
इनमे तीज्न मध्यम है । 








_ _ संधिप्रकाश रागे की एक साधारण सी पहचान यह भी है क्रि उनमें पैवत खर 
चाहे कोमल द्वो या तीत्र, किन्तु उनमे रे जोमल ओर ग नितीत्र दही अधिऊतर मिलेंगे! 


यद्यपि कोई-कोरई्ट सविप्रकाश राग इस नियम का अपवाद भी हो सकता है, जैसे-- 
मैरवी इत्यादि । 


(२)२ ध शुद्ध वाले राग 


रे, ध शुद्ध ( तीत्र ) बाले रागो के गाने का समय सधघिप्रकाश के बाद आता है, 
क्योंकि सबिप्रकाश काल टिन में > वार आता है, अब इस वर्ग के रागो ऊे गाने का समय 
भी २४ घण्टों मे + वार आता है। इसमें कल्याण, बिलावल ओर खमाज थाट के राग 
गांये बजाये जाते हैं। 

प्रात कालीन सधिप्रकाश रागों के चाद गाये लाने वाले रागों मे, दिन चढसे के साथ 
ही साथ शुद्ध रे तथा शुद्ध घ फी प्रथानता यढती जाती है। इस प्रफार प्रात ७ बजे से 
१० बजे वर और शाम को७ बजे से १० बजे तक दूसरे वर्ग अर्थात रे ध शुद्ध जले 
राग गाये बजाये जाते हैं। इस वर्ग में ग का शुद्ध होना आवश्यक है। साथ ही साथ 
इस वर्ग के रागों में म'यम स्वर का भी विशेष महत्व है, वह इस प्रकार कि सबेरे ७ बसे 
से १० बजे वक गाये जावे वाले रागों से शुद्ध थानी कोमल मध्यम की प्रधानता रहती है, 
जैसे बिलायल, देशकार, तोडी इत्यादि ओर शाम के ७ बजे से १० तक गाये जाने वाले 


रागों में तीम्र मध्यम की प्रधानता रहती है । जैसे यमन, शुद्धकल्याण, भूपाली इत्यादि । 


( ३ ) फोमल ग॒, नि वाले राग 


इस वर्ग के रागों की गाने का समय रे घ शुद्ध वाले रागों के बाद आता है, अर्थात 
ग॒ नि सोमल वाले राग दिन के १० वज्ञे से ४ बजे तक और रात को १० बजे से 9 बजे 


# सड़ीत विशारद # १०१ 





तक गाये बजाये जाते हैं । इस वर्ग के रागों की खास पहचान यह है कि उनमें ग॒ कोमल 
जरूर होगा, चाहे रे-ध शुद्ध हों या कोमल। इस वर्ब के रामों में फ्रातःकाल के समय 
आसावरी, जोनपुरी, गांधारीटोड़ी इत्यादि राग गाये जावे हैं और रात्रि के समय में यमन 
इत्यादि गाने के बाद जेस्रे जेसे आधी रात्रि का समय आता जाता है, बागेश्री, जयजयवन्ती 
माल्कीस इत्यादि राग गाये बजाये जाते हैं। 


'सड़ीब सीकर' से रागों के गाने की एक ताक्षिक्रा हम नीचे दे रहे हैं, जोकि रात्रि 
के प्रथम प्रहर के प्रमुख राग यमन से आरम्भ होती है, क्‍योंकि गायक वादक प्रायः यमन 
राग से ही अपना गायन वादन प्रारम्भ करते हैं। इस तालिका में भेरबी” को इसलिए 
छोड़ दिया गया है कि महफिल् की समाप्ति प्रायः भेरवी पर ही करने का रिवाज सा 
हो गया है, अतः मैरवी का गायन काल यद्यपि प्रातःकाल है, किन्तु रात्रि के १ बजे २ बजे 
जब भी महफ़िल समाप्ति पर हो, भेरवी सुनाई दे जाती है। इसी प्रकार दिन में भी 
१-२ बजे कभी-कभी भैरवी सुनाई दे जाती है । 


तीव्र मध्यम वाले राग--- 


(१) यमन 
(२) शुद्ध कल्याण 
(३) माल्नश्री 


(४) हिंडोजन--( इस राग के विषय में दो मत प्रचलित हैं। रात्रिगेय हिन्डोल में ग बादी” 
होता है, किन्तु प्रातःकाल गाने वाले घेवत वादी मानते हैँ। कुछ विद्वानों का मत है 
कि बसनन्‍्त ऋतु में यह राग चाहे जिस समय गाया जा सकता है )। 

(४) भूपाली 

(६) जेतकल्याणु 


यहां से दोनों मध्यम वाले राग आरम्भ हुए 


(७) हमीर 

(८) केदार ।$ 
(६) कामोद 

(१०) छायानट 

(११) बिहाग 

(१२) शंकरा (मध्यम का अभाव) 


तीत्र ग तथा कीमल नि लगने वाले रागों का आरम्भ--- 
(१३) खमाज 

(१४) देस 

(१४) तिल्नक कामोद - 


(१६) जयजयवन्ती राग ( परमेलं प्रवेशंक ) कुछ विद्वान जयजयवन्ती के पश्चात्‌ ही 
मालकोंस गाने का समय बतलाते हैं । 


१०४ 


अध्यद्शक स्वर (मध्यम) का महत्व 


«> औ#0०क "पा 


हिन्दुस्तानी मन्नीव पद्धति में रागों के गाने के समय की दप्टि से मध्यम स्वर विशेष 
महत्पपर्ण है। यह स्तर रागों ऊे समय विभाजन में पथ प्रदर्शक का कार्य करता है, इसीलिये 
इसे “ओध्यदर्शक़ स्पर” कद्दा खाता है। सपेरे के समय में प्राय कोमल (शुद्ध) मयम का 
गज्य रहता है। कोमल रे श्र वाले सविप्रफाश रागों में यदि शुद्ध मध्यम प्रवल द्वोता है तो 
बे प्रात काल्ञीन सवि प्रकाश राग होते है और शाम ऊे रागो में तीत्र मध्यम फी प्रवानता 
रहती है, अ्रत वे सध्याजालान सधिप्रफाश राम ऊहे जाते हैं । इस प्रकार तीत्र मध्यम 
अधिकतर सायक्राल की सूचना देता है और कोमल मध्यम प्रात काल की | यमन, दमीर 
ऋमोद, केदार इत्यादि तीज मध्यम वाले राग मायकाल से रात्रि के प्रथम पग्रदर के अन्दर दी 
मा लिय जाते हैं। शाम प्रो मुलतानी, पूर्वी तथा श्री इत्याठि रागों से तीत्र मध्यम का प्रयोग 
शुरू द्वावा है और यह प्रयोग लगभग आधी रात तक लगातार चलता रहता दे। इसके 
पश्चात्‌ रात्रि के दूसरे प्रहर मे जब विह्यग गाने करा समय थआआाता है तो वीरे-वीरे शुद्ध मध्यम 
का प्रयोग आरम्म हो जाता है। वह सूचित करता दूँ कि प्रभात का समय निकट आ रहा 
ओर रात्रि काफी बीत चुकी है । इस प्रकार तीत्र मध्यम के बाद शुद्ध मध्यम की प्रधानता 
स्थापित हो जाती है। प्रात जालीन सन्वि प्रकाश रागे में पहिले शुद्ध मध्यम वाले राग 
मैरय, कालिब्नडा इत्यादि गाऊर किर दोनों मध्यम वाले राग आ जाते हैं.। डिन्तु इनमें शुद्ध 
मध्यम का महत्य अधिक रहता है जैसे रमफली आर ललित इत्यादि, इसके पश्चात्‌ जब 
रे-ध शुद्ध बाले रागा को गाने का समय आता है तब भी शुद्ध मध्यम की ही प्रवलता 
रददवी दे, जैसे बिलावल आदि और फिर कोमल गन्पार वाले रागे। का समय आता है तो 
टोनों मध्यमों का प्रयोग आरस्भ हो जाता है। इस प्रकार तीसरे प्रहर तक शुद्ध और तीजत्र 


दोनों प्रकार के मन्ममों का प्रयोग चलता है, किसी राग में फोमल म' यम की प्रवानता रहती 
दै किसी में तीत्र की । 


सूर्यास्त के समय जय स याकाल्लीन सन्धि प्रकाश राग आते हैं, जैसे मारवा, भी 
इत्यादि तो इनमे तीत्र म यम का मह्त्य रहता है, इसके पश्चात रे-ग शुद्ध बाले राग आते हैं 
जैसे कल्याण, हमीर, केदार आदि, तो उनमे भी तीत्र मन्यस मा ही विशेष ग्रावान्य रहता दै। 
अन्त में जाकर जन कोमल ग॒ु याले रागे ऊे गाने का समय आता है तो शुद्ध मध्यम वाले 
रागे की फिर प्रयानता हो जाती है, जैसे वागे जी, काफी, मालऊॉस इत्यादि | 


इसीलिए ऊद्दा जाता है कि हमारी पद्धति में सश्यम स्प॒र का अत्यन्त महत्वपूर्ण 
स्थान है| केयल मध्यम के परिवर्तन से गायनफाल मे अन्तर दीसने लगता है। भैरव 
प्रात काल करे प्रथम प्रहर से गाया जाता है, किन्तु इसऊे स्व॒रों में यदि कोमल मध्यम ही 
जगह तीत्र मध्यम कर दिया जाय तो सायकाल से गाया जाने वाला पूर्वी राग द्वो जायगा 
तथा प्रात काल गाये जाने वाले विल्ञावल राग के स्परों में से सिर्श कोमल मध्यम हटाकर 
तीज मध्यम करने से रात्रि को गाया जाने वाला राग यमन हो जाता दै। इस प्रकार केयल 
मध्यम का समता बल देने से श्ात काल के स्थान पर यह राग राजिगेय हा गये । इसीलिये 


- थार में पैदा होने वाले जन्य रागा म आभ्थ दान फा कष्ट अल दिए ७ 7 


# सजड़ीत विशारद # | १०४ 





कहा है कि सध्यम के इशारे पर ही सल्लीतज्ञों के दिन ओर रात हो हैं। यद्यपि इस नियम 
के कुछ राग अपवाद भी हें, किन्तु बहुमत इसी ओर है। 


के परमेल प्रवेशक राग | 


परमेल का अथ हे, दूसरा अन्य कोई मेल और ग्रवेशक अर्थात्‌ प्रवेश करने वाला। 
यानी, परमेल प्रवेशक राग वे कहे जाते हैं जो किसी एक सेल (थाट) से अन्य किसी मेल 
या थाट में प्रवेश करते हैँ, उदाहरणार्थ--संध्याकाल के गाने वाल्ति' सन्धि प्रकाश रागों को 
गाकर जब गायक समयानुसार दूसरे अन्य किसी मेल (थाट) के राग गाना चाहता हे 
जेसे भीमपलासी, धनाश्री और धानी गाकर जब कोई गायक मुलतानी गाने ल्णता हे तो 
उससे यह्‌ संकेत मालुम होता हे कि अब गायक किसी दूसरे थाट (यमन इत्यादि) में प्रवेश 
करने वाला है । इस प्रकार मुल्नतानी 'परमेत्न प्रवेशक! राग साना गया । एक उदाहरण 
यह ओर स्पष्ट किया जाता है:-- 


रात्रि को जब रे ध शुद्ध वाले वर्ग के रागों का समय समाप्त हो जाता है और 
गु नि कोमल वाले वर्ग के रागां का गाने का समय आने वाला होता है, उस समय 
जयजयबन्ती राग “परमसेल प्रवेशक?” राग माना जायगा, क्योंकि जयजयवन्ती राग में रे- 
धघ शुद्ध वाले वर्ग तथा ग॒ नि कोमल वाले वर्ग दोनों को ही कुछ-कुछ विशेषता मौजूद हैं । 
जयजयवन्ती में दोनों गंधार दोनों निषाद ओर शुद्ध रे ध लगते ही हैं, अतः यह राग 
दूसरा थाट (मेल) आरस्भ होने की सूचना देकर 'परमेल प्रवेशकः राग कहलाता है । 
कु झग्ले् 82720 का) रे है ०॥ 64 ८ भले न 


0 20] 
उम्र साई हर ६४ | जअछवरच ० ८ ी द पे ६-4 


कफ; 


“जा पक 
संपबा फल > ८... न्‍> 


२ 28% 02 
परिचय _ जद _ 
पफाश्ञरों स्तन न ्पू ्ट्‌र 


«५ 'एटलकाद: ८०) (४) 


१०६३ 


| 


हदुश्तानों सगातपद्धात के ४० शद्धान्त 


आ+ औ5 हैं >-त5 
ऊर्नाटकी सड्जीत की तुलना में हिन्दुस्तानी सद्भीत पद्धति अपनी छुछ विशेषताएं 
रखती है, यही कारण है कि आज मेंसर-मद्रास और कर्नाटक को थलोडफर शेप समस्त 
भारत में हिन्दुस्तानी सद्नीत पद्धति दवा प्रचलित दे । यह पद्ठति निम्नलिग्यित विशेष मिद्धार्तो 
पर धप्रवलम्बित है। सड्डीत विद्यार्थियों जो इन सिद्धान्ती करा भ्ती प्रकार मनन कर लेना 
चाहिये। भी भातसण्डे जी ने ऋ्रिक पुस्तक पाचनी ( मराठी ) में इनका विस्दृत उल्लेस्स 
किया है, उसी आधार पर निम्नलिग्यित सिद्धान्त ठिये जा रह हैं -- 


१--हिन्दुस्तानी सज्जीत पद्धति की नींच “विलायल थाट” को शुद्ध थाट मानकर रखी गई है. 
अथात्‌ विलावल थाट के स्पर ही शुद्ध स्व॒र सप्रक का निर्माण फरते हैं । 


२---समस्त रागे का वर्गीफ़रण तीन भागे। में ऊिया गया है (१) ओऔरूुध (पाच स्वरो के 
राग) (+) पाडव (छे स्व॒रो के राग) (3) सम्पूर्ण (सात स्थरों के राग) | 


३--पाच स्वरों से फम का ओर ७ स्व॒रों से अविक का ( कोमल तीत्र मिलारर १० स्वर ) 
राग नहीं होता। 


४--ओऔड॒प पाडव ओर सम्पूर्ण इनके आरोह-अवरोह मे उ्लट-पलट होने से ६ प्रकार के 
भेद माने जाते हैँ, जिनका विवेचन इस पुस्तक में औड़व-पाडव भेद के अन्तर्गत 
किया है । 


४--प्रत्येक राग में थाट, आरोह-अपरोह, वादो-सम्बादी, समय ओर रजऊता यह बाते 
अवश्य होती हैँ । 
&--बादी सम्बादी स्परा में प्राय ४ स्वर्ों का अन्तर होता है। वादी स्वर पूर्वान्न में होगा 


तो सम्बादी उत्तरा्र में होगा अथया वादी स्पर उत्तराज्न में होगा, तो सम्बादी 
पूर्वान्न में होगा । 


७--वादी स्वर को बदल कर शाम को गाने वाला राग सबेरे का गाने माला राग वनाया 
जा सफता है। 


प८--राग में सुन्दरता लाने के लिये वियादी या वर्जित स्वर का भी फिचित मात्र प्रयोग 
म्यिजा सफ्ता है। पर 


«-<र एक राग में एक वादी स्वर होता है जिसका राग में विशेष जोर रहता दै, वादी 
स्वर के आधार पर ही पूर्व राग ओर उत्तर राग पहिचाने जा सकते 


१०-इस पद्धति के राग सामान्यत तीन वर्गों मे विभाजित किये जासकते हैं (१)रे घ 
कोमल वाले राग (२) शुद्ध रे, घ वाले राग (३) ग॒ नि कोमल वाले राग | सबि- 
प्रकाश राग जो सूर्यात्त ओर सूर्योदय के समय गाये जाते हैं वे प्रथमवर्ग में 
अधिकतर पाये जाते प्रात कालीन सथिप्रकाश रागोे में प्राय रे ध वर्जित नहीं 
होते तथा सायकालीन सविप्रकाश रागे से आय ग नि दोनों द्वी वर्जिव नहीं होते। 


# सड़ीत विशारद # १०७ 





११-इस पद्धति में मध्यम स्वर महत्वपूर्ण माना जाता है, इसे अध्वद््शक स्वर कहा जाता है 
क्योंकि इससे दिन रात के रागों को गाने का समय निर्धारित होता हे । 
१२-जिन रागों में ग॒ु नि कोमल लगते हैं, वे दोपहर को या आधी रात को ही अधिकतर 


गाये जाते हैं। 


संघ ् 
१३-संधिप्रकाश रागों के बाद प्राय: रे ग ध नि शुद्ध लगने वाले राग गाये जाते हैं। 


१४-षड़ज, मध्यम और पद्नम यह तीन स्वर प्रायः दिन और रात्रि के तीसरे प्रहर के रागों 
में अपना महत्व विशेष रूप से रखते हैं। 


१४-तीत्र मध्यम अधिकतर रात्रि के रागों में ही पाया जाता हे, दिन के रागों में यह स्वर 
कम दिखाई देता है । 
१६-सा, म, प यह स्वर पूर्वा़् और उत्तराज्ग दोनों भागों में ही होते हैं, अतः जो राग 
प्रत्येक समय ( सर्वकालिक ) गाये जाने वाले होते हैं, उनमें इन तीन सवरों सें से 
एक वादी होता है । 


१७-मध्यम और पद्चम यह दोनों स्वर एक साथ किसी भी राग सें वर्जित नहीं होते । 
प वर्जित होगा तो म मौजूद होगा और म वर्जित होगा तो प मौजूद होगा । 


८-किसी भी राग में षड़ज स्वर वर्जित नहीं होता । 


१६-रागों में प्रायः एक ही स्वर के दो रूप ( कोमल तीत्र ) पास-पास नहीं आने चाहिए, 
किन्तु लत्तित इत्यादि कुछ राग इस नियम के अपवाद है । 


२०-अपने नियत समय पर गाने से ही राग सुन्दर लगता हे, किन्तु राज दरबार तथा 
रंगमंच ( स्टेज ) पर यह नियम शिथित्न भी हो जाता है। 


२१-तीत्र मं के साथ कोमल नि बहुत कम रागों में आता है । 


२२-दोनों मध्यम लगने वाले रागोें में कुछ-कुछ एकरूपता पाई जाती है, इनकी भिन्‍नता 
प्रायः आरोह सें ही दिखाई देती है। ऐसे रागों का अन्तरा बहुत कुछ मिलता 
जुलता होता है । 


२३-रात्रि के प्रथम प्रहर में जब दोनों सध्यम वाले राग गाये जाते हैं, उन्तका एक साधारण 
सा नियम यह है कि शुद्ध मध्यम तो आरोहावरोह दोनों में लगता है, किन्तु तीत्र में 
केवल आरोह में ही दिखाई देता है तथा शुद्ध मध्यम की अपेक्षा तीत्र मध्यम का 
उपयोग दोनों मध्यम वाले रागों में कम पाया जाता है । 


२४-शत्रि के प्रथम प्रहर वाले राणों में एक नियम यह भी दिखाई देता है कि उनके आरोह 
23% कल दा ७७० 25 4; 
में निषाद वक्र और अवरोह में गान्धार वक्र रूप से लगता है। ऐसे रागों के अवरोह 
७७ > ९ [4 6 
में प्राय: निषाद दुर्बेल दिखाई देता है । | 


२५-हिन्दुस्तानी पद्धति में ताल की अपेक्षा राग को अधिक महत्व दिया गया हे । इसके 
विरुद्ध कर्नौटकी पद्धति में राग की अपेक्षा ताल का महत्व अधिक माना गया है। 


भा लय 2 4४६७७४४७७७ अल आन पअिनलन अधिनिसनार अििननलनीनन जननजनन-++न हजननन»प- 
कं े 








रे 74 0003 प्र 
का 4 के हि 





श्ण्८ # सड्जीत विशारद # 








२६-पूर्व रामों फ्री विशेषता आरोह में ओर उत्तर रागो का चमतकार अबरोह में दियाई 
देता है। 
र७-प्राय प्रयेक थाट से पूर्व ओर उत्तर राग उसन्‍न हो सऊते हैं। 


२घ-गभीर प्रकृति के रागों में पड़ज, मध्यम था पचम का विशेष महत्व द्ोता है तथा 
सन्द्र सप्तक में उनका अधिक महत्व म्ञाना गया हूँ। ऊफिन्तु कुद्र प्रकृति के रागों मे 
यह बात नहीं पाड़े जाती । है 

२६-सघिप्रकाश रागों के द्वारा करण व शात रस, रे ग ध तीम्र वाले रागों से खन्नार व 
दा ओर कोमल ग॒ नि वाले राग द्वारा वीर, रीद्र व मयानक रसे का परिपोपण 
होता हे। 


३०-एक थांट के रागों से दूसरे थाटों के रागों में प्रवेश करते समय, परमेल प्रवेशक राग 
गाये जाते हैं.। 


3१-सपिप्रकाश राग सूर्योदय और सूर्यास्त के समय गाये बजाये जाते हैँ और इनके वाद 
तीत्र रे ग व वाले राग गाये जाते हैं या फोमल ग॒ नि बाले राग गाये जाते हैं । 


3२-जिन रागों मे कोमल नि लगता दे जैसे काफो और समाज थाट के राग | इनके 
आरोह में चहुधा तीघ्र नि फा प्रयोग भी फर दिया जाता है । 


३३-क्रिसी राग में जब स्वर लगाये जाते हैं तो वे अपने कम अधिक या वराबर के परिमाण 
में लगऊर इुर्वल प्रवल या सम माने जाते हैं । दुर्वल का अर्थ वर्जित नहीं है | 


३४-दो-तीन या चार स्वरो के समुदाय को 'तान! कहते हैं, राग नहीं कह सकते । 


३४-व्पहर १६ बजे के वाद्‌ तथा रात्रि के १? बजे के बाद जो राग गाये जाते हैं, उनमे 
क्रमश सा, म, प का प्रावल्य होता चला जाता है | 


७... 0 ० प पु ० पु ० ०. पु 
दे हर व वाले राग के आरोह से रेधया तो लगते ही नहीं या दुर्बल 
४6 । दर के समय गाये जाने वाले रागों में रिपस और निपाद स्वर ख़ब 


३े७-जिन रागों मे सा, म, प, यह स्वर बादी होते हैं, थे प्राय गभीर प्रकृति के राम होते हैं। 


३८-सबेरे के रागों में कोमल रे ध॒ की प्रवलता रहती है और शाम के रामों मे तीत्र ग॒ नि 
अबविक ठियाई देते हैं। 


रै६-निसारेग यह स्वर समुदाय शीत्रतापूर्वरू सचिप्रकाशस सूचित करता है। 


४०-उत्तर रागों का स्वरूप अवरोह में और पर्व रागों में विशेष 
दिव्य रागों का स्वरूप आरोह में से 
खुलकर दिखाई ढेता है । दे ७0355 


ल्‍ १०६ 


राग में वादी स्वर का महत्व 


“प्रयोगे बहुल स्वर वादी राजा5्त्र गीयते” । 


जा ७० >> 


शास्त्रों की उक्त व्याख्या के अनुसार वादी स्वर की स्थिति रागरूपी राज्य में राजा के 
समान सानी गईं है। वादी स्वर का प्रयोग राग में अन्य स्वरों की अपेक्षा अधिक 
होता है वादी स्वर पर ही प्रत्येक राग की विशेषता निर्भर रहती है। इसी कारण बादी 
स्वर॒को जीव या अन्शस्वर भी कहते है। वादी रबर का प्रयोग राग से कुशत्ञ गायक 
भिन्न-भिन्न प्रफारों से करते हैं। राग में वादी स्वर को बार-बार दिखाना, वादी स्वर से 
ही राग का आरम्भ करना, वादी स्तर पर ही राग समाप्त करना, तथा राग के प्रमुख 
भागों में वादी स्वर को बार-बार भिन्न-भिन्न स्वरों के साथ दिखाना तथा कभी-कभी 
क्मदी स्वर को बड़ी देर तक लम्बा करके गाना, इत्यादि विविध ढल्लों से वादी स्वर का 
प्रदर्श रागों में किया जाता है। उदाहरणाथे विहाग में गन्धार बादी स्वर है, तो उसका 
प्रयोग इस प्रकार देखने में आयेगा:-- 


ग॒, रेसा, निसाग, सग, प, गसग, निप, गसग, निसागसध पगसग, सा, इत्यादि । 

इसी प्रकार मारवा में वादी स्वर कोमल रे का प्रयोग देखिये:-- 

न्रि55इसा, निरे55, गरे55, गमंगरे, मंगरे555सा, इत्यादि | यहां पर कोमल रिषभ 
फ्री लम्बा खींचकर उसका वादित्व कितनी सुन्दरता से प्रकट किया गया है । 


वादी स्वर के प्रयोग से रागों के गाने का समय भी जानने में सुविधा मिलती हे । 
जब किसी राग में सप्तक के पधौकज़ में से कोई स्वर वादी होता है, तो उसे पृ्वाद्ज वादी राग 
कहते हैं ओर उसके गाने का समय प्राय: दिन रात के पर्वाज्ना समय अर्थात्‌ दिन के १२ 
बजे से रात्रि के १२ बजे तक के बीच होता है जेसे भीमपत्ासी, पीलू , पृवी, सारबा, यमन 
भूपाली, बागेश्री इत्यादि रागे। में पूर्वाज्ग वादी स्वर होने के कारण थे राग उपरोक्त समय 
( पू्वाज्ः समय ) में ही गाये बजाये जाते हैं । 


इसी प्रकार किसी राग में जब कोई वादी सर्वर सप्तक के छत्तराष्द्र में से होता है तो 

वह दिन रात के उत्तराज्न भाग अर्थात्‌ रात्रि के १९ बजे से दिन के १५ बजे तक के समय 
में से किसी समय का राग होता हे, जैसे:-मसैरब, भेरवी, बिल्ावल, कालिझ्गडा, सोहनी, 
आसावरी इत्यादि | वादी स्वर की एक विशेषता यह और हे कि किसी राग में केवल वादी 

स्वर बदल देने से ही राग भी बदल जाता है, चाहे उन रागों में लगने वाले स्वर 
लगभग एक से ही हों। जैसे भीमपलासी और धनाश्री यह दोनों राग काफी थाट से उत्पन्न 
हुए हैं और दोनों में ही ग॒ नि कोमल प्रयुक्त होते हैं, किन्तु इन रागों में केवल वादी स्वरके 
उल्नटफेर से ही राग परिवर्तित होजाता है । जब भीमप्लासी गाया जायगा तो ज्समें मध्यम 

स्वर अधिक दिखाया जायगा क्योंकि म स्वर भीसपल्नासी में बादी है और जब घनाश्री 
गाया जायगा तो पशद्चम स्वर अधिक दिखाया जायगा; क्योंकि घनाश्री में प, वादी है | 

इससे स्पष्ट होजाता है कि केवल बादी स्वर को बदल देने से ही भीमपलासी से धनाश्री 


राग बदल गया। 
का] 3४28७ ४6 सह आ वार कम आल लत 3 कक किक अल तरल 





११० $# सड़्ीत विशारद < 








फिसी राग का फोई स्पर समुढाय देस्यकर उसमें वादी स्पर पहचानने से उस राग 
का नाम भो व्यान से आजाता हूँ। जैसे --सा, गमव, निव, सानिधप, समघ, प, धप, 
गमरे, सा। इसमे बैवत स्पर विशेष रूप से चमफ फर अपना वाहढित्व प्रकट कर रहा है 
अत यह हमीर राग है, फ्योंकि हमीर में वादी धैवत माना गया हैं । 


वादी स्वर की सहायता से राग का विस्तार तथा राग की बढत भी ठिखाई 
जाती है, जैसे माल्ॉंस से मध्यम स्पर वादो है, तो ठेसिये उसके स्पर विस्तार में म किस 
तरह समाया हुआ है +- 

सा, निसा, मं, मग, सध, निव, संग, गमग, सा । सामे, सामगुम, वपगुम, 
निधरमग, मे । इत्यादि | 

राग में वादी स्पर का सहत्व बताते हुए ऊपर जो वर्णन क्रिया गया है उसके 
अनुसार निम्नलिसित ७ बाते विद्यार्थियों को याद रखनी चाहिए -- 


(१) बादी स्वर राग का प्रधान स्पर होता है ओर राग रूपी राज्य में उसका स्थान 
राजा के वराबर दे । 


(२ ) वादी स्तर को द्वी सद्भीत शास्त्रों मे 'जीवस्पर' भी कहा है. अर्थात्‌ इसी स्वर 
से राग ऊे प्राण होते हैं । 
(३ ) वाही स्पर से राग के गाने का समय जाना जा सकता है| 


(४ ) फेवल बादी स्पर को बदल देठे से कोई-कोड राग भी बदल जाता है चाहे 
अन्य स्वर दोनों रागे में एक से ही हों। 


(४ ) वादी स्प॒र पर राग का सौन्दर्य निर्भर है । 


( ६) किसी स्पर समुदाय में वादी स्वर को पहिचान कर यह बताया जा सकता ह्द्‌ 
कि यह अमुऊ राग है| 


... (७) राग मे लगने वाले अन्य सन स्व॒रों की अपेक्षा बादी स्वर अधिक प्रयोग 
भे आता है। 


राग में विवादी खर का प्रयोग 
शास्त्र नियम के अलुसार रागों में विवादी स्प॒रो का प्रयोग वर्जित है, किन्तु डसका 


अन्पत्व रखते हुये थोडा सा प्रयोग तान इत्यादि मे करने फी आज्ञा भी शास्त्रों में पाई 
जाती दै, जैसा कि (राग मजरी? में कष्ठा है -- 


“वियादी तु सदा त्याज्यः क्वचित्तानक्रियात्मऊः 


+ __ इस प्रकार विवाडी स्व॒र के विषय से प्राचीन अन्थफारों की धारणा विचित्र रूप से 
पाई जातो है। इसी का उल्लेग्य करते हुए 'लक्ष्य सब्गीतः मे कद्दा है -- 


विवादीस्व॒रूयार्याने रत्नाऊर अपचितम्‌। 
रहस्य फ्रिंचिदष्यासीत्‌ मिन्‍न मर्मविदामते | 


% संगीत विशारद # १११ 





इससे सिद्ध होता है कि विवादी स्वर की व्याख्या रत्नाकर आदि अन्यों में रहस्यपूर्णा 
ढड्ढ से भिन्‍न-सिन्‍न रूप में पाई जाती है। कई ग्रंथों में विवादी स्वर को राग का दुश्मन 
भी “शब्रुतुल्या: विवादिनः” कहकर बताया गया है । 

इतता सब होते हुए भी स्वर्गीय भातखण्डे जी का मत विवादी स्वर के बारे में यह 
था कि यदि कुशलता पूर्वक्च कण के रूप में विवादी स्वर का प्रयोग कर दिया जाय और 
उससे राग की रंजकता बढ़ती हो तो “मनाकस्पर्श” के नाते वह कृत्य क्षम्य समझा जावेगा । 
उन्होंने अभिनव राग मंजरी सें लिखा हैः-- 


सुप्रमाणयुतोरागे .विवादी रक्तवर्धकः । 
यथेष ऊृष्णवर्णन शुभ्रस्यातिविचित्रता ॥ 


'सड्जीत समयसारः ग्रन्थ सें विवादी स्वर की व्याख्या “प्रच्छादनीयों लोप्यो वा” 
इस प्रकार की गई है। प्रच्छादन का अर्थ है “मनाऋस्पश ”? अर्थात्‌ क्रिचित मात्र विवादी 
स्वर का प्रयोग | इस प्रकार आजकल हम देखते भी हैं कि कुशल गायक अपने राग में 
विवादी स्वर का क्रिचित प्रयोग करके श्रोताओं से प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं और राग का 
स्वरूप भी नहीं बिगड़ने पाता, बल्कि उसमें कुछ ओर विचित्रता ही पैदा हो जाती है | किन्तु 
यह कार्य अत्यन्त सावधानी से ही करना चाहिये। इसके विरुद्ध यदि गायक चतुर न हुआ 
ओर बेढंगे तरीके से वह्‌ विवादी स्वर का प्रयोग कर बैठे तो राग-हानि तो होगी ही, साथ 
ही वह ओताओं से निन्दा भी प्राप्त करेगा । 


इसलिये विवादी स्वर का जब की प्रयोग किया जाय तो क्षणिक कण के रूप सें या 

ल्द तानों में ही करना शोसा देगा। इस मत का समर्थन राग विवोध' में इस प्रकार 

मिलता हैे--“वज्यस्वरो5वरोहे द्रतगीतो नरक्तिहर:” अर्थात्‌ वर्जित स्वर द्वत गीतों में सोंदर्य 
को नष्ट नहीं करता । 


वर्तमान समय में अनेक रागें में विवादी रवरों का प्रयोग होने लगा है। जेसे हमीर, 
कामोंद और गोइसारक्ष रागां में कोमल निषाद विवादी स्वर के नाते जब कण स्पर्श या 
द्रुत लय की सींडू के साथ प्रयुक्त किया जाता है तो उस समय बड़ा अच्छा लगता है । इसी 
प्रकार केदार, छायानट, रागों में तो विवादी स्वर ( कोमल निषाद ) का प्रचार इतना बढ़ 
गया है कि कभो-कभ्ी श्रोतागण आश्चर्य चकित हो जाते हैं। ओर भेरवी की तो कुछ 
पूछिये ही मत, उसमें तो विवादीं स्वर का प्रयोग आजकल इतना बढ़ गया है कि यह राग 
७ स्वरों की जगह १२ सखरों का हो गया है। अथात्‌ कोमल स्वरों के अतिरिक्त रे गर्म घ 
नि इन तीज्र स्वरों का भी प्रयोग इसमें खूब खुलकर लोग करने त्गे ह। किन्तु विवादी स्वरों 
का अधिकताके साथ प्रयोग करना रागों के साथ अन्याय करना है। 


विवादी स्वर आख़िर विवादी ही है, अतः उसका प्रयोग सीमित रूप में और कुशलता 
के साथ करना ही उचित है। 


श्र 


सुण-शजिनी! बद्धाति 


सद्जीत के कुछ प्राचीन अन्थझारों ने रागे का वर्गरुए्ण राग-रागिनी-रामपुत्र 
राग-पुत्रयधू इस प्रकार किया है । इनमें मुस्य चार मता का डल्जेस मिलता है -- 
(१) शिवमत या सोमेश्वर मत, (२) भरतमत, (3) ऊल्लिनाथमत, (४) इनुमत मत | 
इन मतों के सानने वाले विद्वानों में मुल्य छ रागे के बारे मे भी मतभेद था, आर्थात 
कोई विद्वान अपने छ राग एफ प्रकार से मानते थे और छुछ विद्वान अपने छ राग भिन्‍न 
प्रकार से मानते थे । 


शिवमत ( सोमेश्वर मत ) के ६ राग ३६ रागिनी 


राग | प्रत्येक की 5 रागिनी 





१ श्री | १ मालबी, २ त्रिवेणी, ३ गौरी, ४ केदारी, ४ मधुमाधवी, ६ पहाडिका 
चसन्त १ देशी, २ देवगिरी, ३ बराटी, ४ तोडी, ५ ललिता, ६ हिंदोली 


रत 


पचम १ विभाषा, + भूपाली, ३ ऊर्णाटी, ४ बडहसिका, ४ मालवी, 5 पटमजरी 
सेघ १ मल्लारी, २ सोरठी, ३ सावेरी, ४ कोशिफी, ५ गान्धारी, ६ हस्भड्भारा 
मैरव १ मैसवी, २ गुर्जरी, ३ रामकिरी, ४ गुणकिरी, ४ बन्नाली, 5 सैंधवी 
नटनारायण । १ कामोदी, २ आभीरी, ३ नाटिका, ४ कल्याणी, ४ सारद्नी, 5 नद्टनहथीरा 


सती नै] ०20 ८ # ० 





शिवमत फो मानने बालो के लिये दामोदर परिडत क्वत 'सड्डात ढर्षशः प्रन्य 
महत्वपूर्ण माना जाता है। शिवमत व कल्लिनाथ मत में राग सख्या ६ मानकर प्रत्येऊ 
की ६-६ रामिनी मानी हैं, किन्तु अन्य मतों में 5 राग मानकर उनकी ४-४ रागिनी 
मानी हैं । अर्थात्‌ शिनमत व ऊल्लिनाथ मत ६ राग ३६ रागिनी के सिद्धान्त को मानते हैं 
आर भरतमत तथा हनुमान मत में ६ राग ३० रागनी का सिद्धान्त स्वीकार क्रिया 
गया है । 
भरतमत के ६ राग ३० रागिनी 
बा उका चाप अहाकल्क मलिक 
शग | प्रत्येक राग की ५-५ रागिनी 


बन-+गग-+ग गन नमभ+मम+न++म-+-$ ऊफफकककाणाजककअससस%सककसफकफ>लसडअस स सच-सफअ अछि व गम, अस्‍न्‍न्त्त्ततातातओओओ 


१ भैरव १ सघुमाधवी, २ ललिता, 23 चरारी, ४ भैरवी, & चहुली 
२ मालकीस | ९ शुजरी, २ विद्यावत्ी, ३ तोड़ी, ४ सम्बावती, ४ छुकम 





न का... इस & अप. ४» 








मम, औरत] 


4++ल-हंल ८ 


+_ आओ + रत++ 

















*# सजद्भीत विशारद # ११३ 
। 
! ३ हिण्डोल १ रामकल्ी, २ सालवी, . ३२ आसावरी, ४ देवारी, . ४ केकी 
४ दीपक १ केदारी, २१गौरा, ४ रुद्रावती, ४ कामोद, ४ गुजरी 
(४ श्री १ सेंघवी २१काफी, ३ ठुमरी, ४ विचित्रा, ४ सोहनी 
) 
६ मेघ १ मल्‍लारी, २ सारद्ञा, हे देशी, ४ रतिवल्लसा, ४ कानरा 
कल्लिनाथ मत के ६ राग ३६ रामिनी 
| भ्ड नव हि यु 2 
१ श्रीराग | १ गोरी, २ कोलाहल, श धवज्ञा, वरोराजी, ५ मालकोंस, ६ देवगंधार 
२ पंचम १ त्रिवेणी, २ हस्तंतरेतहा, ३ अहीरी, ४ कोकभ, ४ बेरारी, ६ आसावरी 
३ भैरव १ भैरवी, मं गुजरी, रे बिलावली, ४ बिहाग, ४ कर्नाट, ६ कानड़ा 
४ मेघ १ बड़ाली, २ मधुरा, ३ कामोद, ४ घनाश्री, ४ देवतीर्थी, ६ दिवाली 
४ नटनारायण | ? त्रिबंकी, २ तिलंगी, ३ पूर्वी, ४ गांधारी, ४ रामा, ६ सिंधमल्लारी 
६ चसन्‍्त १ अंधाली, २ गुणकली, ३ पटसंजरी, ४ गौंडगिरी, ४ धांकी, ६ देवसाग 
हनुमत- मत के ६ राग ३० रागिनी 
राग प्र्येक राग की ४-५ रागिनी 
१. भेरव १ बच्चाली, * सेंधवी,. १ भैरवी, ४ बरारी, ४ मधमादी 
२ मालकोंस | १तोड़ी, २ गुणकरी, शगोौरी, ४ खम्बावती, ४ कुकभ 
३ हिण्डोल १ रामकली, २ देशाख, ३ ललिता, ४ बिल्ञावली, ४ पटमंजरी 
४ दीपक | १ देशी, ४ कासोदी, ३ केदारी, ४ कानड़ा,. ४ नटिका 
५४ राग १ सालश्री, २ आसावरी, ३ धनाश्री, ४ बसन्ती ४ सारवा 
। 
६ सेघराग १ तनक, २ मल्लारी, ३ गुजरी, ४ सोपाली, ४ देशकार 





इनके अतिरिक्त प्राचीन ग्रन्थकारों ने प्रत्येक रागिनी के पुत्र और पुत्रवधू मानकर राग 


परिवार विस्वृत्त किया है । 


जिस समय उचक्त मत प्रचलित थ, उस समय मस॑ उन रास रागांतिया कऋ 


आधुनिक प्रचलित रागें से नहीं मिलता.। अतः उल्ेंकी आधुनिक 2 


था, 


११४ # सद्भीत विशारद # 


किम जज के 8 का नरनररए(_छछ॒ु॒॒ह माता शक काश शकभभभभ भा कली 


में ल्ञागू नहीं किया जा सकता | फिर भी सड्डीत के विद्यारियों को अपनी प्राचीन राग- 
रागिनी पद्धति के बारे में जानकारी रसना आवश्यऊ है । 





प्राचीन राग-रागिनी पद्धति का सण्डन करते हुए सर्व प्रथम ( १८१३ ३० से ) 
पटना के मुहम्मद्रजा ने अपने ग्रन्थ 'नगमात्ते आसकी! में लिखा हे कि प्राचीन राग- 
सागिनी-पुत्र-पुत्रवधू की कल्पना गलत और अवैज्ञानिक हैं, क्योंकि राग और उनकी 
रागनियों के स्वरा म॒ समता नहीं पाई जाती। अत मुहसम्मद्रजा ने बिलावल थाट को 
शुद्ध थाट मानकर सर्य प्रथम अपना एक नयीन मत प्रचलित किया | इनका कद्दना है कि 
रागे और उनको रागनियों के स्वरों में कुछ सामजस्य अवश्य होना चाहिये, अंत 
इन्होंने ६ राग और ३० रागिनी का अपना नवीन मत तत्काल्ीन सद्भीतज्ञों के सम्भुस 
रक्‍सा | उन्होंने हुनुमत मत से मिलते-जुलते राग रागनियों के नामों पर नवीन स्वरों 
का निर्माण क्रिया । रज़ा साहेब की यह पद्धति भी बहुत समय तऊ प्रचलित रही, किन्तु 
बाद से आधुनिक प्रन्थकारों हारा यह पद्धति तथा प्राचीन राग रागनी की सभी पद्धतिया 
छोड़कर थाट-राग पद्धति चालू हो गई | 


प्राचीन ग्न्थफारों ने सज्नीत की उत्पत्ति देवी-देवताओं से मानी है, अत इन 
राग रागिनियों को भी उन्होंने पुरुष राग और स्त्री रागिनी के रूप में देव-देवी स्वरूप ही 
मानकर वर्गीकरण किया । उनके स्वरूप भी वर्णन किए गए, जिनके आधार पर राग-रागिनियों 
के चित्र भी घन गये जो आज तक पाये जाते हैं। 


जिस युग मे, जैसे रागे का प्रचार होता है, उसी के आधार पर उस युग फ्रे विद्वान 
सद्जीत शास्र की रचना करते हैं, डिन्तु सह्लीत परिवर्तनशील रहा है। प्रायीन ग्रन्थों में 
रागे के वर्शित स्वरूप या स्वर आज ऊ्रे प्रचलित राग स्वरों से मेल नहीं साते | उदाहरण 
के लिये राग मालकोंस को लीजिये। प्राचीन शास्त्रों स॒ यह मालवफोशिक, मालकोश, 
मालऊोंस आइि नामों से मिलता है । सद्जीतदर्पशफार ने मालवफौशिक के स्वर सारेगम 
पधनिसा दिये हैं। छृदयप्रकाश में सारेग धनिसा,सा निधमगरे सा इस प्रकार 
बताया है, रिन्तु आजकल जो मालफौंस राग प्रचलित है, वह रे-प वर्जित होकर सा ग॒ मं 
धुन्तिसा, सा निध म ग॒ सा इस प्रकार है। ऐसे ही अन्य बहुत से रागा के नाम तो आज- 
कल मिलते हैं, किन्तु उनको स्वरावली बिलकुल दूसरे ही रुप से है। इन्द्ीं सब कारणों से 
प्राचीन राग रागिनी पद्धति धीरे-धीरे पोछे छूटती रही और थाट पद्धति से रागों 
कौ कर की गई। आजकल थाठ-राग पद्धति ही भारत में प्रचलित तथा मान्य 
हो रही है । 


जन्म क्ष्ि 


१९५ 


गाशिद्शओओ को गुर्शन्काधाओ कं 


+.._ १#+-्करि[ शुक्र-७०--- 


सड़ीत॑ मोहिनीरूपमित्याहुः सत्यमेव तत्‌ । 

योग्यरसभावभाषारागगप्रभृतिसाधने । 

गायकः श्रोतूमनसि नियत जनयेत्‌ फलम ॥ 
“-लच्यसड्रीतम्‌ 


. योग्य रस, भाव तथा साषाद्भ की उचित रूप से साधना करते हुए जो गायक गाता 
है, उसका सद्भजीत मोहनी रूप होकर श्रोताओं के मन को जीतने में अवश्य ही सफल होगा । 
इसीलिए हमारे प्राचीन ग्रन्थकारों ने गायकों के गुणावगुणों का वर्णन बड़े सुन्दर ढद्ढः से 
किया है। उन नियमों पर ध्यान देकर जो सन्लीतज्ञ अपनी कल्ना का प्रदर्शन करता हे, उसके 
गाने का रह्ढ महफिल में शीघ्र ही जमजाता है | इसके विरुद्ध कुछ गायक ऐसे देखे जाते हैं 
जिन्होंने या तो “गायकों के गुणावगुणों” का शाद्य्रों में मनन ही नहीं किया है, अथवा वे 
उन्हें जानते हुए मी अपनी आदत से मजबूर होकर उन पर ध्यान नहीं देते | इसका परिणाम 
यह होता है कि उनकी भद्दी हरकतें ( मुद्रा ) महफिल में रद्गा जमाने के बजाय, हास्य का 
वातावरण पेदा कर देती हैं। क्‍योंकि ओताओं में सभी तरह के व्यक्ति होते हैं । कोई गीत 
की कविता पर ध्यान देता है, तो कोई गायक के सुरीलेपन और लयकारी को देखता है, 
अथवा कोई गायक गायिका के रूप रह्ढ तथा उसके हाव-भाव प्रदर्शित करने के ढड़ः में ही 
आनन्द लेता है। इस प्रक्रार सद्भोतकल्ा के सभी अड्ीं से भिन्‍त-भिम्न प्रकार के श्रेता 
अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल रस्वास्वादन करते हं। ऐसी हात्नत में यह्‌ निश्चय ही हे 
कि गायक के गुण-अवगुण महकफ़िल का रह्क बनाने या बिगाड़ने में कितने सहायक हं।ते है। 
अतः प्रत्येक सद्जीत विद्यार्थी को आरम्भ से ही ध्यान देकर गायको के गुण अपनाने चाहिये 
ओर अबगुणों से बचना चाहिये । आरम्भ में जेसी आदत पड़ जाती है, वह आसानी 
से नहीं छूटती । यदि शुरू में ही हाथ पैर फेंक-फेंककर या टेढ़ा मुँह करके, भद्दे ढद्भ से 
दांत दिखाकर गाने की आदत पड़ गई तो उससे पीछा छुड़ाना मुशकिल हो जायगा आर 
इसका परिणाम यह होगा कि सड्रीत समाज से उसे सम्मान और सफलता कदापि नहीं 
मिलेगी । ऐसे गायकों की स्थिति बताते हुए लक्ष्य सद्जीतकार ने ठीक ही लिखा हैः-- 


भाषा5व्यक्ता हावसावाः प्रतीयन्ते विसंगता। 
व्यस्ताश्चेटास्तथा55क्रोशा; केवलम ककेशा मताः ॥ 
एताहग्गायनान्नस्थात्‌ परिणामों ब्मभीप्सितः । 
ततो हास्यरसस्येव केबलम्‌ स्यात्‌ सम्दूभवः | ७३ || 

ह “जछक्यसड्रीतम्‌ 


उपरोक्त श्लोक का भावार्थ यही है कि भद्दे ढड्श से चिल्लाकर और ऊटपटांग हाव- 
भाव दिखाने से महफिल में केवल ह्ास्थरस का ही वातावरण पेदा होता हे । 


११६ # सद्जीत विशारद # 


१ 








भमन्नीत रत्ताऊरः अन्य में गायक के गुणो के यारे में इस प्रकार लिसा है -- 
2 
गायक के शुए--- 


हयशब्दः सुशारीरों ग्रहमोत्तविचनण; | 
रागरागांगसापांगक्रियागोपागफी विद! 
प्रयन्धगाननिष्णातो वियिधालप्तितत्तवित । 
सर्वस्थानो व्चगमफरेप्चनायासलसद्गतिः ॥ 
आयत्तफणठस्तालन्नः सावधानों जितश्रमः | 
शुद्दच्छायालगाभिन्न: सर्वफ्राकृविशेषवित्‌ ॥ 
अपारस्थायसंचारः: सर्वदोपव्रिवर्जितः | 
क्रियापरोडजसूलयः सुघटो धारणान्वितः ॥ 
स्फूर्जन्निजयनों हारिर्हः कृदूभजनोद्धुरः | 
सुसप्रदायो गीतजेंगीयते गायनाग्रणीः ॥ 
भावार्थ-- 
हृयशब्द--जिसका शब्द यानी आयाज़ मधुर व सुरीली हो । 
सुशारीए--जिसकी प्राणी में अभ्यास के बिना राग स्परूप व्यक्त करने का धर्म 
( तासीर ) हो । 


भहमोक्षविचक्षण --ग्रह ओर न्यास के नियमों को जानने वाला हो ( ग्रह न्यास की 
विवेचना इसी पुस्तक में ठे दीगई है ) । 


रागरागागादिफीविद --राग रागाद्न इत्यादि का जानफार हो ( देशी सन्नीत में रामान्न, 
भापान्ल, क्रियाज्न ओर उपाह्न ऐसे चार भेद कहें गय्रे हैं, उनका विवेचन भी इसी 
पुस्तक में अन्यत्र ढे दिया है ) 


प्रवन्यगाननिष्णात --पअयन्प गायन से प्रवीण हो ( प्रबन्ध एक गक्रार प्राचीन गायन- 
शैली थी, ऊिन्तु वर्तमान समय में प्रचलित नहीं है )। पा 


विवधालप्रितत्ववित्‌--जों भिन्न-भिन्न आल्षप्रियों के तत्य का छाता हो। अर्थात 

आलाप करने की गृढ़ बातें (राग का आविर्भाव तिरोभाय दिसाने की कला ) 
90०० पर 

जानता हो । 


सर्यस्थानोच्रगमरेप्वनायासलसदूगति --मय्र॒ स्थानों फ्री गमक जो सहज में ही ले 


50% । अर्थात्‌ मन्द्र, मध्य और तार, इन तीलों स्थानों में गमझों का प्रयोग 
कर सफे ! 


आयत्तकएठ --जिसका कझ्ठ ( गला ) स्वाधीन हो, यानी खुली हुई आताज़ हो । 


->>+-+++ज5 


# सड़ीत विशारद # ११७ 


कसम कली लि कक पर अल नर कक लक न टन नकल कट पारस जज लिज डाल .डक कलर लक 





६ तालज्ञ:--ताल का ज्ञान रखने वाल्ला हो । 
१० सावधान:-एकाग्र चित्त होकर सावधानी पूर्वक जो गावे। 


११ जितश्रम:--भ्रम को जीतने वाला हो, अर्थात गाते समय यह अनुभव न हो कि गाने 
में बड़ा परिश्रम करना पड़ रहा हे । 


१२ शुद्धच्छायालगाभिज्ञ:--शुद्ध छायालग और संकीर्ण इन राग भेदों को जानने चाला हो 
( इन राग भेदों की परिभाषा भी इस पुस्तक में अन्यत्र दी गई है )। 


१३-सर्वकाकुविशेषवित--सद्गभीत शास्त्रों में बित षटविधि यानी छः प्रकार के काकुओं : 
का प्रयोग करने की जानकारी रखता हो ।# 


९ | के मैट े 
१७ अपारस्थायसंचार--गाते समय असंख्य स्थाय अथात रागों के भाग या हिस्से तैयार 
करके सुनाने का ज्ञान रखता हो। 


१५ सर्वदोपविवर्जित:--सब प्रकार के दोषों से रहित हो अथीत जिसमे कोई दोप न हो । 

१६ क्रियापर--जो अभ्यास सें दक्ष हो अर्थात रियाज़ी हो | 

१७ अजस्रलय--जो अत्यन्त लयदार हो । 

१८ सुघट:--जों सुघड़ (सुन्दर) हो, अथात जिसे देखकर ओता घृणा न करें | 

१६ धारणान्वित:--धारणावान हो । 

२० स्फूजेन्निनेवन:--“निर्जेवन” यह स्थाय का एक विशेष भाग है, इस भाग को गाते 
समय मेघ गजेना के समान गम्भीर आवाज़ निकालने वाला हो | 

२१ हारिरह: क़ृदूसजनोद्घुरः--अपने गायन से श्रोताओं के मन को मोहित करने वाला हो । 

२२ सुसम्प्रदाय:--जिसकी गुरु परम्परा उच्च श्रेणी की हो, यानी ऊँचे सम्प्रदाय का हो । 


गायक के अवबगुण 


संद्टोद्‌ धृष्टरत्कारिभीतशंकितकम्पिताः । 
कराली विकल! काकी वितालकरभोद्ठडाः ॥ 
भोंवकस्तु बकी बक्री प्रसारी विनिमीलकः । 
विरसापस्व॒राव्यक्तस्थानअ्रष्टाव्यंबस्थिता; . ॥ 
मिश्रको5इनवधानश्च_ तथाउनन्‍्यः सानुनासिकः 

: पंचविंशतिरित्येते गायना निंदिता मताः ॥ 


“--सद्जीतरत्नाकर 


१३ पर >>, 





# संज्ञीत रत्नाकर में ६ प्रंकार के कांकुओं के नाम इंस प्रकार विये हैं हैं--(१) स्वरकाकु (२) रागकाकु 
(३) देशकाकु (४) क्षेत्रकाकु (५) अन्यराग काकु (६) यन्त्रकाक । 


घ 


श्श्८ # सह्गीत विशारद्‌ # 








भावार्थ:-- 

१--संदष्ट-दात पीसकर गाने वाला । 
२--डदूध्रृष्ट--निरस, जोर से चिल्लानें वाला । 
३--सूकारी--गाते समय सूत्कार करने बाला । 
४--भीत--भयभीत्त होकर गाने वाला । यानी जो डरते-डरते गाये | 
४--शकित--आत्म विश्वास रहित, घबराकर जल्दबाजी से गाने वाला । 
६--कम्पित--कॉपती हुई आवाज़ से गाने वाला । 
७--कराली--भयफर मुंह फाडकर गाने पाला । 
८-विकल्लन-जिसके गाने में श्रुतिया कम या अधिक लगजाती हैं, अर्थात्‌ जिसके स्वर 

अपने उचित स्थान पर नहीं लगते । 
६--काकी--फौए के समान ऊर्रुश आवाज़ वाला | 
१०-विताज्ञ--बेवाला गाम वाला | 
११-करभ--मु डी-ऊ ची करके गाने वाला | 
१२-उद्ठड--मभेड़ की तरह मुँह फाडकर गाने थाला । 
१३-मोंबक--गले ओर मुंह की नसें फुज्ञाऊर गाने बाला । 
१४-हुम्बकी--तुम्घे के समान मुँद्द फुलफ़ार गाने बाला। 
१४-बकी--मु डी टेढा करने वाला | 
१६-प्रसारी--हा 4 पैर फेंफ-फेंक कर या हाथ पैर पटक कर साने वाला । 
१७-निरमीलिक--आस बन्‍्द्र ऊरके या आसे मींचकर गाने बाला | 
१८०विरस--जिसके गाने मे रस न हो अर्थात्‌ निगस गाने वाला । 
१६-अपस्थर--जिसके गाने मे वर्जित स्वर भी लगजाये। 
२०-अब्यक्त-गाते समय जिसका शब्दोच्चारण ठीऊ न द्दो। 
२१-स्थान भुप्ट--जिसकी आवाज़ योग्यस्थान पर नहीं पहुँचती । 
२२-अव्यवस्थित--वेढगे तरीके से यानी अज्यवस्थित रीति से गाने वाला | 
२३-मिश्रक--राग मिश्र करके ( राग्े को मिल्ाऊर ) गाने घाला । 
२४-अनवधान--लापरवाही से गाने वाला । 


७ प 9 
२४-सानुनासिक--नाऊ के स्व॒र से गाने बाला, अर्थात्‌ जो गाते समय नाऊ से आवाज 


निकाले । 


र-नननननननन--कनन-म>न। दस गन तनिलज +.. 7: 


# संगीत विशारद # ११६ 





उपरोक्त समस्त दोषों से अच्छे गायक को बचना चाहिए, ऐसा शाख्रविधान हे | 
यहां पर यह प्रश्न उठ सकता है कि उपरोक्त २४ दोषों में कुछ दोष ऐसे भी तो हैं, जो 
अच्छे-अच्छे गायकों में पाये जाते हैं, जेसे १६ और २३ अर्थात्‌ बहत से बड़े-बढ़े गायक 
अपने गायन में वजित स्वर प्रयोग करते देखे जाते है और अनेक गायक राणों को मिश्र 
करके यानी मिलाकर गाते हैं। 


>> 


इसका उत्तर यही दिया जासकता है कि कुशल गायक जब कभी वर्जित स्वर का 
प्रयोग राग में करते हैं, वहां वे विवादी स्वर के नाते ऐसी कुशलता से छसे लगाते हैं कि 
राग का सोन्दर्य बिगड़ने के बजाय और खिल उठता है, अतः उपरोक्त नियम का अपवाद 
समभते हुए उनका वह कृत्य “गायक अवगुण” श्रेणी में नहीं आता । 'समरथ॑ को नहिं 
दोष गुसांई' की उक्ति के अनुसार वे दोषी नहीं ठहराये जासकते, क्योंकि उनको यह 
सामशथ्य॑ प्राप्त है कि वे राग में विक्त स्वर लगाकर भी उसके द्वारा एक विशेषता दिखादें। 
इसके विरुद्ध साधारण गायक यदि ऐसे कृत्य करने लगेगा तो बह राग रूप को ही बिगाड़ 
बेठेगा, इसी प्रकार रागों में मिश्रण करने के लिये भी कुशल और समर्थ सल्बीतज्ञ दोषमुक्त 
किये जासकते है, क्योंकि वे जब किसी एक राग में दूसरे राग के स्वर दिखाते हैं या 
मिलाते हँ.तो उस मुख्य राग का रूप नहीं बिगड़ने देते, प्रत्युत वहां पर अन्य राग की 
थोड़ी सी छाया लाकर 'तिरोभाव? दिखाते हुए मुख्य राग को कुछ देर के लिये छिपाकर 
फिर आविभौाव द्वारा उसे प्रकट करके अपना कोशल दिखाते हैं। इसी कार्य को एक 
साधारण गायक करने लगे तो वह कठिनाई में पड़ जायगा और मुख्य राग का रूप भी 
नष्ट कर बेठगा | इसीलिये शासत्रकारों ने इसे भी दोष माना है। अतः शाश्ओं में वर्णित - 
उपरोक्त गुण-अवगुणों पर सल्गीत विद्यार्थियों को पर्ण ध्यान देना चाहिए । 





््नीनाध जा “लय जाओ १६४70 026-4: 2225 ८ आन ढ। 72586 हद गम अर 8 2-2० मी अत प 2 अजीत न्न- 
र_्‌ विनललन ली लल मत + +++-++>> 
जे 7७७० उच्च मे पक की 


ह 08७:८%* ८ अपर ८ फल अल जन 


्र 
८ 


५ 


एम मे 
घ्््््च््तट->स्स हननमास्अल्टिफि सलुतलालाह न पल पत 
आग आबंत, गाखिडंह आल द$ 


द् ६ 


नि 


५२ 


(भी) 





नायर--जो प्राचान तथा नयीन दोनो प्रसार के सद्दीत ऊा पूर्ण लाता है और गुर- 
परम्परा से मिनी हुई शिक्षा के अनुसार ताल ओर स्वर में तप्री हुई चीजें शुद्ध रूप से 
गाता बजाता है, उसे नायर कहते द आर उससे द्वारा प्रदर्शित की हुई कला को नायकी 
कहते है । 


गायक--गुर परम्परा स यथा हुई चीजों का था नायक द्वारा प्रदर्शित सद्दीत में 
अपनी बुद्धि से अलकार एप तानों का प्रयोग करके उसमें सीन्द्य एय मिचिच्रता पैदा करके 
गाता 5, उसे गायक कहते ई ओर उसके द्वारा जो कला प्रनर्शित होती दे उसे गायों 
कहते हैं । 

सलापन्त--कतायन्त का मुग्य गुण हूँ क्रिया सिद्धि। जिसके नित्वप्रति के अभ्यास 
में गला ओर ह्वाथ सर तैयार द्ों। जो श्रुपद, धमार का पूर्ण लाता दो ओर कुशबता पूर्यफ 
गाफर ओताओं झा मनारजन कर सऊे, उसे “फलाबन्त” कहते दू। 


गान्पर्ब--जो मार्ग सद्गीत को गा बजा सफ्ते हों तथा राग-रागनियों की “भी पूर्ण 
जानकारी रखते हा, उन्‍हें गान्यय जद्दत हें । 


पहिडत -जिन्हे गायन गात्व का तो पूर्ण ज्लानहै किन्तु गायन फ्ला अर्थात 
क्रियात्मक सज्ीत का साधारण ज्ञान द, उन्हे सद्जीत जला के पण्डित कहते हैँ । 


सद्गीत गाखकार जिसे सन्लीत की प्राचीन और नतीन पद्मति की जानकारी हो 
मह्ठीत का प्र इतिद्दास, प्राचीन और अर्थाचीन शुद्ध सप्तडो का छान हो, प्राचीन और 
आज की गायन पद्धति का अतर प्रकट करने को ज्षम्तता रसता हो । गीत प्रयन्ध चायों 
की प्रतार वाल, नृत्य काइतिहास अपनी लेपना द्वारा श्रकट कर सऊ एवं सड्ौत का वर्तमान 
स्वरुप और भविष्य में उसकी उन्नति पर अपने योग्य विचार प्ररूट ऊर के सड़ीत कला का 
आदर्श उपस्थित कर सके आर भाचीन तथा आजुनिऊ मज्ञीत पद्धति पर नवीन प्रथा का 
निर्माण कर सके, उसे सद्"ोत शाखसारः ते हैं । 


... सद्गीत शिक्षर--जो शान्तद्वृति से विद्यार्थी को सन्नीत शित्षा दे सऊे एवं. उसकी 
कठिनाइयों का जानकर, उसकी आवाज का धर्म, ग्ठण शक्ति, रूचि पर ध्यान देकर सहज 
और सरल मार्ग से सममाने-पढ़ाने की क्षमता रुयता हा, उसे सद्ञोत शिक्षक कहते हे । 
सद्गीव शिक्षक गयेयो की महक़िन में तेंठकर अपना रह चाहे न जमा सके किन चह्‌ 
अच्छे सद्गीत विद्यार्थी तैयार सुस्‍ने का गुण रखने बाला हो। | 


कव्पाल-जो गायक ग इ्त्या 595 मन 
जला ल्ञ--जो गायक गजल, हाजाः फऊच्चाली इत्यादि गाते हैं, उन्हे कव्बाल कहा 


। # संगीत पविशारद # १२१ 





| अताई गायक--जो व्यक्ति किसी एक उस्ताद को अपना उस्ताद या गुरू न मान 
कर शुद्ध रूप से नियमित सद्गीत शिक्षा नहीं लेते, बल्कि इधर-उधर जहां से भी प्राप्त 
हुआ देख, सुनकर गाने बजाने लगते हैँ, उन्हें अताई गवेया कहा जाता है । 


कत्थक--नृत्य सद्गजीत की शिक्षा देने वाले व्यवसायी, जिनके यहां कई पीढ़ी से 
यही काय होता आया है, उन्‍हें कत्थक या ढाड़ी कहते है। 


। उत्तम वाग्गेयकार 


वाक और गेय से मिलकर वाग्गेय शब्द बना है। वाक यानी पद्यरचना और गेय 
का अर्थ हे स्वर रचना, इसी को मातु ओर धातु भी कहते हैं। अर्थात जो स्वररचना 
ओर पद्यरचना का ज्ञाता हो, ऐसे सद्बजीौत विद्वान को प्राचीनकाल में वाग्गेयकार की संज्ञा 
दी जाती थी। पाश्चात्य विद्वान उसे कम्पोज़र ( (/०7७9०४०० ) कहते है| वाग्गेयकार 
को साहित्य ओर सद्भजीत दोनों का उत्तम ज्ञान होना अति आवश्यक है, तभी वह पद्यरचना 


ओर स्वररचना कर सकता है। 'सद्भीत रत्नाकर” में वाग्गेयकार के गुणों का वर्णन इस 
प्रकार किया है:--- 


। वामांतुरुव्यते गेयं धातुरित्यभिदीयते । 
वार्च॑ गेयं च कुछझते यः स वाग्गेयकारकः ॥ १ ॥ 
शब्दानुशासनज्ञानमभिधानग्रवीणता | 

छन्दः अभेदवेदित्वमलंकारेष कोशलम्‌ ॥ २॥ 

रसभावपरिज्ञानं. देशस्थितिषु चातुरी । 

अशेषभाषाविज्ञानं कलाशास्त्रेष कोशलम्‌ || ३ ॥ 
तूयेत्रितयचातुय॑ हृ्शारीरशालिता | 
लयतालकलाज्ञानं विवेकी$नेककाकुष ॥ ४ ॥ 
प्रभूतप्रतिभोद्भेदभाक्त्व॑ सुभगगेयता ै। 

। देशीरागेष्वमिज्ञत्व॑ वाक्पटुत्व॑ सभाजये ॥ ५४ ॥ 
रागढ पपरित्याग: . सादरेत्वझुचितज्ञता ै। 
अनुच्छिश्क्तिनिबेन्धी नृत्नधातुविनिर्मितिः || ६ ॥ 
परचित्तपरिज्ञानं प्रबन्धेषुप्रगल्भता । 
द्रतगीतबिनिर्माएं पदांतरविदग्धता ।! ७॥ 
त्रिस्थानगमकप्रीडिविंविधालपिनेपुणम्‌ । 
अवधानं गुणेरेभिवेरों वाग्गेयकारकः | ८॥ 


। हे व अप 2920 20% उतर 208 22222: 2२ उप 5 4 22322 
करमानननानननननायनगिगाए गा हाएईए पपिाजिटनगिनिनिणनाणटनणयीफीणणणजणा | अिच-नफिनीया ++>बन्‍्नििज-+_+-++् नस समसससच्सप्स्फम्ममफ 
हद २ | हा कप 


260 पाक आप आय “>> «छा 
रब जि ७-+> रे बट नन्म 


१२२ # संड्गीत विशारद्‌ # 


(५९ 


मिमी मजा शनि कील का 3 कक ााााीलुलूलूर_ननु॒ु॒(त-्॒‌त३ननुालमाइनाइामपमयनााशा तन क थाना था आकाश भा भक्त 
अपरोक्त ८ ब्लोफों का भावार्थ उनके नम्बरों के क्रम मे नीचे दिया जाता है -- 





१--चाई यानी मातु और गेय यानी घातु का जे ऊर्ता दे अर्थात्‌ प्॑चरचना और स्वर- 
रचना का जो ज्ञाता हैं, वह बाग्गेयक़ार दे । 


२--जिमे व्यास्पण शाखजान, अमरफोश आदि ग्रथों का ज्ञान ओर सब प्रकार के 
छन्दों का ज्ञान है तथा जो साहित्य शास्त्र में बताये हुए उपमाठिक अलफऊारों का 
ज्ञाता हू । 


उसी शास्त्र मे वर्णित अगार आदि रसों और विभावादिक भावों का जिसे उत्तम 
छान दे, जे भिन्न-भिन्न ठेशों के रीति रियाज ओर उनकी मसापाओं फ्री जानकारी 
रखते हुए सद्भीतादि शास्त्रों में प्रवीण है । 


9--गीत वाद्य और चत्य इन तीनो में जे। चतुर है और जिसे ह्ृद्य अर्थात्‌ सुन्दर शारीर 
प्राप्त हआ है ( शारीर एक पारिभापिक शब्द है, अत हछृत्य शारीर का अर्थ यह हैं कि 
जो व्यक्ति बिना कठोर परिश्रम के या अभ्यास न करते हए भी रागे। की अभिव्यक्ति 
यानी राग प्रदर्शन में समर्थ होता है उसके लिए कहा जाता है कि उसे हाथ (मनोहर) 
शारीर भाप्त हे ) जो लय, ताल ओर कलाओं का ह्ानी दे और जिसे भिन्न-भिन्न 
स्थर काकुओं यानी स्वर भेदों का ज्ञान है ( फाकु भी एक पारिमापिक शब्द है। 
कल्लिनाथ ने इस शख्त को व्यास्या “क्राकुध्बनेर्विकार ” की दूँ )। 


/--जो प्रतिभावाल बुद्धि रसता है ( जिसे नर-नई कल्पना सूमती हैं) जिसे 
छुलटायक गायन करने की शक्ति प्राप्त हैं। देशों सगे का जिसे ज्ञान है और जो 
समा में अपनी बाकपद्ुता ( व्यार्यान चातुरी ) के बल से विजय प्राप्त कर 
सकता है । 


8--जिसने राग- प का परित्याग करके सरसता धारण की हू, इचित अनुचित का जिमे 
ज्ञान है यानी किस स्थान पर कीनसी चीज़ उचित है, इसे जानता हैं। जिसमें 
व करने की शक्ति निहित है ओर जे नई-नई स्व॒रस्चना फरने का ज्ञान 
रखता है। 


७--जा दूसरे के मन का भार जानने की शक्ति रफता है। जिसे प्रयन्थों का उच्च ज्ञान 
प्राप्त ई। जो शीघ्रता मे ऊविता रचने की सामथ्य रखता है तथा जिसमें सिम्न-मिन्‍्न 
गौतों को छायाओं का अनुफरण करने फी शक्ति दे । 


८-तीनों स्थानों ( सन्‍्द्र, मध्य, तार ) में गम लेने की जा शक्ति समता है, राग आलतप्ति 
तथा रुपकालप्ति में जे निषुण दे और जिससे चित्त की एकाग्रता का गुण है। ऐेसे 
सत्र शुण जिसमें विद्यमान हैं, वही उत्तम बाग्गेयकार बताया गया है। 


# सड़ीत विशारद # १५३ 





को 
मध्यम ओर अधम वाग्गेयकार 
मध्यम ओर अधम वाग्गेयकार के लिये इस प्रकार शार््रों में लिखा है;--- 
विदधानोउघिक धातु मातुमंदस्तु मध्यमः । 
धातुमातुविदग्रोदः ग्रवंधेष्वपि मध्यमः ॥ 
रम्पमातुविनिर्माताध्प्ययमी मंदधातुकृत । 
भावार्थ--जो स्वर रचना अर्थात धातु में प्रवीण हे और मातु ( पद्म रचना ) 
में सन्‍्द बुद्धि हे, वह मध्यम श्रेणी का वाग्गेयकार हे। एवं जो स्वर रचना यानी 
स्वरलिपि करने का ज्ञान रखता हो ओऔर पद्चरचना ( मातु ) का भी अच्छा ज्ञाता हो, 
किन्तु भिन्‍त-मिन्न प्रकार के प्रबन्ध/ गायन में कुशल न हो वह भी मध्यस ओणी में ही 
आता है। आधम वाग्गेयकार वह है, जिसे केंचल शब्द ज्ञान तो हो, किन्तु पद्यरचना 
( कविता ) तथा स्वर रचना ( स्वरल्िपि ) की जानकारी नहीं रखता हो । 


श्श्् 
गीत गान्धर्व, गान तथा मार्ग-देशी संगीत 


रजकः स्व॒ससंदर्भों गीतमित्यमिधीयते | 
गान्धर्ष गानमित्यस्य भेदद्वयमुदी रितम्‌ ॥ 
९ --सद्गीत रत्लाफर 


गीत-म्ब॒रों का बह समुदाय जिससे मन का रजन दो, उसे गीत कहते हैं । 
गीत के २ भेद ह--(१) गावर्ब (२) गान ) 

(१) गावर्य--जों सद्नीत स्वर्गलोऊ में गन्धर्वों द्वारा गाया जाता था ओर जिसका 
च्द्दे न न हि ड्स बेदों ४ के अआपीरुपेय पी हल ओर अनादि संट्डीत को द्दी 
उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है, उस बेदों के समान अपीरुषेय ओर शनादि सब्नीत 
“गापर्व” कहा है । 

(२) गान--जो सह्लीव वाग्गेयकारों ने अर्थात सब्बोत के परिडतों ने अपने बुद्धि- 
फौशल्य से उत्पन्न किया तथा उसे लक्षणबवद्ध करके ढेशी रागों में उसक्रा उपयोग कर 
लोकरजन के निमिच उसे प्रचलित किया, वह “गान” है ! 


सद्गीत रत्नाकर के टीकाकार कल्लिनाथ के मतानुसार गाधरव॑ ओर गान फो दही 
ऋमश मार्ग और देशी माना जाय तो कोई हानि नहीं । 


मार्ग सब्जीत--न्रर्ग सद्जीत वर्तमान काल में बिलकुल प्रचलित नहीं है । 
मार्गों देशीतितद्वंधा तत्रमा्ग/ स उच्यते। 
यो मार्गितो विरिच्याद्यें प्रयुक्तो भरतादिमिः ॥ 


इस श्लोक के अनुसार मार्ग सब्ढटीत वह है, जिसका प्रयोग महादेव के बाद भरत 
ने किया। यह अत्यन्त प्राचीन तथा कठोर सास्कृतिक धार्मिक नियमों से जकडा हुआ था, 
अत आगे इसका प्रचार ही बन्द होगया। 


देशी सड्रीत--देश के विभिन्‍न भागों में छोटे-बडे सभी लोग जिसे प्रेमपूर्वक 
गा-धजाऊर अपना मन प्रसन्न करते हैं वह देशी सल्नीत है | शाह्न देव के समय में भी सर 
जगह देशी सन्लीत ही श्रचलित था, ऊिन्तु चर्तमान हिन्दुस्थानी सगीत से वह बिलकुल 
भिन्‍न था | इसका कारण यही है फि देशी सन्नीत सब्ोदा परिवर्तेन शील रह है, लोफ रुचि 
के अनुसार उसका स्वरूप भी वदलता रहता है। देशी सन्नौत में नियमों का विशेष बन्धन 
नहीं, इसलिये यह सुलभ और सरल है तथा लोक रुचि पर अवलम्बित रहता है | 


देश देशे जनाना यद्रुच्या हृदयरजकम। 
गान च बादन नृत्य तदद शीत्यमिधीयते ॥ 
-सन्जीत र्नाफर 
अर्थातृ-मिन्न-मिनन्‍्न देशों के जन ( मनुष्य ) अपनी-अपनी रुचि के अनुसार 


शातजाकर और नाचकर प्रसन्तता श्राप्त ऊस्ते हैं, या हृदय का रजन करते हैं, बह 
देशी सद्ठीत है । 


जज: 


# सड़ीत विशारद # न १२१५ 





तत्तदेशस्थया रीत्या यत्सात लोकानुरंजनम्‌ । 
देशेदेशे तु संगीतं॑ तदंशीत्यमिधीयते ॥ 
--सल्जीत दर्पण 
भावार्थ--जों सद्नीत देश के भिन्न-भिन्न भागों में वहां के रीत रिवाजों के अनुसार 
जनता का मनोरंजन करता है, वह देशी सल्लीत कहलाता है । 


उपरोक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान समय में जेसा सन्नीत 
प्रचलित है, वह सब देशी सद्भीत ही है । अतः ग्वालियर का घ्रुपद गायन, सथुरा का होरी 
गायन, मिर्जापुर का कजरी गायन, बनारस और लखनऊ का -ठुमरी गायन, मणिपुर का 
मणीपुरी नृत्य, लखनऊ का कत्थक नृत्य, ब्रज का गोपीनृत्य, गुजरात का गर्वानृत्य इत्यादि 
सब देशी सद्भीत के अन्तगत ही आजाते है | 


ग्रह अन्श ओर न्यास 


गीतादो स्थापितो यस्तु स ग्रहस्व॒र उच्यते । 

न्यासस्वरस्तु विज्ञेयो यस्तु गीतसमापकः । 

बहुलत्व॑ प्रयोगेषु सचांशस्व॒र उच्यते.॥१६१३॥ 

४ --संगी तदर्प॑ण 
अथौोत्‌--गीत के आरम्भ में ही जो स्वर स्थापित किया जाता है उसे ग्रह स्व॒र 
कहते ह। गीत की समाप्ति जिस स्वर पर होती है उसे न्यास स्वर कहते है ओर प्रयोग में 
जो स्वर बहुलत्व दिखाता है, अर्थात बारम्बार आता. है उसे अन्श कहते है । 
इस प्रकार प्राचीन ग्रन्थों में तीन स्वर सेद मिलते हूँ। प्राचीनकाल में ग्रह-अन्श-न्यास 
स्वरों का ध्यान रखते हुए प्रत्येक राग एक नियमित स्वर से आरम्भ किया जाता था और 
एक नियमित स्वर पर उसकी समाप्ति होती थी, इसी प्रकार बारम्बार या अधिक प्रयोग होने 
वाले स्वर को महत्व देकर उसे अन्श स्वर मानते थे । जिस प्रकार कि हम आजकल वादी 
स्व॒र मानते हैं । 


संभव है, प्राचीन समय में उपरोक्त स्वर नियमों का पालन उत्तम रीति से किया 
जाता हो, किन्तु सद्जीत परिवर्तन शील है अतः आगे चलकर गायक-वादकों ने प्रह-न्यास 
स्व॒रों का नियम नहीं माना, अथौत्‌ अमुकराग अमुकस्वर से ही आरम्भ होना चाहिए 
या अमुक स्वर पर ही उसे समाप्त करना चाहिए, इस बन्धन को तोड़कर वे चाहे जिस राग 
या गीत को भिन्न-भिन्न स्वरों से आरम्म करके गाने लगे ओर भिन्न-भिन्न स्वरों पर 
समाप्त करने लगे | उन्होंने केवल अन्श रबर का सिद्धान्त “वादी स्वर” के रूप में माना 
जो आजतक ग्रचल्ित है। क्योंकि वादी स्व॒र से राग की पहिचान होजाती है कि यह 
पूरवींग बादी है या उत्तरांग वादी ? एवं वादी स्वर के द्वारा राग गाने का समय पहचानने 
में भी सहायता मिलती हे। अतः प्राचीन समय के स्वर-नियमों में. से ग्रह और न्यास 
छोड़कर “अन्श” स्वर के नियम का पालन करना आवश्यक है। ् 


रे 


१४ 
कक 3 


नि 
5 
दे 


ह्छ्त्ा! जे छह 
48 8228 





भरवपद ( भरुपद ) 


कहा जाता दे कि छुपद गायन का आविप्कार सबसे पहिले पन्द्रददीं शताब्दी से 
ग्यालियर के राजा मानमिंह तोमर द्वारा हुआ था । उन्दोंने स्यथ भी कुछ घुपढों की रचना 
की थी । प्राचीन काल में पद में सस्कृत श्लोकों को गाऊर हमारे ऋषि मुनि भगवान की 
आरावना करते थे। 

वर्तमान समय में भी धुपद एक गम्भीर और जोरदार गाना माना जाता है, धुपद 
के गीत प्राय हिन्दी, उद्‌' एय बुजभाषा में मिलते हैं। यह मर्दानी आवाज क्रा गायन थे । 


5 


इसमे बीर, शब्ार और शा तरस प्रधान हैं। “अनप सद्गीतरत्नाफर! से ध्रुपढ की व्याग्या 

इस प्रफार की है -- ह 
गीर्वाणमध्यदेशीयभापासाहित्यराजितम्‌ | 
द्विचतुर्यक्यसम्पन्न नरनारीऊथाश्रयम्‌ ॥ 
श्रगारूसभावाय॒ गगाज्ापदात्मकप्‌ । 
पादांतानुप्रोसयुक्त' पादानयुगर्क च वा ॥ 
प्रतिपाद यत्र बद्धमेब पादचतुष्टयम्‌ । 
उद्ग्राहभुवकामोगांतर ध्रुवपढ् स्तृतम॥ 

--अनप सन्नीतरत्नाकर 
सुपद में स्थायी, अन्तरा, सचारी और आभोग ऐसे चार भाग होते हैं। धुपद 


है चौताक, सक्षफाक, मपा, तीज्ना, ऋ्रह्मताल, रुद्रताल इत्यादि त्ाज्नों में गाये 
जाते हैं। 


. धुपत भें तानों का प्रयोग नहीं होता, क्रिन्तु उसमें दुगुन, चौगुन, चोलतान, गमक 
इत्यादि का प्रयोग ऊरने की छूट है । 


भ्रुपद की 9 बाणों 


प्राचीनकाल में धुपद गायकों को कल्लावन्त कद्दते थे। धीरे-वीरे घुपद गायों 
हे हल द् के 
भेद उनकी चार वाणियों के अनुसार फिये जाने लगे, उन चार बाणियों के माम इस 


पसर हैं --(१) मोयरदरी वाणी अथवा शुद्ध वाणी, (>) सण्डार बाणी, (३) ढागुर 
नो $ ड़ डागुर- 
चाणी, (४) नोहार चाणी | , (३) डांगुरः 


हा जादनुल मौसोकी' नामर ग्रथ ऊे प्रणेता हकीम मुहम्मद ने उक्त चार्से बाणियों के 
* सस्वन्ध से अपने विचार इस प्रफार प्रगट किये है -- 


| 


# सद्भीत विशारद # १२७ 





खिल 


“अकबर बादशाह के दरबार में उस समय चार मंहागुणी रहते थे--१-तानसेन, 
२-ब्रजचन्द ब्राह्मण ( डागुर गांव के निवासी ), ३-राजा समोखनसिंह वीणाकर ( खंडार 
नामक स्थान के निवासी ), ४-श्रीचन्द्र राजपूत ( नोहार के निवासी )। अकबर के समय 
में इन चारों के द्वारा चार वाणी प्रसिद्ध थीं। तानसेन गौड़ ब्राह्मण होने से उनकी वाणी 
का नाम गौड़ीय अथवा गोबरहरी पड़ गया। प्रसिद्ध बीणाकार समोखनसिह की 
शादी तानसन की कन्या के साथ होने के कारण उनका नाम नौबादखां निश्चित हुआ । 
नोबादखां का निवास स्थान खण्डार था, इसलिये इनकी वाणी का नाम खण्डार वाणी 
हुआ | ब्रजचन्द्‌ के निवास स्थान के नामानुसार उनक्री बाणी का नाम हुआ डागुर वाणी । 
ओर राजपूत श्रीचन्द्र नोहार के निवासी थे, इसलिये इनको वाणी का नाम नोहार वाणी 
प्रसिद्ध हुआ |”? | 


चार वाणियों के प्रधान लक्षण--- 


१--गोबरहरी वाणी:--इसका प्रधान लक्षण प्रसाद गुण है, यह शान्त रसोद्दीपक है और 
इसकी गति धीर हे । 


२--खण्डार वाणी:--बैचित्रय और ऐश्वर्य प्रकाश खण्डार वाणी की विशेषता है | यह 
तीत्र रसोह्दीपक है। गोवरहरी वाणी की अपेक्षा इसमें वेग और तरब्डा अधिक 
होते हैं, किन्तु इसकी गति अति विल्म्बित नहीं होती । 


३--डागुर वाणी:--इसका श्रधान गुण है सरलता और लालित्य | इसकी गति सहज व 
सरल हे, इसमें स्वरों का टेढ़ा और विचित्र काम दिखाया जाता है। 
४--नोहार वाणी:--नोहर' रीति से सिंह की गति का बोध होता है। एक स्वर से दो-तीन 
७४ ४; कर ३ रे 
रस्वरों का लंघन करके परवर्ची स्वर में पहुँचना इसका लक्षण है। नोहार वाणी विशेष 
रूप से रस की र्ृष्टि नहीं करती, अपितु यह आश्चर्य रसोद्दीपक है । 


हम जिसे केवल वाणी या शुद्ध वाणी कहते हैं, वह गोवरहरी और डागुर वाणी 
फा ही नाम रूपान्तर है। शुद्ध चाणी ही सल्लीत की आत्मा है और इसी से सद्भजीत की 
प्रतिष्ठा भी हे । सज्लीत के प्राणस्वरूप जो रस वस्तु है, उसका अविकल मरना शुद्ध वाणी 
में ही मिलेगा | इसके आनन्द का अनुभव वही कर सकता है, जिसने शुद्ध वाणी की रस 
धारा का रसास्वादन किया है, इसलिये सेनी लोग ( तानसेन वंश के गायक वादक ) 
सबेदा शुद्ध वाणी के सद्भजीत पर विशेष ज़ोर देते हैं। 5 


रि# ५ 


सन्नीत की उक्त चार वाणियों में गोवरहरी ( गौड़ीय वाणी ) को गुणीजनों ने 
राजा का पद्‌ दिया हे । डागुर वाणी को मन्‍्त्री का पद, खंडार को सेनापति का स्थान 
ओर नोहार को सेवक का स्थान दिया है। अपने-अपने स्थान पर प्रत्येक वाणी की एक 
विशिष्ट महत्ता है । गोवहरी वाणी का प्रत्येक स्वर अपने सुनिर्दिष्ट रूप में प्रगट होता हे | 
स्पष्टता इस वाणी का प्रधान लक्षण है | डागुरवाणी में एक स्वर दूसरे स्वर के साथ जिस 
विचित्रता से मिलता है, उस कारण उसमें एक विचित्र और रहस्यमय भाव उद्यन्त 
हो जाता है। स्वर को स्पष्ट रूप सें व्यक्त न करके श्रोता की कल्पना के अनुसार उसे 
प्रगट करना पड़ता है | लालित्य और गम्भीरता इन दोनों वाणियों, में पर्योप्त रूप से 


श्य्द # संड्रीत विशारद # 








मिलते हैं। सडार वाणी को सस्कृत में “मिन्नागीति” ऊहा गया हे#। इस वाणी में स्वर 
के भिन्न-भिन्न डुकडे करके गाते हैं। सम्भवत इसीलिये सस्कृत में इसको 'मिन्ना? कहा 
जाता दे स्वर के सड-सड होने के कारण हिन्दी से इसको सडार बाणी कहा गया है| 
दोनों शब्दों झा मूल तालये एर ही है। स्पर को सरल भाव में अगट न करके कुटिल भाव 
में सड़-सड करके प्रकट करना ही खडार वाणी की चिशेपता है। इस कृत्य में स्वर 
की मधुरता का नाश नहीं होता, अपितु सूक्ष्म गसक क्री सहायता से स्तर को आन्दोलित 
करने पर उससे मघुरता झी और भी वृद्धि होती हे, इसलिये उत्तम गुणी गमक की 
सहायता से सडार वाणी गाते थे। यन्त्र सब्गीत में वीणा द्वारा सण्डार बाणी का सैनी 
लोग विविध प्रकार से मध्यलय गमऊ व जोड़ में उपयोग फरते हैं। शुद्ध वाणी की प्रवानता 
रबाब द्वारा दिखाई जाती थी, क्योंकि राव का स्प॒र सरल होता है। इसमें विलम्बित, 
मध्य ओर द्रुत ये त्रिविव आलाप बसवी दिसाये जा सऊते हैं । 


बाणी का रहस्य जानने वाले गायक आजकल शायद ही कोई हों। श्षुपद गायन 
को ग्रचलित हुए ४०० वर्ष से अविऊ हो गये, किन्तु इवर लगभग १४० वर्ष से धुपद- 
गायऊी का प्रचार फम होगया है और ख्याल गायन का प्रचार अधिक होगया है, इतना 
द्वोते हट भी सन्लडीतकला मर्मझ में ध्ुपद गायकफरो को अब भी श्रद्धा की दृष्टि से देखा 
जाता है । 


ख्याल 


फारसी भाषा में रथाल का अर्थ है, विचार या कल्पना । राग के नियमों का पालन 
करते हुए अपनी इन्छा या कल्पना से बिविध आलाप तानों का विस्तार करते हुए, एफताल, 
त्रिताल, भ्ूूमरा आडा चौताल इत्यादि तालों में गाते हैं। राालों के गीतो में शज्भार रस 
का प्रयोग अविक पाया जाता है। रयाल गायकी में जलद तान, गिटकरी इत्यादि का 
प्रयोग भी शोभा देता है और स्प॒र चैचित्रय तथा चमलाार पैदा करने के लिये रयालों में 
तरह-तरह की ताने ली जाती हैं। स्याल गायन में शुपद जैसी गरभीरता और भक्तिरिस 
की शुद्धता नहीं. पाई जातो। 


ग्याल + प्रकार के होते हैं (१) जो विल्लम्बित लय मे गाये जाते हैं, उन्हे बहधा 
बडे रयाल कहते हैं ओर (२ ) जो दुत लय में गाये जाते हैं उन्हे छोटे रआाल कहते हैं । 
# ग्रीतय* पच शुद्गाद्या मिन्‍ना गोटी च बेसरा | 
साधारणीति शुद्धा स्थाववत्ललिते सस्‍्थरे ॥ 
मिल्ना सूद. स्वरेवकमंउरेर्गमकैयुता । 
गाटैस्त्रिस्थानगमक्दहाटीललिते. स्वर ॥] 
ज अखटितम्थिति स्थाननये गौडी मता सताम्‌ | 
डह्यरी कपिवैमन्रद तद्गुततरे स्वर॒ ॥ 
हकारोकारयोगेन इन्न्यस्ते चिउुके मवेत्‌ । 
तैगयदूमि. स्परैवर्णचत॒ुप्फेज्प्यतिरक्तित || 
देगस्वय रागगीतिपेंसय चोच्यते उचे ॥| 


-- सिगीतस्तनाकरः 





कह ेतन्‍यल्क व जज 32. 5९७४ धप्या उनबच ॥६॥॥ रच ॥ इ &६४७& अ5 च चक का 


# संड्रीत विशारद # १२६ 





गायक जब ख्याल गाना आरम्भ करता हे, तो पहिले विज्ञम्बित लय में बड़ा ख्याल 
गाता है, जिसे प्रायः विलम्बित एकताल, तीनताल, भ्रूमरा, आड़ा चौताला इत्यादि में 
गाता है, फिर इसके बाद ही छोटा ख्याल सध्य या द्रुतल्य सें आरंस्भ कर देता है, उसे 
त्रिताल या द्रत एकताल में गाता है। छोटे-बड़े ख्याल जब गायक एक स्थान पर एक 
७ ना है तो थे रन] डे क्रिर्स क्र ७ 3 च किन बो कवि 
समय में गाता हे तो थे दोनों ही प्रायः किसी एक ही राग में होते हूँ, किन्तु बोज्न या कविता 
एक, तो ९, त्नों री का कक 
बड़े-छोटे ख्यालों की अलग-अलग होती है। बड़े ख्याल्ों का प्रचार १४ वीं शताब्दी में 
जोनपुर , के सुलतानहुसेन .शर्कों द्वारा हुआ। मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रोुँगीले 
( सन्‌ १७१६ ई० ) के दरबार के प्रसिद्ध गायक्र सदारद्ग ( न्यामत्खां ) और अदारंग ने 
हज़ारों ख्याल रचकर अपने शिष्यों को सिखाये, किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि उन्होंने 
अपने वंशजों को एक भी ख्याल नहीं सिखाया ओर न गाने ही दिया। रामपुर के वज़ीरखां 
सदारद्ग के ही वंशन थे और मुहम्मद्अली खां तानसेन के वंशज थे, ये दोनों ही ध्ुवपद्‌ 
गायक थे, ख्याल्न गायक नहीं | । 


ट्प्पा 


ख्याल गायकी के बाद टप्पा गायक्ी का प्रचार हुआ। यह हिन्दी का शब्द है| 
शब्द कोष सें तो 'टप्पा? के बहुत से अथ मिलेंगे, जैसे--उछाल, कूद, फरल्लांग, अन्तर, 
फर्क, एक प्रकार का चलता गाना जो पंजाब से चला है | इनमें से सद्गीत विद्यार्थियों के 
लिये अन्तिम अर्थ ही ज्ेना डचित होगा। कहा जाता है कि लखनऊ के नवाब आसफ़- 
उद्दौ्ञा के द्रवार में एक पंजाबी रहते थे, जिनका नाम शोरी मियां था, इन्होंने ही टप्पे की 
गायकी का आविष्कार किया। 


टप्पा अधिकतर काफ़ी, मिकोटी, बरवा, भेरवी, खमाज इत्यादि रागों में गाया 
जाता है। इसमें स्थायी और अन्तरा ऐसे दो भाग होते हैं। टप्पा क्षुद्र प्रकृति की गायकी हे, 
इसके गीतों में शज्ञार रस की प्रधानता होती है और पंजाबी भाषा के शब्द ही इसमें 
अधिकतर पाये जाते हैँ। इसकी तानें दानेदार बहुत तैयार लय में गाई जाती हैं। टप्पा 
को गति बहुत चपल हाती है । कुछ विद्वानों का ऐसा भी मत है कि प्राचीन “बेसरा” 
गीति से इस गायकी की उत्पत्ति हुई है । 


ठुमरी 


जिन रागों में टप्पा गाया जाता है, प्रायः उनमें ही ठुमरी गाई जाती है। इसमें 
शब्द तो कम होते हैं, किन्तु शब्दों को हाव-भाव द्वारा बताकर गीत का अर्थ प्रकट करना 
छुमरी गायक की विशेषता मान्ती जाती हे । ठुधरी का जन्म लखनऊ के नवाबों के दरवार 
में हुआ | कहा जाता है कि इसके आविष्कारक गुलामनबी, शोरी के घराने के लोग ही थे । 
मरी अधिकतर पंजाबी त्रिताल में ही गायी जाती है, उसकी गति अतिद्गुत नहीं होती । 


लखनऊ और बनारस ठुमरी के लिए प्रसिद्ध हैं। बनारसी ठुमरी में सुन्दरता और 
सधुरता अधिक पाई जाती है। ठुमरी में ग्रायः राग की शुद्धता की ओर ध्यान नहीं दिया 
जाता। अनेक गायक ठुमरी गाते समय भिन्‍न-सिन्‍्न रागों के स्व॒रों का मिश्रण करके उसे 


नव. 


कि 


१३० # सद्जीत विशारद # 





सुद्दर बनाने का प्रयत्न उरते हैं । महाराष्ट्र में ठमरी को विशेष आदर या प्रेम की दृष्टि से 
नहीं देखा जाता । क्योंकि महाराष्ट्र में राम नियमों का पालन कुछ सस्ती से क्रिया जाता है, 
सम्भवत इसीलिये वहा छुमरी का महत्व नहीं है, फिर भी ठुमरी का गायन फ़िसी प्रकार 
घुणित नहीं है और इसे यू० पी० में बिशेष सम्मान प्राप्त है। 


तराना 


यह भी स्थाल के प्रकार की एक गायकी है। इसमे गीत के योल ऐसे होते हैं, 
जिनका कोई अर्थ नहीं होता। जैसे ता ना दा रे, तदारे, ओदानी दीम, तनोम इत्यादि । 
तराना में भी स्थाई और अन्तरा ऐसे २ भाग होते हैं। तानों का प्रयोग भी इसमें द्ोता है। 


कहा जाता है कि अमीरखुसरो जब हिन्दुस्तान आये, तो यहा की सस्कृत भाषा 
को देखकर वे घबराये, क्‍योंकि वे तो अरबी भापा के विद्वान थे। अत उन्होंने निरर्थर 
शब्द गढकर तरह-तरह के हिन्दुस्थानी राग गाये, वे निरर्थक शब्द ही 'तराना? नाम से 
प्रसिद्ध हुए । त्राने में राग, ताल और लय का ही आनन्द दे, शब्दों की ओर फोई ध्यान 
भी नहीं ठेता । तरानों का गायन हमारे देश में मनोरजऊ माना जाता है । बहादुरहुसेनसा, 
तानरसगा, नत्यूस्रा इत्यादि के तराने विशेष प्रसिद्ध हैं । 


तिखद 


,यह भी तराने की तरह गाया जाता है, | ऊिन्तु तराने से तिरवट गायक्री कुछ 
कठिन है । तिरबट में मदद के बोल अधिक होते हैं, इसे सभी रागों मे गाया जा सकता दै। 
वर्तमान समय में तिरवट गायऊी का प्रचार कम हो गया है | 


होरी-धमार 


जब द्वोरी? नाम के गीत को धमार ताल में गाते हैं, तो उसे 'धमार” कहा जाता ह्दै। 
घमार गायन में प्राय छूज की होली का चर्णन रहता है। धमार में दुगुन, चीगुन, 


चोलतान, गमऊ इत्यादि का प्रयोग होता है, अत यह कठिन गायकी है। धमार के गायफों 


फो स्वर ताल और राग का अच्छा ज्ञान होना चाहिये। प्राय देया जाता है क्लि ख्याल 


गायकों की अपेक्षा शुषद्‌ गायक “वमारः को अच्छा गा लेते हैं। 'धमारः गाने में स्याल के 
समान तानें नहीं ली जाती | 


गजल 


गजल अधिकतर उद् या फारसी भाषा में होती है । इसके गीतों में प्राय आशिक- 
माशूक का वर्णन अपिकत्तर पाया जाता है। इसीलिये यह खज्बार रस प्रधान गायकी दै । 
गजल अधिकतर रुपक, फदो, दीपुचन्दरी, दादरा, कद्दरवा तालों में गाई जाती है। वे ही 
गायक गज़ल गाने में सफल होते हैं, जिन्हे डदू “हिन्दी का अच्छा ज्ञान है और जिनका 
* शब्दोधारण ठीक है । गजल की अनेऊ तर्जे हैं। वर्तमान समय में सयाक चित्रपों द्वारा 
गज्जत्ञ और गीत का फैलाव व प्रचार बहुत हुआ है। 


भा १ मम. मन आम मन नलम नरक कसम 


# संगीत विशारद # ... १३१ 





[कर 

कव्बाला 
कव्वाली मुसतल्िम समाज की एक विशेष गायकी है । इसमें अधिकतर फारसी व 
उदू भाषा का ही प्रयोग होता है । स्थायो अन्तरा के अतिरिक्त इसके बीच-बीच में' 
शेर! भी होते हैं। हिन्दुओं में भी कव्वाली का प्रचार पाया जाता है। इसके गाने वाले 
कव्वाल” कहलाते हैँ। किसी विशेष अवसर पर रात-रात भर कव्वालियां होती हूँ। 
कव्वाली के साथ ढोलक बजती हुई अधिक देखी जाती है, साथ-साथ हाथों से तालियां 

भी बजती हैं । रूपक, पश्तो, कव्वाली आदि तालों का इसमें विशेष प्रयोग होता है । 


दाद्रा 


दादरा एक ताल का भी नाम है, किन्तु एक प्रकार की गायकी को भी “दादरा? 
कहते हैं । इसकी चाल गज़ल से कुछ मिलती जुल्नती होती हैं। मध्य तथा ब्रुतल्य में दादरा , 
बहुत अच्छा मालूम पड़ता है। इसमें प्रायः श्वज्ञगर रस के गीत होते हैं 


सादरा 


- इस गाने की लय भी दादरा से बहुत कुछ मिलती-जुलती होती है। सादरा को 
अधिकतर कत्थक गायक एवं वेश्यायें गाती हैं। इसमें कहरवा, रूपक, मपताल तथा दादुरा 
इन तालों का प्रयोग होता है | ठुमरी गायक सादरा? भल्ती प्रकार गा लेते हैं, इसके गीतों 
में प्राय: आड्ाररस ही अधिक मिलता हे । 


खमसा 


खमसा गाने का प्रचार मुसलमानों में अधिक पाया जाता है। इसके गीतों में जद 
भाषा का अयोग ही अधिक मिलेगा । खतमसा कौ गायकी कव्वाली से मिलती-जुलती 


होती हे । 
लावनां 


चड्” ( एक प्रकार का ताल वाद्य ) बजा-बजा कर कई आदमी मिलकर (या 
अकेला व्यक्ति ) ज्ञावनी' गाते हैँं। इसमें खृद्न्‍गाौर तथा भक्तिरस के गीत होते हैं ओर 
कहरवा ताल की लय का प्रयोग होता है । 


चत्रग 
१, ख्याल, २ चेराना, २ सरगम, ४ त्रिवट, ऐसे चार अद्गज जिस भीत में सम्मिलित 
होते है, उसे 'चतुरज्ञ” कहते हैं। पहले भाग में गीत के शब्द, दूसरे में तराने के बोक्त, 
तीसरे में किसी राग की' संरगस और चोथे भाग॑ में झदद्गा के बोलों की एक छोटी सी 


परन रहती है। चतुरद्भज को ख्याल की तरह गाते हैं, किन्तु इसमें तानों का प्रयोग ख्याल 
को अपेक्षा कम दोता दे | 


१३२ # सड्जीत विशारद # 


२ पका, अरया धभाभाउभामा्रभयाकना:धरध्धाम नाम दा उधार श्रद्धा था * 2 दा भा सतना वात धन करन थक थश भा ह्रक ााइक भव पार का कान का हक पा 


सरगम 


ऊिसी राग के स्पर्रो को लेकर उन्हें तालबद्ठ करके जब गाया जाता दै, उसे 'सरगमः 
द् 45 ०० ८, को रू 
गीत हने हैं। सस्यम गीत भिन्‍न-मिन्‍्न राग व तालों के होते हैं। सरगम गाने से विद्या- 
थिंयो को स्वर ज्ञान एप रागज्ञान से चहत सहायता मिलती हूँ । 


रागमाला 
जब किसी एक गीत में ऊई रागों का वर्णन आता है और उस गीत की एक-एक 


ज्ञाइन में एक-एक राग के स्वर लगते जाते हैं और उस राग का नाम भी आता जाता है, 
च्ए 
ऐसी रचना को रागमाला' कहते हैं 


(8 
लक्तुण गांत 
कोई गीत जब किसी राग में गाया गया हों और उस गीत के शब्दों में उस राग 
के बादी, सम्बादी या वर्जित स्व॒रों फ़ा चर्णन किया गया दो, डसे लक्षण गीत कहते हैं। 
लक्षण गीत से राग सम्बन्धी अनेक वाते सरलता पूर्वक याद हो जाती हैं । 


जन-गीत हम 
भे 
जिस प्रकार उर्द भापा के शन्दोंसे गज़ले तैयार होती हैं, उसी प्रकार हिन्दी 
शब्दावली से भजन और गीतों जी रचना होती है। ईश्वर स्तुति या भगवान की लीला 
फा बणेैन भजनें मे क्रिया जाता है। मजन को किसी १ राग में बाघकर भी गाते हैं, 


और ऐसे भी भजन हैँ जो फिसी विशेष राग में न होकर मिश्रित राग ररों द्वारा तैयार 
हुए हैं। भजन अधिफतर करवा, दावरा, घुमाली, रूपक एव तीनतान में गाये जाते हैं। 


कीत॑न 5 
कीतन 
भगवान राम-कऋष्ण के गुणालुबाद काम, करताल व सृन्ड्भ तबला इत्यादि के साथ 
उच्च स्थरों में मिलकर जब गाते है, उन्हें कीर्तन कहते हैं । 


2 
गात 
ईएबर प्रार्थना या भगवान की लीला सम्बन्धी पदों को छोडकर जो साहित्यिक 
राघनाये ऐसी दोती हैं कि वे किसी ताल मे वाघफर गाई जास है, उन्हें 'गीतः कहते हैं । 
इनमे भान की प्रधानता रहती है। गीतों में श्क्धार और करुंण रस अधिक पाया जाता दै। 


गीतों में किसी प्रकार का स्पर विस्तार या तानो का प्रयोग नहीं होता। रेडियो और फिल्मों 
झारा गीत एवं मजनों का यथेष्ट प्रचार हुआ है। 


कजली € कूजरी ) 


न का विरह्‌ कक राधाकृष्ण की लीलाओ का 
मिजापुर 5 . ० भक्ति छुद्र दे। शज्ञार-सस इससे | 
मिजोपुर और बनासस में कजरी गाने का प्रचार अधिक पाया जाता दै इसमे प्रधान है 


अपस कक्‍कृ्ज्ञाय छत ७ कक ०... 





- # सज्जीत विशारद # १३३ 





कि >> पक 8 अल | ५ ; 8 
चता 

होली के बाद जब चेंत का महीना आरशम्स होता है, तब 'चेती” गाई जाती है। 
इसके गीतों में भगवान रामचन्द्र की लीलाओं का वर्णन रहता है । पूर्व मे बिहार की तरफ 
इसका अ्रचार अधिक है । इसमें अधिकतर पूर्वी भाषा का प्रयोग होता है । ठुमरी गायक 

“चैती” भली प्रकार गा सकते हैं। 

| कि / ह 
लोकगीत 

लोकगीत उन्हें कहते हैं जो विशेषतः,घर-ग्रहस्थी के मंगल अवसरों पर एवं विशेष 
योहारों या उत्सवों पर महिलाओं छवारा नगरों तथा गांवों में अपनी-अपनी प्रान्तीय या 
प्रामीण भाषाओं में गाये जाते हैं। पुरुष गायकों द्वारा गाये हुये लोकगीत भी होते हैं । 
लोकगीतों में हमें भारतीय प्राचीन संस्क्रति मिलती है, यही कारण है कि हमारी राष्ट्रीय 
सरकार इधर कुछ समय से लोकमीतों के प्रति आकर्षित होकर रेडियो आदि के द्वारा इनके 


प्रचार को विकसित करने का प्रयत्न कर रही है। यहां पर हम लोकगीतों के कुछ प्रकार 
पाठकों की जानकारी के लिये दे रहे हैं:--- 


(१) घोड़ी, बनना, ज्योनार, जनेऊ, भातं, मांडवा, गारी, आदि लोकगीत उत्तर प्रदेश में 
बुज भूमि की ओर विशेष रूप से प्रचलित है, जिन्हें महिलाए' विवाह्ादि अवसरों 
पर मिलकर गाती 


(२) विरहा-यह गीत यादव (ग्वालवंश) में प्रचलित हे | विवाह के अवसर पर कन्या- 
पत्त के व्यक्ति बर पक्ष के यहां जाकर नगाड़े के साथ विभिन्‍न पेतरेबाजी दिखाते 


हुए रात भर 'विरहा? गाते हैं। 
| ७. ७७४ कप के २ चर 
(३ ) निर्वबदी--सावन भादों में खेत निराते समय यह गीत गाये जाते हैं। 


(४ ) चन्दैनी-- यह ग्वालों ( यादवों ) का गीत है। प्रायः देहातों में ग्वाला लोग इसे 
गाते हैं | 

(५) सोहर--यह गीत प्राचीन समय से ही महिलाओं में प्रचलित हे, जो बच्चा पैदा होने 
के अवसर पर गाया जाता है | पहिले तो सोहर केवल ढोलक के साथ ही गाये जाते 
९५ ० ०.० ३ घ्२० 
थे, किन्तु आजकल शहरों में हारमोनियम और ढोलक के साथ भी महिलाएँ सोहर 
गाने लगी हैं । 

(६ ) भूसमर--यह गीत कई प्रकार का होता है, जैसे विरह्ा का भ्ूूमर, जिसे यादव निपाद 


या खटीक गाते हैं, दूसरा कजरी का भक्ूमर जिसे वर्षाऋतु में गाया जाता है और 
तीसरी प्रकार का भूमर शीवला देवी की पूजा के समय गाया जाता है। 


(७ ) नड्झया भक्कड--यह नाइयों का गीत है, विवाह शादी के अवसरों पर कई व्यक्ति 
मिलकर इसे गाते हैं, साथ-साथ मांक खंजरी भी बजाते रहते हैं। 


आओ 5 5.५. 


१३६ # सड़ीत पिशारद # 
'बनाएजाबदा उप -वापकातटकापपकालानाए ऋ्राशभानकएट ० ०एन न: >ापााा हाट हा पालक भ३॥रारला दाता एकता 4७0 उस भाया रत ८४ भरकम शा काना ५ ममता कम लाउलारान्‍तभा कान 
रामालाप करते समय ओताओं के सम्मुय् आलाप की व्यारया ऊरते हुए गायक 
यह भी बताते थे कि हम अमुक राग गा रहे हैं, उिन्‍्तु रूपफालाप में कुछ बताने-कहने की 
आवश्यकता नहीं थी, वह तो आताओं को स्यत ही प्रतत्ष प्रबन्ध के समान दिखाई ढेता था 
रूपफालाप शब्ददीन होता था श्र्थाव उसमें बोल या ताल इत्यादि नहीं द्वोते थे | इस 
प्रकार रागालाप फी अपेक्षा रूपफालाप को विशेष महत्व प्राप्त था आर इसे रागालाप की 
अगली सीढी माना जाता था | 





आल 


रागालाप ओर रुपफालाप से आगे बढने पर “श्ात्नप्ति' की बारी आती थी। 
आविर्भाव और तिरोभाव करते हुए राग को पूर्णां रूप से प्रदर्शित करना ही आलक्ति 
फदलाता है। 


आविर्भाव--तिरोभाव 


मिमी राग का बिस्तार करते समय उसके वीच में अन्य सम प्रकृतिक रागों के 
छोटे-छोटे ठुक्डे दिग्पाकर, थोडी देर के लिये भुगय राग फो छिपाने का उपक्रम जब क्रिया 
जाता है तो उसे 'तिरोभाव” कहते हैं। और फिर मुरय राग ऊे स्वरों को छुशलता पूर्यक 
दिखाकर रागरूप स्पप्द करने फो “आविर्भाय” कहते हैं। इसे एक डदहरण से इस प्रकार 
सममता चाहिए, जैसे बसत राग गायक गारद्ा दे और गाते-गाते उसमें निपाट पर न्यास 
करके परज राग को छाया दिसाने लगे, तो उसे तिरोभाव कहेंगे । फिर बसत के स्परों वी 
मुख्य पकड़ लगारर बसत को स्पष्ट कर ढिय्रा जाने तो वह “आविर्भाव! कद्दा जायगा ! 
यह भाव अत्यन्त मनारजऊ होते दे जो राग गायन के बीच से या अन्तिम समय आने 
पर ही प्राय कुगल गायक ठिग्यावे हैं। 


साय 
छोटे-छोटे स्वर समुदायों को प्राचीन मन्थकार स्थाय फहते थे । 
मुखचालन 


रागोचित विविध गमक-अलफारों ये ते ने की 
कार्णे का प्रयोग करते हुए गायन-वादन करने 


“मु चालन” फहते हैं । 
आत्िप्तिका 


स्पर, शल्र और ताल की सद्यायता से जो रचना तैयार हांती है, उसके प्रयोग को 
प्राचीन पडित आत्तिप्षिका कहते थे। जैसे स्याल, धुपद, धमार इत्यादि आजिप्तिका नियद्ध 
शान की दी शेणी मे आते हैँ। 


निवद्धु अनिवद्ध गान 


जो चैंघी रे हूँ ५ 
ग रचनाएं नियमानुसार ताल में बैंघी हुई द्वोती हैं, ये सत्र “निवद्ध गान” के 


ब्य्सगन ध्याती हँ इसमे तीन प्रफार है: प्रयन्ध २ गे भागों 
पर हैं नध + बस्त 3 रूपफ नऊे विभिन्‍न भा 
जल मासाफा नास पर 7 स्त । इ' वि जमाना 


# सद्भीत विशारद्‌ # _. ३७ 








को 'घातु! कहा जाता है, धातु के भी पांच नाम हैं यथा:-(१) उद्ग्राह (२) ध्रुव (३) मेल्ापक 
(४) अन्तरा (५) आभोग । “अनिबद्ध गान” उसे कहते है, जब कोई रचना स्वरों में बँधी 
हुई हो किन्तु ताल में न हो । अनिबद्ध गान के अन्तर्गत राग आलाप, रूपकालाप, आलप्ति 
गान तथा स्वस्थान नियसों का आल्ाप, गायन, ये सब आते है क्‍योंकि इनमें ताल का 
प्रयोग नहीं होता । 


विदारी 


गीत तथा आलापों में विभिन्‍न छोटे-छोटे भागों को ह्वी विदारी कहते हैं, निबद्ध 

गान के अन्तर्गत जो उद्प्राह, ध्रुव, मेलापक, अन्तरा और आभोग, ऊपर बताये जा चुके हैं, 

सब विदारी की श्रेणी में ही आजाते है। विदारी में जब अन्तिम स्वर आते हैं वे ही 
न्यास, अपन्यास कहलाते हैं । 


अट्पत 


अल्पत्व॑ च द्विधा प्राक्त मनस्यासान्च लंधनात्‌ । 
अनम्पासस्तवनंशेषु ग्रायो लोप्येष्वपीष्यते ॥ 


रागों में अल्पत्व और बहुत्व का एक महत्वपूर्ण स्थान है। अल्पत्व का अर्थ है 
कमी के साथ ओर बहुत्व माने ज्यादा तादाद में | जब किसी राग में किसी स्वर का महत्व 
कम दिखाकर राग विस्तार में उसका उपयोग कमी के साथ किया जाता है तो उसे 
अल्पत्व” कहते हैं। इस़का प्रयोग २ प्रकार से किया जाता है--(१) लंघन से (२) अनभ्यास 
से। लंघन द्वारा जब अल्पत्व दिखाया जायगा तो आरोह या अवरोह में वह स्वर छोड़ दिया 
जायगा । जैसे शुद्ध कल्याण में निषाद का अल्पत्व हे तो डसे आरोह में छोड़ देते हैं या 
लांघ जाते हैं, यह प्रयोग लंघन से हुआ ओर इस प्रकार आरोह में उसका अल्पत्व माना 
जायगा | अनभ्यास द्वारा अल्पत्व इस प्रकार होता है कि किसी राग सें कोई स्वर कम 
प्रमाण में प्रयोग किया जावे और उस पर बार-बार अभ्यास न किया जाय और न इस 
स्वर पर अधिक देर तक ठहरा ही जाय, जैसे भीमपलासी में ध और रे का अनभ्यास- 
अल्पत्व है | प्रायः इस ओणी में वर्जित या विवादी स्वर आते हैं, और इनका अल्प उपयोग 
कुशलता पूर्वक अनभ्यास अल्पत्व के द्वारा ही विवादी स्वर के नाते किया जाता है | 


बहुल 

यह भी २ प्रकार से दिखाया जाता है । अलंघन और अभ्यास | अलंघन द्वारा बहुत्व 
इस प्रकार साना जायगा कि क्रिसी राग के आरोह या अवरोह में उस स्वर को छोड़ा न 
जाय अर्थात्‌ उसे लांघा न जावे और उस पर अधिक रुका भी न जावे, जैसे कालिंगड़ा में 
मध्यम स्व॒र छोड़ा नहीं जाता, किन्तु उस पर अधिक देर तक रूकतें भी नहीं, अर्थात्‌ केवल 


अलंबन द्वारा ही उसका बहुत्व दिखाते हँ। अभ्यास द्वारा बहत्व दिखाना उसे कहते हैं जब 
किसी स्व॒र को वारम्वार और देर तक दिखाया जाता है, जैसे हमीर में धेवत का ग्रयोग 


अनननक अनाजन+ आज-+-----+-- - 


श्श्द # सज्ञात विशारद # 








अभ्यास मूलक बहत्व भाना जायगा । प्राय राग ऊे वादी या सवादी स्वर का ही अम्यास 
मूलक चहुत्व दिसाया जाता है, किन्तु किसी-किसी राग में अन्य स्वर का भी बहुल 
देसने में आता हैँ | सड्गीव र्नाऊर का भी यही आशय प्रतीत होता है -- 


अलपघनात्तथा5म्यासादूवहुत्व॑ द्विविध॑ मतम्‌ | 
पर्यायांशे स्थितं॑ तन्च बादिसम्वादिनोरपि ॥ 


“-सद्गीतरत्नाफर 


भातरार्थ-ख्वरों फो अलपन और अभ्यास २ प्रकार से बहुत्य दिया जाता है, 
यह्‌ बहुत्य प्राय वादी सम्बादी स्वरों जो तो मिलता ही है, किन्तु ऊमौ-क्रभो राग के 
किसी दूसरे “पर्याय अन्श” स्वर को भी यह वहुत्व दिया जाता है ! 


पकेड--स्वरों का एक ऐसा समूह जिससे राग का स्वरूप ज्यक्त द्वोता है अर्थात 
जिन स्वरों के समूह से राग पहिचाना जा सकता है, उसे “पक्रड” कहते हैं। प्रत्येक राग को 
पहिचानने के लिये अलग-अलग पकड होती है । उदाहरणार्थ -राग यमन की पऊड यह है -+ 
नि रे ग रे, सा, पर्मग, रे, सा। केवल इतने स्वर ज्मुंडाय से ही फौरन माल्ुम हो जायगा 
कि यह राग यमन का स्वरूप है। इसी प्रकार अच्छे-अच्छे गायक आरोहावरोह के पश्चात 
राग की पऊड़ दिखाकर रागरूप स्पष्ठतया व्यक्त फरदेते हैं। 


मींड--फिसो एफ स्वर से आगे या पीछे के २--३ या अधिक स्वरों पर, ध्वनि 


फ्ो बिना सडित झिये गाने या बजाने को मींड कहते हैं | जैसे प निसा यहा पर पचम से 
सा तक फी मींड दिखाई गई है तो इसे गाने में पसे सा तक ऐसी फोमलता से जाना 
चाद्विए कि बीच के दोनों स्वर व, नि बोल भी जाय और आवाज टूटने भी न पाये । 


्ः खत---सूत और मींड मे केपल इतना ही अन्तर है फि भींड का प्रयोग गाने में 

या सितार इत्यादि मिजराब वाले साजो में होता है और सूत का प्रयोग गज से बजाने 
वाले साजों में जैसे-सारगी, दिलरुवा, वॉयोलिन इत्यादि में होता है, तरीका वही है जो 
मींड का है | 


आलन्दोलन--ख्बरों के हिलने या कम्पन को आन्दोलन कद्ते हैं, स्व॒रों के दिलने या 
उनके फम्पन से ही आन्दोलन सस्या नापी जाती है । 


गमक--आन्टोलन के द्वारा जब स्परों में कम्पन पैदा होता है तो उसे दी 
गम्भीरता पृथक उच्चारण करने को गमफ कहते हैं, जैसेससअ अ अ रे एएए 
सश्मअचआअ करइत्यादि 


फैश--फ़िसी स्वर को उच्चारण करते समय उसके आगे व पीछे के स्वर को 


तनिक छत्ते 2६ 52३ 2 जैसे नि 
तनिऊ छूते या स्पर्श करने को कण कहते हैं। जैसे सा यहा पर निपाद की जरा सा सर्श 
करके सा पर आता दै तो इसे सा पर निपाठ कर कण कहेंगे । 


चअत्त सासाका क्षालक खच न +अ. बन 5 


# सद्भीत विशारद # - १३६ 





तान---स्वरों का वह समूह जिसके द्वारा राग विस्तार क्रिया जाता है “तान” 
कहते है, जेसे-सा रे ग म, गरे सा या सां निध प म ग रे सा इत्यादि । स्वरों को तानने या 


फैलाने से ही 'तान! शब्द की उ्यत्ति हुई है | तानों के कई प्रकार हैं जो आगे 
बताये जाते हैं। | हे 


शुद्धतान---जिस तान में स्वरों का सिलसित्ला एक सा हो और आरोह-अवरोह 
सीधा-सीधा हो जैसे सा-रे ग सम प ध नि सां, सां निध पस ग रे सा। इसें ही सपाटतान 
भी कहते हैं। 


कूटतान --जिस तान के स्वरों में क्रम या सिलसिला न हो उसे कूटतान कहेंगे, 
यह हमेशा टेड़ी-मेढ़ी चलती है, जैसे--सारे गरे घप मप रेग मप धसां धप इत्यादि । 


मिश्रतान--शुद्धतान ओर कूटतान इन दोनों का जिसमें मित्लाप या मिश्रण हो उसे 
मिश्र ताने कहेंगे, जेसे-प घ नि सां ग स पथ घपमप ग मरे सा । इसमें कूटतान और 
शुद्ध तान दोनों मिली हु 


खटके की तान---ख्रों पर धक्का लगाते हुए तान ली जाबे तो उसे खटके की 
तान कहेंगे । 


झटके की तान--जब तान दूनी चाल में जारही हो ओर यकायक बीच में 
चोगुन की चाल में जाने लगे, उसे कटके की तान कहेंगे । जेसे--सा रेग मप ध निसां 
“निध प म, सारे गम पधनिसां निधपम गरेसानि। 


>>» »«म-नम-मगीं... रिजयमामम»+०+ककनननमनँ:. 3. मजनमजमानक ०»न-मन 


़ वक्र तान---क्ूटतान के ही समान होती है, वक्र का अथ है टेढा, यानी जिसकी 
चाल सीधी' न दो, जिसमें स्वरों का कोई क्रम न हो । 


अचरक तान --जिस तान में प्रत्येक दो स्वर एक से बोले जांय, जैसे सासा रे 
गग मस पप धध । इसे अचरक की तान कहेंगे। 


सरोक तान--जिस तान में चार-चार स्वर एक साथ सिलसिलेबार कहे जांय 
जैसे-सारेगम रेगसप गमपध सपधनि, इसे सरोक तान कहेंगे। 


लड़त तान--जिस तान में सीधी आड़ी कई श्रकार की लय मिली हुईं हों, उसे 
लड़न्त तान कहते हैँ, जेसे-निसा निसा रे रे रे रें निध्‌ निधु सा सा सा सा इत्यादि । इन तानों 


में गायक और वादक की लड़न्त, बड़ी मजेदार होती है । 


सपाट तान---जिस तान में क्रमानुसार स्वर तेजी के साथ जाते हों उसे सपाटतान 
कहते हैँ, उदाहरणाथ--मृपृधुनि सारेगम पघनिसां रेंगंमंप॑ । 


पिन नलनझनन. रिज-००००_>नत- मं ..3 रजमम>ॉ»०2««न्‍न्‍क...3 रन ८+०+जन्‍ 


१+-+ >> 5 न इक नानी ना... 


१४० # सद्भीत विशारद # 








गिटकरी तान--दो स्परों को एक साथ, शीघ्रता के साथ एक के पीछे दूसरा लगाते 
हुए तान ली जाती है, जैसे--निसा निसा सारे सारे रेग रैम गम गम मप मप पथ पथ 
निसा निसा इत्यादि । 


जयडे की तान--कठ ऊ अन्तस्थल्त से आवाज निकाल कर जबडे की सहायता 
से जब तानें लीजाती है तो उन्हें जबडे की तान कहते हैं, ये मुश्किल होती हैं. ओर सुलमे 
हुए गायक द्वी ऐसी तान लेने में समर्थ होते हैं 


५ २ हि 
हलक तान--जीम को क्रमानुसार भीतर-वाहर चलाते हुए हलक तानें ली जाती हैं । 


पलट तान--फिसी तान को लेते हुए अवरोह करके लोट आने को पल्टतान या 
पलटा तान ऊहते हैं, यथा --सानिधप मगरेसा 
रा ३. नी. 
बोलतान--जिन तानों में तान के साथ-साथ गीत के बोल भी मिलाकर विलम्बित, 
मध्य और द्ुत, आवश्यकतानुसार ऐसी तीनो लयो में गाये जातें हैं, वे बोल तानें 
कहलाती हैं। जैसे-- गर्म रेसा म॑घ 
ख््ी ख्ज्न्ी च्ज््ी 


चल 


शुनि जन गा चुब 

आलाप --गायक अब अपना गाना आरम्भ करता है वो राग के अनुसार उसके 

स्व॒रों को विलम्बित लय में फैलाकर यह दिखाता दै कि मैं कौनसा राग गारद्दा हूँ। आलाप 

फो द्वी स्वर विस्तार भी कहते हैं। जैसे विलावल फा स्वर विस्तार इस प्रकार शुरू करेंगे -- 
गड,रे5, सा 5सा रेसाउग 5 मगप 5 ग, स रे, खा 5 5 5 इत्यादि । 


बैदेत--जब कोई गायक, गाना गाते समय एक-एक या दो-दो स्वरों को लेते हुए 
एव छोटे-छोटे स्वर समुटायों से वढते हुए बडे-बंडे स्वर समुदायो पर आऊर लय को 
धीरे-धीरे चढाता हे ओर फिर बोलतान गमक इत्यादि का प्रयोग करता है तब उसे 
'बढतः कहते हैं। 





शानिक कआाछाज गान 


आधुनिक सड्जीत में, प्राचीन निबद्ध-अनिबद्ध गान के अन्तर्गत अनिबद्ध 
गान का केवल ९१ प्रकार प्रचार में हे ओर वह है “आलाप”। आलापगान करने 
वाले बहुधा धुपदिये होते थे। जिनका स्वर ज्ञान तथा राग ज्ञान उच्चकोटि का होता था । 
इसी कारण उनका आल्ापगान सुन्दर ओर आकर्षक होता था। किन्तु अब तो ख्याल 
गायक भी सुन्दर आलाप करते देखे जाते हैं। 


आलाप करने के वतेमान समय में २ ढड्ढ हैं।-- 


१--नोमतोम द्वारा २--आकार द्वारा। नोमतोम का आलाप त, ना, न, री 
नों, नारे, नेनेरी, तनाना, नेताम, नना इत्यादि शब्दों के साथ किया जाता है। 
ओर आकार का आलाप आउडड<5<5 *के उच्चारण ह्वारा। आकार से आलाप करने की 
अपेक्षा नोमतोम द्वारा आल्ञाप प्रभावशाली ओर उत्तम होता है, क्योंकि इसमें बीच में 
किसी स्थान पर सम दिखाने की अच्छी सुविधा रहती है । आकार द्वारा आल्ाप में यह : 
सुविधा उतनी अच्छी दिखाई नहीं देती, तथा नोमतोस के आलाप में अनेक स्वर बेचित्र्य 
दिखाने का काय सरलतापूर्वक होता है ओर द्रत_त्ृय. का आल्षाप भी इसमें भल्नी प्रकार 
किया जा सकता है, क्‍योंकि द्रतत्य के आलाप मे त, ना, न, री, नो, इत्यादि अक्षर 
या शब्द गायक को बहुत सहायता पहुँचाते रहते हैं। किन्तु आकार के आल्षाप में द्रुतल्य 
में काम दिखाते समय कठिनाई रहती है, और आकार के आलाप से श्रीता भी ऊब 
जाते हे जबकि नोमतोम का आल्ाप उन्हें बराबर स्फूर्ति और चेतना प्रदान करता 
रहता हे । 


वास्तव में “नोमतोम” का आल्ाप प्राचीन काल की ईश्वरोपासना का बिगड़ा हुआ 
स्वरूप है। कहा जाता है कि प्राचीन गायक आलाप द्वारा ईश्वर वन्दना “ओं अनन्त 
नारायण” या 'तू ही अनन्त हरी? इत्यादि प्रार्थना गान किया करते थे। बाद में केबल स्वरों 
का ही चमत्कार रह गया. ओर शब्द निरर्थक प्रयोग किये जाने लगे। इसका एक कारण 
यह भी हो सकता है कि खज्ड्रीत के पूर्व पंडित संस्कृत भाषा के विद्वान होते थे, अत 
उनको शब्दोचारण का ज्ञान भी उच्चकोटि का था । बाद में मुसलमान गायक उन शब्दों का 
उच्चारण करने में तो असमर्थ रहते थे, किन्तु वे उन स्वरों और रागों पर मोहित थे, इस 
प्रकार उन्होंने 'नोमतोम? की युक्ति ढ्वारा राग और स्वर तो पकड़ लिये, किन्तु शब्द छोड़ 
दिये। यही हाल दराने? की गायकी का भी हुआ | 

गायक प्रायः पूरे आलाप को चार भागों में बाँटते हैं:--(१) स्थाई (२) अन्तरा 
( हर संचारी तथा (७) आभोग । पहिले स्थाई का भाग लेकर आल्ञाप आरम्भ 
करते हैं:--- 


( १) स्थायी-- 


स्थायी में पहले षड़ज लगाकर वादी स्वर का महत्व दिखाते हुए पूर्वाह्न में 
आत्ाप चलता है। शुरू में कुछ मुख्य स्व॒रसमुदायों को लेकर फिर एक-एक नया 





श्छ२ # संगीत विशारद # 








निपाढ तक जाते हैं, फिर तार पडज को छूफ़र नोचे मध्य पडज पर आऊर स्थाई समाप्त 
करते हैं। स्थाई भाग का आलाप अधिकतर सन्द्र और मध्य सप्तों में दी चक्षता है। 


( २ ) अन्तरा-- 


इसके बाद मध्य सप्तऊ के गवार या पचम स्वर से अन्तरा का भाग शुरू करते हैं, 
ओर तार सप्तर के पृडज पर पहुँचकर अनेफ प्रफार के काम टिय्ाते हैं, अर्थात्‌ इस स्थान 
पर विभिन्‍न ताने विभिन्‍न प्रकार से वहीं समाप्त करते हैं। फिर धीरे-घीरे उतरते हुए मध्य 
पद्ज पर आऊर मिल जाते हैं। इसमें मींड और रूम्पन का फाम भी सृत्त दिसाते हैं। 


(३ ) संचारी-- 


तीसरा भाग सचारी का आता है । इसे प्राय सा, म, प इनमें से ऊिसी भी 
सार से आरम्भ करके मध्य पंचम या मव्य पड़ज पर ही आऊर समाप्त किया जाता है। 
ज्यों कि सचारी में प्राय तार सप्तऊ के काम नहीं दिखयाये जाते। सचारी में गमयों का 
प्रयोग अधिक दिखाई देता हूँ, स्त्रोकि सचारी में स्थाई भाग की पुनरावृत्ति भी सशोधित 
रुप में हे। जाती दै। सचारी के बाद फिर स्थाई का आलाप नहीं करते, वल्कि एक दम 
आमाग आरम्म कर त्ते हैं 


(४ ) शामोग-- 


आशभोग का विस्तार प्राय अस्वरा ऊे विस्तार के समान ही ऊरते हैं, अत इसे 
अन्तरा की घुनरावृत्ति का ही सशोधित रूप सममा जाये तो अनुचित नहीं। इसमे तीनों 


सप्तरों का प्रयोग किया जा सऊता है, ओर तार सप्तक में गायक अपने मले के बमौनुसार 


जितना ऊँचा चाह जा सकता हैं । इसमें अति द्रतलय हो जाती है। 
है. 


आलाप में लय की गति--- 


लय ही टा्टि से उपरोक्त चारो भागो ऊे आलाप में इस प्रकार चला जाता है कि 
( ६ ) स्थायी में विलम्बिन लय के साथ आलाप चलता है | (२ ) अन्तरा मे आलाप करने 
का समय आता है, तो मध्यज्ञय करदी जाती है और तानी का अयोग आरम्भ कर टिया 
ली, द्दै। चीच-नीच में छोटी-छोटी ताना की सद्यायता से आलाप के काम मे सुद्धरता 
पैदा की जाती है ओर तीनों सप्तडो में आलाप का काम दिसाकर स्थायी और अम्तरा 
दोनों के काम हंस भाग में दुबारा दिखाये जा सकते हैं। (३) सचारी भाग में लय 
हुत हो जाती दै और तीनों सप्तकों में गम तथा लयकारी का पर्दर्शन करते हुए आलाप 
चलता हैं। (४) आमोग में लय की और भी हुत करे, 


,, अन्तरा के भाग की विविध 
प्रकार से ढुदवराते हुए गमर का प्रयोग जारी रग्पा जाता है. और यायर जिंदनी तेजी से 
गा सकता दे, अपना सपूर्ण कोशल दिश्याते 


हुए तले या प्नावज वाले के साथ एके अकार 
यमि ह्न्ता 
की मतियोगिता उपस्थित कर ठेता है। इस भाग हे नोमतोम के शब्द अति हुतलय के 
ऋषण्ण तराने का रूप धारण ऊर लेते हैं। 


अन्न पक 2 2, ..__... ला: 


# सद्भजीत विशारद # १४३ 





' गमक 'के प्रकार 


स्व॒रस्य- कंपो -गमक!ः श्रोतृचित्त सुखावह) । 
त्तस्य भेदास्तुतिरिपः स्फुरितः . कम्पितस्तथा ॥ 
लीन आन्दोलितवलितत्रिभिन्नकुरुलाहताः । 
उल्लासितः प्लावितश्च हुफितो मृद्विस्तथा ॥ 
नामितों मिश्रितः पंचदशेति परिकीर्तिता ॥ 


--संगीतरत्नाकर 


अथौत्‌--स्वरों का ऐसा कम्पन जो सुनने वालों के चित्त को सुखदायी हो, उसे 
धमकः कहते हैं । 


- गमक के भेद १५४ हैं-(१) तिरप, (२) स्फुरित, (३) कम्पित, (४) लीन, 
(५) आन्दोलित, (६) वलित, (७) त्रिमिन्‍्न, (८) कुरुला, (६) आहत, (१०) उल्लासित, 
(११) प्लाबित, (१२) हुंफित, (१३) मुद्रित, (१४) नामित, (१५) मिश्रित । 


दक्षिणी सद्जीत के प्रन्थों में गमकों के १० प्रकार निम्निलिखित मिलते हैंः-- 
..... (१) आरोह, (२) अवरोह, (३) ढालु, (४) स्फुरित, (४) कम्पित, (६) आहत, 
: (७) प्रत्याहत, (८) त्रिपुच्छ, (६) आन्दोलित, (१०) मूच्छेना । 


प्राचीन समय में रबरों के एक विशेष प्रकार के कम्पन को गमक कहते थे। उस 
करम्पन को प्रकट करने के लिये जो विभिन्‍न ढड्ढ उस समय प्रचार में थे, उन्हीं का उल्लेख 
ऊपर के श्लोक में किया गया है। 


वर्तमान समय में यद्यपि गमकों का प्रयोग प्राचीन ढक्क से नहीं होता, तथापि 
किसी न किसी रूप में गमक का प्रयोग हमारे वाद्य सनज्लीत ओर मोखिक संज्जञीत में होता 
. अवश्य है। खटका, मु्की, ज़मज़मा, मींड, सूत, कम्पन, गिटकरी इत्यादि शब्द गमक 
की ही श्रेणी में आते हैं। ना 


आधुनिक सद्जीतज्ञ गमक' की व्याख्या इस प्रकार करते है।--जब ह॒ंदय से जोर 

' ज्ञगाकर गम्भीरता पूर्वक कुछ कम्पन के साथ स्वरों का प्रयोग किया जाता है, उसे गमक 

कहते हैं । गमक का प्रयोग अधिकतर ध्रुपद गायन-में होता है; किन्तु कोई-कोई गायक. 

ख्याल गायन में भी गमक की-तानें लेते हैं। नोमतोम के आल्षाप में भी जब अन्तिम भाग 
दुतलय का आता है, तो गमक युक्त तानें ली जाती हैं ।, ह 


| 
न 
कु ०० 


रागों का ९० विभागों में वर्गीकरण 
करने का ग्राचीन सिद्धान्त 


कि *<59०> 


प्राचीन सद्गीत पण्डितों ने अपने रागा का १० विभागों में वर्गीफृर्ण इस 
प्रकार किया हूँ -- 


(१) ग्रामराग, (१) डपराग, (3) राग, (४) भाषा, (५) विभाषा, (६) अन्तर्भाषा, 
(७) रागाग, (८) भाषाग, (६) क्रियाग, (१०) उपाग | 


श्राम राग 


'सदट्ठटीतरत्नाऊर! प्रव्थ में शुद्धा, मिन्‍ना, सोया, वेसरा ओर साधारण इन पॉच 
गीतियो के अन्तर्गत ३० ग्रामराग माने हैं, जो इस प्रकार हैं. -- 


(१) शुद्रा--१ पडजप्राम, २ मध्यमम्राम, हे शुद्दकैशिक, ४शुद्धपचम, ४ शुद्ध कैशिकमध्यम, 
६ शुद्ध साचारित, ७ शुद्ध पाडव । 


(०) मिनना--१ भिन्‍नपडज, - २ भिन्‍तप्चम, ३ भिन्‍्नक्रैशिक, ४ मिन्‍्नतान, & मिस्न- 
कैशिकमध्यम । 


(३) गौछ्या--गोडफ्रैशिक, ९ गोडपचम, ३ गोडकैशिकमध्यम । 


(४2) वेसरा--१ सौजीर, २ टक्क, ३ बोह, ४ सालवकैशिक, & टक्‍्क्रैशिक, 5 दिन्दोल, 
७ मालब्र पचम, ८ वेसर पाढच । 


(४) सावारण--रूपसावार, २ शक ३ भभाशपचस, ४ नर्त, ४ गाधार पचम, 
६ पडजफेशिक, ७ कुकुभ | 
उपरोक्त ३० आम रागों के अतिरिक्त ८डपराग, २० राग, ८ पूर्य प्रसिद्द रागाग, 
१३ झापांग, १२ क्रियाग, 3 इपाग, ६६ भापाराग , २० विभाषाराग, ४ अमन्‍्तर्भापाराग, 
१३ शाह दिन के समय में प्रचलित राग, ६ भाषाग, ३ क्रियाग और २७ उपाग बताये गये हैं, 
इस प्रकार रत्ताकर ग्रथ मे २६० राग बताए गये हैं। 


,. सिल्लीतममयसार ग्रन्थ में पाश्यदेव ने लेशी स 


ज्ञीव फ्रे अन्तर्गत १०१ राग मानकर 
उनका वर्मीकरण इस प्रकार क्रिया है -- ॒ 


रागागराग भापषागराग डपागराग क्रियागराग 
१४ सम्पूर्ण २१ सम्पर्गा श्८ सम्पूर्ण. --+++ 
४ पाडब १शपाढण ४. हे 

४ औदन. १५ 


१०2] १40 


अपने यार इस प्रकार प्रगट झिये हैं. 


% संगीत विशारद # १४४ 





ग्रामराग--प्राचीन सद्जीत के कुछ ग्रन्थों में ग्रामों से जातियों और जातियों से 
ग्राम रागों की उत्पत्ति मानी गई है। प्राचीनकाल में राग गायन के स्थान पर जाति गायन 
ही प्रचलित था, अतः रागों के प्रकार या वर्ग को ही प्रामराग' कहा जाता था| 


उपराग-प्राम रागों में ही विभिन्‍न स्वरों के हेर-फेर से उपरागों की उत्पत्ति हुई । 

राग--यह भी ग्राम रागों के माध्यम से ही उत्पन्न हुए । 

भाषा--गाने की एक विधि या शैज्ञी को कहा जाता था। उस शैत्ली का गायन 
जितने रागें में व्यवह्गत होता था, उन्हें भाषा राग कहते थे। मतड़ः ने भाषा के अन्तर्गत 
१६ राग बताये हैं । 

विभाषा-गाने की एक दूसरी विधि या प्रकार को कहा जाता था । इसके अन्तर्गत 
मतज्गञ ने १२ राग अपने ग्रंथ में लिखे है।. , शी 

- अन्तर्भाषा--गाने की एक तीसरी विधि थी, जिसका प्रयोग विशिष्ट रागों में किया 

जाता था। ॒ न्‍ 

रागाक्न, भाषांग, क्रियांग और उपाज् के विवरण भातखण्डे जी ने अपनी पुस्तक में 
इस प्रकार दिये हैं, जो उन्हें दक्षिण के एक परिडत ने बताये थे ।- 

रागांग-ऐसे शाख्रीय रागों को कहा जाता था, जिनमें राग के सभी शास्त्रीय 
नियमों का पालन किया जाता हो । 


भाषांग-- ऐसे रागों को कहा जाता था जो शास्त्रीय राग नियम पर आश्रित न रह 
कर भिन्न-भिन्न देशों के विभिन्‍न शैलियों या भाषाओं द्वारा निर्मित होकर व्यवहार में लाये 
जाते थे, उन्हीं शास्त्रीय रागें के भाषांग कहलाते थे, जिनसे वे बहुत कुछ मिलते-जुलते थे । 

क्रियांग--जिन रागें में शास्त्रीय राग नियमों का पालन करते हुए कुछ गायक अपनी 
क्रिया से किसी विवादी स्वर का प्रयोग करके उसमें विशेषता पैदा करते थे, बे क्रियांग राग 
कहलाते थे । 

उपांग--क्रियांग रागों की तरह, अन्य रागों में हेर-फेर करके उपांग राग उत्पन्त 
किये जाते थे। इनमें मूल राग के किसी स्वर को हटाकर नया स्वर ले लिया जाता था । 

सन्लीत दर्पण के लेखक पंडित दामोदर ने इनकी व्याख्या इस प्रकार संक्षेप में 
बताई है:-- ु 

रागाड़् राग-- वे हैं जिनमें प्राम राग की कुछ छाया मिले | 

भाषाड़ राग--वे हैं जिनमें भाषा राग की छाया हो । 

क्रियाज्ञ राग--बे हैं जिनसे शिथिल्न इन्द्रियों को बल व उत्साह प्राप्त होता हो । 

उपाज्ञ! राग--बे है जिनमें राग की छाया बहुत ही कम मिल्लती हो। 
इसी से मिलता-जुलवा वर्णन कल्लिनाथ ने सद्भीौत र॒त्नाकर की टीका में दिया है । 

उपरोक्त शाखीय मत भेद के कारण, उपरोक्त शब्दों का ठीक-ठीक विवरण क्‍या हो 
सकता है | इसका निर्णय करना कठिन ही है, अतः विभिन्‍न शास्त्रों का व्यापक अध्ययन 
करके विद्वानों ढ्वारा इस विषय पर कोई एक सत निर्वारित कर लिया जाये तभी यह समस्या 
हल हो सकती है | 


न्‍ैललपलमन»-.34 पममननमम«न्‍भथा 'लाप»»८-म०-०-- श-कासमसन्‍यासकरट, 


आहत जिगए-हिंशाब | 





ऐसे पुराने उम्तादों से, जो विशेष पढे लिखे नहीं हैं, बातचीत करते समय बहुधा 
छुछ ऐसे शब्ठ सुनाई ठेते हैं, जिनका अर्थ जानने जे लिये सन्नीत के विद्यार्थी उत्सुक 
रहते हैं । शछ्तों में ही आदत, जिगर और हिसाव आते हैं. जिनका उल्लेग्य यद्दा किया 


जाता है | 


प्राचीन गुणी गायकों का ऊहना है कि गायक में “आदत, जिगर ओर दिसान 
इनमें से कम-से-कम प्रथम दो बाते तो होनी ही चाहिये, अन्यथा वह अपनी सन्लीत साथना 
में सफलता प्राप्त नहीं ऊर सफ्ेगा। तीसरी विशेषता “द्विसाव” प्राय ताल बादकों से 
सम्बन्धित है, जिसका उल्लेस नीचे क्या जायगा। 


आदत--उत्तम रियाज्ञ ( अभ्यास ) भली प्रकार तान लेने की सामर्थ्य प्राप्त करने 
की क्षमता रपना “आदत” कहलाता है। जो सद्जीत प्रेमी नियमित रूप से नित्यप्रति अभ्यास 
करता रहता है, उसके उच्चारण में गभीरता ओर स्वर माधुय पदा हो जाता है, उसके गाने 
की “आदत” जय तक कायम रहेगी तब तक इसे सफलता मिलती रहेंगी, इसके विरुद्ध 
कोई बडे से घडा गायक भी जब अपना रियाज़् छोड देता है तो उसके गायन में वह 
आकर्षण नहीं रहता जो कि रियाज़ जारी रहने पर सम्भव हो सकता था| दूसरे शब्यों में 
कह सफते हैं. कि उस सद्लीतज्ञ की गाने की “आदत” छूट गई । 


जिगर--आयखुरवेद से 'जिगए शरीर के उस भाग फो कहा जाता दै, जिसके द्वारा रक्त 
बनता है, लेकिन सब्नीतज्नों के कीप में इसजा अर्थ है “ अड्ढ स्वभाव” अर्थात्‌ (४एछ०्थां 
7७एएशथ्ाग्या। ) राग की चढत करते समय ऊिस स्थान पर फौनसा स्वर समुदाय सुन्दर 
आओर आफऊर्षक प्रतीत होगा । राग में कौन से स्वर ज्गाने पर राग ऊा माधुय्या बढेगा 
इत्यादि बातों का ज्ञान रपना ही अद्ड स्वभाव ऊे अन्तर्गत आता है और इसे ही सन्नीतज्ञों 
की भाषा मे “जिगर” ऊहते हैं। 


हिसाव--राग व ताल के शास्त्रीय नियमो फी जानकारी रसना ही “द्विसान” के 
अन्तर्गत आता है। बहुत से अशिक्षित गायक या तबलिये मात्राओं के हिसाव-क्रिताव की न 
जानते हुए भी यद्यपि काम कर जाते ई, ऊिन्तु गुणी लोगा के साथ बैठरर बातचीत करते 
समय जब मात्राओं या शास्त्रीय नियमों का मसला पेश होता दे तब ये बगलें भाकने 
लगते हैं। क्सी-क्सी गायक की वढ़ी-बड़ी तानें लेफर सम” पर मिलना आता दै, रिन्‍्त 
वह बेचारा अशिक्षित होने के कारण “हिसाब” से शुन्य होता है । 


इस प्रकार आदत, जिगर ओर ह्विसाव यह तीनों विशेषताएं जिस सन्नीतज से हागी 
वद्दी सफल कलाकार माना जायगा | और इत तीनी में से जो भी गुण उसमें कम होगा 
बह उतला ही अधूरा समझा जायगा | 


नी न नल 


> स्िचार इस प्रकार प्रगट ऊिये है -- 


# सड़त विशारद # १४७७ 





आओ ननसरनरनगफपतप₹भ₹राभॉ₹दढ९थ)२थत ५ )3िथिीनादयशजणए- क्‍थ3।ख9पह3 ता खखभ।भखभभतफ खत? अचअआंॉ ता ॉ+घ+++5+ +++ 5 िन- 





स्वस्लिपि पछति 


किसी गाने की कविता को अथवा साजों पर बजाने की गत को स्वर ओर ताल के 
साथ जब लिखा जाता है, तब उसे स्वरलिपि ( )९०६४४०॥ ) कहते हैँ। प्राचीन काल में 
भारतवर्ष में लगभग ३४५० ई० पू० अ्थात्‌ पाणिनी के समय के पहले ही स्वरज्लिपि पद्धति 
विद्यमान थी । किन्तु तब यह स्व॒रलिपि पद्धति अपने शैशवकाल में हो थी । उस समय तीत्र 
तथा कोमल स्वरों के भेद तथा ताल मात्रा सहित स्वरलिपि नहीं होती थी; अपितु केवल 
स्व॒रों के नाम उनके प्रथम अक्षरों के साथ सरगम के रूप में दिये जाते थे। उनसे केवल 
इतना ही बोध होता था कि अमुक गायन में अमुक रवर प्रयुक्त हुए हैं। 


तीत्र कोमल स्व॒रों के चिन्ह न होने के कारण एवं ताल, सात्रा, मींड आदि के 
अभाव में उन स्वरलिपियों से सद्भीत विद्यार्थी लाभ उठाने में असमर्थ रहे । प्राचीन समय 
में स्वरलिपि पद्धति का विकास न होने के ओर भी कुछ कारण थे, उदाहरणार्थ:-- 


१--उस समय सडद्भीत कल्ना विशेषतया क्रियात्मक (/27820०9]) रूप में थी अर्थात्‌ 
गुरु मुख से सुनकर ही विद्यार्थी शिक्षा श्रहण किया करते थे । 


२--लेखन प्रणाली एवं मुद्रण सम्बन्धी सुविधायें उस समय आजकल जैसी न थीं । 
३--रागों को ज़बानी ( मोखिक ) याद रकखा जाता था । 


४--सज्गीत कल्ला गुरू से शिष्य को ओर शिष्य से उसके शिष्य को सिखाने या 
कंठस्थ कराने की प्रथा थी । 


५--प्राचीन समय के उस्ताद अपनी कला को केवल अपने पुत्र अथवा विश्वसनीय 
शिष्यों को लिखकर नहीं बताते थे, बल्कि सीना ब सीना ( सामने बैठकर ) ही सिखाना 
पसन्द करते थे । 


विद्यार्थियों के लिये सुबोध और सरल स्व॒रलिपि का निर्माण आज से ५०-६० वर्ष 
(5 गई हक कर [कप # ०७ + कप 
पूष हुआ। जिसका श्रेय भारतीय सन्नीत की दो महान्‌ विभूतियों १--पं० विष्णु नारायण 
है. बढ 
भातखण्डे २--पं० विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को हे । 


इनके द्वारा निर्मित स्व॒रलिपियों का प्रचार शने: शनै: समस्त भारत में होता गया । 
बीच-बीच में अन्य कई सन्नीत पंडितों ने भी अपनी-अपनी प्रथक स्वरलिपि पद्धतियां चालू 
कीं, किन्तु वे व्यापक रूप से प्रचार में न आ सकीं और आज उक्त दोनों ( भातखरडे व्‌ 
पलुस्कर ) पद्धतियां ही लोकप्रिय होकर प्रचार में आ रही हैं । 


यद्यपि इन स्व॒रल्िपि पद्धतियों से गायक के गले की सभी विशेषताएँ लिपिबद्ध 

करना सम्भव नहीं हो सका है। उदाहरणार्थ भारतीय सद्भीत की विशेषतायें गमक, गि 

राग सोन्दय , अलंकार, श्रुति प्रयोग, स्वर माधुर्य आदि बारीकियां स्वरलिपि द्वारा व्यक्त 

नहीं की जा सकतीं। फिर भी वर्तमान स्वरलिपि पद्धतियों से सद्भीत विद्यार्थियों को जा 
-..0 आयता मिली हे और मिल रही है उसे भुलया नहीं जा सकता । 


टकरी, 





कक गाणणाएणएण आए एचूनीणब भपजहहैए।ए फशारााध४ 


श्८ # सद्दौत विशारद्‌ # 


>> धारक सार २३ सा 0:28: पत्रता52 0 कस०४भ निया पाता गाए" "रपानतापरलाएवरापपपाका४ 5: पथ: पाए भा का पान आफ अाआाअ खाक "9 ददयााकपफ, 





श्री भातसख्डे ने पुराने घरानेटार उस्तादों के गायनों की स्व॒रलिपियाँ तैयार करने 
में बहत ही परिश्रम ऊिया था। उन्होने समस्त भारत का अमण करके उत्तादों की सेवा 
तथा सशामद करके स्परलिविया तैयार कीं। उस समय छुछ ऐसे भी उस्ताद थे जो अपने 
गाने फी स्वरलिपि किसी भी प्रकार दसरे व्यक्ति को बसाने की आला नहीं ढेते थे। 
भी भातसण्डे ने वडी युक्ति ओर फोशल से परठों के पोछे छिप-छिप कर उनका गायत 
सुना और स्थ॒रलिपिया तैयार कीं एवं बहुत सी स्वरलिपिया ग्रामोफोन रेफर्डो द्वारा भी 
तैयार कीं, इस प्रकार कई हज़ार चीजों की म्वरलिपिया तैयार फरके उन्होंने क्रमिक पुस्तक 
मालिझा 5 भागों में प्रकाशित ऊर सद्भीत विद्यार्थियों का मार्ग प्रशस्त बना दिया | इसी 
प्रकार पडित विध्णुदिगम्बर पलुम्कर मे भी कई पुस्तक तेयार कीं | पत्लुस्कर जी की स्प॒रलिपि 
ति जा प्रारम्भ में उसके द्वारा चालू हुई थी, अब उसमे कुछ परिवर्तन हो गये हैं, यही 
फारण दे फ्ि विप्सु दिगम्वर जी ही प्रारम्भिक मत् पुस्तकों मे, तथा आज उनके विद्यालयों 
में चलने वाली राग पिज्ञानः आदि पुस्तकों के चिन्दों में काफी अन्तर पाया जाता हूँ | 
तथापि वर्तमान स्वरलिपि प्रणाली उनकी प्राचीन प्रणाली से अधिक सुविधाजनऊ है, यद्दी 
क्रारण है फ्रि यह परिमार्जित स्वरलिमि पद्धति विशेष रूप से अचार में आरहो है। 
विप्सुदिगम्बर जी की स्वरलिपि पद्धति जो आजफ्ल प्रचार मे आरही है बह इस प्रफार है - 
विष्णु दिगम्बर पद्धति के स्व॒रलिपि चिन्ह: 
( १ ) जिन खबरों के ऊपर नीचे कोई चिन्ह नहीं होता वे मध्य सप्तक के शुद्ध स्वर सममे 
जाते हैं, जेसे-रे गम प 
( + ) जिन र्परों फे नीचे हलन्त का निशान होता है उन्हे फोमल या विक्वत स्वर मानते हैं 
जैसे-गि ग यू नि 
( ३ ) तीत्र या विर्ृत सध्यम को उल्टे ह्तन्त द्वारा इस प्रकार दिस्याते हैं--म्‌ 
( ९? ) अपर बिन्‍्दी वाले स्वर मद्र सप्तक ऊे माने जाते हैं, जैंसे--प ध नि 
( ४ ) जिन स्वरों के उपर स्डी लकीर होती है थे तार सप्तक जे स्वर होते हैं। 
जेसे--सा रि ग॑ म॑ 
(६ ) स्वर पर सात्राओ के लिये इस प्रकार चिन्द् रक्से हैं -- 
न चारमसात्रा जैसें--सा 
न 
० दोमात्रा जेसे-- सा 
ध्ठ 


है औप 
ढ - १ मात्रा, जेसे-सा 
० आधी मात्रा, जैसे-सा 
0 


«- मात्रा, जैसे-- प 
छठ ० 


शक दुभात्रा जैसे-- 

(७ ) उच्चारण के लिये अनमृह 5 चिन्ह का प्रयोग करते हैँ और गौत ऊँ अचरों के 
उठदरान को लम्बा करने के लिये पिन्दु « का प्रयोग ऊरते हैं। 

। जेैसे-न्य 5 5 प 

रा -+म 


शक कु 2 ४5 4223 टी को 25 पर 


# सड्जीत विशारद # १४६ 





(८ ) ख्रों के नीचे >यो र इत्यादि लिखा हो तो वहां १ मात्रा में श्या ६ स्वर 


बोले जाते है। 

( ६ ) किसी स्वर के ऊपर कोई दूसरा स्वर लिखा हो तो उसे कण रवर ((579०6 7006) 
के रूप में प्रयुक्त करते हैं । 

( १० ) ताल में सम के लिये १ का चिन्ह लगाते है खाल्ली के लिये + चिन्ह का प्रयोग 


० 9 ही 


होता है, अन्य तालियों वे लिये क्रमशः २, ३२, ४ आदि अंकों का प्रयोग करते है। 
भातखरडे पड़्ति के स्व॒रलिपि चिन्हः-- 


३ 28 | 3 ० रे 

(१ ) जिन रवरों के नीचे ऊपर कोई चिन्ह नहीं होता उन्हें शुद्ध स्वर मानते हैं, 
जैसे--सा रे ग मं 

रों कप खीं ७ २४ 

( २ ) जिन ररों के नीचे आड़ी रेखा खींचदी गई हो, उन्‍हें कोमल स्वर कहते हैं, 


जेसे--रे ग ध॒ नि 
(३ ) तीत्र मध्यम की पहिचान के लिये म के ऊपर एक खड़ी लकीर खींचदी जाती हे 
जेसे--म॑ 
(४ ) नीचे बिन्दु वाले स्वर मन्द्र सप्तक के माने जाते हैं, जैसे-म्‌ पृ धु 
( ४ ) ऊपर बिन्दु वाले स्वर तार सप्तक के मानते हैं, जैसे-गं रें सां 
-( ६ ) बिना बिन्दी वाले स्वर मध्य सप्तक के समभने चाहिये, जेसे--प मं ग 
( ७ ) गाने के जिस शब्द के आगे 5 ऐसे चिन्ह जितने हों तो उसको उतनी ही मात्रा 
: बढ़ाकर गाते हैं, जैसे-श्या 55 म 
(८ ) खतरों के आगे इस प्रकार जितने - निशान हों उसे उतनी ही मात्रा बढ़ाकर गाते हैं, 


कक पे 
जेसे--ग - - 


( ६ ) कई स्वरों को एक मात्रा में गाने-बजाने के लिये -“ इस चिन्ह का प्रयोग होता हे, 
जैसे-- पमग अथवा रेगमप 


३ ३.00. सन्नी रे “लंड 22 

( १० ) स्वरों के ऊपर “-- इस प्रकार के चिन्ह को मींड कहते है, जेसे--म प घ नि 
अथीत्‌ यहां पर मध्यम से निषाद तक की मींड ली-जायेगी । 

(११) किसी स्वर के ऊपर कोई स्वर लिखा हो तो उसे कण स्वर समभना चाहिये 


रृ 

जैसे--प यानी ग को जरा छूते हुए प स्वर को गाना या बजाना | 
) जो स्वर ब्रैकिट में बन्द हो उसे इस प्रकार गाना चाहिये। पहले उसके बाद का 
- स्व॒र, फिर वह रबर जो त्रेकिट में बन्द है, फिर उसके पहले का स्वर तथा फिर वही 

त्रेकिट वाला स्वर | यानी एक मात्रा में चार स्वर गाये जायेंगे, जेसे (प)--ध पस॒ प 
( १३ ) ताल सें सम दिखाने का यह > चिन्ह होता है | 
( १४ ) खाली के लिये यह ० चिन्ह प्रयोग होता हे । 
( १५) सम को पंहिली ताली मानकर अन्य तालियों के लिये २-३-४ आदि लगाते हैं| 


'सरायाता अर ारातक अिकमममाकाारककक, ० कम हि हू 
33० इआइकवक एक ३० जु+क०कनकर५क७७०»ऊ»-०- ०१३००... ८ 


(१२ 


हि 


सुजकिलः और इस 


जटिल 


मानव जाति के अन्त ऊरण से चास करने चाली विशिष्ट भावनाओं के परमोलर्प 
ी ही शाखल्नों ने 'रस' फहा है अयवा जब कोई स्वाभाविक वस्तु कुछ परिवर्तित होकर 
(न के अन्दर एक असाधारण नयीनता इसन्‍्न कर देती है, तब उसे रस कहते हैं। 


साहित्य में नवरस माने गये हैं, यथा -- 


श्रगारहास्यकरुणरोद्रवीरभयानकाः ) 
चीमत्सोद्युत इत्यट्टी रस शान्तस्तथा मतः |) 


(१) अगार, (२ )हास्य, (३) करण, (४) रोद्र, (४) चीर, (६) मयानक, (७) वीभत्स, 
(८) अद्भत, (६) शान्त । 


सद्नीत में केयल भड्टार, वीर, करूण ओर शान्त इन चार रसों में ही उपरोक्त 
नपरमसों का समायेश माना गया है। हमारे प्राचीन शास्त्रफारों ने प्राचीन सप्त स्वरों के रस 
इस प्रकार बताये हैं 


सरी बीरेडदुश्रुते रौट्े था वीमत्से भयानके | 
कार्यो गनी तु करुणहास्यश्रंगारयोमेपी ॥ 


्थात --सा, रे--चीर, रौद्र तथा अद्भत के पोषऊ हैं। 
घ--  वीभत्स तथा भयानक रस का पोपऊ है। 
ग, नि--ऊरूण रस के पोपऊ हैं । 
मे, ५-हास्थ व खद्भार रस के पोपऊ हैं। 


परिडत भांतसण्डे जी ने हिन्दुस्थानी सट्ढीत पद्धति में स्वरों के अनुसार रागो के 
जो ३ वर्ग नियत ऊफिये हैं, उन तीनों वर्गो में पसण्डितजी ने रसों का समावेश इस प्रकार 
फरने का सुमाव दिया है, यथा 


- रे घ॒ फोमल वाले सधिप्रकाश रागे में--शान्त व ऊरूणरस । 
रे ध तीघ् वाले राग में--श्ड्भार रस । 
गे नि कोमल वाले रागे। में--चीर रस) 
यद्यपि प्राचीन प्रथकारों ने फिसी एक स्पर से ही एक रस की सृष्टि बताई है 
दिन्तु वास्तव में ठेसा जाय तो केयल एफ द्वी स्पर से किसी विशेष रस फ्री उलपत्ति होना 
सम्भय नहीं । 


ददाहरणार्थ --पदज स्पर को उन्होंने वीर रस प्रधान बत्ताया है तथा पचम को 
धब्वार रस का स्प॒र माना है ओर हमारे प्राय सभी रागे। में पडज या पद्चम स्वर अवश्य 
हैं, तो इसका यह अर्थ हुआ कि सभी राग वीर रस या श्ज्ञार रस प्रधान होने 


दिचार इस प्रकार प्रगट झिये हैं -- 


(ै३०7३+००२पक्मक बन विट+ कनकान #७७०+७. अनसना अब 


ले न मनन न>ब>त++ 9 + 


# सद्जीत विशारद % १५१ 








चाहिये थे; किन्तु वस्तुतः ऐसी बात नहीं है, अनेक रागों से विभिन्‍न रसों की स॒ष्टि 
होती है । निष्कर्ष यही निकलता है कि एक स्वर अपने अन्य सहयोगी स्वरों के साथ 
मिल़्कर ही रसोत्पत्ति करने में सफल होता है | कोई वादी स्वर अपने सम्वादी, अनुवादी 
या विवादी स्वर के सम्पर्क से ही किसी रस की सृष्टि करता है। शास्त्रीय स्वर योजना 
के अनुसार निश्चित ऋतु में, योग्य वातावरण को देखकर ओताओं की मनोभावना को 
सममते हुए कोई राग जब किसी योग्य गायक द्वारा गाया जावे तथा उसके गीत का 
काव्य भी उसी रस के अनुकूल हो, तो रस की उत्पत्ति अवश्य होगी, इसमें कोई सन्देह 
नहीं । इसके विपरीत यदि कोई गायक बीभत्स रस की स्वरावली में शान्त रस का गीत 
गाने लगे, तो रसोत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती | जहां पर केवल स्थरों द्वारा ही रस की 
रृष्टि करनी हे, वहां गीत को छोड़कर केवल स्वर-लहरी द्वारा भी रसोत्पत्ति की जा 
सकती हे | स्वर और शब्दों से ही गीत का निर्माण होता है और जब गीत में स्वर ही न 
रहेंगे तो वह शब्दों की एक निरस रचना मात्र रह जायेगी, जो बिना स्वरों की सहायता 
के रस की सृष्टि करने में सर्वथा असफल रहेगी। किसी एक ही शब्द द्वारा रघरों को 
सहायता से विभिन्‍न रसों को उत्पन्न किया जा सकता है। जेसे 'आओ? यह शब्द लीजिये 
इसे जब करुण स्वरों में कहा जायेगा तो ऐसा मालूम होगा, मानो कोई सहायता के 
के लिए पुकार रहा है; इस प्रकार करुणा रस की स॒षप्टि होगी । ओर जब इसी शब्द को 
खद्डगरिक स्वरों में कहा जायेगा तो ऐसा प्रतीत होगा, मानों कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका 
को बुला रहा है; यहां शद्भार रस की संष्टि होगी। कठोरता के स्वरों में इसी शब्द को 
कहा जाय, मानो लड़ने के लिये दुश्मन को चुनोती दी जा रही है, तब इसी 'आओ'ः 


, _ से बीर रस की सृष्टि होगी। 


उपरोक्त उद्धरण से यह भल्नोभांति प्रकट है कि एक ही शब्द से विभिन्‍न रसों की 

सृष्टि केवन्न स्वर भेद के कारण हुई। अतः रसोत्तत्ति का मूल कारण स्वर ही माना 

जायेगा। काव्य द्वारा भी रुदन, क्रोध, भय, आश्चय, हास्य आदि भावों की स॒ष्टि तभी 

ती है, जबकि भिन्‍न शेल्ली से उस कविता का उच्चारण हो और भिन्‍न शैली के उच्चारण 

में ख्वरों का कुछ न कुछ अस्तित्व अवश्य ही होगा | वास्तव में देखा जाय तो प्रत्येक 
उच्चारण का सम्बन्ध नादू, स्वर और लय से है, यथा:-- 


आत्मा विवक्षमाणो5्यं मतः प्रेरयते मनः । 
देहस्थं मन्हिमाहंति सम्रेरयति मारुतम्‌ ॥ 
ब्रह्मग्रन्थिस्थितः सोडथ क्रमादूध्वे पथे चरन्‌ । 
नाभिहत्क॑ठमूर्धास्येष्वाविभवियते ध्वनिम्‌ ॥ 


अर्थात्‌-“जब आत्मा को बोलने की इच्छा होती है, तब वह मन को प्रेरित 
करती है। मन देहस्थ अग्नि को प्रेरणा देता है, अग्नि वायु का चलन करती है, तब ब्रह्म 
प्रंन्थिस्थ वायु क्रमशः ऊपर चढ़ती हुईं नाभि, हृदय, कंठ, मूर्धा और मुख इन स्थानों 
से पाँच प्रकार के नाद ( ध्वनि ) उत्पन्न करता है ।” इन नादों का सम्बन्ध रबर से है 
ओर स्वरों की सहायता से भावना तथा रस की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार खबरों द्वारा 


श्भ्र३ # सड्जीतभैवशारद # 








रस की इसपत्ति होती है, उसी प्रकार नृत्य तथा ताल के द्वारा भी हमें विभिन्‍न प्रकार के 
सस प्राप्त दोते हैं । एक सफल नतेंक अपने नाच में विभिन्‍न प्रकार के भाषा द्वारा रसोत्यादन 
फरने में सफल होता है । वाडव नृत्य से बीर तथा रीद्र रस, लास्थ से शद्भार रस तथा 
फ्रथक नृत्य की अनेक भाव-भगियों द्वारा झन्नार, हास्य, ऊरुण ओर शान्त रसों की सफलता 
पूर्वक उत्पत्ति की जा सऊती है । थद्या पर न स्थर दे न शब्द, फिर भी रस फ्री सृष्टि द्वाती दे, 
यदी नृत्यकज्ञा की विशेषता है । 


ताल ओर लय या सम्बंध भी रस से होता है। यथा -- 
“तथा लया हास्यश्रगारयोम॑ध्यमाः ! 
बीमत्समयानफयोर्विल्म्बितः | 
चीरगेद्रादूशुतेष॒ च॑ द्रुतः ॥!? 
( पिप्णुधर्मोत्तर पुराण ) 


अर्थात्‌--ास्प्र एवं अगार रसो से मध्यम लग फा प्रयोग द्ोता दे, वीभत्स एन 
भयानक रसों मे विज्म्बरित लय क्रा तथा वीर, रीद्र एवं अद्भव रसो में द्रवलय का 
प्रयोग होता है । क्र फ 


इस प्रकार गायन, यथादन, नर्तन, ताल ओर लय सद्नीत के इन सभी ऋच्नों द्वारा 
पिमिन्‍न रसों की सृष्टि सम्भव है । 





अ्रथम वर्ष से पंचम वर्ष तक 


के 
स-- &० शा व बुला --- 


बिल्लावल 
अल्हैयाबिलावल 
खमाज 
यमन 

काफी 

मेरवी 
भूपाली 
सारड्ग 

६ विहाग 

१० हमीर 

११ देस 

१२ भैरव 

१३ भीमपलासी 
१४ बागेश्री 

१४ तिलककामोद 
१६ आखसावरी 
१७ केदार 

१८ देशकार 

१६ तिलज्भः 

२० हिन्डोल 


| 


6 >ऋ #< ७ «० «५! 


है हु। 


ल्‍््धा ८. #( ल्‍्णोी. 2.९! के 
क्री #४ ०८ ७0 +#९| >> 


ग्रे । 
6 


न ज++ 3७७ ७./७.३..ध४५०ॉ+5 


सारवा 

सोहनी 
जौनपुरी 
मालकोंस 
छायानट 
कामोद 

बसन्त 

शंकरा 

दुगा 

दुर्गा ( बिं० थाट ) 
शुद्ध कल्याण 
गौड़सारड्गा 
जेजेवन्ती 

पूर्वी 
पूर्याधनाश्री 
परज 

पूरियां 

सिदूरा 
कार्लिंगड़ा 
बहार 


अनलजननन--+ अकिकमरणमकातल >-+-7ा “पे #व्लन%५ नमक 


किवकमाकाक न च- < "4ककणणका 7० 7 त 3 *फ न नि।गए लिए लानत अनिल तादगाण।. »ए +3कनकनीनिनीयी+ जननी जितनरन निननत>-+० ०० ९०-००-० ५.०... 


धवन सआए >प जी पक से. कस अर नमक ९ मल #नक्रर कल कै 


8१ 


छ३ 
०६८॥ 
4 
७६ 
९१७ 
श्फ 
छ६ 


४१ 
न 
अरे 
ध््छे 
न्ट्‌न 
का 
४७ 
ध्ण 
4 


अड़ाना 
घानी हे 
मांड 
गोड़मल्लार 
मिमोटी 
ओराग 
ललित 
मियांसल्लार 
द्रबारी कानन्‍्हड़ा 
तोड़ी 
मुलतानी 
रामकली 
विभास 
पीलू 

आसा 
पटदीप 
रागेश्री 
पहाड़ी 
जोगिया 
मेघमल्लार 


१५४ # संज्ञांत विशारद्‌ # 








१-विलावल 


शुद्व सुरन सो गाइये, धग संवाद बखान | 
राग उिलावबल को समय, ग्रातः काल प्रमान |! 








राग--विलाचल वर्जित स्वर--फोई नहीं 
थाटद--ब्रिलावल आरोह--सा रे ग म प व निसा 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सा निध पमग रे सा 
वादी--ध, सम्बादी ग पक्ड--गरे, गप, घ, नि सा 
स्वर--सभी शुद्ध हैं गायन समय--प्रात काल प्रथम प्रहर 





यह उत्तराद्व वादी राग है | यह राग रल्याण राग के समान दिखाई देता है, अत 
इसे प्रात काल का कल्याण भी कहते हूँ। 


२-अरहैया विलावल 
आरोहन मध्यम नहीं, धग सवाद बखान | 
उतरव कोमल नी लखे, ताहि अल्हेया जान || 





राग--अल्देया विल्ञावल वर्जित स्वर--आरोह में मध्यम 2 
थाद--बिलावल् आरोह--सा, रे, गए, ध नि सा 
जाति--पाडव सम्पूर्ण अवरोह--सानिध, ५, मग रेसा 
बादी--थ, सम्वादी ग पकड--गरे, गप, वनिसा 

स्वर--अवरोह में दोनों नि गायन समय--श्रात काल 


8 न 8 5 0 5 अल 
विलाबल राग से ही अल्दैया विज्ञानल की उत्पत्ति हुई है। अबरोह में कोमल 
निपाद का थोड़ा सा प्रयोग इसके सौन्दर्या को बढ़ाता है। निषाद और गान्धार इसमें 





चक हूँ 
३-खमाज 
दोउ निपाद नीके लगें, आरोही रे हानि। 
गनि वादी सम्बादि तें, खम्माजहि पहिचानि ॥ 
राग--समाज वर्जित स्वर--आरोह मे रिपभ 
थाद--सम्ताज आरोह--सा, गम, ५, घनिसा । 
जाति--पाडव, सम्पूर्ण अपरोह--सा नि ध प, मग, रेसा । 
«,. *४“ग, सम्बादी-नि प्रकड--निध, मप, घ, मग | 
“होने नि 


गायन समय--रात्रि का ठसरा प्रहर 


।% 
चार इम प्रसार प्रमट किये हैं. -- क्् 


__._ _..4 _.....७ - क्क्‍लक निया अर डक डिक ण एच आिए पह 


*£ सड़ोत विशूरद ्ः १५५ 





इस राग के आरोह में घैवत कुछ दुर्बल रहता है। आरोह में तीत्र और अवरोह 
में कोमल निषाद लिया जाता है | इस राग का वैचित्य ग॒ म॒ प्‌ नि इन चार स्वरों पर निर्भर 
है। आरोह में पंचम स्वर पर अधिक नहीं ठहरना चाहिये। इसी लिये कोई-कोई गायक 
गम ध नि सां, इस प्रकार पंचम छोड़कर भी तानें लेते देखे जाते हैं तथा कोई-कोई ग म॒ प 
नि सां इस प्रकार स्वर लेते हैं । 


४-पमन 


शुद्ध सुरन के सज़् जब, मध्यम तीवर होय | 
गनि वादी संवादि तें, यमन कहत सब कोय ॥ 


राग--यसन चर्जित स्वर--कोई नहीं 
थाट--कल्याण आरोह--सारेग, म॑प, ध, निसां । 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सांनिध, प, म॑ंग, रे सा | 
वादी--ग, सम्बादी-नि पकड़--निरिगरे, सा, पर्मग, रे, सा । 
स्व॒र--म तीत्र, शेष स्वर शुद्ध. गायन समय--रात्रि का प्रथम प्रहर । 





यह पूर्वाज्ञ वादी राग है । कभी-कभी इसमें कोमल मध्यस का प्रयोग भी विवादी 
स्व॒र के नाते कर दिया जाता है, तब कुछ लोग उसे यमन कल्याण कहते हैं । 


५-काफ़ी 
कोमल गनी लगाय कर, गावत आधी रात । 
पसवादी सम्बादि तें, काफी राग सुहात ॥ 


राग--क्राफी वजित--कोई नहीं 

थाट--काफी आरोह--सारेग॒, स, प, धनिसां । 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सां नि ध, प, मग॒, रे, सा । 
वादी-प, सम्बादी सा... पकड़--सासा, रेरे, गुग, मम, प । 
स्व॒र--ग॒, नि कोमल, बाकी शुद्ध गायन ससय--मध्य रात्रि 





कभी-कभी इसके आरोह में तीत्र गन्धार और तीत्र निषाद लेकर इसमें विचित्रता 


पैदा की जाती है। इस राग का वैचित्र्य सा ग॒ प नि इन खरों पर बहुत कुछ 
अचलम्बित है । 


. भ्ज् # सदल्भीत पिशारद # 
६-मेरवी 


कोमल सब ही सुर भले, मध्यम वादि बखान [ 
पडज जहां सवादि है, ताहि भरी ज्ञान ॥ 








राग--मैरवी चजित--कोई नहीं 

थाट--मैरवी आरोह-सा, रेगम, पध, लिसा | 

जाति--सम्पर्ण अवरोह--सा, निव॒प, सग॒, रेसा । 
बादी--म, सम्बादी-स | पक्ड़--म, गे, सारेसा, धनिसा । 

स्वर--म शुद्ध, शेप स्वर कोमल गायन समय्र-प्रात काल । 


कोई-कोरई इस राग में व वादी ओर ग सम्वादी मानते हूँ । यद्यपि इस राग का 
गायन समय प्रात काल है, रिन्तु कुछ सन्नीतज्न इसे सर्वकालिक राग मानकर चाहे जिम्त 
समय गाते चजाते हैं। कोइ-कोई गायक इसमें रे-म॑-नि इन तीम्र स्व॒रो का अयोग चिचादी 
स्वर के नाते करते हैँ, किन्तु इस काये मे सावधानी की आवश्यकता है । 
१ 
७-मपाला 
मनि वर्जित कर गाइये, मान थाट कल्यान | 
ग॑ थे वादी सवादि सों, भूपाली पहचान ॥ 





राग--भूपाली चित खर--म, नि 

थार--कल्याण आरोह--सा रे ग ५, वसा | 
जाति--ओडब अपरोह--सा, घप, ग, रे, सा 

बादी--ग, सम्वादी व पकड़-ग, रे, साथ, सारेग, पग, धपग, रे, सा 
स्वर--सत शुद्ध गायन समय -सरात्रि का श्रथम प्रहर 


हू बहत सरल ओर मधुर राग है । गाते समय इसे शुद्ध कल्याण, जेंत कल्याण 
ओर देशकार से बचाने से छुशलता की आवश्यकता है, यह केवल ५ स्वरों का अपने उह्े 


का स्वतन्त्र राग है । 
८नसीरज ( शुद्ध 


बर्जित कर गन्धार सुर, गावत काफी अग। 
दीऊ मनि, सवाद रिप, कहत शुद्ध सारग ॥ 





शग--शुद्ध लाग्ग ., बर्जित स्वर--ग 

थाद--काफी आरोह--सखा रे स प मंपनिसां 

जाति-पाडव अपरोह--सा नि प भ॑ पथ पमरे निसा 

चादी--रे, सम्यादी-प पकड-सा, रेमरे, प, मंप, निप, मंप, मरे, सा 
दोनों मं टोन नि _्‌ शारदा वववाए३-- टिलर पक पशिशशककओ नणड 


न्न 


पदचार इस प्रझ्नर प्रगट झिये हैं -- 


# सड़ीत विशारद # १५७ 





इस राग का उल्लेख हृदय प्रकाश ब हृदय कौतुक ग्रन्थ में पाया जाता है | मध्यमाद 
सारंग में घेवत वर्जित है, किन्तु शुद्ध सारंग में घेबत लगता है, इस लिये यह राग उससे 
अलग अपना अस्तित्व रखता हे । गौड़ सारंग से भी यह बिल्कुल्न अल्नग है क्योंकि गाड 
सारंग कल्याण थाट का है और यह काफी थाट का है । इसी प्रकार नूर सारंग से भी यह 
बचालिया जाता हे क्योंकि नूर सारंग में शुद्ध मध्यम नहीं है । 


ही 
६-- बिंहग 
गनि सम्बाद बनायकर, चढ़ते र्थि को त्याग | 
रात्रि दूसरे प्रहर में, गावत राग बविहाग ॥ 





राग--बिहाग वर्जित स्वर--आरोह में रे, ध 
थाट--बिलावल आरोही--सा.ग म प निसां । 
जाति--ओऔडुब-सम्पूर्ण अवरोह--सां निध प म ग रे सा | 
वादी--ग, सम्वादी नि पकड़--निसा, गमप, गमग, रेसा । 
स्वर--सब शुद्ध स्वर हैं समय--रात्रि का दूसरा प्रहर 





इसके आरोह में तो २े- ध वर्जित हैं ही, किन्तु अवरोह में रे-ध अधिक प्रबत् 
नहीं रखने चाहिए वरना बिलावल की छाया दीखने का भय रहता है। विवादी स्वर के नाते 
कभी-कभी इसमें तीत्र मध्यम का भी प्रयोग देखने में आता है । अवरोह में निषाद से 
पंचम पर आते समय तथा गन्धार से षड़ज पर आते समय कुशलता से चलना चाहिए | 


१०--हमार 
कल्यानहिं के मेल में, दोनों मध्यम जान | 
घधग वादी संवादि सा, राग हमीर बखान॥ 





राग--हमीर वर्जित स्व॒र--कोई नहीं । 
थाट--कल्याण आरोह--सारेसा, गमध, निध, सां., 
जाति--सम्पूर अवरोह--सांनिधप, म॑पधप, गमरेसा 
वादी--ध, सम्बादी-ग ह पकड़--सारेसा, गमध 

स्वर--दोनों मध्यम, बाकी शुद्ध समय--रात्रि का प्रथम प्रहर 





इस राग में तीत्र सध्यस का प्रयोग आरोह में थोड़ा सा करना चाहिए, शुद्ध मध्यम 
आरोह अबरोह दोनों सें है । इस राग के अवरोह में कभी-कभी धेवत से पंचस पर आते 
समय ध लि प इस प्रकार कोमल निषाद का प्रयोग विवादी स्व॒रक्े नाते देखने को मिलता हे 
कोई-कोई शुणी इससें पंचस वादी सानते है, किन्तु भातखरण्डे जी के मतानुसार इसका 
वादी स्वर घेंवत ही ठीक हे । 


श्प्र्८ # सद्भीव विशारद # 


टट२ाचााधया न ग5अ पर 5३2१ पा १९२४ पन उन धततइपाास+ा ४ १0१ कप ात ५ तक ड४० आर पक 5 222९-३३ 48058 ५: भय कक मे रदयाएज धान: (85755::२०४: कवर 5 522९ ३2:अहकामफल, 
११--ढद्स 
बादी रे, सम्बादि पा, दोठ निपाद लगजायें | 
हेस राय सम्पूर्ण करि, मध्य रात्रि में गायें ॥ 





राग--देस बर्जित स्व॒र--कोई नहीं 

थाद--समाज आरोह--सा, रे, म प, नि सा । 
जाति--सम्पूर्ण आवरोह--सा लि घ प, म ग, रे ग सा। 
वादी--रे, सम्वादी-प पकड--रे,मप, नियप , पधपम, गरेगसा | 
स्वर--ठोनों निपाठ, शेप स्वर शुद्ध समय--मध्यरात्रि । 





देस राग का स्वरूप सोरठ से बहुत मिलवा-जुलवा है, अत देस के वाद सोरठ था 
सोरठ के बाद देस का गाना कठिन पडता है। इस राग में गधार स्वर स्पष्ट रूप से लिया 
जाता दे ऊितु सोरठ में उसे कुछ दवा हुआ रखते हैं। इसके आरोह मे ग और व यह 
दोनों स्वर दुर्वल हैं, अत कमर प्रयोग ऊिये जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं सममना 


चाहिये कि देस के आरोह में ग-च वर्जित हैं। 
हक 

१२--भंरव ; 

धरि बादी सम्बादि करि, रिध कोमल सुर मान | 

प्रात समय नीफी लगे, भेरव रास महान ॥ 





राग--भैरव घर्जित स्व॒र--कोई नहीं 
थाद--मैरव आरोह--सा रे ग म, प घ, नि सा | 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सानिध, पमग, रेसा । 


बादी--ध, सम्बादी-रे पकंड--सा, गम, पं, घ, प । 
स्वर--रे ध कोमल, चाऊी शुद्ध समय--त्रात काल 





यह बहुत प्राचीन ओर गसभीर राग है | कमी-कर्ी इसके अवरोह में कुशल- 
गायक कोमल निषाद का प्रयोग भी करते हैं | इस राग में रे घ स्वर अत्यन्त महत्वपूर्ण हें 
इल रपरों का प्रयोग करते समय इसे कालिगढा और रामझली से बचाना चादिये । मैरव 


के आरोह में रिपम का अल्पत्व रहता दै एवं मध्यम से रिपभ पर मींड' लेकर आने में 
इसऊा साधुर्या बढ़ता है। 


जज 


धार इस प्रद्धार प्रगट किये हैं. -- 


# सड्जीत विशारद # ः १५६ 











१३-भीमपलासो 
जब काफी के मेल में, चढ़ते रिध को त्याग । 
गनि कोमल, संवाद मस, भीमपलासी राग॥ . 


है 





राग--भीमपलासी वर्जित स्वर-आरोह में रे, ध 

/ थाट--काफी आरोह-निसागम, प, नि सां । 
जाति--औडव सम्पूरों ' अवरोह-सां निधपम, गरेसा 
वादी--म, सम्बादी-सा पकड़-निसाम, सग॒, पस, ग॒ सग्रेसा 
स्वर--ग नि कोमल, बाकी शुद्ध . समय-दिन का तीसरा प्रहर 


इस राग के आरोह में रिषम और पैवत दुर्बल रहते हैं, अर्थात्‌ आरोह में इनका 
प्रयोग कम रहता है और सा, सम, प इन रबरों का प्राबल्य रहता है । इस राग को गाते समय 
धनाश्री राग से बचाना चाहिए जो कि काफी थाट का है | किन्तु प ग म ग इन स्वर संगतियों 
से धनाश्री ओर भीमपलासी अलग-अलग हो जाते हूँ। साथ ही इस राग में म वादी और 
धनाश्री में प वादी दिखाकर भी इनका मिश्रण बचाया जासकता है । 


१४-बागेश्री 


गनि कोमल संवाद मस, आरोही रिप काठ | 
मधुर राग बागेसरी, लखि काफी के थाठ ॥ 





राग--बागेश्री । वर्जित स्वर-आरोह में, रे प 
थाट--काफी | आरोह-सा मगु सम घ निसां 
जाति--ऑओड्व सम्पूर्ण अवरोह-सां नि ध मगु मग रे सा 
वादी--म, सम्वादी-सा पकड़-सा, निधृसा, मधनिध, म, गरे, सा 
स्वर--ग॒ नि कोमल, बाकी शुद्ध समय- मध्यरात्रि 


फल 


मध्यम, धेवत और निषाद स्वरों की संगत इस राग की शोभा बढ़ाती है । बागेश्री 
के आरोह मे रिषभ स्वर का प्रयोग बहुत कम होता है या बिल्कुल छोड़ दिया जाता है। 
इस राग में पंचम स्वर के प्रयोग पर मतभेद पाया जाता है। कोई-कोई गुणीजन पंचम को 
बिल्कुल वर्जित रखते हैं ओर कोई-कोई पंचस को अवरोह में लेना स्वीकार करते हैं 
कोई-कोई पंचम स्वर क्रो आरोह-अवरोह दोनों में लेते हैं। इसीलिये इस राग की जाति में 


१६० # सड्रीत प्रिशारद # 
रात पार अराातादाा 5०: पलार- गज > एप 7_ग पसामानादादतल्‍०0८-20 आल: साकार कदर पर काका 522 भा पवार इक" ज. 
१५-तिलककामोंद 
पाडव संपूरन क्यो, आरोही घा नाहिं 
रिप वादी सवादि तें, तिलकुकमोढ बताहिं ॥ 





राग-- तिलक्फामोद | वर्जित स्वेर--आरोह में घैबत 

- थाठ- समाज आरोह--सा रे गसा, रेसपधमप, सा 
जाति--पाडव-सम्पूर्ण अवरोह--सापधमग, सारेग, सानि 
बादी >रे, सम्बादी-प पक्ड--पनिसारेग, सा, रेपमग, सानि 


स्वर--सब शुद्ध ॥ समय-ररात्रि का दूसरा प्रहर 





इस राग का स्वरूप कई जगद्द देस और सोरठ से मिलता है, किन्तु इथर इस राग में 
फोमल निपान बिल्कुल वर्जित रखने के फारण यह राग देख ओर सोरठ से बच जाता है । 
इस राग री चाल बकर होने से दी इसकी विचित्रता वढ जाती है | महाराष्ट्र में तिलककामोद 
गाते समय दोनों निपाद लेने का रिवाज है | 
१६-थआसावरी 
कक] 
गधनी कोमल सुर लगें, चढत गनी न सुहात । 
भू बह 
धग्‌ बादी सवादि तें, आसावरी कहात ॥ 





रांग-आसावरी 
थाट--आसावरी 
जाति--अड॒ब सम्पूर्ण 
बादी--व सम्बादी-ग 
स्पर-नटा व नि कोमल 


वर्जित स्पर--आरोह से ग, नि 
आरोह--सा, रेमप, व्‌ सा । 
अवरोह--सा निव, प, मग॒, रेसा 
पफड-रे, स, प, निध प 
समय-- प्रात काल 





उत्तर भारत से आसानरी राग से कोमल ऋपभ लगाकर गाने ऊा प्रचार है, सिन्तु 
इक्षिणी ग्याल गायक इसे त्तीत्र रिपभ से ही गाते हें। इस राग का वैचित््य ग, प, व इन 
तीन स्परी पर निर्मर है । अपरोह राग विशेष रूप से सिलता है | 


१७-कंदार 
दो मध्यम केदार में, सम सम्बाद सम्हार । 
आरोहन रिग बर्राज़ कर, उतरत अल्प गँधार ॥ 


शग-फेटार ५ वर्जित स्वर--आरोह मे रे, ग 
थाट--कल्याण आरोह--साम, मप, धप, निव, सा | 





जाति - ओऔडुव सम्पूर्ण 
वाटी--सा, सम्बादी म 


प पकंड--सा, म, सप, घपम, पम्त, रेसा । 
जपञोनों मध्यम 


अवरोह--सा, निय, प, म॑ प गमरेसा । 
समय--रात्रि का प्रथम प्रहर 


पार इस प्रकार प्रगट किये द * 


# सद्भीत विशारद # १६१ 
3 23353 43202300: 30022 23 अरब न, अ 33222 + जय 0३ लय बस बज जप अन्‍य जार आ कक 
हमीर के समान इस राग में भी दोनों मध्यम लगाये जाते है, किन्तु यह्‌ इस राग 
की विशेषता है कि कभी-कभी इसके अवरोह में दोनों मध्यम एक के बाद दूसरा इस क्रम 
से आजाते हैं। केदार का आरोह करते सप्रत्र पडज से एकदम सध्यम पर जाना बडा 
सुन्दर मालुम होता है। इसके अवरोह में कभी-क्रमभी घैवत के साथ कोमल निषाद का 
अल्प प्रयोग करते हैं। इस प्रकार निषाद का प्रयोग विवादी स्वर के नाते होता है | इसके 


अवरोह में गन्धार स्वर वक्र और दुर्बल रहता हैे। अतः इस स्वर का प्रयोग सावधानी से 
[के किलर देने पट 
करना चाहिए अन्यथा कामोदादि राग दिखाई देने लगते है । 





१८-देशकार 


जबहिं बिलावल मेल सों, मनि सुर दिये निकार | 
धग वादी संवादि तें, ओड़व देशीकार ॥ 





राग-देशकार वर्जित स्वर-म, नि 
थाट--बिलावल आरोह-- सारेगपध सां, 


जाति--औडुव 


अवरोह--सां घ प गपधप ग रे सा। 
वादी--ध, सम्बादी-ग 


पकड़--सा ध, प, गप, धप, गरेसा 
स्व॒र--शुद्ध ' समय--दिन का प्रथम प्रहर 





इस राग को गाते समय विभिन्‍न स्थानों पर घेवत दिखाने में सावधानी रखनी 


चाहिए अन्यथा भूपाली, की छाया आ सकती है। ध्यान रहे कि भूपाली राग पूर्वाज्ञ' प्रबल्न है 
ओर देशकार उत्तरांग-प्रबल हे | 


१६-तिलंग 


रिध वर्जित, दोउ नी लगें, लखि खंमाजहि अज्ज । 
गनि वादी संवादि कर, गावत राग तिल ।॥ 





राग--तिलंग 
थाट--खमाज 


वर्जित स्वर-रे, घ 
आरोह--सा ग म प निस्तां 
जाति--ओऔड॒च अवरोह--छां, नि, प, मग, सा 
वादी--ग, सम्वादी-नि पकड-निसागसप, निसां, सांनिप, गसग सा 
स्वर-दोनों निषाद समय--रात्रि का दूसरा श्रहर 
तन नम न न न कप 2 के आम 
इस राग में निषाद और पंचस को सद्गत भली मालुम होती है। घैवत वर्जित होने 


से खमाज का राग अलग होजाता है। इसके अवरोह में कोई-कोई गायक थोडा सा 
रिषभ स्वर विवादी के नाते प्रयोग करते हैं। 


१६२ # सड्गीत विशारद # 
वारसी पारकापर: १ २/#>मराक क लट:पर प्रा सन्‍कबएएथकनइलएर ५ पका रथभपरपकतपएडक सादर पा # २22५ लरथकमपनभ ०५०८८: पह कद 5 जार आए काका मार ७क कद -्ा5 लए एमडक, 


२०--हिण्डोल 


रिप सुर वजित मानफर, मध्यम तीवर भोल। 
घ ग वादी संवादि तें, ओड॒व राग हिंडोल॥ 





राग--हिए्डोल 
थाहइ--कल्याण 
जावि--ओऔडब-ग्रीडुव सर, 
बादी--व, सम्बादी-ग 

स्व॒र--मं दीब्र, शेष स्वर शुद्ध 


चर्जित स्वर-े, प । 
आरोह--साग, म॑ंधनिव, सा । 
अवरोह--सा, निध, मंग, सा । 
पकड़--सा, ग, मंधनिधर्मंग, सा । 
समय--बिन का प्रथम प्रहर | 











इस राग के आरोह में नि का प्रयोग कम फिया जाता है और वह भी वक्र स्वर के 
रूप में | यद्दि हिंडोल मे निपाद का प्रयोग अधिक दो जाय तो सोहनी की छाया पड 


सकती दै। इस राग में कोई-कोई गायक रिपम ओर शुद्ध मध्यम का फिंचित अय्ोग 
करते हैं.। उत्तम गायक इसमे गमों का बहुत सुन्दर प्रयोग करते हैं 


२१--माखा 


रिध वादी सवादि ऊर, पंचम वजित कीन्‍्ह | 
रे फोमल मध्यम कडी, राग मारवा चीन्ह ॥ 





राग--मारवा 
थाद--मारवा 
जाति-पाडव पाडव 
वादी--रे, सम्बादी-व 
स्वर--रु कोमल, म॑ तीत्र । 


चर्जित स्वर-प 

आरोह--सारे, ग, मंध, निघ, सा । 
अपरोह--सा निथ, म॑गरेसा। 
पकड--वमंगरे, गर्मंग, रे, सा । 
समय--दिन का अन्तिम अहर । 








इस राग के आरोद मे निपाद कई स्थानों पर बक्र गति से प्रयोग होता है। रे ग घ 
इन स्परों पर इस राग की विचित्रता निर्भर है। अवरोह में जब रिपभ बक्र होता है तब 
यह राग अविक चमफता है | इसमें मींड फा काम अधिऊ अच्छा नदीं लगदा ! 


२२--सोहनी 
तीवर मा, कोमल रिपभ, पचम बजित मान । 
घ गम वादी सवादि तें, क्रियो सोहनी गान ॥ 


- इस प्रकार प्रगन झिये ह --- 


कं संगीत विशारद # ॒ १६३ 





राग--सोहनी वर्जित स्व॒र--प 
'थाट--मारवा ' आरोह--साग, म॑धनिसां । 
जाति-षाडव षाडव अवरोह--सांरेसां, निध, म॑ध, म॑ग, रेसा | 
वादी-ध, सम्बादी ग पकड़--सां, निध, निध, ग, मंधनिसां । 
स्वर-रे कोमल, म॑ तीत्र । समय--रात्रि का अन्तिम प्रहर । 





इस राग में कुशल्ल गायक विविध स्थानों पर कोमल मध्यम का प्रयोग बड़ी कुशल्ञता 
से करते हैं। इसमें तार पड़ज चमकता रहता है ओर इससे राग की रंजकता बढ़ती है । 
इसके आरोह में रे स्वर वर्जित तो नहीं है, किन्तु वह दुर्बल रहता है । 
जे हर 
२३--जोनपुरी 
कोमल गधनी सुर कहे, आरोही गा हानि। 
वादी था, सम्बादि गा, जोनपुरी पहचानि ॥ 





राग--जोनपुरी वर्जित स्वर--आरोह में ग । ु 
थाट--आसावरी आरोह--सा, रेम, प, घ॒, निसां । | 
जाति--षाडब सम्पूर्ण अवरोह--सां, निध, प, मग॒, रेसा । 
बादी--घ, सम्बादी-ग पकड़--मप, निधप, ध, सपग॒, रेसप । 

स्वर-ग ध्‌ नि कोमल समय--दिन का दूसरा प्रहर । 





इस राग का स्वरूप आसावरी से मिल्नता-जुलता है, किन्तु आसावरी के आरोह 
में निषाद वजित है ओर इस राग के आरोह में निषाद लेते हैं, इस प्रयोग से यह 


, आसखावरी से बच जाता है। प्रचार में आजकल जोनपुरी में दोनों निषादों का प्रयोग 
मिलता हे | 


२०७--मालकोंस._ . #£ 
रिप वर्जित, ओड्व मधुर, सब कोमल सुर मान | 
मस वादी संवादि सों, मालकोंस पहिचान 


राग--मालकोंस वर्जित स्वर-रे, प। 
थाट--मैरवी आरोह--निसा, गम, घ॒, निसां । 
जाति--औडेब ह अवरोह--सांनिध, म, गुमगुसा । 
बादी--म, सम्बादी-सा पकड़--मग॒ु, मधनिध, म, ग॒, सा । 
स्वर--ग॒ घ नि कोमल समय--रात्रि का तीसरा प्रहर । 


इस राग में ध्रपद व्‌ ख्याल की गायकी अधिक दिखाई देती है. क्योंकि यह गस्सीर 


१६४ # सद्गीत विशारद # 


ल्‍सयाापसाायलामरा। पायल कनदााराााक मद: पक १०० कक १०४ पदायकना०१आ५५ भा सा० 969 ९ प्करभ८-ा5 2 (काका का 326 /भपा९२३० एम ४१७:2090/9" उत्॒कता॥% २०३०४: अपर हाय 


२४-डबायान< 


जबिं थाट कल्यान में, दोनों मध्यम पेखि | ' 
परि बादी संबादि से, छायानट को देखि ॥ 





राग--छायानट बर्जित स्पर--कोई नहीं। 
थाट--कल्याण आरोह--सा रे ग म पनि ध सा। 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सा नि ध प म॑प वप गम रेसा ! 
बादी--१, सम्बादी-रे पकंड--प, रे, गमप, संग, मरेसा ) 
स्व॒र--होनों मध्यम समय-रात्रि फा प्रथम प्रहर । 





छायानट में दोनों मध्यम लिये जा सफते हैं, रिन्तु तीन्न मध्यम जब लिया जावे, 
तो केबल मंपथप करके ही लेना चाहिए। शुद्ध मध्यम आरोह अबरोद्द दोनों में 
लिया जाता द्वे। पचम ओर रिपभ की सगत इसमें भली मालुम द्ोती हैं । ग नि इन दोनो 
स्व॒रों को कम से अवरोह ओर आरोह में वक्र ऊिया जाता है। अवरोदह में कभी-कभी 
कोमल निपाद भी विवादी स्वर के नाते लिया जाता है | 


२६-कामोद 
कल्याणहिं के मेल में, दोनों मध्यम लाय। 
परि वादी सम्बादि कर, तव कामीद सुदाय |॥ 





राग--कामीद वर्जित स्व॒र--फेई नहीं 
थाट--कल्याण आरोह--सारे पर्म पथ पनिध सा 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सानिध प म॑पधप,गमरेसा 
बादी--प कुगवादी रे पकड-हे, प, म॑प, वप, गसप, गमरेसा 
स्व॒ुए--होना मध्यम समय--रात्रि प्रथम अहर 





इस राग में गधार ओर निपाद स्वर वक्रगति से लगते हैं। तथा यह दोनों स्वर 
इसमें दुर्बचंल रहने चाहिये। निषाद तो बहुत ही कम लगता है | कभी-कभी अवरोह में 
कोमल निषाद का प्रयोग विवादी स्वर के रुप में किया जाता है! आरोही में तीत्र मध्यम का 
बहत कसी के साथ प्रयोग किया जाता है| रिपम से पचम पर जाने में कामोद स्पष्ट दिखाई 
देने लगता है। 7 
२५७-चसन्त 
- रिध कोमल, संबाद सम, मध्यम के ढोउठ रूप | 
_ आगेद्दी पंचम परजि राग वसन्‍्त अनप ॥ 
विचार इम प्रसार प्रगट किये हैँ -- 


5 3 “है 240 पल अर जा 


#£ सड़ीत विशारद # १६४ 
नि मा मन ला ली 233200022233403302 3:3५ अल ०५० लप कर बल सर 








। हि में 
राग--बसन्त ; वर्जित--पंचम ( आरोह में ) 

( भ रे ३ 
थाट--पूर्वी आरोह--सा ग म॑ धर सां। 
जाति--षाड़व सम्पूर्ण - अवरोह--रे नि ध॒ प मंगम॑ध म॑गरेसा । 
वादी--सा, सम्वादी स पकड़--संध. रे, सां, रे, निधप, मंगमंग । 
स्व॒र--दोनों मध्यम, कोमल रे घ समय--रात्रि का अन्तिम प्रहर । 





इस राग के २ प्रकार प्रसिद्ध हैं।. एक में तो दोनों मध्यम लेते हैं तथा पंचम वर्जित 
करते हैं। दूसरी प्रकार में पंचम वर्जित न करके इसे सम्पूर्ण जाति का मानते हैं। इस 
दूसरी प्रकार में वादी रबर तार षड़ज ओर सम्बादी पंचम मानते हैं। किन्तु पहले प्रकार में 
- पंचम वर्जित होने के कारण वादी सम्बादी स-म मानते हैं । 
इस राग में दोनों मध्यम लिये जाते हैं। उत्तराह्ः प्रधान होने के कारण इसमें तार 
' घड़ज पर विशेष जोर रहता है । 


२८-शंकरा 
आरोही रेमा बरजि, अबरोही -मा त्याग । 
गनि वादी संवादि सों, कहत शंकरा राग ॥ 





राग--शंकरा वर्जित स्वर--आरोह में रेस, अवरोह में म 
थाट--बिलावल आरोह--साग, प, निध, सां | 
जाति--ओड़व षाड़व अवरोह--सांनिप, निध, गप, गरेसा । 
वबादी-ग, सम्बादी नि. पक्रड़ड--सां, निप, निध, सां, निप, गप, गसा 
स्वर--सब शुद्ध कि समय--रात्रि का दूसरा प्रहर 


कोई-कोई सल्नीतज्ञ इसका वादी स्वर घडज और सम्वादी पंचम मानकर समय 
मध्यरात्रि मानते हैं। शंकरा के २ प्रकार देखने में आते हैं। एक प्रकार में रे-म -बुजित करके 
इसकी जाति औड्व मानते हैं ओर दूसरे प्रकार में केवल मध्यम वर्जित करके इसे षाढव 
जाति का राग मानते है । दोनों प्रकार सुन्दर है। इसके आरोह में रिषम अल्प रहता है । 
कुशल सद्भीतज्ञ इस राग में तिरोभाव करते समय रे-ध को अधिक प्रयोग दिखाकर, 
कल्याणु राग का आभास दिखाते हैं, किन्तु पनिघ, सांनि, यह स्वर संगति और मध्यम का 
लोप इस राग को पहिचानने में सहायता देता है | शंकरा का स्वरूप विहाग से कुछ मिलता 
हे, किन्तु विहाग में मध्यम स्वर स्पष्ट होने के कारण यह उसस अलग हो जाता है। 


. २६-दुर्गा (खमाज थाट) 
जबहिं मेल खंमाज में, रिप सुर वर्जित कौन्ह । 
दोउठ निषाद संवाद गनि, ओड्व दर्गा चीन्ह | 


१६६ # सज्गीत पिशारद # 
नकद लाया साकार जताइरएभ ताए। ऋरजालरसाधााक ।पाका<रालमकाना कासक- फक:एप नर ३+००: आपदा तप का: ४३४ नहर: कार ार्ाद-ा7 पक >लााानयप;> 2७२: नारा +-मफरेव के 2 जनक .ाफए.. 


राग-हुर्गा 








| वर्जित स्व॒र--रे, प 


थाट--रखमाज आरोह--सा य मर घ नि सा 
अपरोह--सा नि ध मग सा ) 
जाति--ओऔड॒व ध पथ 
परकड--गसा निव निसा संग मध निव 
बादी--ग, सनादी-नि मग सा । 
स्वर--दोनों निपाद समय-रात्रि का दूसरा पह्दर 





दुर्गा राग के + श्रकार हैं, उपरोक्त प्रकार स्ममाज थाट का दँ. इसमें रे प वर्जित करके 
आओरुव जाति का मानते हैँ। दूसरा प्रकार त्रिलावल थाट का दुर्गा है, उसे भी हम नीचे 


दे रहे हें। ग्रमाज थाट के दुर्गा में धम की स्वर सगवि रक्ति वर्धक होती दूँ । कभी-क्रमी 
इसके आराोद में तीत्र निपाद का प्रयोग भी करते है । 


३०-दुर्गा (बिलावल थाट) 
मस वादी सवादि लखि, गनि सुर वजित मान । 
तयहिं ब्रिलाबल मेल की, दुर्गा ले पहचान ॥ 





राग-हुर्गा | पर्जित स्वर--ग, नि 
थाट--गिलावल | आारोाइ--सा रे म प ध सा 
जाति-ओऔड॒ब 


अपरोह--सा घ पम रे सा! 
बवादी--म, सम्बादी स 


प्रकड--प, मप, वमरे, प, साध, सारेंपव, मर्रेसा 
लि 5 समय-रात्रि का दूसरा प्रदर 





इ्स दुर्गा में गन्धार्‌ ऊे न होने से सोरठ का रूप मत्तऊने लगता दूँ, किन्तु सोरठ की 
आरोदी में रेव नहीं होते और इस राग में रेध मौजूद हैं, इसलिये यह उससे बच जाता है | 
इस राग में मध्यम स्पष्ट लगने से राग मिलता है। 
३१-शुद्ध कल्याण 
कल्यानहि के मेल में, चढते मनी हटाई। 
वही शुद्ध ऊल्यान है, गध सवाद सुहाड़ ॥ 





राग--शुद्धरल्यास वर्जित स्वर--आरोह में म, नि 


थाद--कल्याण आरोह-सा रे ग प वसा 

जाति--ओड॒ब सम्पूर्ण अवरोह--सा निघप म॑ ग रे सा 

जादी--ग, सम्बादी-व पकड--ग, रेसा, निधप सा, गरेपरे सा 
_-र४/ ब्यस्शोल के 3... | पी 0 


चार इस प्रकार प्रगट म्खि हैं -- 


ब रा 


* संगीत विशारद #. १६७ 


कि ० 0 अली 2 33333 233 23032 333333939,3०3 3५७०8 १33०0 ३५न३४५४१५४ ५०३४ लहं अल ल मल  परलसर कक 





इस राग की साधारण प्रकृति भूपाली के समान है। मनि यह दोनों स्वर यद्यपि 
आरोह में ही वर्जित हैं, किन्तु अबरोह में भी इन स्वरों को वर्जित करके बहुत से लोग 
इस राग को गाते हैं। अबरोह में यद्यपि तीत्र मध्यम भी लिया जासकता है, किन्तु इस 
स्वर को पंचम से गान्धार तक की मींड लेकर दिखाते हैं। जलद तानों में तीत्र मध्यम 
छोड़ दिया जाता है केवल निषाद अवरोह में कोई-कोई लेलेते है, इस कृत्य से भूपाली 
की भिन्‍नता दिखाई देजाती है। प-रे का मिल्राप रक्ति वर्धक होता है। इस राग में 
धेवत स्वर को भूपाली की अपेक्षा कम प्रयोग में लाना उचित है । 


३२--गोड़सारड “7 


दोऊ मध्यम लगि रहे, कल्यानहिं के अंग। 
गध वादी संवादि तें, बनत गोड़सारड् ॥ 





राग--गौड़ सारह्ग । वजित--कोई नहीं 

थाट--कल्याण आरोह--सा, गरेमग, पर्मंधप, निधसां 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सांधनिप, धर्मपग, मरे, प, रेसा 
वादी--ग, सम्बादी ध न पकड़--सा, गरेमग, परेसा | 
स्वर-दोनों मध्यम समय--दिन का दूसरा प्रहर 





इस राग में दोनों मध्यमों का प्रयोग होता है। यद्यपि इसमें गन्धार निषाद बक्र हैं 
किन्तु राग का मुख्य अज्ज गरे मग?” इस स्वर समुदाय पर आधारित है, इसलिये कई 
स्थानों पर ग-नि का चकृत्व छिप जाता है। तीत्र मध्यम केवल आरोह में ही लिया जा 
सकता है। अवबरोह में किंचित कोमल निषाद कुशलता पूर्वक ले सकते है । 


३३--जेजेबन्ती 


तीवर कोमल रूप दोठ, मनि के दिये लगाय । 
रिप वादी संबादि सों, जेजेबन्ति कहाय।॥ 





राग--जैजैवन्ती वर्जित स्वर--कोई नहीं 
थाट--खमाज आरोह--सारे गमप, निसां 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सांनिधप, धम, रेगरेसा 
वादी--रे, सम्वादी-प पकड़--रेगरेसा, निधप, रे 
स्वर-दोनों ग दोनों नि समय--रात्रि का दूसरा प्रहर 


जा 





इसके आरोह में तीत्र ग नि और अवरोह में कोमल ग नि लेते हैं, लेकिन कभी-कभी 
आम ५० 2 किक ऐ 
अवबरोह सें भी तीत्र गन्धार- लिया जा सकता है। कोमल ग॒॒ केवल अवरोह में ही 


१६८ # संगीत विशारद # 


ल्‍महन्‍्काकाशकरसता#यधाभाइरू्ा८ मसल :ह+५ व" पदक भथआा५ 5५; फता-सक३> 6७७५ १६0४००३७५५ ३३७४::ा करा 2 दवा भाप कद गधकारा पास नाम 





ले सफते हैं और यह स्वर तोना ओर से रे ग॒ रे इस प्रकार रिपभों द्वारा घिरा रहता है । यह 
राम सोरठ के अद्ढ रा दे। मनन्‍्द्र पचम और मध्य रिपभ का मिलाप इसमे बहुत अन्छा 
मालुम द्वोता दे। 


३४--पूर्वी 


रि घ कोमल कर गए, दोनों मध्यम मान | 
गनि वादी संवादि सों, राग पूर्वी जान॥ 


राग-पपूर्ती वर्जित स्व॒र--कोई नहीं 

थाठ--पूर्वी आरोह--मा, रेग, मंप, घ, निसा । 
जाति--सम्पूर्ण अपरोह--सा नि ध॒प, म॑, ग, रे सा ! 
बादी--ग, सम्बादी-नि पकड़--नि, सारेग, मग, म॑, ग, रेगरेसा 
स्वर--रे व कोमत, ढोनो मध्यम | समय--दिन का अन्तिम प्रहर 





स, ग, प, इन तीन स्परों पर इस राग की निचित्रता निर्भर दै। उत्तर भारत में 
फोई-कोई सद्लीतज्ञ इसमे तीत्र घैयत भी लेते हैं, तो कोई-कोर्ट दोनों बैथतों का उपयोग 
करते हैं। इम राग के अपरोह में कोमल म का प्रयोग गन्धार के साथ बहुत सु दर 
प्रतीत द्वोता हैँ । 


३४--पूर्याधनाश्री 


मध्यम दोच् लगाय कर, रिघ कोमल सुर मान | 
राग प्रियाधनाश्री, परि सवाद बखान || 





अप बर्जित स्व॒र--कोई नहीं 

आड-पुरषी आरोद--निरेगमंप, वप, निसा । 

शादि--सन्दू अपरोह--रेनिप्रप, मंग, मरेग, रेसा 

बादी--प, सम्बादी-रे 55 0086 08 

स्व॒र--रे थ कोमल, म॑ तीज 4320 है 
समय--सायकाल | 


यद्द राग पूर्दी से मिलता जुलता हे, डिन्तु पूर्वी में दोनों मा यम हैं और इसमें तीत्र 
मध्यम ही है, इस भेद से यद्द पूर्वी से बचा लिया जाता हैं। इम राग में म॑ं रेग तथा 
शुनिध्रप यह स्वर समुदाय राग दर्शक है! 


कक 2 5 कर बस 2०% मम) 


स्वचार इस प्रसार प्रमट किये हैं -- 


५ 


रु 


# संड़ीत विशारद # १६६ 








३६८-परज 
दोनों मध्यम लीजिये, रिध कोमल सुखदाई । 
सप वादी संवादि लखि, शुनिजन परज सुहाइ ॥ 





राग--परणज * वर्जित स्वर--कोई नहीं। 
थाट--पूर्वी आरोह--निसाग, म॑पधनिसां । 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सां, निधप, म॑प, मगरेसा | 
वादी--सां, सम्वादी-प ह पकड़--सां, निध॒प, मंपधप, गसग । 
स्वर--रे ध्‌ कोमल, दोनों म समय--रात्रि का अन्तिम प्रहर । 





यह राग उत्तरांग प्रधान है, अतः इसमें तार पड़ज की चमक बहुत सुन्दर मालुम 
देती है । इस राग की गति कुछ चंचल है, इसीलिये बसन्‍्त राग से यह अलग पहचान 
लिया जाता है। जब इस राग की कुछ तानें निषाद पर समाप्त की जाती हैं, तो यह 
और भी स्पष्ट हो जाता है। सांरेंसांरे, निधनि यह स्वर इसमें बारम्बार दिखाई देते हैं। 
धपगमग, म॑घनिसां यह स्वर समुदाय रागदर्शक हे। 


३७-पूरिया 
थाट मारवा में जबहिं, दीनो पंचम त्याग । 
गनि वादी संवादि सों, कह्यौ पूरिया राग ॥ 





राग--पूरिया वजित स्व॒र- प 

थाट--मारवा आरोह-न्रिसा ग म॑ध निरेसां 
जाति--षाडव अवरोह-सां नि ध म॑ ग रे सा 
बादी--ग, सम्वादी-नि पकड़-ग, न्रिसा, निधृनि मंधू, रेसा 
स्व॒र--रे कोमल, म॑ तीत्र समय-संधिप्रकाश काल (सायंकाल) 





इस राग का मुख्य चलन मन्द्र और मध्य स्थानों में रहता है । यह संधिप्रकाश राग है। 
निषाद और मध्यम की संगति इसकी शोभा बढ़ाती है। मन्द्र सप्तक में सा, निधनिमंग यह 
स्वर राग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । 


३८-सिदूरा 
गंनि आरोहन त्याग कर, कोमल गनी बखान । 
_सप संवाद बनाय कर, सुधर सिंद्ग जान॥ __ 


इलुकाशमक चार “"वकककलक लत कि जज णगा। चना ना अनन आधी लिलाणिनभनणण या 


१७० # संज्लीत विशारद # 
किक कल मकर... ॒कनायााइकामााा काका शाह भा एअाााा ताक मम 








...........है32ह8लन नी दी ननन न्‍धतञठञेींनञबी लता: उडेीीीझक्‍8बफ+ ॉल्‍नअल5य»५बअ बच  क इ  असक्‍उ5उस उस ल्इअनोीन आन 


राग--सिंदूरा वर्जित स्वर-आरोद में ग नि 
थाट--कापी आरेह-सा, रेसप, घ सा । 
जाति--ओड॒व-सम्पूर्ण अपरोह-सा, निधपमग रेमग रेसा 
वादी--स, सम्वादी प पकड़-सा, रेमप, ध, सा, निधपमग रेसा 
स्वर--नि ग॒ कोमछ समय-सायराल 





इस राग को सैंधवी भी फहते हैं। कोई-कोई गुणीजन निषाद के वर्जेल पर मतभेद 
स्तते हैं, अत आरोह मे कभी-कभी कोमल नि लेलिया जाता दै। राग विवोध में इसे 
“सिघोडा” ऐसा नाम दिया है। 


३६-कालिंगढ़ा 


रिध कीमल कर गाइछये, भरव थाट प्रमान | 
सप सम्बादी वादढ़ि से, कालिगडा पहचान ॥ 





राग-कालिंगढ़ा वर्जित स्तर-कोई नहीं 
थाट-मैरच आरोह-सारेगम, पघनिसा 
जाति-मम्पूर्ण अवरोह-सानिधप, मगरेसा 
धादी-प, सम्वादी सा पकड़-धप, गसग, नि सारेग, म, 
स्वर-रे घ कोमल ॥। समय-रात्रि का अन्तिम प्रददर 





. फालिब्डा गाते समय रे घ॒ स्प॒रों पर आन्दोलन अधिक देने से मैरव की मलक 
आने लगती है । इसीलिये इसमे पचम वादी ओर पडज सम्बादी मानते हैं, क्योंकि घैवत 
वादी होगा तो उस पर आन्दोलन भी अधिऊ होगे। परज राग से भी इसकी प्रकृति बहुत कुछ 


मिलती-जुलती है । 
४०-बहार 


चढत रि उतरत घा बरजि, कोमल कर गन्धार | 
दोठ निपाद, सवाद मस, पाडव राग बहार ॥ 


बिच ख़  ख़़झ%ओ ख़िख़ो?़ री चित?>-”ी:-लकक्‍बॉ नतः्ज._ल....3..... 


राग-बहार वर्जित स्वर-आरोहद मे रे, अवरोह में घ 
थाढ-काफी आरोह-सा, गम, पगम, नि धनि सा | 
जाति-पाडव-पाडव 


;; अवरोह-सा, निपसप, गुम, रेसा । 
प्रकड-सपयाम, ध, निसा 
समय-मध्यरात्रि 


वादी-स, सम्वादी सा 
स्व॒र-ग कोमल, निपाद दोनों 


कक आ सी 7 का | 
ध्वचार इस पपार प्रगट शिये हैं -- 


3 40 अंडर िमतट पहन ६ शक: 


६ चऑ> 


# संगीत विशारद # १७१ 








इसका गायन समय शास्रों में यद्यपि मध्य रात्रि का दिया गया है, किन्तु बसंत ऋतु 
में यह राग चाहे जिस समय गाया-बजाया जा सकता है, ऐसा सद्भीतज्ञों का मत है। _ 
ख्याल गायकी में ' कहीं-कहीं दोनों धेंवत ओर दोनों गन्धारों का प्रयोग भी इस राग में 
या जाता है । इस राग में म॒ ध की सद्गभाति भल्ी मालुम देती है। निनिपम, पग॒, म, ध, 
निसां, यह स्वर समुदाय बहार में बार-बार दिखाई देता हे । 


४१-अड़ाना (7 


कोमल गध, दोउ नी लगें, सप सम्बाद बताहि । 
चढत ग, उतरत धा बरजि, राग अडाणा माँहि ॥ 





राग-अड़ाना दा वर्जित स्वर-आरोह में ग, अवरोह में घ 
थाट-आसावरी आरोह-सारेसप, घनिसां | 

जाति-षाडब ह अवरोह-सांधनिपमप, गम, रेसा 
वादी-सां, सम्वादी प पक्रड-सां , धु, निसां, घ, निपमप, गमरेसा 
स्व॒र-ग॒ ध्‌ कोमल तथा दोनों निषाद '.._| समय-रात्रि का तीसरा प्रहर 





कोई-कोई ग्रन्थकार इस राग में तीत्र धेबत लगाते हैं और इसे काफी थाट का 
राग मानते हैं। इस राग का आरोह करते समय गान्धार छोड देते हैँ। किन्तु आरोह में 
गन्धार ''निसागुम” इस प्रकार ग्रायः लिया जाता है। अवरोह में “गुम रे सा” इस प्रकार 
बक्र गंधार है | मध्य ओर तार सरप्रक में इसका विस्तार अधिक है | 


४२-धानी 


वादी गा, संवादि नी, गनि सुर कोमल जान | 
रिध वर्जित कर गाइये, औड़व धानी मान 





वर्जित--रे, ध 
संग ल्टवीनी ५ आरोह--सा, ग॒मप, निसां | 
थाट--काफी मम मो अत 
न > अवरोह--सां, निप, मग॒, सा । 
जाति--ओऔडव 


पकड़--निसाग, सप, निसां, सांनिप 
मग॒, सा । 
-। समय--सर्वकालिक 


वादी--ग, सम्वादी नि 
स्व॒र--ग नि कोमल 





कोई-कोई गायक धानी के अवरोह में थोड़ा सा रिपभ लेते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में 
भी धानी का उल्लेख मिलता है। सद्भीत पारिजात में रे वर्जित तथा रेध वर्जित इस प्रकार 
घानी के २ रूप दिये है । 


> 
४-4 कपूर “--+कुपाभाकाभुवाहवदकर-+ ७ 7“-क०प१३एरनरीनकन-- नी टणक+++फ जनक कक... >+लत--- ॥ १ कल डक अप कप. 22% 4 «हा कल 5०. 22 


श्छर # सड़ीत विशारद # 








9३-मांड़ 
सप वादी सम्बादि कर, नी स्वर कंपित होड़ । 
शुद्ध और सम्पूर्ण है, मांड राग कह सोह ॥ 





राग--माड च्जित-ऊफोई नहीं 

थाट--विज्ञावल आरोह--सगरेमग पमरधप निवसा । 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--साधनिप धमपग मसा । 
वादी--सा, सम्बादी प प्रकड--सा, रेग, सा, रे, ममप, ध, पंथसा ! 
स्वर--शुद्ध समय--सर्वकालिक 





यह राग मालवा ( राजस्थान ) प्रान्त से उत्पन्न हुआ है, इसका स्वरूप वक्त ह्दै। 
इस राग में स, म, प यह स्वर अत्यन्त सहत्वपू्ण हैं, निपाद पर कम्पन इस राग की 
विशेषता दै | आरोद में रे - ध स्वर दुर्बल हैं, अवरोह में वक्र हैं। जैसे सग, रेम, गप 
इत्यादि । 


गे 44 

४४-गोड़ मरहार «८ 
गनि के दोनों रूप लखि, चढते अल्प सम्दार | 
मस्त वादी सवादि ते, कहत गोडमल्लार ॥ 





राग--गौडमल्हार चर्जित--कोई नहीं 

थाट--काफी आरोह--सा, रेमप, धसा । 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सा निपमपगमरेसा | 

वादी--म, सम्वादी सा प्कड-रेगरेमगरेसा, पम्प घस्रा धपम । 
स्वर--होनों गनि समय-दोपहर दिन, वर्षाऋतु में प्रत्येक समय 





इस राग के बारे में २ मत हैं। एक सत इस राग को काफी थाट का मानता है... 
तो दूसरा मत इसे समाज थाट का बताता है। यह मतभेद लेकर गन्धार स्वर के बारे 
में दोनों मत अपने विचार भिन्न रखते हैं। ख्याल गायक तीत्र गन्धार लेते हैं और 
प्रुपद के गायक कोमल ग॒ लगाते हैं, एवं ऊमी-कभी दोनों गन्धारों का प्रयोग भी इस राग 
मे 2 देता है! यह मीसमी राग है, अत इसके गीतों में प्राय वर्षाछृठ का बख न 
मिलता दे । 


9५४-भिमोटी 


गा वादी, संवादि नी कोमल लियो निपाद ! 
राग मिक्रोटी गये, प्रथम रात्रि के बाद ।॥। 


8 ०» नडत हे जो हु 
० 


प्यचार इस प्रशार प्रगट झिये ई-- 


जा जी: 


% संगीत विशारद # |, १७३ 








राग--मिमोटी ;क्‍ वर्जित--कोई नहीं 

थाट--खसाज आरोह---सारेगम पघनिसां । 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सां निधप मगरेसा । 
वादी--ग, सम्बादी नि पकड़--धुसा, रेस, ग, पसगरे सानिधृप्‌ 
स्वर--नि कोमल समय--रात्रि का दूसरा प्रहर 





यह खमाज थाट का आश्रय राग है। इस राग का विस्तार मन्द्र व सध्य सप्तक 
में विशेष रूप से रहता हे । “धूस, रे मग,” यह स्वर समुदाय राग वाचक है । 


४६-श्रीरीय 


आरोही ग ध बरज कर, रिध कोमल, मा तीख । 
रिप वादी संवादि ते, श्रीरीग को सीख ॥ 


राग--श्री वर्जित--आरोह में ग, ध 

थाट--पूर्वी आरोह--सा, रे, मंप, निसां | 
जाति--ओऔडुब सम्पूर्ण अवरोह--सां, निध, पर्मंगरे, सा । 
वादी--रे, सम्वादी प पकड़--सा,रेरे, सा, प, म॑गरे, गरे, रे, सा । 
स्व॒र--रे, ध्‌ कोमल, म॑ तीत्र समय--सायंकाल ( सूर्यास्त ) 


यह बहुत गंभीर और लोकप्रिय राग है। रे-प की सन्नतति जब इस राग में 
करते हैं, तब यह बहुत मधुर मालुम होता है। “सा ग रे रे सा” यह स्वर समुदाय 


(क-] 


इसमें प्रिय मालुम देता हे । 
२७-ललित 


दो मध्यम, कोमल रिषभ, पंचम वर्जित जान । 
- सस वादी संवादि सों, ललितराग पहिचान ॥ 





राग--ललित पे वजित--प 

थाट--मारवा आरोह--निरेगम मंसग म॑धसां 
जाति--पघाड्व अवरोह--र निध म॑ध म॑मग रे सा 
वादी--म, सम्वादी सा पकड़--नि्रिगम घर्मधर्मम ग 


स्व॒र--कोमल रे, दोनों म समय--रात्रि का अन्तिम प्रहर 





१७४ # सद्गीत विशारद # 








इस राग से वर्म धर्म यह स्वर प्रयोग तथा निरेगमर्ममग, यह सर्वर समुदाय 
राग की विशेषता को व्यक्त करने हैं। कुछ मथों में इस राग में फोमल वैवत लिया है, 
रिन्तु इधर तीत्र भैयव ही लिया जाता हूँ । 


४८--मियांमल्‍लार 


गा कोमल, सम्बाद मस, उतरत बैवत टार | 
ढोउ निषाद के रूप ले, कहि मीयां मल्लार ।। 





राग--मियामल्लार | ब्जित--अवरोह में-व | 

थाटद--कराफी आरोह--रेमरेसा, मरे, ५, निय, निछ्ता । 
जाति--सम्पूर्ण, पाडव । अवरोह--सानिप, मप, गम, रेसा 

बादी--म, सम्बादी-सा पकड--रेमरेंसा, निपमप, मिधनिसाप, गुमरेसा। 
स्व॒र-दोनों निपाट, गु कोमल समय--अश्य रात्रि । 





फ्रानड्ा और मल्लार के सयोग से यद्द राग बना ुँ। इस राग में दोनों निपाद 
लगते हैं और ऊमी-क्रभी कुशल गायक एक के बाद दूसरा निपाद बराबर लेकर भी 
राग द्वानि से इसे बचा लेते हैं। इस राग फा आलाप विलम्बित लग में करके जब 
इसका विस्तार मन्द्र स्थान में होना दे, तय बढ़ा सुन्दर और कर्णप्रिय लगता दै। कहते हैं 
ऊि थह्‌ राग मिया तानसेन के द्वारा आधिप्कृत हुआ दँ। वादी सम्बादी के बारे में छुछ 
लोगीं का मत बादी सा, सम्बादी प के पत्ष में है, किन्तु भावसण्डे के अनुवायी अधिकतर 
मे वादी तथा सा सम्वादी ही मानते हैँ। 

हो 


४६--दरवारी कान्हड़ा >> 


गधनी कीमल जानिये, उत्तरत घबत नाहिं। 
सुन दढरबारीफान्हरा, रिप सम्बाद चअताहिं॥ 


राग--दरबारी काहडा वर्जित स्वर--अबरोह में ध 





थाट--आसायरी आरोह--निसारेगरेसा मप व॒निसा । 
जाति--पम्पूर्ण पाडव अवरोह--सा धमिप मप गु, मरेसा । 
चादी--रै, सम्वादी-प परूड--म, रेरे, सा, व, निसा रे, सा। 
स्वरा ध॒ नि कोमल समय--मध्यरात्रि । 








इस राग में गाघार दुर्बल है, अत गुणी लोग 'जलद ओर सीधबी वानों में इस 
स्वर को चिनरकुल दी छोड़ देते हैं। गन्धार पर आन्दोलन इस राग की विचित्रता बढावा दै। 
निप डी सगत इसमे नही प्यारी लगती दै। कहते हैं कि मिया वानसेन ने यह राग तैयार 
फरके दरबार में अर्तर बादशाह को सुनारर प्रसन्‍न क्या था। 


क्दचार इस भर्ार प्रगट किये हैं -- 


# सड्रीत विशारद # १७५ 








५१० -तोड़ो है 


रिगधा कोमल, तीव्र मा, धग संवाद बखान | 
सम्पूरन तोड़ी कही, द्वितिय प्रहर दिन मान ॥ 


राग--तोड़ी वर्जित स्वर--कोई नहीं । 

थाट--तोड़ी आरोह--सा, रेग॒, मंपध॒, निसां-। 
जाति--सम्पूर्ण अवरोह--सांनिधप, मंग॒, रे, सा | 

वादी--घ, सम्बादी ग पकड--धृवनिसा, रे, ग॒, रे, सा, म॑ ग॒, रेग॒, रेसा । 
स्व॒र--रे ग॒ ध कोमल, म॑ तीत्र | समय--दिन का दूसरा प्रहर | 





इस राग में पंचम स्वर का प्रयोग कुछ कमी के साथ करना चाहिए। नये विद्या- 
थियों को यह राग गाते समय, विकृत स्वरों का उचित स्थानों पर उपयोग करने में कठिनाई 
पड़ती है | इस राग की विचित्रता रे, ग॒ तथा ध्‌ इन तीन स्वरों पर निभर है। तोड़ी कई 
अकार की प्रचलित है, किन्तु राग तोड़ी के लिये तोड़ी शुद्ध तोड़ी, दरंबारी तोड़ी अथवा 
मियां की तोड़ी यह नाम लिये जाते हैं। इनके अतिरिक्त विल्लासखानी तोड़ी, गुजरी तोड़ी 
देसी तोड़ी, आसावरी तोड़ी, गान्धारी तोड़ी, जौनपुरी तोड़ी, बहादुरी तोड़ी, लाचारी तोड़ी 


इत्यादि जितने नाम हैं, वे इस राग से भिन्‍नता रखते है अथात्‌ वे राग बिलकुल अलग- 
अलग हैं । 


५११-मलताना 
कीमल रिगधा, तीत्र मा, पस सम्बाद सजाइ । 
चढ़ते रिध को त्याग कर, घुलतानी सममकाइ ॥। 





राग--मुलतानी ु वर्जित स्वर--आरोह में रे ध । 
थाट--तोड़ी आरोह--निसा गुर्मप निसां | 
जाति--ओऔडुव सम्पूर्ण अवरोह--सां निधप म॑ग॒ रेसा | 
वादी--प, सम्बादी-सा पकड़--निसा, मंग, पग॒, रेसा । 
स्वर--रे ग॒ घ॒ कोमल, स तीत्र समय--दिन का चोथा प्रहर । 





तोड़ी की तरह इस राग में भी रेग ध का प्रयोग बड़ी कुशलता से करना 
होता है| इन स्वरों के ग़लत उपयोग से राग का स्वरूप बदल सकता है ओर तोड़ी की 
छाया आ सकती है । मुल्ञतानी में म ग की सदड्गत और पुनरावृति होती है। काफी थाट 
से आगे सन्धिप्रकाश रागों सें प्रवेश करने के लिये यह राग अत्यन्त उपयोगी है | इस राग 
में सा प नि विश्वान्ति स्थान माने जाते हैं ।. प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में भी तीत्र मध्यम की 
मुलतानी पाई जाती है । 


|. मे आर कल मम न कल न न आम न नजर भजन फ मल 


पअालीनकनन+-कम+अ>>>लक्‍क+ण कान %। 


2] 


१७६ # संड्रीव विशारट # 








५२-रामकली 


भैरव के ही मेल में, मनि ढोठ रूप लखाय । 
रिप कोमल सम्बाद पस, रामफली बन जाय ॥ 








राग--रामकली बर्जित--कोई नहीं 
थाट--मैरव आरोह--साग मप बनिसा | 
जाति--सम्पूर्ण | अबरोद--सानिध पर्म पधुलिध पगमरेसा । 


| 
बादी-पचम, सम्पादी पठज । पक्--धुप मंप धुनिधएग मे रेसा । 
स्व॒र--रे थ कोमल व मनि ठोना..._ | समय--प्रात काल । 





रामकली का साधारण स्वरूप मैरव राग के समान दै। रामकल्ली के कई प्रकार 
सुने जाते हैं | एक प्रकार मे म नि आरोह में वर्जित हैं, इस प्रकार को शास्राधार तो दै, 
फिन्तु प्रचार मे बहुत कम ढिय्याई देता है। 

रामफली का एक और प्रकार है, जिसके आरोह-अबरोद्द में सातों स्वर लगते हैं, 
किन्तु यह प्रकार मैरव से मिलन जाता है, उससे बचने के लिये इस प्रकार में गुणी लोग 
एक परिवर्तन यद्द बताते हैँ कि मैरव का विस्तार मन्द्र ओर मध्य स्थान में रहना चाहिए 
आओर रामकक्षी का मध्य ओऔर तार स्थान में विस्तार होना चाहिए। 

रामकली का एक तीसरा प्रकार भी दे, जिसमे दोनों म और दोनों नि प्रयोग ऊिये 
जाते हैं, यह प्रकार र्याल गायों से प्राय सुनने को मिलता है । इस प्रकार में तीज्र मे 
आर फीमल नि इन दोना स्वरों का प्रयोग एक अनूठे ढग से होता है। मंपधनिधप, गमरेसा 
इस प्रकार की तान रामऊली के इस प्रकार में प्राय मिलती हैं । 

उपरोक्त वर्शित प्रकारों के कारण इसके बादी सम्बादी मे स्री मतभेद होना स्वाभा- 
विक है, किन्तु दोनों सध्यम ओर दोला निपाठ वाले प्रकार में वादी पचम ओर मम्बादी 
पडज मानना हि 2 ऐसा ही भातसपण्ड पद्धति फे अनुयायी भी मानते हैं। 


५३--विभास ( भैरव थाट ) 
जन मैरव के मेल सों, मनि सुर दिये मिफ्रास । 
रिध फोमल, सम्बाद धग, औड॒व रूप विभास ॥ 





राग--विभास वर्जित--म नि 

आट--मैरव आरोइ--सा रे ग प धप सा 
जाति--आओडुव अवरोह--सा धर प गपधप गरेसा 
चादी-- २, झम्वादी ग॑ पकड--थ, प, गप, गरेसा 
स्वए-रे घु जोमल समय--पश्रात काल 


पबचार इस पार प्रगट किये हैं - 


# सड्ीत विशारद # १७७ 


<यवाह॥ा#ए/क्ाराकपराआाक कराता का दा पता दक उयाए लापता थामा भाएतसअ पका अर काउ अप २2 त कराकर कप यकक पक मा रत उमम कार लकलउ_पअपधद रात कप दाबअमाका 


कैली कमर क च०-५ उनके ज--8५-स “७.५ +अनिननमन- ५3 3 पनट न जन रन अाआआ 


जिन रागों में म नि वर्ित होते है उनमें ग प की संगत बहुत प्रिय मालुम होती है । 
यह उत्तराद्ध प्रवान राग है | विभास में जब घेवत लेकर पंचम पर राग समाप्त होता है तो 
शताओं की बड़ा आनन्द आता दे । विभास की तरह ही सायकाल का एक राग “रेबा” 


है किन्‍्त रेवा में ग॒ वादी है ओर विभास में थ वादी हैं। इस भेद से गुणोजन विभास 
ओर रेवा को अलग-अलग दिखा देते हैं । 


इसके अतिरिक्त “विभास” नाम के २ राग ओर हूँ। एक विभास पूर्वी थाट का है 
आर एक मारवा थाट का, किन्तु उपरोक्त विभास भेरव थाट का है अतः उससे इस विभास 
का कोई सेल नहीं | न 
५४--पीलू 


गृ थ नी तीनों सुरन के, कीमल तीचर रूप । 
गनि वादी संवादि लखि, पीलू राम अनूप ॥ 








राग-न्पीलू 
थाट--काफी 
जाति--सम्पूर्श 
बादी--ग, सम्बादी नि 
स्वरर--सभी लग सकते हैं 


| चर्जित--कोई नहीं 

-सारेग सपधप निधपसां 
। अवरोह--निधपसग, निसा । 

। पक्रड़--निखागनिसा, पश्चनिसा | 
। समय--दिन का तीसरा प्रहर 


पील राग को सभी पसन्द करते हैं। भरवी, भीमपतलासी गौरी इत्यादि रागों 
मिश्रण से इसकी रचना हुई है | अतः बारहों स्वर प्रयोग करने की इस राग में छूट है 
तीज स्वरों का प्रयोग प्राय: अवराह में अधिक किया जाता है । 


पू+--भीपा 
ओडइव सम्पूरन कहत, आरोहन गनि त्याग | 
म्त वादों सम्बादि ते, सोमित आसा राग ॥ 





राग--आसा 
धाट--बिल्ावल 
जाति--श्रीडुव संपूर्ण 
यबादी--म, संबादोी सा 
स्व॒र--शुद्ध 


: चर्जित--आरोह में गनि 
, आरोह--सा रे मप॒ ध सां 
। अवरोह्ट--सांनिधप मगरेंसा 
कऋड़--रेसपथ सानिधपमगरे सारेगसा निधसा 
समय-रात्रि का दूसरा प्रहर 





४४ >ेकाओए. परसनंधटरंकार। 





कक जि हु३ ष्यु ॥एल्‍ल्‍शशनशए्ा्शआ्ा॥ल्‍क्‍७एएएा्ाआआाआाााएए्रणाआाए् नए "थामा भा 2 ललवअरकक लव कल लीलकि “ऋचा उनका पाशकराााााक्आथक ५ 
इसम सभा शुद्ध सत्र का अंग हाता 8। इस राग झा अरबी सासक राग से 
ब्रदान में सावधानी बरतनी पड़ती हूं। आसाः! के 


या आरोह में गति का प्रयाग अल्प 
धपवा बसित हाता है | 


५६--पटदीप 
गा कामल सम्बाद पस, चढ़ते रिध ने लगाय | 


ऋ) रत कर्क. जोक 


श्छ्द % सद्लीत विशारद # 


मापा" सर 0 ४७८५रनकाजश१०:-पहा: ८ एन" राधा; ३९५६४ "कार पक मापन परआ८ पाना स०मारमकयाशाना2 पर फ्मकाए०१८क पदक सच गम नजर पका का कु कक 





...........3.3.3._3ेेनाननननननन- नमन नमन नानी लत ननननननननननननननननन__ंन_न मनन न न निनानननीनननानिनन न निनिनननन+-++ननममनीनननननाननननभननननननननननन-3:। 


राग--पटटीप वर्जित--आरोद में रे ध 
थाट--काफी आरोह--निसा गम पनिसा 
जाति--ओड्बव सपूर्ण अवरोह--सानिधप मगरेसा 
बादी--पचम, सवादा पड़ज पक्ड--साग मगरे सानि, सागरेसा 
स्वर--कोमल गन्धार समय--साय काल 


यह राग भीमपलासी से बहुत कुछ मिलत-जुलता दे, किन्तु भीमपलासी में कोमल 
निपाद है और इसमे शुद्ध है। इस कारण कोमल निपाद का बचाव फरके इसे गाना चाहिये । 
इसी प्रकार का एक राग पटदीपकी ( प्रदीपफी ) नामक री मातसण्डे की क्मिक छटी 
पुस्तक में मिलवा है, किन्तु उसमें फोमल निपाद तथा दोनों गन्धार लिये गये है, इससे वह्‌ 
प्रकार अलग ही है । 


पटदीप राग में निषाद पर विश्राति लेकर इस निपाद से ही जोडकर साग़रेसा यह 


स्वर समुदाय लेना चहिये, ऐसा मत भी पटवर्घन जी का है ्‌ टन 
५७--रागेश्री ( रागेश्वरी ) 
आरोहन परि वर्ज्य कर, उतरत पंचम हानि | 


दोऊ नी, सम्बाद गनि, रागेश्वरी बखानि॥ 


राग--रागेश्री वर्जित--आरोह में परे, अवरोह में-प 
थाद--समाज आरोह--साग मधनिसा 
जाति--ओडुब-पाडव अवरोह--सानि धम गरेसा | 
बादी--ग, सवादी नि पकड--गमधनि सानिध5 मगरेसा | 
स्व॒र--होनों निपाद 


समय--सात्रि दूसरा प्रदहदर 


इसमें पचम स्वर तो चिल्कुल नहीं लगता ओर आरोह में रिपम भी नहीं लगाया 
जाता। घम की स्वर सगति इसमें बहुत सुन्दर मालुम होती है । उत्तराद्ग में बागेश्री का 


आभास होता है ऊिन्तु पूर्वाद्न मे आया हुआ तीत्र गवार वागेशी का श्रम हटा देता है, 
क्योंकि बायेश्री में कोमल गधार लगता है । 


५४८-पहाड़ी 
ओडुव करके गाइ्ये, मनि को दीौजे त्याग । 
सप वादी सम्बादि ते, कहत पहाडी राग ॥ 


राग--पहाडी चर्जित--मनि 
थाट--चिलावल आरोह--सारेगप वसा 
जाति--ओडुव अवरोह--साधप गप गरेसा 
>-पोदी--पढज, सवादी-पचम पकड--य, रेसा, धृ, पवसा। 
पर-शद्ध ही _ | साथगा--मसर्रकालन्निफ 


सैचार इस प्रशार प्रगट किये हैँ -- ह 


नजारा 
ड हक 


# संड़ीत विशारद # १७६ 


बांतकाा का 242 क्रारण ० ाा/ ताप रा इभका उन लाख प कत्ल 5 > उप पकमतब्रकाला कारक 4 उ ५ ८न्‍दघ कस लाापलातााउपा पान उतपपारहकक परम या /चपआ लहर प कहक 





इस राग में मध्यम और निषाद स्वर इतने दुर्बल हैं कि उन्हें वर्जित ही कहना उपयुक्त 
होगा । जब इस राग में भूपाली की छाया दिखाई देने लगती है तो चतुर गायक इसके 
अवरोह में थोड़ा मध्यम गमग रे सा इस प्रकार लगाकर भूपाली से इसे बचा लेते हैं। 
मन्द्र सप्तक के घैवत पर विश्रान्ति लेने से इस राग का सौन्दर्य बढ़ता है | 
५६-जोगिया 
आरोही वर्जित गनी, अवरोहन गा त्याग । 
रिवध कोमल, सम्बाद मस, कहत जोगिया राग ॥ 


राग--जोगिया वर्जित स्वर--आरोह गनि, अवरोह ग 
थाट--मैरव आरोह--सा रे म प घु सां 

[ तो बाप ] 
जाति--ओऔडव-षाडव अवरोह--सां निध प ध मरे सा 
वादी--म, सम्वादी-सा 


सा 
पकड़--म, रेसा, सारेरेमरेसा 


स्वर--रे घ॒ कोमल समय--प्रात;काल 





रे म ओर धम की स्वरसज्ञति इस राग की रंजकता बढ़ाती है। मध्यम स्वर मुक्त 
रखने से यह राग विशेष अच्छा लगता है। सद्भीत मर्मज्ञों का कहना है कि इस राग की 
रचना भैरव ओर सावेरी के संमिश्रण से हुई हे। सावेरी राग कर्नौटकी अंथों में पाया जाता है । 

भातखंडे मतानुसार इस राग के अवरोह में क्रिसी-किसी स्थान पर कोसल निषाद 
लेते हुए कोमल घैवत पर आते हैं। 


६०--मैधमस्लार 
जब काफी के मेल सों, धग सुर दीने ठार | 
दोउ निषाद, सम्बाद सप, ओड॒व मेघमल्हार ॥ 








राग--मेघमल्लार वर्जित--धैव॒त, गन्धार । 
थाट--काफी आरोह--सा मरे मप निनिसां | 
जाति--ओऔड॒ब अवरोह--सां नि प मरे मनि रेसा | 
वादी--सा, सम्बादी-प पकड़--मरेपमरेसा, निपनिसा । 
स्वर--दोनों नि, बाकी शुद्ध समय--रात्रि का प्रथम प्रहर | 

हिला 








मरेप यह स्वर विन्यास मेघमल्लार की विशेषता है। रिषभ स्वर पर होनें वाला 


आन्दोलन इस राग की सुन्दरता बढ़ाकर राग का स्वरूप व्यक्त करता है। यह आन्दोलन 
ममम 


«०. २? रे रे! ईस प्रकार रिषभ पर सध्यम का कण लगाकर कई बार क्रिया जाता है। सध्यम 
पर अनेक बार विश्रान्ति होती है, जिससे सारद्भा राग की छाया दूर होती है। इस राग सें 
घेवत लगाकर भी कोई-कोई गायक गाते हैं। 


बिक न 


'सययाााशपाल धरालशमकाममाथ2 ;जवहा्यायाकरद# 0कपलारमफका, 
"जन लीन “कसम वन री_ कम» मनन नमन + नम ७०» >मकनकान+»मननम+> कर न 





29७४ #/9७ए"॥0॥0॥॥ 4७७0७" ७७७७७७४७छछएछएछएऋ़ऋ्ए्शशखि 








>क्ूय+ ४53० छत नजतलन्क नल आसन. 3 ऑकिजननफनए जज कक लभनललनिन नम ला ++ जनन, 


5 %3४ 


लाछ-गानहाए-लुख चिद्श- 


डत+कपरक---व.--+ 


ताल---जिस आधार पर गायन बादन ओर नृत्य होता है, उसकी क्रिया नापने 


को ताल कहते हैँं। जिस प्रफार भाषा में व्याऊरण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार 
सड्ीत में ताल की आवश्यकता होती है। गानें-यजाने ओर नाचने की शोभा ताल से 
ही है। यथा -- 


वालस्तल्ग्नतिष्टायामिति धातोध॑जि स्पृतिः | 
गीत वाद्य तथा नृत्य यतस्ताले ग्रतिष्ठतम्‌ | 


ताल शब्द “तल' घातु ( प्रतिष्ठा, स्थिरता ) से वना है। तबला, पस्रावज इत्यादि 
ताल वाद्यों से जब गाने के समय को नापा जाता है, तो एक विशेष प्रकार का आन प्राप्त 
होता है, वास्तव मे ताज्ञ सद्भोत की जान है। ताल पर ही सब्लीत की इमारत स्डी 
हुई है । 


सात्रा--प्रात्रा ताल का ही एक हिस्सा है, क्याक्रि मात्राओं के योग से ही समस्त 
दालों की रचना हुई है। एफसी लग या चाल मे मिनती गिनने को सात्रा कह सकते हैं। यदि 
घड़ी की एक सैर्किंड फो हम एक मात्रा मानले तो १६ सेकिंड में तीनवाल का ठेका बन 
जायगा, १२ सैंकिंड मे एकताला का ठेका बन जायगा | १० सैक्रिंड से मपताल ही जायगी। 
इसी प्रकार बहुत सी ताले बनी है | 


मुरय लय तीन प्रफ़ार की होती हें-- (१) विलम्बितलय (२) मध्यलय 
(३) द्वतलय | 


(१ ) विलम्बितलय--जिस लय की चाल बहुत धीमी हो उसे बिलम्बितलय कहते हैं। 
विलम्बितलय का अन्दाज, मध्यल्य से यों लगाया जाता दै--मान लीजिये एक 
मिनिट मे आपने एकसी चाल से 5० तक गिनती गिनी, उसे अपनी मध्यलय मान 
लीजिये । इसके बाद इसी एक मिनट में समान चाल से ३० तक गिनती गिनी तो इसे 
बिलम्बितलय ऊहेगे, अर्थात्‌ ३० तक मिनती जो गिनी गई उसकी लय, वनिस्वत 
६० वाली मिनती के घीमी हो गई अर्थात्त्‌ प्रत्येक गिनती में कुछ देरी लगी | 
“विलम्ब” का अर्थ है देरी | 


(२) मध्यलय---जिस लय की चाल विलम्बित से तेज ओर ट्र॒तलय से कम हो उसे 
मयलय कहते हैं। यह लय बीच की होती हैँ । बीच का ही अर्थ हैँ “मध्य” । 


(३ ) दृतलय---जिस लय फी चाल विलम्बितलय से चौगुनी या मध्यलय से डुगुनी हो 
उसे द्रुततय कहेंगे ) ऊपर मध्यलय में बताया गया था कि १ मिनिट में सामान चाल 
से ६० तक गिनती गिनकर मध्यलय कायम की गई है, अब यदि १ मिनट में 


रघचार इम प्ररार प्रगट किये है -- 


कट मय 


# सड़ीत विशारद # श्८्र९ 





१२० तक फीनती गिनी जायंगी तो निश्चय है कि गिनती की चाल तेज हो जायगी और 
तेजी का अथ है “द्रुत” । 


नल ठेका--तबले या मृदड् के लिये प्राचीन शास््रकारों ने सिन्‍न-भिन्‍्त बोल वैसी दी 
भाषा में बसा .दिये जो कि उन ताल वाद्यों से प्रकट होते हैं। उन्हीं बोलों को जब हम, 
तबला या सृदड़' पर बजाते हैं, तब उसे ठेका कहते हैं। ठेका १ ही आदृति का होता है, 
जिसमें मात्रा यें निश्चित होती है, उन्हीं निश्चित मात्राओं के अनुसार गाने-बजाने का नाप 
होता है। जैसे कहरवा ताल में ८ मात्रा हैं और इसके २ भाग हैं। प्रत्येक भाग में ४-४- 
मात्रा हैं, पहिली मात्रा पर सम और पांचवीं पर खाली है | इसे इस प्रकार लिखेंगे:--- 


सात्रा-- १ २ ३ 2 ५ ध्‌ ७ पर 
ठेका-- धा गि ना तु. ना के घधि न 
तालचिन्द्र +- ० 


__53क +*छई + ७ ७ ७ ७-७->->->->->->2>2>232२2३02३2020]ू]ूट टला 


कप ७ ठेके ष्प् गा 
यह कहरवा का ठेका हुआ, इसी प्रकार अन्य बहुत सी ताल्ों के ठके है। 


दुगुन--किसी ठेके को जब दूनीलय में बजाया जाय, यानी जितने समय में कोई 
ठेका एक बार बजाया गया था उतने ही सम्रय सें उसे २ बार कहा जाय या-बजाया जाय तो 
उसे दुगुन कहेंगे । इसी प्रकार किसी गीत की स्थाई या अन्तरे को जितने समय में गाया 
जाय ओर फिर उतने ही समय में उसे २ बार गा दिया जाय तो वह दुगुन' कहलाती हे । 


विशुन, चोशुन---इसी प्रकार जब कोई ठेका या गीत १ मिनट में १ बार बजाया 
जाय और वही ठेका या गीत उतने ही समय में अथाोत्‌ १ मिनट में ही ४ बार बजाया जाय 
या गाया जाय तो उसे चौगुन कहेंगे। एवं १ मिनट में ३ बार गाया-बजाया जाय 
तो तिगुन कहेंगे । 


. आड़ी--कोई ठेका या गीत जिस मध्यलय में गाया बजाया बाय उससे डयोढीलय 
में गाने-बजाने को आड़ी कहेंगे | मान लीजिये १ मिनट में ३० तक गिनती गिनी जा रही है 


05% 


ओर जब एक मिनट में ६० तक गिनती गिनने लगें तो वही आड़ी' कहलायेगी । 


क्वाड़ी---जिस ठेके की गति मध्यलय से सवाई होती है उसे क्वाड़ीलय कहते हैं। 
जैसे १ मिनट में ६० तक गिनती गिनी जारही थी और जब १ मिनट में ही ७५ तक गिनती 
गिनी जायेगी तो उसे 'क्वाड़ी? कहेंगे । 


. वियाड़ी--इसी प्रकार एक मिनट में १०५ तक गिनती गिनी जायगी तो “ियाड़ी! 
अर्थात्‌ पौने दुगुनी लय हो जायगी। लय का विशेष विवरण आगामी प्रष्ठों में ताल के . 
साथ दिया गया है । के 


. सम--क्िसी ताल का वह स्थान जहां, से गाना बजाना या-ताल का ठेका शुरू 
होता है ।. गायक वबादुक ऐसे स्थान पर सज्ञत करते हुए जब मिलते हैं तो एक विशेष प्रकार. 
का आनन्द आता है और ओताओं के मुँह से अनायास ही आए निकल जाती है 


मी निशा 





श्च्र # सद्ीत तिशारद # 








था उनऊे शरीर का कोई अदब्ठ द्विल जाता है। समः पर गायक चादऊ विशेष जार देकर उसे 
अदर्शित करते हं। श्राय सम पर ही गाने बजाने की समाप्ति भी दोती दू। सम को 
न्यास भी कहते हैं । 

खाली--पत्येफ ताल के बच हिस्से होते हें जिन्हे भाग भी कहते हैं, इन भागों पर 
जहा ह्वाथ से ताली चजाई जाती हैं वे ठो “भरी” ऊहलावी हैं. और जिस माग पर ताली 
बन्द रहती है, चह ““ग्राली” कहलाती है! ताल में साली भाग इसलिए रुपने पड़े हैं कि 
इससे सम आमे का अन्दाज ठीऊ लग जाता है । साली का स्थाम्त हाथ को फेफफर दिखाया 
जाता है ओर भावसण्डे स्व॒रलिपि में इस स्थान को ० शुन्य द्वारा दिययाया जाता दै। 

भरी--ताल के जिन हिस्सों पर ताली बजाई जाती हैं उन्हे “भरी/ या "ताली? के 
स्थान कहते हूँ | बैसे जब हाथ से ताल दिस़ानी होती दे तय भरी ताल को थाप हारा 
विसाया जाता है । 


यि--ल्य के चाल क्रम ( गति ) को कहते हैं। प्राचीन शास्त्रों में यति के पाच 
प्रफार माने गये हैं -- 


(१) समा--आरदि मध्य और अन्त इन भेदों से समा! नामझ यहि तीन प्रकार की 
होती है ) आरभ, बीच और अन्त, इन तीनो स्थान/ पर बराबर एकसी लय का होना 
ही समा यति कहलाता है! 

(१ ) शोतोवद्धा--जिसके आरभ में विलम्बितलय, वीच में मध्यलय और अन्त में ठतलय 
हो ड्से ओवोवद्दा? यति ऊदते हैं । 

(३) सुदद्भा-जिसके आरम और अन्त में द्रततय, बीच में मध्यक्षय था विज्वितलय 
होती दे, बसे मुदक्षाः यति ऊहते हैं।.. 

(४ ) पिपीलिझा--जिसडे आदि अन्त मे बिलवित था मध्यलय और चीच में >तलय होती 
है, उसे 'पिपीलिक़ाः यति कहते हैं । गए 

(५४ ) गोपुन्चा--जो गति द्रतल्य से आरम्भ होफर ऋमश मध्यलय और फिर विलवित 
होती जाये उसे 'गोपुच्छा” यति कहते हैं | 

आवृति --आवृति हा अथ है फेरना, छुराना या चक्कर लगाना। जिस ताल को 


सम से सम तक जितनी बार दुहराया जायगा उसे उतनी ही आदि कहेंगे । कोई-कोई 
इसे आयवबेन या आपर्तक भी ऋहते हैं | 


हे 
जव--जर्ब का अर्थ है आधात या चोट । 
जब फदते डई, इसी असार सितार्‌ 
जर्म फहते हैं 


तबले पर जब थाप दी जाती है उसे 
र १९ जब मिजराव छारा आपात हिया जाता है उसे भी 


_ कीवदा--ततल्ा था खत पर बेजने वाले चर्ण समूह तालबद्ध होकर अभ्यास से 
आने लगे ओर उन्हें शाक्षीय रीति से तबले था खबड्न से बजाया जासऊे एवं उंगलिया 
सी हुई और तैयार पढ़ें, वोल स्पष्ट निकले, उसे 'कायदाः कहते हैं । 


डुकैडा---तनल्ला था भदद्न पर वजने वाले बोलों का 


इंजुन, विशुन, चौगुन था अठगुन की लय मे बजाऊर सम पर 
इसे उुऊडा क्ते हैं । 


एक छोटा सा समूह जब 
उसऊ्री समाप्ति होती है, 


चार इस भार प्रगठ किये है - 


| # सड़ीत विशारद # श्द्य३ 





पलल्‍लू--जिन शब्दों की गति की चाल बिना खण्ड किये तीनबार कहकर सम पर 
आधे उसे पल्लू कहते हैं। 
चोपल्ली--जिसके बोलों के खण्ड चार-चार मालुम हों । 
पेल्टा--तबला या म॒दज्ञ पर बजने वाले बोलों के किसी समूह को जब उल्लट-पलट 
४ कप ष् 
' कर बजाया जाता हे, उसे पलटा कहते हैं । हि 
तीया--क्िसी भी टुकड़े को ३ बार इस प्रकार बजाया जावे कि उसका अन्तिम 
4० थे कप ब्प् 3 
' था सम पर आकर पड़े, उसे तीया या तिहाई कहते हैं । 
संखड़ा --किसी टुकड़े को सम से खाली तक अथवा खाली से सम तक बजाने को 
मुखड़ा कहते हैं । 
मोहरा--यह्‌ तीया की भांति ही होता है, अर्थात्‌ जब किसी टुकड़े को तीन बार 
! बजाकर सम्र पर उसकी समाप्ति हो तो उसे मोहरा या तीया कहते हैं। 
लग्गी--तबले में आड़ी चाल से जब “पघिधाधिन धीनाड़ा” इत्यादि बोल बजाये 
+ ष् रे ऊ बछ 
! जाते हैं, उसे लक्गी कहते हैं । 
| 
। हे 
। लड़ी--.जिस प्रकार माला की लड़ी में दाने पिरोये जाते है, उसी प्रकार बराबर की 
। लय में ताल के बोलों को चुनकर दुगुन-चौगुन में बार-बार बजाया जाता है, उसे 
| लड़ी कहते हैं । 


अलन- जन +े *० >५००+ कल. 
कं 


॥ 


4७३ पट 


कप 

पंराकारा--तबले या सदक्भ पर बजने वाले सुन्दर-सुन्दर बोलों को विशेष प्रकार से 
बजाकर ओताओं के सामने “पेश” करने को पेशकारा कहते हैं। पेशकारा के बोलों में यह 

सह 25 वि ५ 

विशेषता होती है कि वे ताल और लय के लहरे पर हिलते हुए एवं आड्दार धक्का देते 
हुए चलते हूँ । इन्हें कुशल तबल्ा वादक ही सफलता पूर्वक दिखा सकते हैं । 

आमद्‌-गायन-बादन या नृत्य के साथ तबले या सृदज्ञ पर जब सद्जत ( 5000 ) 
चलती है तो कुछ सुन्दर बोलों को आरस्भ में बजाया जाता है, उसे ही आमद या सल्लामी 
कहते हैं | 

बोल .तबला या सृदज्न पर बजने वाले अक्षरों से निर्मित जो शब्द बनते हैं, उन्हें 
के 0 के कक 
बोल कहते हैं, जेसे किट, घिन, कड़ान घिडान, धा इत्यादि । 

उठान-आमद या सलामी के बोलों को जोरदार तिहाई मारकर जब सम पर 


आते हैं तब उसे “उठान” कहते हैं। 


नवहक्का--तिहाई को तीन बार बजाकर उसका अन्तिम अक्षर सम पर आवबे, डसे 
नवहक्का कहते हू | 


रच] 


रेला-- एक-एक मे घेक ९५ ७०३ ल्‍ 
>> “+7०-9.30॥ गात्रा में चार आठ या अधिक अक्षरों के बोलों को मध्यलय में 


१८४ # संगीत विशारंद # 





परन---ठाल की किसी भी मात्रा से आरम्भ करके जो वोल समर पर समाप्त 
५ 3०. «मी 
होता है, उसको अथवा ग्रृह से सम तक करे बाज को परन कहते हैँ। 


ताल के दस ग्राण--पअत्येफ जाति ऊे वालों से १० वाते अवश्य ही मिलेगी, इन्हे 
ताल के प्राण रहते हैँ। (१) काल (२) क्रिया (३) कल्ला (४) मार्ग (५) अब्ज (६) प्रस्तार 
(७) जाति (5) ग्रह (६) लय (१०) गति । 


काल--स्मय का द्वी दूसरा नास “काल” है। काल से ही मात्रा-ओर तालों की 
रचना हुई है और इसी से लय बनती है । 


क्रिया--ऊिसी भी ताल की मात्राओ के गिनने फो क्रिया ऊहते हैं। क्रिया से ही हमे 
मालुम होता दे कि अमुक ताल में फोन-कीन से अड्ड हैं और वह कौनसी ताल दे । क्रिया 
के + भेद माने गये हैं (१) सशब्द क्रिया (२) निशच्द क्रिया ! 


सशुब्द क्रिया---ताल फ्री मात्राओं या समय को गिनने की बह क्रिया दै जिसमें 
आवाज उतन्‍न हो, अर्थात्‌ ताली देकर मात्रा गिनना। 


निःशुब्द क्रिया-ताल का मात्राऐे जब उद्लियों पर या मन ही मन मे बिना शब्द 
किये हुए गिनी जाये उसे नि शब्द क्रिया कहेंगे । ९ 


कला--मात्राओं के हिस्से ( भाग ) को कला कह्दते 'हैं। जैसे आवी मात्रा, चौथाई 
मात्रा था है मात्रा आदि। _ के 


& नि | ्् 
मार्ग--प्राचीन ग्रन्थों मे ४ प्रकार के बताये गये हैं । ध्रुध, चतुरा, दक्षिणा और 
६ ञ्ै ० शि हच 
वृत्तिका | कला के हिसान से इन्हे भन्‍न-भिनन्‍्न प्रकार से बाटा जाता था। किन्तु इनका 
वास्तविक रुप क्या था, इसका कोई पता नहीं चलता | 


अज्ञे--ताल के समय में जो भिन्‍न-भिन्‍न भाग होते हैं, उन्हे श्रद्ध कहते हैं | यह 
हर हि जिन्हे 
ऊे प्रकार के है, जिन्हें अनुद्रुत, द्रुत, लघु, गुरु, प्वुत और फाऊपद ऊहते हैं । 


हि] 

अनुद्गुत में १ मात्रा, दुत में २ मात्रा, लघु में चार मात्रा, गुरु में ् मात्रा, खुत में 
१० मात्रा आर काकपढ़ सें १६ मात्रा फा समय माना गया है | 

अस्तार---जिस प्रकार ७ स्परों के फैलाब से ४०४० ताने पैदा हुईं हैं, उसी अकार 
१ मात्रा से लेकर १६ मात्रा के अस्तार से मिन्‍न-मिन्‍्न ताले पैदा होफ़र उनकी संख्या 
६५५३५ होजाती हू । प्रस्तार का अथी है बढाना या फैनाना | 

जाति--ताल के योलो की रचना जितने-जितने अचरो से हुई हैं उनके अनुसार 
पाच जाति कायम की गई हैं, जो निम्नलिसित हैं -- क 

(१) चतुस्त जाति ७ मात्रा के लिये... “तक विन”? 


(२) तिन्न जाति ३छ 8 ५तक्िट?. _ 
(३) सणड जाति & २? छा #तकिट किट” जाम 
(४)मिश्रजाति. छश » “तक घिन तकि” 


(५)सऊकीर्ण जाति ६७ #»# #तकधिन तक तक्रिट? 


3 
भदचार इस प्रसार प्रमढ किये हद 


४ संगीत विशारद # १८४ 


ध 
+ ६९ 





ग्रह--ताल के ४ ग्रह होते हैं, जिन्हें सम, विषम, अतीत और अनाघात कहते हैं । 

-जब गीत और ताल एक ही स्थान से आरम्भ हों, उसे -समग्रह कहेंगे । '२-जब सम 
निकलने के बाद गाना शुरू किया जाय उसे विषम ग्रह कहेंगे, विषम का अर्थ है असमान 
या बराबर नः होना। ३-अतीत को अथ है “पिछला” था अन्त | - ताल की सम-का अन्त 
होने पर जब गायन आरम्भ किया जाता है, उस स्थान को “अतीत” कहते हैं। ४-जब 


पेहिले गायन आरम्स होजाय ओर पीछे ताल शुरू हो उसे अनाघात या अनागत ग्रह 
कहते हैं। - 


राधा 
लय वबवरण हि 
समय के किसी भी हिस्से की समान ( एक सी ) चाल को “लय” कहते हैं। जैसे 
घड़ी का पेन्डुलम एक सी चाल में खट-खट कर रहा है,' उसका प्रत्येक 'खट” एक सेकिंड 
के समय में चल रहा है | यदि वही पेन्डुलम कोई खट सेकिड में और कोई खट डेढ़- 
सेकिंड में करने लगे तो हम सन्नीत की भाषा में कहेंगे कि इसकी लय बिगड़ गई, अर्थात्‌ 


घड़ी की चाल बिगड़ गईं । जय बराबर तभी रहेगी, जब वह घड़ी अपनी 'खट-खट' 
एक सी लय में करती रहेगी । 


इसी प्रकार सद्भीत या गाने, बजाने, नाचने का सम्बन्ध लय से है । एंकसी चाल 
में किसी ताल को बजाया जायगा तो उससे एक प्रकार की लय स्थिर करल्ली जायगी, 
फिर उस ताल की गति घटाई या बढ़ाई जायगी, तब लय बदल जायगी। इस प्रकार 
मुख्य लय ३ मानी है;-- । 


(१) मध्यलय, (२) विलम्बित लय, (३) द्वतत्नय । किन्तु जब सद्भीत के बड़े-बड़े 
कलाकार विशेष रूप से अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं, तो उन्‍हें उपरोक्त २ लयों के 
अतिरिक्त ओर ल्यों की भी आवश्यकता होती है | उनके लिये निम्नलिखित ल्यों का निर्माण 
ओर हुआ:--अति विलम्बित लय, तिगुनज्लय, चोगुनलय, अठगुन लय, कुवाड़ीलय, 
आडीलय और बिआड़ी लय । इस प्रकार लय के कुल १० भेद हुएण। अब यह 


बताते हैं कि इनमें भेद क्या हे ओर इन्हें लिपिबद्ध केसे किया जायगा, अथौत्‌ लिखा 
कैसे जायगा । 


लय की व्याख्या और उसे लिपिबद्ध करने का ढंग 
( १ ) मध्यल्लय 


..__जब कोई गायक गाना आरम्भ करे तो पहिले उसकी बराबर की लय सालुम कर 
लेनी चाहिये | बरावर की लय को ही सध्यलय कहते हैँ, मध्य का अर्थ हे बीच | अर्थात्‌ वह 
इसी लय को आधार मानकर अन्य लयों का प्रदर्शन करेगा । 


अगले प्रष्ठ पर हम १ गीत की पहिली लाइन दे रहे हैं, इसे मध्यलय में मानकर 
आगे की ज्य बताने में सुविधा होगी । साथ ही हम इस गीत की लाइन के १६ अक्षरों को 
गाने का समय सध्यलय में १६ सेकिड सान लेते हैे। यह हमारा मानदस्ड है, इसी के 
गणित से अन्य लय सममाने की चेष्टा की जायगी | 





श्८्द्‌ # सद्भीत विशारद # 


>पयायायायातलामा का परानन्त न परवान नाश» न सका पाा-ाटज दा रण याटार 0: /कनाल्‍परप ८45२9 को सदन ८५ भ जाइए ५२३४ २७॥0::0 लक ९४2८-्ाा११७:३०३ २. 


(१) मध्यलय (तीनताल ) मानठड १६ सेकिंड 


रन ज3पन १४ 76 ५ असम ककी लि लय अ्िजद कजजटज की जज 2 2 लक 3 अिलमजीरि:3ब व जमकज 
गीत--ज य ज॑ य|गि रि ध र|न ८ट व र[|म न हू र 





सैकिंड-१ २ हे 2०४ ६ ७ ८5८5६ १० ११ १० | १३ १४ १४ १६ 


वाल-मा घी घी ना |ना थी घी ना | ना ती ती ना|ना वी धी ना 
चिन्ह » श्र ७ | 





उपरोक्त गीत के १६ अज्नर १६ सैकिन्ड से माये गये ओर इसे हमने मध्यत्य 
मान ली, अब इस लय को विलम्बित लय करके ठिसाते हैं, अर्थात उपरोक्त लय से 
१६ अक्षर गाने में जितना समय लगा था, अप उससे ठुगुना समय अर्थात ३२ सैकिन्ड 
इन्हीं १६ अक्षरों को गाने में लगेगा | जैसे -- 


(२) विज्षम्बित लय ( तीनताल ) हि 


ज 5 य 5 ज 5 य 5 |गिडरि5 घ 5र 5 


-_्ऊ 
्ण 
श््ण 
ण्< 
मद 

का 
6 


८ ६ १० ११ १२ १३ १४ १४ १६ 


ना -“- धी - धी - ना - |ना - धी - घी - ना # 
अर 


विन सन मन नलक 393 म रन क्‍ ०733८ पर नननन +लल+ «८ + पर:  + नमन 
न 5 द 5 व 5 २ 5ै|म 5 न 5 हू 5 र२ 5 
१७ औय १६ २० २१ २० २३ रषछ्ट | २४ २६ २०७ शप २६ ३० ३१ ३२ 


ना >> सी - तौ - ना - ना - घी - धी - ना - 
६] 


2 





इस प्रकार ३९ सैकिंड में वही १६ अक्षर गाये गये, तो हम कहेंगे कि यद्द हमारी 
अर जय होगई ) इसे ही विल्म्बित लय भी कहेंगे। 


(३) अतिविलम्बित लय 





जू॑ 5 3 5 य 5 5 5 ज 5 5 & य 5 5 5 
१ ४? दे ४४५४ ६ ७ ८छझ ६ १० ११ ११ १३ १४ १५ १६ 
ना “० ५-८ “८धी- -न- न-घधघी-- - ना - -“- “८ 
८ 





मगि 5 5 5 २ 5 5 $ ब 5 $ 5 र॒ ६ 5 5 
९० १८ १६ २० २१ ग२ २३ २४ न४ २६ २७ र८घ २६ ३० ४१ शेर 
वी >» -- घी -- ->घी- - - ना - “5-८ 


स्थचार इस प्रकार प्रगट ज्ये हैँ - 


# सद्भीत विशारद # १८७ 








ने बडे 5 86, व हु 5 जय लत ? 8 हो परे हु 8 हू 
३३ ३४७ 2ेर ३२६ ३७ देणप ३६ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७७ ४८ 
ना -> - “5 ती -“- “| “ ती - “ “< ना “- “ “ 


७ । 
सम 5 55 न 5 $ $ है $ $ 5 र॒ 5 5 5 
छ६ ४० ४१९ ४ए ४3 ४४ऐ ४५ ४६ ४७ ४प ४६ ६० ६१ ६२ ६३ ६७ 


ना -“ ८5 «<“: धी -<“ 5 5: धी - 5“ “८: ना -“- - -“- 
2: अमन शक न 








इस प्रकार ६४ सेकिन्ड में वे ही १६ अक्षर गाये गये, अर्थात मध्य्य नं० १ से 
इसकी गति चौथाई हुईं, क्योंकि मध्यलय में हमने १६ सैकिन्ड में ही १६ अक्षर गा 
लिये थे और उन्हीं १६ अक्षरों को गाने में यहां चोगुना समय लग गया, इसलिये हमारी 
लय की गति चौथाई हो गई । इसे ही अति वित्ञम्बित लय कहेंगे । 

यह तो लय को घटाने या विलम्बित करने का गणित हुआ, अब आगे लय को 
बढ़ाने का हिसाब बताया जाता हैः--- 

(४) दुशुनलय ( ह्रतलय ) 

इसकी चाल नं० १ वाली मध्यज्ञय से ठीक दुगुनी होगी, इसलिये इसे दुगुन कहेंगे 
ओर खूँ कि इसकी चाल में पहिले की अपेक्षा तेज़ी हे, इसलिये इसे द्रुतत्य भी कहते है। 
दुतका अर्थ है जल्द या तेजी ।द्रुततय को इस प्रकार लिपिबद्ध करेंगे: _|/|/|__ अथ है जल्द या तेज़ी । द्रुतलय को इस प्रकार लिपिबद्ध करेंगे:-- 


जय जय गिर धर नट वर मन हर 
+िन्‍न*ी च्जनी, जी जी बनी जी जी 'डिज्मम*ी 


१ र्‌ झ 2 4 हि ७ न 
नाथधी धीना नाधी धीना नाती तीना नाधी धीना 


। जम हर...०००--+-ै न्‍नम-+-नमीं 3 रिन्‍नन्‍ममे-ननतीँ (०->ब०-_--ं 3 


>< हा ० डे 


पाठकों को मालुम ही है कि मध्यलय के उपरोक्त १६ अक्षरों को १६ सैकिन्ड में 
गाया गया था, अब वे ही १६ अक्षर ८ सैकिन्ड में गा लिये, अतः यह हुई दुगुन लय । 
क्योंकि १६--४-८ 
(४) तिशुनलय 
इस लय में मध्यलय से :तिगुनी चाल हो जायगी, अथीत अब उन्हीं १६ अक्षरों 
को गाने में मध्यलय की अपेक्षा एक तिहाई समय लगेगा:-- 


जयज यगिरि घरन टवर मनह र,जय 


्‌..ज->जन्‍्मीी ३प००--क जूक ज्मवनन्‍्ान ३.0क--्मी ि०->>००न्‍न्‍ममी। नाम अम्मी ३>०जमी 
१ र्‌ ३ 2; ४. ४३, 
नाधीधी नानाधी धीनाना तीतीना नाधीथधी नाना 
३...0...०००काा काथककी ६... ००णन #०णम-ी इ.ह..9ह.80. ०. ७० ० २०००>००न्‍मक् २०००-+ ००->०-->म०न्‍ाण्ण्मन्‍ारमी। ३२०७०००»०-न्‍ूमीं 
जद र्‌ ० इ््‌ >< 


नोट--जयजय गिरधर नटवर मनह” इन १४५ अक्त्रों को गाने में ४ सेकिंड लगे 
र अन्तिम २ अक्षर में 5 सैकिंड लगी। 


श्द्८ # मड़ीत॑ विशारठ # 


७, 


धन ८८--पादसप्ा ९ कद पाए का < ६ पारा८3448६५८ पा: स ककक८ पक ; कलम आ८ ८ कदररस न कडलगरत_ ९: चद८५पलपर _ाकसस 9 पक पक ८5 मर. 





इस प्रकार तिगुनल्य में उन्हीं १६ अन्नरों को गाने मे १६--३--४३ सैडिन्ड लगेगी 
ओर यदि इसे ३ वार गाया जाय तो पूरी १६ सैऊिन्ड मे सम पर आ जायेगे। 
> (६) चौगुनलय - * 


इसकी चाल न० १ वाली मध्यल्य मे चौगुनी तेज होगी । 


जयजय गिरघर नटबर मनदहर के 
३३००-००» ३७००>«०००>«मी: चित 2. नी 
१ र्‌ डे छ 
नावीघीना नाधीघीना नातीतीना नाधीवीना 
शक जम हक] कहे न+म+ मम; ०० न ०ज>मनती, , जलन अत. न 
रद २ (| 3 





चूकि १ न० की मध्यलय के १६ अछ्रो को गाने से १६ सैकिंड लगे थे, इसलिए 
चौगुनीलय में १६--४८-४ मैकिंड लगेगे ओर इसे ४ बार गाया जाय तब मध्यलय वाली 
सम पर आ जायगे। 


( ७ ) अठगुनलय 
इसकी चाल न० १ वाली मध्यलय से अठगुनी तेज होगी -- 
जयजय गिरघर नटवर मनहूर 


न तन न 


१ हि हल, न 


श 
नावीबीना नाधीधीना नातीतीना नाधीधीना 


न ..........-े ० र---- ८लक«»-«»»»+००>न बनी. 
6 डे कक 
चुकि न० ९ की मध्यलय के इन्हीं १६ अक्षरों को गाने में १६ सैकिंड लगे थे, 


इसलिये अठशुनी लय में १६--८८-२ सैफिंड लगेंगे और इसे ८ बार गाने पर १६ सै्फिंड 
से मध्यलय वाली सम आ जायगी | - 


(८ ) कुबाडीलय 
इसकी चाल न० १ वाली मध्यलय से सवाई तेज होती है। इसे लिसने के लिये 
१ अक्षर के चार भाग मानफर प्रत्येफ अक्षर के आगे 555 ऐसे ३ अवग्रह लगाये जायगे | 





2६ 54 








जउठ55्य 555ज5 उज्य55 उगिड55 र55उघ 
धन तर पफजजतन फितजसजल 


९ >> ओ ड्ढे ४ हा 


ध 


सा---वी -“--बी- --ना-- -ना--- धी---थी 


््ल््र लेउस्-+ नी फेल:फंनरी ऑन 





प्वचार इस प्रमार प्रगट झिये हैँ -- 


# संड्रीत विशारद # १८६ 








555२६ 5उडइन55 उ5ट555 वं555र . 555मं5 उ$न55 उह555 र,उउञ्ज 


३.०० 880... नमी न. फनलननन-ननी अल पल जी रिकतनमन-० ० अिजमनआनन>ी.. िजननरननानन “हनन 
६- ७ ८. ६ २१० - ११ १२ १२हूँ, 
न5 ० ली ता 7 १ त्ती ७४5 तीटइललती ना 5 # थी पी तरह 5 लो२ २४ नो, 
0.० >नननन नम मनन. फिजनननमन >म-«ब्««न्»+»>नम जननी. रनननननजन-म लजनन--मनी 3 विजजननमणगगननभगननारी... जनबनननननण0>«नत»-मनीं.. जे नमम««-+म-+>2नन»ी.. 3७ फमनम«««+- लत मी. ितमकब0-> ० +न+ अतना+ लक 
० ट्े > ३ 


ध्यान दीजिये “जयजय गिरधर नटवर मनहर” यह सोलह अक्षर १९ सैकिड से 
कुछ अधिक समय में अर्थात्‌ १२३६ सैकिंड में ही समाप्त होगये | क्योंकि मध्यलय १६ 
सेकिंड में थी, इसलिये १६--१३८- १४२३ सेकिंड समय लगा। 
़ (६ ) आड़ीलय. 
इसकी गति ( चाल ) मध्यलय नं० १ से ड्योढ़ी होती है, इसे लिखने के लिये एक 
अक्षर के २ भाग मानकर प्रत्येक अक्षर के आगे 5 एक ऐसा अवग्रह जोड़ा जायगा। . 
जडय . उइज5द यडगि 5र२5 धइर इन5 टड॒व 5२६ मडन 5ह5 र,5ज 
हक सकी जा जी जी िजमजनी, कब्ज 


७००००००न्म्छी 'रकाा2००००णज 3. आजकल की अंक. ५ ३... ५०->बम्ज्न्ज् 


१ दर ३ ४ ४ ६ ७ ८ ६ ९० १०३ 





नां-घी -धी- ना-ना -“थधी- धी-ता >ता- ती-ती -ना- ना-धी -धी- ना-ना 
..०>>»कममनी न्‍कररकक ७०५ >्म्मी >> ००००० मम , पोज अलग ली. लग अल जलती ९... २०००->>+म. रिमाा ऋक ०-००. पिफलममक अामम-मम्मममकान.. पिवपन--+० जा» फेजनाणकमी. ७०००३ ७००० #नणमणमनी, 
2 र्‌ ० ३३ >८ 


इस लय में वे ही सोलह अक्षर १०३ सैकिंड में गा लिये जांयगे। क्योंकि 
मध्यत्षय १६ सेकिंड में थी, इसलिये १६---१६८-१०३ सैकिंड समय लगा । 

| ( १० ) वियाड़ीलय, 

इस लय की गति मध्यलय नं० १ से पोने दो गुनी तेज होगी। इसे लिखने के लिये 
प्रत्येक अक्षर के चार भाग मानकर तीन अवग्रह 555 जोड़े जांयगे क्‍योंकि एक भाग रवय॑ 
वह अक्षर होगया । इस प्रकार चार भाग होजाते हैं। 








ज555य55 5ज555यड 5डग्रिडडडर .. 555घ555 र२555न55 
६... ....-->«»«_«+०#मा० ०००० न्‍्नानमनी >> जनक >न०नन्‍न»-मं 2 हे... >ं«»-«म->न»-नन मनी ३.० ७»«»००»११०० मनी ३.08. >> ० ०नममनननी, 
९ * र्‌ ३३ ४ ५ 
सा- - >धी- - “धी-- “ना- ““ना- ->थी --“धी--- ना-- ना-- 
नी ती +ी+ *0२+क नै मनन न जलत+>>तनीी कर... तन तन >«.-म०> ००००५ मम ६०००----+ ">> ००००न्‍न्‍ू >> ..........०>न-लनल०क>सय-+न>» ;रननममममणे गम 
ब्‌ ७ 
इटड5$वब5 55र२555म. * 555न555 ह555र55 5,ज555यड 
£ ० मन्‍म्यछभमा बण0कन्न्‍मी। ३... ५००» रमूूथकम्णणम्काी ....0.3. ०००-मम_» ००>न्न्‍न्‍न्‍न्‍ीँ ए३.>ज०.->->न-०न>« स०-+न्‍न्‍जी 
६ ७ पे ६ ६७, 
“उती--->ती- >>ना- “० ना “>> >धी--- घधघी--“ना-- -,ना- - -थी- 
० «मकान «९०६६-4५ >मममाकाक००-ज+>ी ३....> ७ मम >०मनम»न ००» सम रमाम>क “जम ३... ००००० परथभामअकमक >>» अमन -«मबमन्‍, ३.०० 2 अर 2 ओक क०>- मनन २.08... ७००००» ००००००ज ७ #मनकअन-+-+-+++न-पकमनी, 


डर 3222 >>. 

इस लय में वे ही १६ अक्षर ६$ सैकिंड में गये गये। क्योंकि मध्यलय १६ सैकिन्ड 

में थी और यह उसकी पौने दुगुनी तेज है तो १६---१६७--६$ सेकिन्ड | ध्यान दीजिये 

“मनहर” तक गाने में ६ सैकिन्ड पूरी होगई', फिर अगली मात्रा के ७ भागों में से १ भाग 
ओर लेना पड़ा, तभी गणित के हिसाब से &$ आया । * 


१६० # संड़ीत विशारद # 


. उत्तरी संगीत पद्धति की कुछ मुख्य तालें;-- 
कहरवा, मात्रा ८ भाग २ 
मात्रा १५ ० ३ ४|।४ ६ ७ ८-८ 
बोल घा गे ना ती|ना के घि न 



















































































ताल चिन्ह | »€ 2 
दादरा, मात्रा ६ भाग २ 
१ र्‌ ३ ४ ४ हा 
घा घी ना घा त्ती त्ता 
2 हि 
भपतातल, मात्रा १० भाग 9 
प्‌ र ३ ४ ४ ध्ट्‌ ७ घर ६ १० 
घी सा। घी वो ना | ती ना।धी धी ना 
री द ं | 
चौताल, मात्रा १९ भाग ६ 
१ २३ ४४ ६|७ प। ६ २०७ | ११ ६? 
घा वा । दि ता किट वा[र्दि वा | विह. क्‍त | गदि. गन 
>्र्‌ ० डे * जा 80 6" शत 
त्रिताल, मात्रा १६ भाग ४ 
१ २ दे ४४ ६ ७ ८६१५० ११५ १२ १३ १४ १५ १६ 
2380 पा? कि की जा तो वि ति ना।घा धथि धिना 
० 3 
आडा चोताल, मात्रा १४ भाग ७ 
१६ २ दे ४|४५ 5|७छ 5[६& १०| ११ १२। १३ १४ 
वि घि!|धागे तिशकि/ तू ना|क च्ा।घी घीं।ना थमीं।थी ना 
८ + हा २ ७ ३ न ड ० 
ये तीचा, मात्रा ७ भाग ३ 
१ ४» हि छ हि हर ७ 
हे दिया तिद.. क्‍्त गदि.. ग्रर 
वि ३2“ रे डे पद 








ज्वचार इस प्रक्तर प्रगट किये हैँ -- 


% सद्भजीत विशारद # १६१ 





| 


सलताल, मात्रा १० भाग ५ 








२ २। ३ ४ ४ ६७ ८६ १० 
धा धा। दि ता | किट धा | तिट कृत | गदि गन 
८ ० २ ३ ० 





धंमार, मात्रा १४७ भाग ४ 






























































१ ४ ४२ ७४ ४ ६ ७| ८ ६ १० ११ १५ १३ १४ 
क धि ट घि ट।धथा $|क ति ट|ति ट ता &$ 
फर - २ ० ३ 
रूपक, मात्रा ७ भाग ३ 
१ र्‌ ३४ ४६ ७ 
ती ती ना धी ना।धी ना 
८ २ रे 
इकताला, मात्रा १२ भाग ६ 
१ २)।३ ४४५ ६|७ ८ ८६ १० | ११ श्र 
थि धि| धागे तिरकिट |तू .ना |क त्ता| धागे तिरकिट | थि ना 
>< ० मन कड कप 0 ६ ; डे पड 
दीपचन्दी, मात्रा १४ भाग ४ 
१ .-०२ ३।|४ ४ ६ ७।८ & १० | ११ १५ १३ १७ 
घा धीं 5 घा गे तीं 5 |ता ती 5|धा गे धीं ड 
ओ २ ० ३ 
पंजाबी, मात्रा १६ भाग ४ 
१ २४ ३ ४|४ ६ ७ ८।६ १० १११२ | १३ १४ १४ १६ 











था ज्यवी ज्क था धा ज्ची ज्क था| ता ज्ती ज्क ता | घा ज्चवी ज्क था 
८ ्ज्ट अ2ा २्‌ री. >> ०0 5४ ३ _ हट 





मत्तताल, मात्रा १८ भाग 8 


























१ २+।| ३ ४|४ ६६७ ८छ। ६२१० | ११ १५| १३ १४ | १४ १६ [१७ श्८ 
घा 5|घि ढ़|न क|घधिड़|[न कति ट|क त।|ग दि गिन 
| ० २ डरे ० ड है. दि ० 


१६२ # सद्जीत विशारद # 





तिलवाडा, मात्रा १८ भाग ४७ 


१५ ४ हे ह | ४ ६ ७ ८६ १० ११ १२ | १३ १४ रश १३ 


था विल्टि थि थि | भा घा तिं ति|वतात्रिस्टि धि थि धघा धा धि धथि 
ओ अर हे 


2 के 








धीमा इकताला, मात्रा १२ भाग ६ 



























































१ २ रे ४।४५ ६॥७ ८६ १०१) ११ श्र 
धीं धीं धागे तिरक्ट | तू ना |क ज्ञा।| धागे तिरकिट | धीं नाना 
>्< डे --++|२ ० हवन. ४+ ४ 27% 
कमरा, मात्रा १४ भाग ४ 
१ ४२४ ३)।४ ४ ६ ७६४८ ६ १०|११ १४५७ १३६ १४ 
थि. थि नक |धिघथि धागे तिरफिट |ति ति ,नक |[थि धि धागे तिरक्टि 
भर (२ शा _. | ० ० ॥॥5३ गली ५ अी 
बह्मताल, मात्रा २८ भाग १४ 
१ २३ ४|४ ६|७ ८६ १०।११ १९| ११ १४ 
घा धि!|धि घधा|तृ घि।धि धा।ती तो|ना' ती।ती ना 
है ॒ रे ३ ० है| हर 
१४ १६ | १७ १८ | १६ २०।|२१ रर२ | *३ २४ | २४ २६ | २७ श्प 
। 
ती ना।|तू ना।क त्ता|।धी ना | धागे नधा | तक धि|गदि. गन 
हू छ हर द्च्ट शा जा श्र पे जा 











गणेश ताल, मात्रा २१ भाग १० 


























१२३४ |५।| ६ ७ ८६)१०११| १२ १३ १४ १५ | १६ १७! १८ | १६ २० २१ 

घांतादि गे तिद घा दि ता कततिद, ता धागे दिं ता | धागे |ता| तिद | कत गदि गने 

< २ । रे ४ पु डे तु ि ध रू 005; 
विक्रम ताल, मात्रा १२ भाग ४ 

२ दे ४ रद ७ ८छूछ १० ११ १३ 

5$|घधि चा 5|फ 5 त्ता|तिट कत गदि गन 

श्‌ है पा अ+ा >> बजा 





पर आर इस प्रक्सर प्रगठ क्नियि हू. बल रे 
हे लेप दा 


। 


* सड़ीत विशारद # १६३ 





ताल गज़ेकंपा, मात्रा १५ भाग ४ 


९ 8. है. &|% ८ ' छ छह ७7 १९ ९९५ ६. १४ १५ 


धघा घिन नक तक |धा घथिं नक तक | थधि नक तक किट | तक गदि गिन 
अऑजा ७अि 7 जी ओअी चऑ>जनीं ७ ी 


8... झा 
2 २ 


धरा 
( 


शिखर ताल, मात्रा' १७ भाग ४ 


१२४ ७४ ६७७ ८छ ६ १० ११५ १२१३ १७ [| १४ १६ १७ 


धा तृक थि नक थु' गा | धि नक घुम किट तक पघेतू | धा तिट | कत गदि गिन 
जिज्न्न्‍ीं जी री अआी आज लज््मी लीं जी घि़७ जी, 
3 


यति शेखर ताल, मात्रा १५ भाग १० 






























































१२ ३।४ ४|६|७७| ८ ६।| १० | ११| १९५ १३| १४७ ९१४ 
था| तत्‌ थि | ना त्रक |थि |थि।|ना तत्‌ |धागि साधा त्रक घिना | गदि गन 
2८ के ३े ४ | ७ व & १० 
ताल चित्रा, मात्रा १४ भाग ५ 
१ २।३१ ४ #४|(९६९ ७ ८ ६९० ११ (२ १३ | १४ १४ 
थि ना |धि धि ना।तूनाकत्ता|त्रक धी ना धी।धी ना 
>< | र्‌ ३ 2 ७ 
वसच्त ताल, मात्रा € भाग € 
१ र्‌ ३ ःछु ४ ६ ७ पर ४ 
घा देत्‌ | देत्‌ थु' थु | तेटे | कत | गदि | गन 
र् (हे डे है ० है हा छ्‌ ० 
विष्णु ताल, मात्रा १७ भाग ५ 
१ २ दे ४ #५[(६ ७ ८ ६ | १० ११ १९ १३|।| १४ १४ १६ १७ 
थि ना|थधि७६थि ना।|धितृक धी ना ।धि थि ना धि|घधी ना घी ना 
2 न डरे डे ] 














१६४ # सड़ीत विशारद # 


मणि ताल, मात्रा ११ भाग ४ 











भसम्पा ताल, मात्रा १० भाग ४ 





















































३४४ 5 ७ घर ६ १० 
घा 5 धागे ति।ट6 ति| द्वधाकि ट 
4 २ * ३ 
रुद्र ताल, मात्रा ११ भाग ११ 
१ | २३२ | ३ |४।|४|६।७ [८ | ६।| ४९१० | १६ 
घी | ना | धी।| ना | ती।| त्ती। ना | क | त्ता| घी ना 
८ ३ * ३ ४ड+ ० ृ ७ पद ० 
ठेका ठप्पा, मात्रा १६ भाग ४ 
१ २ मे ४|४ ६ ७ ८६ १० ११ १६५१३ १४ १५४ (६६ 
कि: आम नर पा वी 5 धथधा घे दि 5 धि ता धि॑ थि 
अद्भा त्रिताल, मात्रा ८ भाग ४ 
्‌ डर ४ 4 ह ७ पर 
/ । ्‌ ० 3 


न न 3 2 अल 5 
ताल सवारी, मात्रा १५ भाग ७ 


१२६३ ।७४ ४६ ७/( ८८६ १० ११ २ १३। १४ (१४ 
थी निकट घीना |कत्‌ घीधी। साथी घीना| तीन तीना | ठृक्‍्तना किडनग | कत्ता घीधी | माधी घीना 
५200४ हक चर नायक आन डिते जल कि 

09 


न 3 न 


+ प्रगट किये हैं - 
पजचार इस प्रकार प्रगठ किये ६-” 


# सड़ीत विशारद # १६४ 





लक्मी तात्न, मात्रा १८ भाग १८ 







































































१।२|३ | ७|४।|६|७|८। ६ १०|११|१२|१३ १७ १४। १६ १७| १८ 
थि तित्‌| घेत्‌घित्‌ | दि | ता |तिट | कत | धा | दि। ता | घुम | किट | घुम | किट | कत गदि | गिन 
2२ | ३॥|० ४ । ४. ० | ७ वे 6/%०/११। १९ १२॥ ६४ | ६४ 5 
'ताल पश्तो, मात्रा ७ भाग ३ 
१ २ झ३ ६८। ५ ६ ७ 
तृक धि &$ घा धा। ति 5 
न्द्रूः । रे 
ठेका कव्वाली, मात्रा ८ भाग २ 
१ र्‌ डर ४ 4 ६ ७ न्‍ 
धा क्‌त धा थि | ता कत ता धिं 
> २ 
ताल शूलफाक्ता, मात्रा १० भाग ३ 
१ २ झश३ ४ ४. द ७ पद ६ १० 
धि घधि धा त्िकिट तू ना [तत थी घी ना 
>< >> ३ हु 








श्ह्द # सझ्लीत विशारद # 








[ पतस्र ।8४०० ४+-२+ रे घ 
ट | तिख्र ।३०० ३+२+कर ७ 
५, | मिश्र [७०० छ+र+र 7 
; | खड (४०० इक+रकर ६ 
सकी ॥६ ०० ६+२+र ५३ 
[ चतर्न ।84४2० ० ४+४+र२+द २ 
| तिल ॥३॥३०० | ३+३+२+क२ १० 
् । मिश्र [७।७०० ७+७+२+२ श्प 
ऐ | खड' ]४]४ ०० #न॑+-४-न-२+र १४ 
सकीर्य ।६।६०० ६+६+२++ श्र 
। चतस्र ।8४8 ४ ४ 
। तिल ।3 रे ड्‌ 
षि मिश्र ।७ ७ ७ 
हि | सड ।8४ ४ ४ 
[ सरीर्ण ।६ ६ जि 





यह तो हुये जाति भेद के अनुसार ७ वालों के ३४ प्रकार। अब पचगति भेद के 
अनुसार इनमें से प्रत्येक प्रकार के पाच-पाच भेद ओर दोते हैं, इससे ३४३८ ४+-+१७४५ 
तालीं के प्रकार इस पद्धति से डन्न होते हैं। आगामी प्रष्ट मे उदाहरण के लिये केवल 
“अठत्ताल” के २५ प्रकार पचगति भेदानुसार कैसे हो सफते हैं, यह दिखाया जाता है| 


(बचार इस प्रजार भगट किये है - 


# सड़ीत विशारद # १६६ 





8. 


“अठताल?” के ९५ प्रकार 














जाति चिन्ह मात्रा | गति भेद | गति भेद के प्रकार से कुत्ञ मात्राऐं 
| चतस्र १२ २८४७-४८ 
। तिख्र १२ 2८३५-३६ 
चत्र॒ | ।७४।४०० | १२ । मिश्र १२२८७७-८४ 
ह । खंड १२ »८ ४ -- ६० 
| संकीण . | ११५२८६५-१०८ 
चत्तस्र १० 2८ ४५-४० 
तिसख्र १० 2८३५-३० 
तिस्र |।३।३०० | १० मिश्र १० > ७--७० 
ह खंड १० ८ ४७-४० 
संकीर्ण १० ६ ६ -२६० 
चतस्र लि 
श्ण २३५८-५४ 
सिश्र ।७|७०० | १८ सिश्र १८ >८७५७- १२६ 
ह खंड १८ २८ ४७६६० 


संक्रीर्ण १८२ ६-- १६२ 

चतस्र १४ & ४८-४६ 

तिस्र १४ २८३०-४२ 
खंड |४।४०० | १४ मिश्र १७२८७--६८ 


खंड १७०८ ४५-७० 


४ 
द्र 


संकीरो १४ ६ ++ १२६ 


२०० +* सद्जीत विशारद # 











| चतस्र २० %८४८+म८ 

सिस्त्र २२३८३७-५६ 

सकीर्ण [« ६५०० मर प्रिञ्र +२+२ <७-- १४० 
खण्ड २२३२ ४६- १६१० 


| 
। 
। 
|| 
[ सकीर्ण | २०८६-- १६८ 





नोट--इसी तरह शेप छ वालों से भी पच्चीस-पद्चीस प्रकार पैदा होकर कुल १७४ 
हो जायेंगे। 


ऊपर के नकशों में चिन्दर वाले स्राने में ताल चिन्ह लघु के आगे जो अऊ लिसे 
गये हैं, उनका अर्थ यह है कि लघु यहा पर इतनी मात्रा का साना गया है। जैसे लेघु का 
चिन्ह | यह है, तो जहा पर चदस्जाति में लघु ढिसाया जायगा, वहा ।४ इस प्रकार 
लिखेंगे। तिस्नजाति में ३ इस प्रकार लिसेंगे। मिश्रजाति में लघु फो ।७ इस प्रफार लिसेंगे । 
सडजाति में लघु को |४ इस प्रकार लिखेंगे और सफीर्णजाति में लघु को ।६ इस प्रकार 
लिखेंगे । ल्वघु के चिन्द हें आगे डिये हुए विभिन्‍न अकों द्वारा आसानी से यह्‌ मालुम 
हो जाता दे कि यहा पर लघु की इतनी मात्रा मानी गई हैं। श्रन्य चिन्हों के साथ मात्रा 
लिखने का नियम नहीं है, क्योंकि केयल् लिघुः की ही सात्राये बदलती हैं, बाकी चिन्हों की 
मात्राओ में कोई परिवर्तन नहीं होता । 


फर्नाठकी ताल पद्धति की बाबत निम्नलिसित बाते विद्यार्थियों को याद रखनी 
चाहिये -- 

(१) कनौटर ताल पद्धति में लबु की मात्रा जाति भेद के अनुसार बदलती रहती हैं । 

(+) जिस ताल में जितने चिन्ह होंगे, उसमें उतनी ही ताली ( थाप ) या भरी तालें होंगी । 
(3) कर्नाटकी पद्धति में साली? नहीं होती । 

(४) सभी तालें सम से आरस्म होती हैं। 

(५) ऊर्भीटकी पढ्नवि से मुख्य ७ ताले होती हैं | 

(8) प्रय्ेक ताल की पॉच-पॉच जातिया होती हैं । जिनसे १४ प्रकार उत्पन्न द्वोते हैं । 

(७) पॉच-पॉच जातियों के पॉच-पॉच भेद 


2 होते हैं, जिनसे १७४ अफ़ार उत्पन्न 
हो जाते हैं | 


विचार इस प्रशर प्रंगर्ट किये है -+ 


$ सड़ीत विशारद # २०१ 





कर्णायकी पद्धति की ७ तालों को हिन्दुस्तानी पद्धति में 
लिखने का कायदा 


( यह सातों तालें चतस्रजाति में दी जा रही हैं ) 
(१) ध्रुवताल, मात्रा १४ (।०॥ ) चतस्रजाति 








ह मात्रा--१ २ ३ ४ ॥ द्व ७ ८ ६ १० ११ १२१५३ १७ 
चिन्ह-- १८ २ ३ ४ 
(२) मठताल, मात्रा १० (।०। ) चतम्रजाति 
१ २३ ४७ रे ६ ७छ ८ &६& १० 
५८ २ ३ 








(३) रूपक ताल, मात्रा ६ ( ।० ) चतस्नजाति 
( इस ताल को हिन्दुस्थानी पद्धति में ७ मात्रा की मानते हैं ) 


१४ दे ४ 
>< 





४ -६ 
। (४) भम्पताल, मात्रा ७ ( ।-०० ) चतस्नजाति 


१ डे ६2. है 
>< 


६ ७ 











(५) त्रिपुट ताल, मात्रा ८ ( [०० ) चतख्रजाति 





१ हर रे ४ न ६ 


र्‌ 


७ पर 
३े 


(६) अठतातल, मात्रा १२ ( ॥०० ) चतस्रजाति 
१ ४० ३ ४ 














४. ६ ७ ए 


& ५१० 
२ 


र३े 


(७) एकताल, मात्रा ४ (। ) चतस्रजाति 
( हिन्दुस्थाती पद्धति में 'एक ताल? १९ मात्रा की मानी गई है ) 


११ १२ 


है. 








१ २ ३ ४ 
८ 


श्०र # संगीत विशारद # 





उपरोक्त ७ तालें चतस्रजाति में दी गई हैं। यदि इन्हीं तालों को तिज्नजाति में 
मानऊर लिखें, तो इनका रुप वदल जायगा। क्योंकि चतस्रजाति में लघु को ४ मात्रा का 
माना गया है और तिखजाति में लघु? की मात्रा ३ मानी जाती हैं। उदादरणार्थ श्ुउतात 
को अब तिखजाति में इस प्रकार लिखेंगे -- 


भुवताल ( तिस्रजाति ) मात्रा ११ 


१५४२ ३ 
है 


४ ््‌ 
३ 


& ७ प 
हि 





६. १० १ 


है. 








और इसी 3वताल को खण्डजाति में लिग्यनना होगा तो, निम्न प्रकार से लिखेगे, क्योंडि 
सण्डजाति में लघु! की पॉच मात्रा मानी गई हैं। 


भ्रवताल ( खण्डजाति ) मात्रा १७ 


२३४५ | ६ ७ 
हि 





८६ ५१० ११ १२ 
डे 





ं १३ ९४ १४ १६ १७ 
हक ड 

मिश्रजाति में लघु की मात्रा ७ मानी गई हैं, अत यही घुबताल यदि मिश्रजाति में 
लिखी जायगी, तो उसका रुप यह होगा -- 


धुवताल ( मिश्रजाति ) मात्रा २३ 


१२१२३ ४४५४5 ७ 
>% 








८ ६| १० ११ १२९ १३ १४ १५ १९ 
३ डे 


१७ शिं८घ १६८ २० २१ 3०२ २३ | 
्ड 

अब इसी ताल को सफकी्ण॑जाति में लिसे तो इस ताल की मात्रा २६ हो जायेंगी, 
क्योंकि सकीर्णजाति मे शुरु की मात्रा ६ मानी गई हैं। 


धुवताल ( सकीर्णजाति ) मात्रा २६ 


२ ३3 ४४६७ ८ ६|१० ११ 


३ 








१२ १३ १४ १४ १६ १७ १८ १६ २० 
2 डरे 





१५ २० श३ उ२४ मम गर६ औमए७छ रमा ग६ 


न्द्श्पत 








£9£ः हा > एक िशा झा बन्‍॑« 





२०३ 
(_ 


शाचिशाजडा बार 





वादों के प्रकार 
भारतीय सभी वाद्यों को ४ श्रेणियों में बांदा गया है ( १ ) ततवाद्य (२) सुषिरवाद्य 
(३) अवनद्ध वाद्य (४) घनवाद्य । 


(१) वतृवाद्य--या तंतुवाद्य उन्हें कहते हैं जिनमें तारों के द्वारा स्वरों की उत्पत्ति 
होती हे। इनमें भी २ श्रेणी बताते हैं (१) ततवाद्य (२) विततवाद्य । ततवाद्य की 
अणी में तार करे वे साज़ आते हैं जिन्हे! मिजराब या अन्य किसी वस्तु की टकोर देकैर 
बजाते हैं, जेसे--बीणा, सितार, सरोद, तानपूरा, एकतारा, दुतवारा इत्यादि | दूसरी वितत- 
वाद्य की श्रेणी में गज की सहायता से बजने वाले साज़ (वाद्य ) आते हैं, जैसे-- 
इसराज, सारंगी, वायलिन इत्यादि | 


( २ ) सुपिरवाद्य-- इस श्रेणी में फूक या हवा से बजने वाले बाजे आते हें, 
बांसुरी, हारमोनियम, क्लारनेट, शहनाई, बीन, शंख इत्यादि | 
( ३ ) अवनद्ध वाद्य--इस ओणी में चमड़े से मढ़े हुए तालवाद्य आते हैं, 


2: 


से--म्रद ड़, तबता, ढोलक, खंजरी, नगाड़ा, डमरू, ढोल इत्यादि । 


( ४ ) घनवाद्य--बे हैं जिनमें चोट या आघात से स्वर उत्पन्न होते हैं, जैसे- 
जलतरद्ग, मंजीरा, मांक, करता, घंटा तरज्ग, पियानो इत्यादि । 


सितार-- 
संक्षिप्त इतिहास 


तेरहवीं, चोदहवीं शताब्दी ( १९६६-१३११६ ३० ) में अल्ाउद्दीन खिलजी के दरबार 
में हजरत अमीर खुसरो एक प्रसिद्ध कवि ओर सल्लीतज्ञ हुए है, उन्होंने एक प्राचीन वीणा 
के आधार पर मध्यमादि वीणा बनाकर उसमें तीन तार चढ़ाये और उसका नाम 'सेहतार” 
रक्‍्खा । फ़ारसी में सह”? का अर्थ तीन होता है, सम्भवतः: इसी आधार पर उन्होंने इस 
वीणा का नामकरण 'सेहतार” किया । इसमें दो पीतल के तथा १ लोहे का तार था और 
१७ परदे थे । पीतत्न के दोनों तार क्रमश; षड़ज ओर पंचम में मिल्राये एवं लोहे का तार 
मध्यम सें मिलाया गया । इसका तूम्बा आधा ही होता था और दांये हाथ की अं गुली में 
मिजराब चढ़ाऋर इसे चाहे जिस प्रकार को बेठक से बजा सकते थे अर्थात्‌ इसे बजाने में 
ऐसा कोई बन्धन नहीं था, कि किस प्रकार बैठना चाहिये । 

धीरे-धीरे इसमें तारों की संख्या बढ़ती रही | कहा जाता है कि १७१६ ई० में मुगल 
बादशाह मोहम्मद शाह के समय में इसमें ३ तार बढ़े, इस प्रकार यह छे तार का होकर 


किक मी क> 
०... व्य-क वयनाओत हयृक, नि आम | >क हे >मन: 2. 200: /म ॥ने१*आजान +पीयी है. अकीट-- ॥ हे. आ न गण लगे पार |॥ 





4५ हि जे हक जज लक कल 3 “मल कली पक ही की 


श्ण्य # सद्ठीत्त विशारद # 


तबले ऊे प्रथम ऊलाऊार उस्ताद युल्लू सा बताये जाते हैं, जिनकी शिष्य परम्परा में 
आजऊल फठे महाराज ओर झिशन महाराज का नाम विशेष उल्लेखनीय दे । 


् तबले के घराने 
तबले के मुग्य चार घराने माने जाते हैं (१ दिल्ली घराना (२) पजान घराना 


(३ ) बनारस घराना और (४) लगनऊ घराना | इन घरानो के अन्तर्गव आजकल 
निम्नाकित ० वाज प्रसिद्द हैं -- 





दिल्ली राज --इसमे चॉदी करा काम अपना विशेष महत्व रसता है । चॉटी के काम 
से दो ओगुलिया तर्जनी ओर मध्यमा का विशेष क्राम रहता है। इससे सोलो वादन से 
विशेष छुतिधा रहती है, एबं देशकार ओर फायदों का भल्ती प्रफार निर्वाह द्वोता है। 
टिल्ली घराने के मुरय प्रतिनिधि स्पृ० सत्लीकफ़ा नत्यूसा, उस्तात कालेखा, उ० मसीत सा 
आर उसके पुत्र उस्ताद करामतसा आदि हैं। 


पूर्वी घाज---इस बाज में आय गुल बोलों के काम अधिक महत्व रखते हैं, जिनके 


निकालने मे हथेली का प्रयोग अधिक होता है। पृर्वीआाज में लखनऊ ओर बनारस 
शामिल हैं। इस घराने के मुर्य कल्लाकार हैं--(१) सलीका मुन्नेसा ( लखनऊ) 
(०) उस्ताद आविदहुमेन, (३) श्री अनोसेलाल और (४) श्री ऊठे महाराज | जी कठे महाराज 
के शिष्य में भी नन्‍तजी, श्री पिक्क्ूजी, क्रिशन महाराज आदि के नाम भी उल्लेसनीय हूँ । 


'ड० अहमदजान थिरकता--इनका बाज पूर्व और पश्चिम का मिश्रित बाज 
माना जाता है। थिरफवा साहब का आजकल नाम भी अधिक सुना जाता है, इसका 
कारण यही है कि इन्होंने दिल्‍ली वाज आर पुरव चाज दोनों की विशेषताओं फो लेफर 
अपनी कला फो विकसित ऊ्िया है। सोलों ओर परन छुकढों के तो आप उस्ताद हैं दी, 
स्राथ ही साथ आप गयैये की सड्गत ऊरने मे भी विशेष कुशल हैं। आपके कई प्रामोफोन 
रंकर्ड भी तैयार हो चुके हैं, जिनमें आपकी ऊला का चमकार पाया जाता न 


शी भातसर्डेजी ने प्राचीन उत्तम तबलियों के नाम इस प्रकार बताये हैं -. 
बकसू घाडी-असिद्ध तवला बादक । 
मम्मू--गत बजाने में कुशल | 
सलारी--यत और परनु बहुत सुन्दर बजाने बाला । 
मम्बू--प्राचीन दद्ध के बाज का उत्तम त्बलिया | 
नण्जू--बकसू का शिप्य ( लखनऊ ) इसका हाथ बहुत तैयार था । 


बट ०८ -ए #ा 3 


वर्तेमान समय में तबले के उच्च ऊलाझार निम्नलिसित हैं -- 


(९) अद्दगदजान बिरकया (२) अल्लारसा (३) ऊठे महाराज (४) किशन महाराज 
/ आामताप्रसाद “ग॒ुदड महाराज! (६) अनोसेलाल (७) फरामतसा | 


सिचएए इस्प्‌ अकार अधद्फकच ८ 


# सड़ीत विशारद # २०६ 








दाहिना और बांया 
दाहिना तबला लकड़ी का होता है ओर बांया मिट्टी या किसी धांतु का। इन दोनों 
के मुँह पर चमड़ा चढ़ा रहता है, जिसे पुड़ी कहते हैं | पुड़ी के किनारे के चारों ओर चमड़े 
की गोट लगी रहती है, जिसे चांटीःकहते हैं| दाहिने तबले की पुड़ी के बीच में और बांये 
( डग्गे ) की पुड़ी के बीच से कुछ हटकर स्याही लगी रहती है। दांगे ओर बांये दोनों 
की पुड़ी चमड़े की डोरी से कसी रहती है, इन्हें बद्धी या दुआल' भी कहते है! चांटी 
ओर स्याही के बीच का स्थान 'लव” कहलाता है, इसे मैदान भी कहते है। पुड़ी के चारों 
ओर गोट के किनारे पर चमड़े के फीते का बुना हुआ गजरा लगा रहता है । “दुआतों' 
में लकड़ी के गट॒टे लगे रहते हैं, जिन्हें नीचे खिसकाने पर तबले का स्वर ऊँचा होता है । 
ओर गद्ने ऊंचे करने पर स्वर नीचा होता है | स्वर को अधिक ऊँचा नीचा करना होता है 
तभी गट्टे ठोके जाते है। मामूली स्वर के उतार चढ़ाब के लिये चांटी के किनारे वाली 
. पगड़ी या गजरे पर हल्का आधात करने से ही काम चल जाता हे ! 


तबला मिलाना 


तबले का दाँया जिस स्वर में मिल्लाना हो, उससे एक सप्तक नीचे उसी स्वर में 
बांया मिलना चाहिये। बेसे साधारणतः बांये की मिल्लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, 
फिर भी उपरोक्त नियस को ध्यान सें रखते हुए बांया भी ठीक रखने से सुविधा ही 
रहती है । ' 


तबले को प्राय: षड़ज या पंचम में ही मिलते हैं, किन्तु जिन रागों सें पंचम स्वर 
वर्जित होता हे, उनमें मध्यम स्वर में तबला मिलाते हैं । 


पहिले किसी एक घर को मिलाकर फिर दाहिनी ओर के उससे अगले घर को 
मिलाना चाहिये। इस प्रकार आगे के सब घर आसानी से मित्न जाते हैं। मिलाने का 
एक प्रकार यह भी. है कि पहले १ घर को मिलाने के बाद, फिर उसके सामने वाला 
६ वां घर मित्राते है, फिर ४ वां घर ओर फिर १३ वां घर मित्लाते हैं। इन घरों का अर्थ 
सममभने के लिये तबले की पुड़ी की गोलाई का अन्दाज १६ भागों में कर लीजिये और 
जिसे सबसे पहिले आप मिला रहे हैं, उसे पहिला भाग सममभिये, यही पहला घर है। 


तबल्ा मिंलाने से पहले गायक या वबादक के स्वर को जान लेना आवश्यक है | 
यदि उसके स्व॒र के हिसाब से तबत्ना अधिक चढ़ा या उतरा हुआ है, तब तो गढ्टों की 
ठोक-पीट करनी चाहिये, अन्यथा थोड़े से फरक के लिये जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं, 
चांटी के पास वाले गजरे पर आघात करके ही मित्रा लेना चाहिये। गजरे को ऊपर से 
ठोकने पर तबला-चढ़ता है और नीचे उल्टी चोट मारने पर तबले का स्वर उततरता है। 


तबला क्‌ दस वण 
धा घिन तिट तिन नाक घी, ता किन कत्त विचार । 
तबला के दस वर्ण हैं, इनकों लेड सुधार ॥ 


२१० # संड़ीत विशारद # 








इस अरार तबले के १० बोल बताये गये हैँ । तबने के बोले को ३ भागों में वाट 
गया है, दाहिने हाथ के बोल और बाये हाथ के बोल तथा दोनों हाथो के सम्मिलित वोल। 
(१) गहिने द्वाथ के बोल--ना, ता, तिट, क्रिट, दिं या तुन, तिन इत्यादि । 
(२) बाये दाथ के बोल्--घी, या ग, कऊ, कत्त, फिन इत्यादि | 
(3) ढोनो द्वाथो के सम्मिलित बोन--विन्न या विन, था, विन्ना, ठिन्नक, गिद्दी, किडनग, 

किटतक, त्रक, फड़ानतान, तकिट इत्यादि । 

ययपि इन चीन ग्रकार के बोलों में बहुत से ऐसे बोल आ गये हें, जे उपरोक्त ढस 
चर्णो में बताये हुए बोले से भिन्‍न दे । किन्तु मूल रुप से वाल १० दी है, उनमे से अच्तरों 
को मिलाजुला कर अधिक वोलो की उतत्ति हुई है। 


मृढदंग ( परखावज ) 


नदराज शफर का डमरू सबसे प्राचीन घन वाद्य है, उसी के आधार पर मृटह् 
की उत्पत्ति हुई। सृदद्भ की प्राचीनता का प्रमाण ऋग्तेद (४४३३६ ) से मिलता है; 
जिसमें चीणा, सदद्न, वशी और डमरू का वर्णन आया है। पुरातन काल में झंदन्न को 
पुष्क? भी जह्दा जाता था, ऐसा भरतमत के ग्रन्थों में वर्णन मिलता है। पुप्फर बाय 
देवताओं को अति प्रिय था। इसको वाल के साथ-साथ उनका नृत्य हुआ करता था, इसका 
प्रमाण अनेक प्राचीन मूर्तियों तथा चित्रों द्वारा मिलता है । 


प्राचीन पुष्फर वाद्य कई पार हे द्वोते थे, जैमे--दरीतिकी, जवाकृति, गौपुच्छाऊति। 
हरड के आऊार में जे पुप्कर होता था, उसे हरीतिकी कद्दते थे। जी के आफऊार से 
सिल्ता-जुलता पुष्कर जवाक्ृति कहलाता था और गौ की पूछ के निचले गुच्छे से जिसका 
आऊार समता रखता था, उसे गोपुच्छाक्ृति नाम दिया गया। 


सदब्ञ, मुरज और मर्दल यह 3 नाम भी एसावज के ही हैं। इस अझार सदड् 
के विभिन्‍न नाम और उनकी आह्ृतियों फा वर्णन पन्यो में मिलता है। सदड्भ का विशेष 
प्रचार दक्तिण भारत में रहा । कुछ समय वाद उत्तर भारत के सन्लीवन्नों ने मदब्न से 
मिलता-ज्ुल़ता प्रकार बनाकर इसका नाम प्रावज रख लिया। प्माचज पर अनेक 
कठिन-कठिन तालो ऊा प्रयोग हुआ करता था। द्वुपठ, धमार, ब्रह्म, रुद्र, विष्णु, लद्षमी, 
सवारी इत्यादि ताले इस पर बाजाई जाती थीं। डिन्तु जबसे तबले झा आविष्कार हुआ, 
खदड्ल का अचार चहुत्त कम होगया, अब ते सदद्भ के दर्शन सन्दिरों में, कीर्तन मश्डलियों 
में यदा-कढा हो जाते हैं। फिर भी छुछ गुणीजन इसको महत्व देते हैं और इसका उपयोग 
भी करते हैं। है 

प्रसिद्ध प्ायजियो में ला० भवानोप्रमादर्सिध पस्रावजी को भातसडे जी ने 
अध्रतिम पसावजी कहकर सम्बोधित क्रिया है। प्रसिद्ध पपावजी कुदझसिद इन्हीं के 
शिष्य थे | आंध के नयाव द्वारा उन्हें “छुबरटास” की पदवी प्राप्त हुई थी। कहा जाता है 
कि एकबार बाजिद्अली शाह डी एक महफिल मे कुटऊर्सिंह व जेतासिंद पसायजियों को 
गजा ने १०००) रुपये झी यैली, इनकी कला पर प्रसन्‍न होकर उपहार में दी थी । 

इनके मुचाव, ताजा ( डेरेदार ) भवानीसिंद सलीफा नासिस्गा इत्यादि पस्रावजी 

हांगये हूँ । 


के ७ जे बक के अंक पल कै 


अक्कच्यार रस्य अनार व इप्छपफ्टाश 


# सड्ीत विशारद # २११ 





पेखावज को बनावट 


दांया तबला और बांया डग्गा दोनों के निचले भाग मिलाकर एक जगह ढोलक 
की तरह रख दिये जांय तो पखावज का ही रूप बन जाता है। तबत्ना ओर पखावज में 
एक भेद तो यह है कि पखावज में दांया और बांया अलग-अलग न होकर दोनों का 
आकाश ( पोल ) एक ही है | यही कारण है कि तबले की अपेक्षा प्वावज में गूज अधिक 
जाती हे, क्योंकि एक तरफ थाप देने से दूसरी ओर गूज स्वयं उत्पन्न होती है । दूसरा 
भेद तबला ओर पखावबज में यह हे कि तबला के बोल बजाने में थाप का प्रयोंग कम 
होता है और उँगलियों का काम अधिक होता है, किन्तु पत्लावज में थाप का काम अधिक 
महत्व रखता है ओर उंगलियों का काम कम होता है। पखावज में बांई ओर गीला आटा 
लगाया जाता है, जब स्वर॒नीचा करना होता है तो आटा कुछ अविक लगाते हैं और 
ऊँचा स्वर करने के लिये आटा कम कर देते है । 


तबला और पखखावज मिलाने का ढंग लगभग एक सा ही है अतः उसे यहां दुहराने 
की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । 


पखावज के बोल 


सड़ीत रत्नाकर ग्रन्थ में मृदड़” के १६ वर्ण माने गये हैं, जिनका प्रमाण 
निम्नलिखित श्लोक से मिलता है;-- 


हू वर्जितः क वर्गश्च टतवर्गों रहावपि। 
इति पोडशवणों: स्युरुभयोः पाटसंज्ञका ॥ 
अर्थात्‌ क-ख-ग-घ-ट-ठ-ड-ढ-त-थ-द-ध-न-र-म-ल । किन्तु आधुनिक 
. कलह्नाकारों द्वारा सदद्गा के अजक्षर-बोत्न दूसरे ही निश्चित किये गये है। जिन्हें ३ भागों में 
बांटा जाता है । 
(१ ) खुले बोल--जिन अक्षरों की बजाने पर सुरीली आंस निकलती है, वे 
खुले बोल कहलाते हैं | 
( २ ) बन्द बोल--जिनको बजाने के बाद सुरीली ध्यनिन निकलकर दबी हुई 
आवाज निकलती है, वे बन्द बोल कहे जाते हैं। 
( हे ) थाप--जब स्याही के ऊपर वाले आधे भाग पर सब अँगुलियां मिलाकर 


पंजा मारा जाय और शीघ्र ह्वी कनिष्टका अंगुली की ओर वाला हथेली का भाग स्याही के 
किनारे पर आजाय, इस कृत्य को थाप या थप्पी कहते है । 


प्राचीन ग्रन्थों में वरित झद॒ज्ञ के बोलों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, किन्तु 
आधुनिक मसद॒द्भ वादक निम्नलिखित बोल मानते है। यद्यपि इनमें विभिन्‍न मत हैं, किन्तु 
ये ही अधिक उपयोगी मालुम होते 


११२ # संद्रीत विशारद # 


सम्राट परायाार पाक पाएनारलउपानप५३ रात पाए अनस*गरलाएभदाप्ानटश जमकार> पर गाल कर फरकर सका पधाषक पृ नासा:फन्‍€क्‍ खपत भा दयादाप कमान हाकापपभर महात्मा करा 5 पका उकमज १९ ल्‍राताकलसाक. 
मुप्य वोल--ता-त-टी-थु -ना-धा-इ-ध्ये-दी-ग-रिपरें-में>-स । 
आश्रित बोल--रा-क-ग-णु-घु-पी-ला-थेई-ड्ा-को-टी-यरे । 


तानपूरा - 


गायरों हे लिये तानपुरा ( वम्बूरा ) एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तार बाय है। इसमें 
स्सी गाने की गत नहीं निम्लती, केवल स्वर देन के लिये ही इसका प्रयोग फ्रिया 
जाता है | गायक अपने गल्ले के वर्मानुसार इसमें अपना स्वर फायम कर लेते हैं ओर फिर 
इसकी मार के सहारे उनका गायन चलता रहता है । 


अंग वर्णन ५ 


( १ ) तुम्मा--नीचे से गोल और ऊपर कुछ चपटा द्वोता है। इसके अन्दर पोल 
होती दे, जिसके कारण स्पर गूजले हैँ। 





( २) तयली--तुस्बे के ऊपर झा भाग, जिस पर त्रिज लगा रहता दै 


(३ ) ब्रिज--धुर्च या घोडी भी इसी को कहते हैं, इसझे ऊपर वानपूरा के चारों 
तार डे रहते हैं । 


( ४ ) डॉड--तुम्बे में जुडी हुई लकडी की पोल्ी डडी, इसमें सूँटियों लगी 
रहती हैं तथा तार इसके ऊपर णिचे रहते हैं। 


( ४ ) लगोट--तुम्वे को पेंडी में १ कौल लगी रहती है, इससे तानपूरा के चारों 
वार आरम्भ होकर खूटियो तक जाते हैं। 


. (६) अटी--सूँढियो की और डॉड पर हड्टी की २ पद्टिया लगी होती हैं जिनमें 
में १ के ऊपर द्वार वार जाते हैं, वह अटी कहलाती दे । 


; (७) तारगहन--दूसरी पट्टी जो अटी के बराबर द्वोती है, उसमे ४ सूरास 
दोते हैँ जिनमे में देकर चारो तार सूढियों तक जाते हैं, इसे तारगहन कहते हैं । 


(८ ) गुलू--जिस स्थान पर तुम्बा और डाँड जुडे रहते हैं, इसे शुल या शुल, 
कह्दा जाता है | 


हि ( ६ ) खू टियों--अटी व तारगहम के आगे लकड़ी की ७ छजिया लगी द्ोतो हैं 
जिनमें तासपूरे के चारों तार बे रहते हैं, इन्हें ख्‌ टियो कहते हैं। 


_ (१०) मनका--ब्रिज और लगोट के बीच में तार जिन सोतियों में पिरोये होते हैं 
उन्हे सनका कहते हैं। इनकी सहायता से ताों में आवश्यकतानुसार थोडा सा उततार-चढाव 
रके स्वर भिलाये जाते हैं 

्षतानेला७ रुच्० छू ० 


ट लव 


# सड़ीत विशारद # २१३ 





(१२) सत--त्रिज और तारों के बीच में धागे का टुकड़ा दबाया जाता है, इसे 
उचित स्थान पर लगाने से तानपूरे की झनकार खुली हुई और सुन्दर निकलती है । वास्तव 
में यह धागे ब्रिज की सतह को ठीक करने के लिये होते हैं, जिसके लिये गायक बहुधा ऐसा 
कहते हैं कि तानपूरे की जवारी खुली है। यहां पर जवारी का अर्थ ब्रिज की सतह 


से ही है | क्‍ 
तार मिलाना 


तानपूरे में ४ तार होते हैं, इनमें से पहला तार मन्द्र सप्तक के पंचभ ( प्‌ ) में, बीच 
के दोनों वार ( जोड़ी के तार ) मध्य पडज ( स ) में और चोथा वार मन्द्र सप्तक के षडज 
( स्‌) में मिल्राया जाता हे | इस प्रकार तानपूरे के चारों तार पृ स स स्‌ इन खबरों में मिलाये 
जाते हैं । जिन रागों में पंचम वर्जित होता है (जैसे ललित) उसमें पंचम वाला तार मध्यम 
से मिलाते हैं। 

तानपूरे के पूस स यह तीनों तार पक्के लोहे ( स्टील ) के होते हैं और चौथा तार 
( स्‌ ) पीतल्न का होता है। किसी-किसी तम्बूरे में पहला तार भी पीतल का होता है, जिसे 
मौनी या भारी आवाज़ के लिये लगाते हैं, किन्तु ज़नानी था ऊँचे स्वर की आवाज़ के 
लिये लोहे का ही ठीक रहता है । 


तानपूरा बेड़ना 


तानपूरा बजाने को तानपूरा छिड़ना? कहा जाता है । चारों तारों को दाहिने हाथ की 
पहिली या दूसरी अं गुली से छेड़ते हैं। चारों तार एक साथ नहीं छेड़े जाते बल्कि बारी- 
बारी से एक-एक तार छेड़ा जाता है । 


९ 
तानपूरे की बैठक 
विभिन्‍न गायकों के अलग-अलग ढह्ढ होते हैं। कोई एक घुटना नीचा और एक 
घुटना कुछ ऊँचा करके बैंठकर तानपूरे को छेड़ते हैं, कोई तानपूरे को ज़मीन पर लिटाकर 
0 के. ! 8. किक ९ 4 ४. तु 
छेड़ते हैं । अनेक बड़े-बड़े गायक ऐसे हैं जो स्वयं गाते हैं और तानपूरा उनका शार्गिंद या 


अन्य कोई व्यक्ति छेड़ता रहता है। इससे उन्हें गाते समय अपने भाव व्यक्त करने में 
सहायता मिलती हे । 


वायोलिन ( बेला ) 


वायोलिन ( ७४०॥४ ) या बेला एक विदेशी वाद्य है। गज से बजने वाले समस्त 
वाद्यों में आजकल इसे प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है। इस यन्त्र की उत्पत्ति और 
आविष्कार के बारे में विभिन्‍न मत पाये जाते हैं | 

जो लोग इसे विदेशी वाद्य मानते हैं उनके मतानुसार इसका आविष्कार यूरोप में 
१६ वीं शताव्दी के मध्य में हआ और तभी से यह प्रचलित है । 


२१४ # सगीत विशारद # 





एकमत के अनुसार बेला! को मूल रूप में भारतीय यत्र कद्दा जाता हूँ इस मत के 
अनुयाइयों का ऊद्दना दे कि लफापति रायण ने एक तार वाला एक वाद्य यन्त्र इजाद जिया, 
डसे गज से ही नजजाया जाता था ओर उसका नाम “रावण स्त्रम” रग्या गया। इसके 
पश्चात्‌ ११ वीं शताब्दी के अन्त में भारतवर्ष होरर परणिया, अरेबिया, तथा स्पेन द्वोता हआ 
यह्द यन्त्र थारोप पहचा, यथद्या पर इसमें परिवर्तन करके, वर्तमान वायोलिन के रूप में इसका 
विकास स्या गया । 


एऊ पाश्चात्य विद्वान के मतानुसार 9०० वर्ष पहिले योरोप में ( ०॥ ) बॉइल 
नामक एक बाद्य यन्त्र का आजिष्फार हुआ, जिसका प्रचार सोलदी शतात्दी के उत्तरार्ध 
तक रहा । बाद में इसी वायल यन्त्र के ढह्ढ पर वायोलिन बनाया गया । एक अर मतानुसार 
१४६३ ३० में वेनिस नगर के एक आ्रामीण 'लीनारोली” ने “टनर वॉयोलिन” का आविप्फार 
किया था, उसी के आबार पर इटली के २ फलाफारों ने इसमें कुछ ओर विशेषताएं 
सम्मिलित करके इसे नयीन रूप दिया | कोई-कोई इसे जरमनी का आिप्फार भी बताते हैं। 
इस प्रकार बेला के सम्बन्ध में अनेक घाराणाएं पाई जाती हैं । कुछ भी सदी यद्द तो 
मानना ही पडेगा कि अपने आधुनिक रूप मे यह पूर्णरूपेण एक विदेशी बाय है। भारत 
में इसऊा प्रचार ढिने। दिन बढ़ रहा है ओर अश्रच्छे बेला-चादक भी अश्र कर्ट होगये हैँ । 

हक. 3. 


वेला के विभिन्न भाग 


क 


बेला ऊे मुस्य ६ भाग द्वोते है -- 

(१) बॉडी (8०0५ )--डसे बेला का शरीर सममिये, अन्दर से पोला हो 
फारण इसमें आयाज गृ जती रहती है इसे बेली भी ऊद्दते हैं। 

(२) फिंगर बोर्ड ( ।प78० 9०४० )--इस पर अ्ँगुलियो की सहायता से स्घर 
निराले जाते हैं.। 


(३) टेलपीस ( 7थ्शी 70८० )--पह भाग है, जिसमे चार सूराख द्वोते हैं, इन 
चारों सूराखों मे होकर ४ तार खूटियो तक जाते है। 


ध।ै 


क्र 


ञऊ 


(४) एए्डपिन ( छत0 900 )--दसमें टेलपीस वात के हारा फसा रहता है । 
(४) ब्रिज ( 87086 )--इसझऊे ऊपर होकर तार स्टियो की ओर जाते हूँ 
(६) साउन्डपोस्ट ( 50097 90% )--यद बेला के अन्दर, त्रिज के ठीऊ नीचे 
लगा रहता है । 
गज ( 8०४ ) और उसके भाग 


उैला जिस छडी से बजाया जाता दे उसे “वो” कहते हैं, इसके ४ भाग दोते हैं -- 


(्स् (१) गज की छडो (5प०0 (+) बाल (प्रथा) जो कि इस छडी में कसे रहते हैं 
5 ( जिललज ) इक्ष प्रफार का का पेच जिसे उल्टा या सीया ऊसने से वो? ( गज ) 





# संगीत विशारद # २१४ 
साया पा प्रायशालकानााााााााा नाक का आत भ #आ ५ धरा ध तत  आआ आर > ततत  त त  त न्‍ आदत 9५990 पदक तक 
के बाल तनते हैं या ढीले होते हैं। (४७) नट ( ॥7४) इसमें बाल फंसे रहते हैं और जब 


पेच घुमाया जाता है तो यह सरकने लगता है, (५) हेड--यह 'बौ? का अन्तिम सिरा है । 


रेज़न ( २८छ॥8 ) 


यह एक प्रकार का बिरोज़ा होता है, इस पर बो-( गज़ ) के बाल घिसकर तब 
बेला बजाते हैं, इससे आवाज स्पष्ट ओर सुन्दर निकलती है । 


बेला के ७ तार ओर उन्हे मिलाने की पद्धति 
बेला में कुल चार तार होते हैं जो क्रमशः (> 70 & 5 कहलाते हैं, इनको मिलाने 
के ढद्भ कई प्रकार के हैं। * 


प्रथम प्रकार--प्‌ सा प सां इस प्रकार मिलाते हैं यानी मन्द्र सप्तक का पंचस, 
मध्य सप्तक का षडज, मध्य सप्तक का पंचम और तार सप्तक का पडज | 


दूसरा प्रकार--सा पृ सा प इस तरह मिलाते है यानी पहिले दोनों मन्द्र सप्तक 
के षडज पंचम में ओर बाकी २ सध्य सप्तक के षडज पंचम में । 


तीसरा प्रकार--म सा प रें इस प्रकार मिलाते हैं। भारतवर्ष में अधिकतर यह 
तीसरा प्रकार ही प्रचलित हे। 


ड़सराज 


'इसराज? एक प्रकार से सितार ओर सारंगी का ही रूपान्तर है । इसका ऊपरी भाग 
३ उ है पु किक 0 ४७ जज को 
सितार से मिलता हे और नीचे का भाग सारंगी के समान होता है । इसराज को दिलरुबा 


बे बा [कप ०] हे > 
भी कहते है । यद्यपि इसकी शक्ल में थोड़ा सा अन्तर होता है किन्तु बजाने को ढद्छः 
एक सा ही होता हे | इसीलिये इसराज और दिलरुबा प्रथक साज़ नहीं माने जाते । 


इसराज के मुख्य अड्र 
(१) तू बा--( खाल से मढ़ा हुआ होता है ) इसके ऊपर घोड़ी या ब्रिज लगा 
रहता है । 


(२) लंगोट---तार बांधने की कोल होती हे । 
(३) डॉड---इसमें परदे बंधे रहते हैं। 


(४) घुचे--खाल से मढ़ी हुई तबल्ली के ऊपर का हड़ी का टुकड़ा जिस के ऊपर 
तार रहते हैं; इसे घोड़ी या ब्रिज भी कहते हे । 


(५) अटी---सिरे की पट्टी, जिस पर होकर तार गहन के भीतर से खूटटियों 
तक जाते हैं । 


आय मा 0550 4 5 23222 


श्श्दद # सह्ठीत विशारद # 





इसराज के ४ तार 


बाज का तार---यह सन्द्र सप्तक के सध्यम ( मं ) में मिलाया जाता है | 


दूसरा च तीसरा तार--बह ठोना तार मन्द्र सप्तक के पडज (स॑) में मिलाये 
जाते दें, इन्हें जोडी के तार ऊहते हैं । 


चौथा तार--मद्ध सप्तक के पचम ( ५) से मिलता है, इस प्रकार इसराज के चारों 
तारससमप में मिल्राये जाते हैं, कोई-फ्ोई क्लाफ़ार म सप सथा स स पृ प इस प्रफार 
भी मिलाते हैं । इनके अतिरिक्त इसराज में तरप ऊे तार ओर द्वोते हैं, जिन्हें भिन्‍त-मिन्म 
शागो के अनुसार मिला लिया जाता है। * 


इसराज के परदे 


इसराज में १६ परदे ते हैं, जोकि सितार की भात्ति पीतल या स्टील के बने हुए 
होते हैं.। यह परदे निम्नलिसित स्वरो में दोते हें -- 

मे पृ व मिनिसारेगमम॑ ५ धनिखसारेंग 

१ ४ मे ४ ४ 5 ७८४६ १० ११ १२ १३ १४७ १५ १६ 


सितार की भाति इसराज से कोमल स्वर बनाने के लिये परदों जो सिसकाने फी 
आवश्यकता नहीं पडत्ती । कोमल स्वरों के स्थान पर आऑगुली रस देने से ही काम चल 
जाता है । 


इसराज बजाने में बाये द्वाथ की तर्जुनी और मध्यमा अर्थात पहली व दूसरी 
ऑँगुलिया काम देती हैं। गज को दाहिने हाथ से पऊछते हैं। इसराज को बाये कन्धे के 
सहारे रपकर वजाना चाहिये। प्रारम्भ में गज धीरे-धीरे चलाना चाहिये तथा गज 
चलाते समय तार को अधिक जोर से नहीं दवाना चाहिये। पहिले स्वर सावन का अभ्यास 
हो जाने पर गतें निकालने की चेष्टा करनी चाहिए । 





कु 


वांसुरी 


यह भारतवर्ष का अति प्राचीन फूक का चाद्य है ने 
हि । भगवान रो 
से लगाकर इसे अमरत्व प्रदान कर दिया द्दै। हे ४९३७७४४४ 


58 कक चाहुरी हक प्रकार की मिलती हैं, किन्तु हम यहा पर उसी का विपरण 
ह 32 कप हैं. और श्यप्रेजी ढेग पर उसकी टूयून को हुई होती है । 
हर र्फ सु काफी पचलित हैं, किन्तु उसे चासुरी के कुशल बादक ही पहिचान 

कि इसकी ट्यून ठीऊ है या नहीं। चहुत से कल्लाजार बास की बासुरी अपने 


#सज्जीत विशाद # ....... २१७ 





लिए स्वयं बना लेते हैं; किन्तु सभी के लिये,तो ऐसा करना' सम्भव नहीं हो सकता, 
अतः ६ सूराख वाली बांसुरी बजाने की विधि दी जारही हे । 


बांसुरी में सरगम निकालने की विधि 


सर्व प्रथम बांसुरी के सब सराखों को इसः प्रकार बन्द करिये कि बांये हाथ की 
पहली-दूसरी-तीसरी अँगुलियां ऊपर के ३ सूराखों पर जमाई जांय। फिर दाहिने हाथ 
की पहली-दूसरी-तीसरी अं गुलियों से नीचे के तीनों सूराख बन्दे किये जाँये । ध्यान रहे कि 
सूराखों को आओ गुलियों की पोर से अच्छी तरह दबाना चाहिए । यदि बीच में कोई भी 
उ'गुली सूराख से तनिक भी हट गई तो आवाज़. फटी-फटी निकलेगी । 
.. सब सूराख उपरोक्त विधि से बन्द करने के बाद मुँह से हलकी फूँक लगाइये, 
इसमें सब सूराख बन्द होने पर जो स्वर निकलेगा, वह मन्द्र सप्तक का १ होगा । बाकी स्वर 
एक-एक अंगुली क्रमानुसार उठाने पर इस प्रकार निकलेंगे:-- 


पृ-सब सूराख बन्द करने पर | 
ध्‌- नीचे का १ सूराख खोलले पर | 
नि- नीचे केश ?! ? 
सा-नीचे के ३ ” !? 

रे-- नीचे के ४. ?” » 
गनीचे के & ” ! 
म॑--सब सूराख खोल देने पर | 


इस प्रकार ६ सूराखों से पृध निसा रेगर्म यह सात स्वर निकले। इनसें मध्यम 

+ है ऊ ५ हँ / कर के बा ः आर + 
तीत्र है, बाकी स्वर शुद्ध हैं। मः यमको शुद्ध बनाने के लिये ऊपर का सिर्फ आधा सूराख 
दबाना पंड़ता हे तथा अन्य र्बरों को कोसल बनाने के लिए भी सूराखों का अर्थ प्रयोग 


[4 


किया जाता है | 


इसके आगे के स्वर यानी मध्य सप्तक के प ध नि ओर तार सप्नक के स्व॒र निकालने 
के लिए क्रम बिलकुल यही रहता है, सिफे मुंह की फूँक का वज़न बढ़ा दिया जाता है। 
उदाहरणा4--सब् सूराख बन्द करने पर हलको फूक से मन्द्र पंचम (प्‌ ) निकला है तो 
फूक का वज़न दुगुना कर देने पर वही सभ्य सप्तक का पंचस ( प) बन जायगा | इसी 
प्रकार अन्य स्वर भी फू'क के दबाब के आधार पर आगे को सप्नक के निकलेंगे | 


बांसुरी पर पहले यमन राग के स्वरों सा रेगर्मपधनि का ही अभ्यास करना 
चाहिए, क्योंकि यम्नन राग में मध्यम तीत्र ओर बाकी स्वर शुद्ध हैं और बांसुरी में भी 
पूरे सूराखों के खुलने पर यही स्वर आसानी से निकलते हैं। बाद में अभ्यास होजाने पर 
गम आधे:-आधे सराखों के श्रयोग से अन्य विक्ृत स्वर भी निकलने लगेंगे । 


मिश्च्चा बता >व्चछछए जरएफ्रल्साभाबन्न मा >६- २ 3>लक लमकन 
के 2,757 श्र 
न 4 





दा नी 


जप पक कया सर फ 
है 


श्श्८ # संद्नीत विशारद # 


व्कअररापयकनाकराका "डर: ८: 7::पपपट पट: काज पट पपत पक पतयकपआा पड काप कर यादापर उधार भार धा ५४ उलल्‍ रा 52 & मन +व ताक वविादी मापा मकर 


यन्ब-वाद्कों के गुरा दोष 


3 ७ की. बिता ;. शव 
प्राचीन मन्थकारों ने वाद्य यत्त्र बजाने बालों के गुण-द्रोषो का जो वर्णन किया है, 
उनका भावार्थ इस प्रकार है -- 





बादक के गुण 


(१) गीत, वाद्य, नृत्य में पारगत ही । 

(२) मिनन-मिन्न बाद्यों (साज़ों) फो बजाने में कुशल हे। । 
(9) वाद्य यन्त्र बनाने की जानकारी रसने बाला हो । 

(४) प्रहद धान रसने वाला हो । हि 

(४) अंगुली सचालन में कुशल हो । 

(४) ताल और लय का ज्ञान रखता हो ! 

(७) विभिन्‍न वाद्य यन्त्री के विषय में पूर्ण ज्ञान दो । 

(८) हस्त संचालन में कुशल हो । 


(६) किस वाद्य वन्त्र को बजाने में कौनसे शारीरिक अवयवो से सहायता मिलती है, 
इसका ज्ञान सपने बाला हो। 


(१०) स्वयं के उतार-चढ़ाव का ज्ञान रसने वाला द्वी 


बादक के दोष 


जिन वादकों में उपरोक्त १० शुण नहीं है या जो बादक दक्त बातो का ज्ञान नहीं 
स्सते और फिर भी किसी वाद्य को बजाने की चेष्टा करते हैं, थे सफलता प्राप्त नहीं 
कर सकते | इस प्रकार उक्त १० गुणों का अमाव ही १० दोपों में बताया गया है। 





ध ः २१६ ०२ 
. इन्टर और विशारद कोस के लिये कुछ 
संगीत विद्वानों का संक्षिप्त परिचय 
जयदेव 


'ीतगोविन्द' के यशस्वी लेखक जयदेव का नाम साहित्य और सद्भजीत जगत में 
आदर के साथ लिया जाता है। आप उच्च कोटि के कवि होने के साथ-साथ वाग्गेयकार 
ओर सद्गजीतज्ञ भी थे । भारतीय संगींत में आपको उच्चस्थान प्राप्त है । 


जयदेव कवि का जन्म बंगाल के केन्डुला ग्राम में ईसा की बारहवीं शताब्दी में 
हुआ था, आपके पिता का नाम- ओ सजीयदेव था। उस युग के बेष्णव सम्प्रदाय के 


सुप्रसिद्ध महात्मा श्री यशोदानन्दन के आप शिष्य थे | आपके गुरुजी त्रज में निवास 
करते थे । ' 


वाल्यकाल में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण, अल्पायु में ही जयदेव 

घर-बार छोड़कर जगन्नाथपुरी चले गये और वहां के पुरुषोच्तमधाम में निवास करने लगे । 

इसके पश्चात्‌ आपने अन्य प्रसिद्ध-प्रसिद्ध तीर्थस्थानों की यात्रा की और कुछ समय त्रज 

* भूमि में भी श्रमण किया | कुछ समय बाद आपका विवाह होगया और अपनी पत्नी के 

साथ आपने देश का पर्यटन किया। तत्पश्चात्‌ आपने 'गीत गोविन्द” नामक प्रसिद्ध संस्कृत 
ग्रंथ की रचना की । 


गीतगोबिन्द! जयदेव की एक अमर कलाकृति है। इसके अनुवाद विभिन्‍न 
भारतीय भाषाओं में तो हो ही चुके हैं, साथ ही, लेटिन, जर्मन और आ ग्रेज़ी भाषाओं में भी 
इसके भाषान्तर हो चुके हैं। इस से भली-भांति विदित होता है कि यह ग्रंथ कितना 
महत्वपूर्ण हे । 

जयदेव कवि गायन एवं नृत्य के भी प्रेमी थे, इसलिये 'गीतगोबिन्द? में प्रत्येक 
अष्टपदी पर राग व ताल का निर्देश मिलता हे । उनकी कविताएँ आज भी अनेक वैष्णव 
मंदिरों में राग और ताल सहित गायी जाती है। दक्षिण के कुछ मन्दिरों में तो नृत्य के 
साथ आपकी अष्टपदी अभिनीत की जाती हैं, जिनमें ताल और लय के साथ-साथ भाव 
प्रदुशन भी होता है । गीतगोविन्द की मूल रचना संस्कृत में करके आपने कुछ सद्जीत 
प्रबन्ध हिन्दी भाषा में भी रचे । इसका प्रमाण आपके बनाये हुए कुछ घरुवपदों द्वारा अब 
भी मिलता है । 


कहा जाता है कि आप एक राज दबौर में सम्मानपू्वक रहते थे; किन्तु अपनी पत्नी 
( पद्मावती ) के स्वर्गवास हो जाने के बाद, राजाश्रय छोड़कर अपने गांव में चले आये 
आर कुछ समय तक साधु जीवन व्यतीत करते-करते अपनी जन्म भूमि में दी परलोक वासी 
होगये । उस गांव में आपकी एक समाधि है, जहां प्रतिवर्ष मकर संक्रान्ति के दिन अब तक' 


लक त्ता लगता है| रा री७॥७७७एएए-एएनढ०: या जाए» आए आआ 





२२० # सड़ीत विशारद # 


>रमल-रशााजाल-€-ब९<०-चपायटपा-ानपापा८रराटााल मन याद टन दावा ता नए ७ #ामा ३७2०७ ०५५ नाता राकाााए2१५भा का कमा रस परम ाण, 








शाड़ देव 


भारदीय सद्ीत ऊे प्राचीन एवं प्रसिद्ध प्रन्थ “सन्नीत रनाकर!” के रचविता 
सी शाह ठेव १३ वीं शताब्दी के पूर्तोर् ( १९१०-१२०७ ) में देवगिरी (दक्षिण ) के 
बादशाह के दवौर में रहते थे । आपके वाया ऊाश्मीरी आह्मण थे, जो बाद मे आफर ठे वगिरी 
में बस गये। 


इनके पिता श्री सोढला, यादव राजा मिल्लमा ( ११८७-११६१ ) 38० ओर सिंहना 
( १०१८-१२१७ ) ई० के वर्चार में उ्य कर्मचारी थे। शाह्न देव के प्रति राजा का भी 
प्रेम था । इसने प्रतीत होता है कि आपकी शिज्ञा-दीज्षा राजाअय मे हो हुई । 


आपने “'महीत ख्वाकरए सामऊ प्रस्थ म नाद, श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्छना जाति 
इत्यादि करा भली-भाति वियरेचन क्या दै। अनेऊ पूर्थी लिखित ग्रन्थों की सामग्री लेकर 
तकालीन उत्तरी दक्षिणी सह्ीत करा समस्ध्रय किया है। आपने छुल १० विक्वत स्वर माने हैं 
तथा सात शुद्ध और ग्यारह विकृत इस प्रखार १८ जातिया मानी हैं। इन जातियों का 


विस्तृत घर्णन फरने के बाद आम रागों को जातियों से उत्पन्न बताया हैं और प्राम रागो से 
ही अन्य राग विज्ससित बताये हैं। 


शाह देब के स्वर और राग आधुनिक स्वर ओर राणगों से मेल नहीं खाते, कारण 
यह है कि उन्होंने ले श्रुतिअन्तर कायम ऊिये थे, वे आज के श्रुतिअन्तर से भिन्न हैं। 
यद्यपि 'सन्नीव रत्नाकर में वर्सित राय आज उपयोग से नहीं आ सकते, तथापि पुस्तक के 
अन्य भार्गों में जे विस्तृत विवरण इस विद्वान ने दिया हैँ उससे आधुनिक समय में बडी 
सहायता मिलती है। कुछ विद्वानों ने शाह्नदेव का शुद्ध थाट झुसारी' जिसे आधुनिक 
कर्नौटक सगीत से 'कनक्रागी? भो फहते हैं, स्वीकार किया है । 


[५ अमीर | 
अमीर खुसरो 

अमीर खुसरो का पिता अमोर मोहम्मद सैफुदोन चलबन का निवासी था। 
हिन्दुस्तान से आने ऊँ पश्चात्‌ इसके यहा अमीर सुसरो का जन्म हुआ | एक क्षेर्यक के 
मतानुसार आपका जन्म 5४३ हिजरी (१२३४ ०) है. तथा अन्य लेसक १०५४३ ई० सानते 
हैं । खुसरों का जन्म स्थान एटा ज़िले में 'पटियाली! नामऊ स्थान का माना जाता है| खसरो 
अत्यन्त चतुर ओर बुद्धिमान था। उस काल क्रे सान से योग्य शिक्षा पाने के पश्चात 
अमीर खुसरों गुलाम घराने के दिल्ली पति गयासुद्दीन बलयन के आश्रय से रद्द । किन्तु 
कुछ दिनों बाद गुज्ञाम पराने का अन्त होगया ओर सल्तनत सिल्लजी वश के कब्जे में 
आगई, अत खुसरो भी ग्िलगी बश का नोऊर हो गया । 

अलाइद्दीन गिलजी ने १२८० ई० में जब देवमिरी के राना पर चढाई की उस समय 
अमीर खुमरों भी उसके साथ था। इस लड़ाई मे देवमिरी के राजा की पराजय हुई। 
दैवगिरी से उस समय गोपाल नायक नामऊ सह्ीत का एफ़ उत्कृष्ट विह्मन रहता जा । 
खुसरो ने एक छल पूर्ण प्रस्ताव रयकर राज दरबार में उससे सन्लीत प्रतिओगिता मागी और 
उसे आपने चातुर्य चल से पराजित ऊर दिया | ऊिन्तु बह गोपाल नायक की कला फा हृदय 


के करता था, इसलिये दिल्‍ली लोढते समय गोपाल नायक को भी उसके साथ 
पडा । 


# सद्जीत विशारद # २२१ 





दिल्ली ओअकिर खुंसरो ने सद्जीत कला में अपूब क्रांति पैदा की। इसनें दक्षिण के 
शुद्ध स्वर सप्तक की योजना कर उसे ग्रचलित क्रिया। लोक रुचि के अनुकूल नये-नये 
रागों की रचना की । राग वर्गीकरण का एक नवीन भ्रकार राग में ग्रह्ीत स्वरों से निकाला । 
इसने रागों में गाने योग्य तहेशीय साषा में नये-नये गीतों की रचना की । यही गीत आगे 
चलकर “ख्याल” के नाम से प्रसिद्ध हुए, अतः ख्याल का जन्म दाता भी खुसरो को मानते हैं । 


इसके पश्चात्‌ अमीर खुसरो ने वाद्ययन्त्रों में भी काफ़ी परिवर्तेन किया। दक्षिणी 
वीणा में चार तार की बजाय तीनतार कर दिये, वारों का क्रम उलट कर उसमे अचल 
परदे लगा दिये। इसके अतिरिक्त द्रत्नय में बजाने को आसानी पेदा करने के लिये इसकी 
गतें स्थिर कीं ओर उन्हें ताल्न में निबद्ध किया। प्राचीन वीणा की अपेक्षा यह परिवतित 
वाद्य अधिक लोकप्रिय होगया | इस वाद्य में तीन तार होने के कारण इसका नाम 
सहतार (सितार) फ़ारसो नाम रकखा | वर्तमान सितार” इसी वाद्य का रूप कहना चाहिये | 


मीर खुसरों ने , सद्भजीत” विषय पर फ्लारसी की कई पुस्तकें भी लिखीं। भारत 
और फ़ारस के सज्ञीत के मित्रण से कई राग भी ईजाद किये, जिनसें--साजगिरी, 
उश्शाक्र, जिला, सरपरदा आदि स्मरणीय हैं। खुसरो ने गाने की एक नवीन ग्रणाली को 
भी जन्म दिया जिसे क्रव्वाली कहते है। इस प्रकार सद्भीत के क्षेत्र में अमिट कार्य करके 
लगभग ७२ वर्ष की आयु में अमीर खुसरो स्वर्गेवासी होगये | 


० न्‍् गापात् नायक 


अल्लाउद्दीन खिलजी ने सन्‌- १५६४ ई० में देवगिरी ( दक्षिण ). पर.चढ़ाई की थी, 
उस समय वहां रामदेव यादव नाम्तक राजा राज्य करता था। इसी राजा के आश्रय में 
गोपाल नायक दरबारी गायक रहता था । इसी समय गोपाल नायक ओर अमीर खुसरो 
की सद्भीत प्रतियोगिता हुईं। खुसरो के छल और चातुर्य द्वारा गोपाल नायक को पराजित 
होना पड़ा ओर उसने अपनी हार स्वीकार करली | किन्तु अमीर खुसरो हृदय से इसकी 
विद्वता का लोहा मानता था, अतः दिल्ली वापिस आते हुए उसने' नायक को भी साथ ले 
लिया । दिल्ली में गोपाल नायक को गायक के रूप में पूर्ण सम्मान प्राप्त हुआ। गोपाल 
नायक के विषय में एक किवदन्ती अबतक चली आ रही है कि, जब कभी यह दिल्ली से 
बाहर जाते थे,-तब अपनी गाड़ी #े बैलों के गले. में समयानुसार, रागवाचक ध्वनि पैदा 
करने वाले घन्टे बांध दिया करते थे। चतुर कल्लिनाथ ने भी रत्नाकरः ग्रंथ के तालाध्याय 
की टीका में ताल व्याख्या के अन्तर्गत गोपाल नायक के नाम का उल्लेख किया है, इससे 
प्रमाणित होता है कि उस समय के सद्नीत विद्वानों में गोपाल नायक का काफ़ी 
सम्मान था । 


... -. इतिहास के संकेतानुसार गोपाल नायक सन्‌ १९६४ और १५६४ ईं० के बीच दिल्‍ली 
पहुँचे । उस समय के उपलब्ध संस्कृत ग्रंथों में घ्रुपद नामक प्रबन्ध का उल्लेख नहीं मिलता, 
इससे सिद्ध होता है कि गोपाल नायक ध्रुपद नहीं गाते थे | उनके समय सें सम्भवतः अन्य 
प्रबन्ध प्रचलित थे, जो संस्कृत, तामिल, तेलगू आदि भाषाओं में थे । 


गोपाल नायक जाति के ब्राह्मण थे। देवगिरी के पश्चात्‌ आपके जीवन का शेष 
अतदा फिकत्ी सें ही वयतीत हछा ओर वहीं इसकी सत्य भी हो ग 


श्श२ # सड्ीत विशारद २४ 








स्वामी हरिदास 


जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास का हिन्दी साहित्य का सकातिकालीन माघच फह्ा 
जाता दै, उसी प्रकार स्वामी हरिदास जी को भी भारतीय सद्भीत का रक्चक कहना पडेगा। 
स्थामी हरिटास का जन्म भाद्रपद शुक्ला अष्टमी सम्वत्‌ १४५६ मे, उत्तर प्रेदेंश के अलीगढ़ 
जिले मे, सैर बाली सडक पर एक छोटे से गाव से हुआ था। तभी से उस गान का नाम 
मी दरिदासपुर ही गया | आपके पिता का नाम श्री आशुधीर था, जो कि सुल्तान जिले के 
डच्च ग्राम के निवासी थे। आप सारस्पत प्राह्मण कुल ऊ प्रतिश्ठित व्यक्ति थे। भी दरिटासजी 
की माता का नाम गड्डा था | 


याल्यऊाल से ही सद्लीत के सस्कार स्वाभायिक रूप से आपके अन्दर विद्यमान थे। 
आगे चलकर यह सम्कार एक दम विकसित हये और कृष्ण भक्ति में लीन दो गये । २५ वर्ष 
की तरुण अवस्था में ही आग वृन्दावन आ गये आर निधुबन निकुज की एक मॉपडी में 
नितरास करने लगे। यहाँ पर एक मिट्टी का बतंन और एक गुढ्डी, यद्दी स्वामी जी की 
सम्पत्ति थी । 


ब्रज रेशु के कण-कण मे, जमुुना ऊे नीर में, गयन मण्डल के चाद तारो में, आप 
भगवान कृण की लीलाओं की मनोरम माफिया करने लगे । चारों ओर से गु जित होने 
पाले मुरली के मधुर नाद ने स्थामी जी को आत्म विभोर कर दिया। 


बुन्द्रायन से नियास फरऊे स्वामी जी ने न्रज भापा में अनेक घुपद गीती फ्री रचना 
की एवं उन्हे शास्रोक्त राग तथा तालों में गाऊर जिज्ञाछुओं को तृष्त किया । 


यों तो स्वामी जी का सट्गीत-प्रसाद अनेक व्यक्तियों जो मिला होगा, किन्तु इनके 
सुस्य शिप्यो के नाम नाद विनोद? नामक प्रथ से इस प्रकार पाये जाते हैं -- 


बजू , गोपाल लाल, मदन राग्र, रामदास, दिवाऊर परिडत, सोमनाश्र परिडत, 
तन्‍ना मिश्र (तानसेन) और राजा सौरसेन | 


मद्रास म्रात को छोड़कर समस्त देश में चर्तमान प्रचलित शात्योय सद्गीत स्वराम्री जी 
एव उसके शिंय्यो को ही विभूति है । सड्जोत कल्पद्रम मे चहत सी रचनाएं स्थामी जी की ही 
रची हुई प्रतीत होती हैं। आजफ्ल भज में जो रासलीला प्रचलित है उसको स्वामी दरिद्रास 
की द्वी देन समकना चाहिये । रास के पढों की गायन युक्त परियाटी फ्रे प्रवर्तक आप ही थे 
जी आज तक लोऊग्रिय होकर यार्मिक भायनाओ को कलात्मक रूप दे रही दे । 


_.._ नाभादास जी के एक छ'पय्र से प्रतिध्वनित होता है ऊि स्थामी दरिदास के स्रद्भीत 
को सुनने के लिये चरड़-बड़े राजा-महाराजा उनके द्वार पर सडे रहते थे ! एक वार सम्राट 
अकपर ने भी तानसेन के साथ आऊर मुप्त रूप से स्वामी जी का गायन सुना था। 


शासर के न १६६४ बि० ही ६» वर्ष फो अवस्था पाऊ़र आप इस भौतिझ 
ऊ त्याग कर सरैव के लिये निपियन की कुन्जो मे बिलीन हो गये। 





# सड़ीत विशारद # ु २२३ 








तानसेन 


हि निःसन्दे ह, सज्जीत शब्द से जिन व्यक्तियों को थोड़ा भी प्रेम होगा वे तानसेन के नाम 
से भी भली भांति परिचित होंगे। यद्यपि इस महापुरुष की मृत्यु को हुए लगभग चारसो वर्ष 
हो चुके फिर भी सज्जीत संसार में इसकी विमल कीर्ति आकाश के सूर्य के समान प्रदीघ्र हो 
रही है। आज हम नीचे लिखी पंक्तियों में इस महान्‌ सड्जीतकार की जीवनी का संक्षिप्त 
परिचय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं:-- 
सन्‌ १४०० ई० के लगभग की बात हे, ग्वालियर में मुकन्दराम पाण्डे नामक ब्राह्मण 
निवास करते थे, कोई-कोई इन्हें मकरन्द पांडे के नाम से भी पुकारता था | पांडित्य और 
सद्जीत विद्या में लोकप्रिय होने के साथ-साथ आपको धन-धान्य भी यशथेष्ट रूप में प्राप्त था । 
यदि कोई चिन्ता थी तो सन्तान हीन होने की, आपकी पत्नी भी पूर्ण साध्वी एवं कर्मनिष्ठा 
थीं। दम्पति को संतान की चिन्ता हर समय व्यग्र बनाये रहती । आखिरकार वह समय 
भी आ गया, जबकि इनकी चिन्ता एक दिन हमेशा के लिये समाप्त हो गई। मुहम्मद ग़ोस 
नामक एक सिद्ध फ़कीर के आशीर्वाद से सन्‌ १५४२ ई० में, ग्वाज्ियर से सात मील दूर 
एक छोटे से गांव “बेहट” में, इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुईं। बालक का नाम तन्ना? मिश्र 
रक्‍खा गया । # 
बच्चे का पालन पोषण बड़े लाडू-प्यार से हुआ--एक मात्र संतान होने के कारण 
मां-बाप ने किसी प्रकार का कठोर नियंत्रण भी नहीं रक्खा । फल स्वरूप दस वर्ष की 
अवस्था तक बालक 'तन्ना? मिश्र पूर्ण रूपेण स्वतंत्र, सेलानी एवं नटखट प्रकृति का होगया । 
इस बीच इसके अन्दर एक आश्चर्यजनक प्रतिभा देखी गई; वह थीं आवबाज़ों की हूबहू 
नक़ल करना | किसी भी पशु-पक्ती की आवाज़ क्री असल कापी कर लेना इसका खेल था | 
शेर की बोली बोलकर अपने बाग़ की रखवाली करने में इसे बड़ा मज़ा आया करता था | 
एक दिन बृन्दावन के महान्‌ सद्भीतकार सन्यासी स्वामी हरिदास जी अपनी शिष्य 
मण्डली के साथ-साथ उक्त बाग में होकर गुज़रे तो बालक 'तन्‍्ना” ने एक पेड़ की आड़ में 
छुपकर शेर की दहाड़ लगाई । डर के मारे सब लोगों के दम फूल गये। स्वामी जो को उस 
स्थान पर शेर रहने का विश्वास नहीं हुआ और तुरन्त खोज की । दहाड़ता हुआ बालक 
मिल गया । बालक के इस कोतुक पर स्वामी जी बड़े प्रसन्‍न हुए । उन्होंने जब अन्य पशु- 
पक्षियों की आवाज़ भी बालक से सुनी तो मुग्ध हो गये और उसके पिता जी से बालक को 
सन्नीत शिक्षा देने के निमित्त मांगकर अपने साथ ही वृन्दावन ले आये । 
गुरु कृपा से १० वर्ष की अवधि में ही बालक तन्‍ना धुरंधर गायक बन गया ओर 
यहीं इसका नाम 'तन्‍ना? की बजाय तानसेन! हो गया। गुरुजी का आशीर्वाद पाकर 
तानसेन ग्वालियर लोट आये | इसी समय इनके पिता जी की मृत्यु हो गई। मृत्यु से पूर्व 
पिता ने तानसेन को उपदेश दिया कि तुम्हारा जन्म मुहम्मद ग़ोस नामक फक्रीर की कृपा से 
हुआ है, इसलिये तुम्हारे शरीर पर पूर्ण अधिकार उसी फ़क्नीर का है। अपनी ज़िन्दगी में 
उस फ़क़ीर की आज्ञा की कभी अवहेलना मत करना | 
पिता का उपदेश मानकर तानसेन मोहम्मद ग्रौस फ़क्कीर के पास आ गये । फक्ीर 
साहब ने तानसेन को अपना उत्तराधिकारी बनाकर अपना अतुल वैभव आदि सब कुछ उन्हें 
# तोनसेन की जन्म तिथि तथा सन्‌ के बारे में विविध मत पाये जाते हैं, कुछ लेखक इनका जन्म * 
सज्न 9५ ६ और कोई १५२० ई० बताते हैं। विधि मर नकली 





२२४ # सद्जीत विशारद # हि है 









सींप दिया ओर आप तानसेन ग्वालियर में ही रहने लगे | थाडे दिनो बाद राजा मानसिंह 
की वियवा पत्नी रानी 'सृगनयनी! से तानसेन फा परिचय हुआ । रानी सृगनय्नी भी बडी 
मधुर एप बिदुपी मायरिका थीं, वह तानसेन का गायन सुनकर बहुत प्रभावित हुई । उन्होंने 
अपने मड्जीत मन्दिर म शिक्षा पाने वाली हसेनी ब्राह्मणी नामक एक सुमथुर गायिका लडकी 
ऊे साथ तानसेन का विवाह कर दिया। 


वियाह के फचातू तानसेन पुन अपने गुरुजी के आश्रम बृन्दावन में शिक्षा आप्य 

करने पहचे । इसी समय फकरीर मोहम्मत गौस का अन्तिम समय निकट आ गया। फल- 
स्वरुप गुरुजी के आदिश पर तानसेन फो तुरन्त ग्यालियर परापिणत आना पड़ा | फफीर साहब 
की सत्यु हो गइ और अब तानसेन एक विशाल सम्पत्ति ऊे अधिकारी बन गये । अप यह 
ग्यालियर में रहकर आनन्दरपृर्यफ गृहस्थ जीपन व्यतीत करने लगे | इनके चार पुत्र ओर 
एक पुत्री का जन्म हुआ। पुत्रों का नाम--मुस्तसेल, तरब्लसेन, शरतसेन ओर बिल्ञास सा 
तथा लड़की का नाम सरस्वती रक्‍्ख़ा गया। तानसेन की सारी सम्तान सद्गीतकला के सस्कार 
लेकर पेटा हुई । सभी बच्चे उत्कृष्ट कलाकार हुए | 

मद्जीत साधना पूर्ण होने के चाद सबमे प्रथम तानमेन को रीवा नरेश रामचन्द् (राजाराम) 
अपने दरबार मे ले गये । इन्दीं दिनो तानसेन का सोमाग्य सूर्य चमक उठा। बादशाह 
अफबर सिंहासनारूद हए । महाराज रामचन्द्र और अकबर का प्रगाढ दोस्ताना था, अत 
महाराज ने वानमेन जैंस दुर्लभ रतन को चादशाह्‌ अम्पर की सेट कर दिया | सन्‌ १४४६४ 
में तानमिन अकयर के दरबार में दिल्ली आ गये | बादशाह ऐसे अमल्य रत्न को पाकर 
अन्त प्रमन्‍्त हुआ ओर तानसेन फो उसने अपने नप्रत्ना मे सम्मिलित कर लिया । 


यह तानसेन का शोर्यकाल था । बादशाह के अद्दूट स्नेह ओर ऊला का यथेष्ट सम्मान 
पाकर तानसेन की यश पताका उन्मुक्त होकर लहराने लगी। अफपर तानसेन के सड्जीत का 
शुल्लाम वन गया | कलापारगी अकबर तानसेन की सड्जीत माधुरी में इृब गया । बादशाह 
पर तानसेन का ऐसा पक्का रह्ठ सवार देसरर दूसरे दरवारी गजैये जलने लगे। ओर एक 
टिन इत्होंने तानमेन के विनाश की योजना बना ही डाली । यह भव लोग धादशाह के पास 
पहुच कर कहने लगे कि हुओूर हमसे तानसेन से 'टीपफ रागः सुनवयाया जाय ओर आप भो 
सुनें । इस राग को ठीऊ-ठीऊ तानेसेन के अलावा और कोई नहीं गा सकता। घादशाह 
राजी हो गये। तानमेन द्वारा इस राग का अनिष्ठकरफ परिणाम बताये जानें ओर लाख 
मना करने पर भी अरुबर की राजहट नहीं टली और उसे दीपक राग गाता ही पड़ा। राग 
जैम ही शुरू हुआ गर्मी चढी ओर बीरे-यीरे यायुमए्डल अग्निमय हो गया। सुनने चाल 
अपन- अपन प्रात तचान की इपरइपर छुप गये, किन्तु तानसेन का शरीर अग्नि की लए्टों 
से जल उठा । उसी समय तानसेन अपने घर भागे वहा उनकी लड़की तथा एक गुरु भगिनी 
ने मेपराग गाकर उनके जीयन की रक्षा फी | उस घटना के कई मास पश्चात्‌ तानसेन का 
शरीर स्पस्थे हुआ। अकबर भी अपनी गलती पर चहुत पछताया । 

तानसेन के जीवन में-पानी वरसाने, जगली पशुओं को बुलाने, रोगियों रो ठीऊ करने 
आदि की अनेऊ चमक्कारपूर्ण यूटनायें हुईं । यह निर्वियाद सत्य हक गुरु कृपा से इसे 
बहुत से राग रागनिया सिद्ध थे और उस समय ढेश सें तानसेन जैसा दूसरा फोई सड्डीतन्न 
नहीं था। तानसेन ने व्यक्तिगत रुप से ऊई रागे। का निर्माण भी किया, जिंनमें दरबारी- 
कुंड, पिया, की सार, मिया मल्लार आदि उल्लेपनीय हैं) 


न 








|. इस प्रकार अमर सक्भीत की सुखद त्रिवेणी बहाता हुआ यह महान्‌ सद्जीतज्ञ सृत्यु के 
तकट भी आ पहुँचा | दिल्ली में ही तानसेन ज्वर से पीड़ित हुए; अन्तिम समय जानकर 
नहोंने ग्वालियर जाने की इच्छा प्रकट की, परन्तु बादशाह के मोह ओर स्नेह के कारण 
ग़नसेन फरवरी सन्‌ १५८५ ई० में दिल्ली में ही स्वर्गवासी हुए। इच्छानुसार तानसेन का 
रब ग्वालियर पहुँचा कर फकीर मोहम्मद ग्रोस की कब्र के बराबर समाधी बनादी गईं। 
तानसेन की सृत्यु के पश्चात्‌ उनका कनिष्ठ पुत्र बिलास खां, तानसेन के सद्जीत को जीवित 
रखने ओर उसकी कीर्ति को प्रसारित करने सें समर्थ हुआ | 


२५२ 
बेजूबावरा 
यह सुग्रसिद्ध गायक तानसेन का मित्र ओर एक दृष्टि से तानसेन का प्रतिद्वन्दी 

भी था ओर अकबर बादशाह के समय ( १५४५६-१६०४ ईं० ) दिल्‍ली में रहता था। 
यह उसी काल के प्रसिद्ध गायक गोपाललाल का भी मित्र था। बैजू ने अनेक ध्रुपद 
बनाग्ने हैं. जिनमें गोपाललाल, तानसेन और बादशाह अकबर का नामोल्लेख किया हुआ 
मिलता है । विद्यार्थियों को यह भी मालुम होना चाहिये कि "नायक बैजू? और 'बैजूबाबरा' 
थे दो मिन्‍न-सिन्‍त गायक थे और भिन्न-भिन्न काल्ों में हुए हैं। बैजूबावरा ने कभी 
बादशाह की नोकरी स्वीकार नहींकी । १६ वीं शताब्दी में अकबर के राज्यकाल में ही 
यह स्वर्गवासी हो गये । 


सदारंग-अदारंग 


ख्याल की बहुतसी चीज़ों में “सदा रंगीले मोमद सा” ऐसा नाम कई बार देखने 
में आता है | १८ वीं शताब्दी में न्‍्यामतखां नाम के एक प्रसिद्ध बीनकार हो गये हैं । यह 
अपनी बनाई हुई चीज़ों में उस समय के बादशाह मोहम्मद शाह का नाम डाल दिया 
करते थे | बादशाह को प्रसन्‍न करने के लिए ही वे ऐसा किया करते थे। न्‍्यामतर्खां अपना 
उपत्तास 'सदारंगीतले” रखकर साथ में बादशाह का नाम जोड़ भी दिया करते थे । 'सदारंगीले” 
को ही सदारक्ञ भी कहा जाता था । न्‍्यामतखां ( सदारह्ड' ) के ख़ान्दान के बारे में बताया 
जाता है कि ये तानसेन की पुत्री के ख़ान्दान में दसवे व्यक्ति थे। इनके पिता का नाम 
लालसानीखां और बाबा का नाम खुशालखां था । | 


यद्यपि ख्याल रचना का कार्य स्व प्रथम अमीर खुसरो ने शुरू किया था, . किन्तु 
उस समय ख्याल-रचना विशेष लेकप्रिय न हो सकी । इसके बाद सुल्तानहुसैन शर्की, 
बाजबहादुर, चंचलसेन, चांद्खां, सूरजखां ने भी यही कार्य करने की चेष्टा की, किन्तु 
उन्हें भी विशेष सफलता न मिल सकी। न्यामतखां ने उनकी इन असफलताओं का 
कारण दूढ़ निकाला । इन्होंने अनुभव किया कि जब तक कविता में बादशाह का नाम 
न डाला जायेगा, तब तक वे अच्छी तरह प्रचलित नहीं हो सकेंगी । साथ ही इन्हें रूठ 
हुए बादशाह को भी खुश करना था, क्योंकि वेश्याओं को तालीम न देने पर एक बार 
बादशाह इनसे नाराज़ हो गये थे, अतः वे उपनाम “सदार॑गीले” के साथ बादशाह का 
ताम तो डालते लगे, किन्तु इसकी खबर बादशाह को न होने दी कि यह कविता किसकी 
बनाई हुई है और सदारज्ष कौन है। इस प्रकार बहुतसी कवितायें न्यामत्खां ने तैयार 


के. टकड । "पु ४75 + + दव्कडी--ापर८ाणजरा+नच एप र७-००७५०--. 





२२६ # सड्रीत विशारद # 





करके अपने शागि्दों को भी याठ कराई ओर जब बादशाह को यह कवितायें रयाल में 
गाऊर सुनाई गई तो थे बडे प्रभावित हुए और यह जानने की इच्छा प्रगट फी ऊि यह्‌ 
सिदारगीले! फौन है ? न्यामतसा के शागिर्दों मे जवाब हिया कि हमारे उस्ताद जिनका 
असली नाम न्यामतसा है, उनका द्वी तस्तल्‍्लुस ( उपनाम ) 'सदारगीले? है। बादशाह ने 
कहा अपने उस्ताद फो घुलाऊर लाओ । न्‍्यामतस्रा दरबार में उपस्थित हुए तो मोहम्मद शाह 
ने उनके पुराने अपराधों को क्षमा करके, उन्हें पुन आदर पूर्वक अपने दरवार में रख 
लिया और वे वीणा वजाकर गायऊों का साथ करने के लिए स्थायी रूप से दरबार में 
रहने लगे। इस प्रफार सद्रक्ष ने अपना रत्न जमा लिया और गुणियों में आदर 
प्राप्त कर लिया । 


सदारक्ष के ख्याले मे विशेष रूप से शद्धार रस पाया जाता है। कहा जाता है 
कि सदारह्न ने स्यय अपनी ये चीज़ें महफिले में नहीं गाई | उनका कहना था कि सुद 
अपने लिये या अपने खानदान के लिये मेंने यह चीज़ें नहीं बनाई हैं, बल्कि बादशाह 
सलामत को सुश करने के उद्देश्य से, ही इनक्री रचना की गई है। इतना द्वोते हुए भी 


इनकी रचनाएं समाज में काफी फैल गई । ख्याल गायक और गायिकाओं ने इनकी चीजें 
खूब अपनाई । 


सदारब के साथ-साथ कुछ चीज़ों में अदारद्भ का नाम भी पाया जाता है। इसके 
बारे में एक इतिहासकार का कथन है कि न्यामतसा के २ पुत्र थे, जिनका नाम 
फीरोजज़ा और भूपतस्रा था। “अदारह्ृ” फीरोज़सा का ही उपनाम था। भूपतसा का 
उपनाम महारह्? था। इस प्रकार पिता के साथ-साथ दोनों पुत्र भी सद्भीत के क्षेत्र में 
अपना नाम मर्वदा के लिये अमर बना गये! 


बालकृष्ण चुवा ( इचलकरंजीकर ) 


श्री बालकृप्ण बुवा इचलकरजीकर अखिल भारतीय सह्लीत कला कोविदों में एक 
जच्च श्रेणी के गायक हो गये हैं । श्रसिद्ध सद्भीताचार्य प० विष्णुदिगम्बर पलुस्कर इन्दीं के 
शिष्य थे। बालकृप्ण चुआ का जन्म सन्‌ १८४६ ई० ( शाके १७७९ ) में कोल्हापुर के 
पास चन्दूर नामरु स्राम में हुआ था। इनके पिता रामचन्द्र बुआ स्वयं एक अच्छे 
गायर थे, इस फारण वाल्यफाल से दी इनके अन्दर भी सद्भीत की अमिरुचि उत्पन्न 
हो गई। भाऊ घुआ, देवजी बुआ, हद खा, हस्सूल़ा आदि विद्वानों से इन्होंने ध्ुपव- 
धमार, र्याल और टप्पा की शिक्षा पाई, अत इन चारों अड्डों के आप कलावन्त थे | 


कुछ समय बाद इन्हें जोशी घुवा नामक प्रसिद्र सद्गीतज्ञ से भी सद्डीत शिक्षा 

प्राप्त हुई ओर अपने परिश्रम तथा रियाज् के द्वारा थोडे समय में ही बालक्ृष्ण बुआ 

गायत्ाचार्य चन गये। आपने समस्त हिन्दुस्तान व नैपाल का अ्रमण किया। अनेऊ 

सज्ञीव-सम्मेलनों में भाग लिया। बम्बड़ में आपने गायन समाज की स्थापना की और 

सद्लीददपेण नाम का एक मासिक पत्र भी चलाया, रिन्तु श्वास रोग के कारण आपको 

नम्नई छोडनी पडी । छुछ समय बाद आप आंध के स्टेट गायक हो गये । वहा प्रात'काल 
आ५ दो, पिशाजञ करते और फिर शिप्यों को पढाते थे। 2 


# सड़ीत विशारद # २२७ 





कुछ समय बाद आपने इचलकरंजी नामक रियासत सें स्थायी रूप से राज-गायक 
की पद्वी स्वीकार कर ली, तभी से आप इचलकरंजीकर के नाम से प्रसिद्ध हो गये 
ओर पुनः समस्त भारत का अ्रमण करके आपने सद्भीत का प्रचार किया | इसी बीच 
आपके एक मात्र सुपुत्र का निमोनिया से यकायक देहान्त हो गया और फिर एक सुपुत्री 
भी चल बसी । इन आधघातों से आपके स्वास्थ्य को विशेष धक्का पहुँचा, फलस्वरूप सन्‌ 
१६२६ में इचलकरंजी में ही आप स्वर्गवासी होगये। 


पं० रामकृष्ण वके * 


आपका जन्म सन्‌ १८७१ ई० में सावन्त वाड़ी के ओंक्रा नामक आम में हुआ था | 
१० मास की शिशु अवस्था में ही आपको छोड़कर आपके पिताजी स्वर्गवासी हो गये, 
अतः इनका पालन-पोषण माता के छ्वारा ही हुआ। ४ वर्ष की अवस्था में इनकी माताजी 
इन्हें लेकर कागल नामक स्थान में आकर अन्ना खाहब देश पांडे के यहां रहने लगीं | 


बाल्यकाल़ में विद्या अध्ययन के समय आपकी रुचि का प्रवाह सद्भीत की ओर 
मुड़ गया । अध्यापकों के अनुरोध पर आपकी माताजी ने आर्थिक दशा प्रतिकूल होने पर 
भी, किसी प्रकार आपको सल्लीत शिक्षा दिल्लाने का प्रबन्ध किया | उस समय भाग्य से 
इन्हीं के गांव में बल्वन्तराव पोहरे नामक दरबारी गायक रहते थे, उनसे आपने २ वर्ष 
. तक सन्लीत शिक्षा प्रहणु को । तत्श्चात्‌ मालवन सें विठोवा अन्ना हड़प के पास रहकर 
उनकी गायकी सीखी । 


बारह वर्ष की अवस्था में ही आपका विवाह कर दिया गया । विवाह होते ही आपके 
सामने आर्थिक समस्या खड़ी हो गई और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये आप पूना होते हुए 
पैदल ही बम्बई जा पहुँचे | बम्बई में गा-गा कर दस बारह रुपये कमाये | वहां से आप 
नाना साहब पानसे के पास सन्नीत सीखने के उद्देश्य से इन्दौर पहुंचे । वहां आपको 
बन्देअली तथा चुन्ना के गाने और उनकी वीणा सुनने का अवसर मिला । 


तत्पश्चात्‌ आपने ग्वालियर में रहकर अनेक कष्ट उठाते हुए भी अपनी सद्भीत- 
शिक्षा जारी रक्खी । खां साहब निसारहुसेन पर आपकी काफी अ्रद्धा थी । उनकी फटकारों 
खाकर भी आपने बहुत कुछ सन्नीत शिक्षा उन्हीं से प्राप्त की। इस बीच इन्हें प्राचीन 
उस्तादों की संकीर्ण मनोबृत्तियों के बड़े कठु अनुभव हुए । फत्तस्वरूप आपने सद्भीत शिक्षा 
देने एवं सज्नगत सम्बन्धी पुस्तकें प्रकाशित करने का संकल्प कर लिया । 


अन्त में उनका आर्थिक जीवन भी सुखमय होगया था। शारीरिक गठन सुन्दर 
एवं स्वास्थ्य अच्छा होने के कारण आपका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था। किन्तु अन्तिम 
दिनों में आपको मधुमेह जेसी दुष्ट बीमारी ने निर्बेल बना दिया। फलस्वरूप आप शनै:-- 
श्नेः अधिक निरबल होते गये और ४ सई सन्‌ १६४४५ ई० को पूना में आपका देहावसान 
हो गया । 


न्ज्ण 





अब्दुल करीम खां 


स्रा साहेब अब्दुलफरीम सा ऊिराना के नियासी थे। इसके घराने में प्रसिद्ध 
गायक, तम्तझार व सारद्ली-बादक हुए हैं | इन्देने अपने पिता कालेसा व चाचा अब्डुज्ञासा 
मे सद्गीत शिक्षा प्राप्त की । यद्द बचपन से ही बहुत अच्छा गाने लगे थे । ऊद्दा जाता हैं 
ऊि पहली बार जय इन्हें एक सद्हडीव-मदकिल में पेश क्रिया गया, तव इनकी उस जय 
६ वर्ष की थी | पन्द्रहये वर्ष में प्रवेश करते-करते इन्होंने सदक्गीत कला में इतनी उन्नति करली 
कि आपको तत्कालीन बडीदी नरेश ने अपने यहा दरवार गायक नियुक्त कर लिगया। 
बडीदा में 3 वर्ष तक रहने के पश्चात्‌ १६०२ ई० में प्रथम बार आप बम्बई आये और 
फिर मिरज गये। मधुर ओर सुरीली आवाज़ एप छदयप्राही गायकी के कारण 'ठिनोंदिन 
इनकी शोकप्रियता बढती गई | 


सन्‌ १६१३ फे लगभग पूना में आपने आर्य मद्ठदीत विद्यालय की स्थापना वी। 
वित्रिध सगीत जल्से के द्वारा धन इऊद्ठधा करके आप इस विद्यालय को चलाते थे । गरीन 
विद्यार्थियों का सभी खर्च विद्यालय उठाता था | इसी विद्यालय क्री एक शाया १६१७ ई० 
में मा साहय ने बम्बई में स्थापित की और स्वय तीन वर्ष तक वम्बई में आपको रहना 
पडा । इन टिनों आपने एक कुत्तो फो बडे विचित्र ढद्ढ से स्वर देने के लिये सिसा लिया था, 
बम्बई में अन भी ऐसे व्यक्ति मोजूड हैं, जिन्होंने अमरोली हाउस बम्बई के जल्ते में 
इस ऊत्ते को स्वर देते हुए सुना था । कई कारणों से सन्‌ १६२० में यह विश्वालय उन्हें 
बन्द कर देसा पडा ओर फिर सा साहय मिरज जाऊर बस गये और अन्त तक वहीं रहे । 


सता साहब गोबरहारी वाणी की गायकी गाते थे। महाराष्ट्र मे मींड और कण युक्त 
गायऊी के प्रसार का श्षेय या साहय को दही है। इनके अलापो में असडता एवं एक प्रवाह 
सा प्रतीत होता है | सुरीलेपन के कारण आपका समीत अन्त करण को स्पर्श रने फ्री 
क्षमता रमता था। पिया बिन नाहीं आवत चैन! आपकी यह ठुमरी वहत प्रसिद्ध हुईं। 
इसे सुनने के लिये कला ममेन्न विशेष रूप से फर्माइश किया करते थे | यद्यपि आप शरीर 
से कमज़ोर थे, किन्तु आपका दृदय बडा विशाल और उदार था। आपका स्वभाव अत्यन्त 
शान्त और सरस था, ओर एक फफीरी बृत्ति के गायक थे ) 


गया साहब की शिप्य परम्परा बहुत विशाल है। प्रसिद्ध गायिका द्वीरावाई बढौदेकर 
ने सा साहब से ही किराना घराने की गायकी सीसी है। इनके अतिरिक्त सवाईं गन्धर्व, 
रोशन आरा वेगम आदि अनेक शिष्य एबं शिष्याओं द्वारा आपका नाम रौशन दोरहा दै । 


एफ बार वार्षिक उसे के अवसर पर आप मिरज आये थे । कुछ लोगों फे आमरह वश 

एक जत्से में बद्धा से मद्रास जाना पडा, वद्दा पर आपका एक सडद्जीत कार्यक्रम में गायन 
इतना सफल रहा कि उपस्थित जनता ने आपकी भूरि-भूरि प्रशला की। फिर एफ सस्था 
की सहायता जल्से करने के लिये वहा से पाडचेरी जाने का निश्चय हुआ । इस यात्रा मे 
दी स्रा साहव फ्रो तवियत ग्पराव हो गई और रात्रि के ११ बजे सिंगपोयमकोलम स्टेशन पर 
उतर गये | बेफल्ली बढती गईं, कुछ ढेर इधर उबर टदलमने के बाद वे बिस्तर पर बैठ गये। 
नमाज पढ़ी ओर फिर दबौरी ऊान्दड़ा जे स्परों में सुढा की इवादत करने लगे | इस प्रकार 


गाते-गाते २७ अफ्टूबर सन्‌ १६९७ ह० को आप हमेशा के लिये उसी बिस्तर पर लेट यये 
। स्लिय्या की सार , लता 


# सड़ीत विशारद # २२६ 








इनायत खाँ 


इनायत खां का जन्म सन्‌ १८६४ ई० में इटावा में हुआ । अपने समय 
में सुरबहार के आप एक प्रसिद्ध कल्लाकार होगये हैं। इनके बाबा साहेब दाद खां 
ध्रुपक, ख्याल और गजल शैली के विशेषज्ञ थे, साथ ही वे जलतरंग और सारज्ञी वादन 
में सी कुशल्न थे । 


इनायतखां के पिता इमदादखां हिन्दुस्तान के प्रसिद्ध सुरबहार ओर सितारवादक थे । 
जोंड और गत तोड़ा शैली में वे अपनी सानी नहीं रखते थे। महाराजा नोगांव तथा 
महाराजा बनारस के यहां दरबारी गायक के रूप सें रहने के पश्चात्‌ कल्कत्ते में महाराजा 
सर यतीन्द्र मोहन टेगोर के यहाँ रहे। इसके बाद इसदाद खां ३००) मासिक वेतन पर 
अवध के नवाब वाजिद अली शाह के कोर्ट म्यूजिशियन नियुक्त हु५प। फिर कुछ समय 
बड़ोदा दरबार में रहने के बाद अन्त में अपने दो पुत्रों के साथ इन्दौर दरबार में रहे । 
इनकी मत्यु सन्‌ १६२० ई० में ६२ वर्ष की आयु में होगई। आपने अपने पीछे २ पुत्र 
और ४ पुत्रियां छोड़ी । 


इमदाद्‌ खां के २ पुत्रों में इनायत खां छोटे और वहीद खां बड़े हैं। इनायत खां 
ने छोटी उम्र से ही ध्रुपद, ख्याल और ठुमरी आदि की तालीम अपने पिता से प्राप्त की थी, 
इसके पश्चात्‌ आपने विभिन्‍न रागों के बारे में जानकारी हासिल की और अपने पिता से 
ही सुरबहार और सितार बजाना भी सीखते रहे । अपने सतत परिश्रम और अभ्यास के 
फलस्वरूप शीघ्र ही इनकी गणना अच्छे कलाकारों में होने लगी। काठियावाड़, मैसूर, 
बड़ौदा ओर इन्दौर में अपनी सद्जीत सेवाऐं' अर्पित करने के बाद कुछ समय तक गौरीपुर 
के ब्रजेन्द्रकिशोर राय चौधरी के यहां नौकरी में रहे । 


इसके पश्चात्‌ इनायत खां ने विविध सद्भजीत सम्मेलनों में भाग लेकर अनेक 
स्वणपदक प्राप्त किये । इनके सित्तार बादन में जो मिठास था, वह सुनते ही बनता था । 
मेमनसिंह जिले के कई स्थानों में आपका शिष्य समुदाय फैला हुआ है । सन्‌ १६१८ के 
सगभग आपका शरीरान्त होगया । इनके पुत्र विज्ञायत खां आजकल एक सफल सितार 
वादक के रूप सें गोरीपुर घराने का नाम ऊँचा कर रहे हैं। 


श्री भातखणडे और विष्णु दिगम्बर पलुस्कर 
इनका संक्षिप्त परिचय इस पुस्तक में प्रष्ठ २६ व ३० पर देखिये । 


थ्द के है ४ # % क# है] 3७ [0 | 5 $ | ७ ३ ॥0 
#श५ एह ॥8 ७४४६ (२४२ 4४ 4 ७ $ ॥६ ॥9 
४0% | ॥908 %७ $ #शि[8 |... कक ++2 2४ 
म+ ४४ 9 ३४४ ५ 5 ६ 9 (े है| 8 ७ ४ 5 ६ 8 
खाक |. ॥9 है 8४ 5 ४ $ 39 भे % ४ 5 है (9 
छ$ऊ ४७ २ है 8 # # 7 को 9४ ३ फे 


रे हो 
दर दातशवर्धिणगल 
म्र्फि घ्रिएफप 
है 
छ 
को 


5 
दे 
रे चाहा 
७ ह््प 
॥ 
| 
है 

















बे 

फछ 

4 

छ 

4 

& 
भछ ॥४0७ ६॥0 48 ४६४ ४ ४ 5 ६ ७ ४४२३४ ४ 0 ३ ॥७ 8] 2३६ ८०४४ | े 
गि१ ९ | ॥छ३ ७४ ३४ ७ ॥६| १७ (के कु # ५ ४ ४ € 0२ ४ क्क्स्टाफ मे 
४9४ 22४८ ४६) |. १७ & 0५४ ४ #९॥७े फखेष्४8३4० | ५ कफ एकफओाक 
3४४ ॥07£ 3202 (४ € (४ ४ +» 8 0) )9 फ्रेश ४३ ४ | ०५ फो। ४ ॥:॥ | 
प पेहऋमम ७ 0६8४४४॥४।| ० हु छ फ्छ७ हें 
न रह 5 #४५म थि 8 फिधु।४०४४०७३2४( ? के म्प्यः 6 
॥ रे ४४४७ पे +. फो8 2008 फएड्टाएे |. ० 0 # 90% ० 
+॥% १४ 4७३४४ १४७ ॥:)) 80 9: #फ् #पह१8 ५ 
१४ 0४७ 0 | ॥0६ ४१४ ४१४४६)8 ॥9 जात ४७७ | ४ *| २ 0/26 

न्ल्ज्ज्टष्षा 30007 2॥0/& 

परे कोश | 90४४७; | 9९१६ । पद ४0४-200% ७००० हक | डक | छड७े.. 





(२) 
॥ 8 /88 ४2% फाड़ ४ 200]0 ॥209% +ह ३ २७७ ४६ ६ () ५४७ 8 ६02 &॥2 20 /8 
प्प्डे । छु.्छे ६ 2५७ 28 28२४ डेप 204 भुन एम मेशक मम श कप हे 2 
पू ए8 ८७ [७७ &$ 2, ह०४ 'एशश३ 7शा० कण 08 ॥ ०४ ६३ म हैह ।5९ ४ ७ 'हि[क ७ लए है हम है० मछ बार 


| ७७९] १०]७॥४ 3% ॥७७ ००८ है ४५% &8॥0%8& 


अंग ><ंड 


कप हिल 








244 4 48# ६ #रदर॥0 । है! का गा हे 
४] आज । 4टेट्रपुत आलम (े |. शा हैः है मी हा मा हम 
डे >> “पं है टे 2 ++ 5| है।। | फैट +208 | 0॥2९% 22% 52॥-. 
«&... मिरफ रद मे ४३9 म्कियुकड्राओं | ०। कक कषशर फरु| | है «६ के, |. (20) ॥५[५ 
॥2% 2३ मडर।र #पिय।े |मेहम डुव0 | ०। #॥॥5 ह8है। 8| दे | इक 028 ७५६ | (४५७ मर 
>३४ 0७४ ७४ 0 हम ॥७४७ कार]॥(०॥णार] #_४ !फ्रद्टी॥छे |. ०० [0४8] ४| ४ ७. | 92% ॥७७ 3॥।५ 
.. शक३8६ | 90 9४% & हू [७ | (७ न ह& ४ ४ 0 0२ का कि दल हर है ला 
सा बी 8 क 4 2 दै दे का (2 0॥ 4) ८. ध२॥२६ £[202 ॥(॥१ 
>2क8 ४ यु रुक दीप फ्रछाश!9 | करेम्युडव एड ४ ४ एक है| # ऋछ0 |. (७ | [80४ (9४७ 
४ &  ८& फिडे॥४+४5 यु [छ विकियु80+ रे ० ० ० #| ॥७ ७ 8008) जाई 
>४॥ ।+%६ 2.३) _४ हि ध् 5 पे [8 8 # मे है ॥> | ॥६)५ )३)।५ झ्ड़े। है। # 42& + 2५% हि 
५८. ६. ४ | है दै!॥४70 से ॥४2] /0॥5 ३)५२।४: ७ ७ ९(४६/१| हा। ४ ४४५७ ०4॥7।-) (2!8 
४ #& ४ |.._ फद्फ आ्द!9 छिझुड कर |. ० |. # केश हिी। |. ७|.. # | हआ३ (30 | (98/040& [48208 
४&.. ४. ६४ ्टिष्टेएम #रव हाजिर) (0 [फिफिक मल फटी | ० ० ॥६ ॥2(& हट # | दे हि ४. .. ३५9 
४३४-।9४ ४४] छञसछ कह |. छयहद] #काक्ाफ | ० |. .०. सह ही | || ३3 | (9-8409/॥& छः 
६... ६ ४६ #्क् कह (0 8 २४४ :४ है 40 | & ० हम 8| ७| +280% ऐए४) ६ /84:/27 2 के. 
2328 ।29 78४ | 8 है !१४ ४ # है| (७७ १] ७४579 | ० रे है ॥2४ | । | ऐ४३ #808 | ॥/फर 4040 | । 
>४३॥ ४०६ ०४] 98४ % कान | जियुलिश मक्ामाह कराई |. ०.०. [टेट] ४३ | ४ ग +>३६ फू | 
॥5]000#+ 0 ४वर]]9 हाफ फ्राकओे | ० ० | 5| ऐ। ४ 0 23% 48/% | 8 
०४४ ।09£ ४४| 400 +#छ३॥0२ [छह] क# का० | ० | # ७ सिर # फातय। है।. + | 0 ४2(08 | 9:7700//& [ऐे॥ १४४५ | ० 
५9४ ४॥०४ १६॥२ | ॥9095 %8 ४ खार (७ |. ॥४ आटे ४ ४४ ॥ (५) | ४४ 9७ [एट | ७ | 3७ [जे ४2]॥& |. एि।2% 2४% | ३ 
9३४ ॥४२८॥॥४ !६||> ॥ज६ क्रमार!ओ | एेशुफडअ आओ ०|। ० | छदें| 0 + * ८ मर '4डिवरक | ४ 
घुजिलक |. पहेक्रिककाय[त |... परशुहिपफपषफे | ० | ० । हु ७५ ।७| » ८ हर (५ | ० 
३ #[४| है| ४ हा 0॥22% -य% | १ 





परछ पावक ॥80 ॥90॥5 ५४७|४ + 82)/9|. [सहाय] ॥७ 08 ४२॥२ 





8४५ 















६०४ | फड्टए का अप [8 2७ 2७/सुत्त ६ ॥9३20३ 9 हे 885| ४ 3. 
अत 5 
&2॥%॥2॥ /४ द| (४ 8 है || ॥र से्ुु88067 | 8 पु 8 २३» & | %8)४७ 4 पंधश8 १5 
जि पशु. 2 वराधुध्यछ8 कह क०े।. बधाई | ४ || म्थूछ ४ ॥88 ०३ 
मेक फिर ॥ |. शु।ल फो जात 00 ॥०%४ कपर ॥ए0७2४ | ० | 8 ० 0. है | ऐमकश0.. पका. आधा ऋगश. आ 
गधा | फहुफ क कोच... पर काछक | ० (कक, 8 ६ |. | ५ न लि 
फर्क ध्ट्ण फरछ् कक्णफा०9 9 ० ० हु 5 [५४ #[. फेंके ७७90. (3497£)%298 ७ 
४५५ 2४६ 49 ७ ४५ $ ७ 8 & $ 8 ॥ ॥9 | ॥४६| ४३ 5 | 08 #|। +शूछ. | (8) ४७५४ प्ले 
औछ ॥20% 3.9 मिड झा. 9 8 अककाहाओ। ०|. ० ६ |  ४।.. ऐड 90002 ०2, 
शक फू 4॥30 शक कक 48 0६॥ ४०२४ ३2७ | ९| ० | एफेकशुफ | २ को... फीडिफे ५ 909 है; 
>श४ 0००१०) | छ्ुिषध रु 0. छठ 80४३७ | ९ ४ ६8 ६ 5 ( ५ #| 880. ४७७॥७ फ्रशू७ हरे 
#३ 9७ | 8 ९ ४४५१३] ऐ छेह$8 है 8| ४| ४४ है ६ के 8 ४0४ ४20& . एन ली । 
200५ ८ १७४४४ ६ ७... ७४४४११०७| २| #*६ | 5 ६ है 8 ४ [० हशूक [के ४४६. हेगे 
मशड छोग ॥.॥0 हुए ४४ 4७९९ 38 8 8 ४ है ।0 | क्ष४ । ४ ०  फे +। ७४. कैफडक... पाक शक 
284 ४0७ फेह्ीए €0छ. 0:४० + ४ है 9 | ध४ | मुठ है फि ० +9छ.. गया म्छ औ 
८ ५ 290 50602 / ५. काश पा डक 2 ० घाष् | ० हे फिर 0 
१४ ॥022 7:॥४ 0०७ है 0... 89 $8 शा ने प्य४। 8५ ० | ऐे ४ /2/म ४. फंड अख8. 
6]20046 4छैए 086 ४7700 खथ् बहा चिट. ४ «6 [४ ६<&06 820. छैशयंशु कफ पक 
39४ 0४.४६ 4.॥0 | ॥906 0 कांग॥2.. का काम टै4ओ | 2 | ० इ फंआ2. 0008% 22728. #ै6 
डफिलाए ।. छह 5४ ४४ # ७ खे शिकार २ हे ४. ३४ र ध ९२५४/४५६.. हे 
मश४ ७४४ ॥॥७ |. 8१६ +४ क ि ॥8 &#54##ै४ | २| म्यं४ के. 8 फफ2 थक... स्लीण३ धकश+ हैं 
८ क्‍े३ फशाशुएं स्थल पक | +| ४ फ्फ म्श्फ ४ मध्य ऐैही 
ध्ाआर७ | ७५ कक 8४७ कछाछे.. 8 | ५ 8 है & 0७७४) (७) 5 फोम 3५%. मेड /52३09. हे 
शिकाा8 ॥ ० अफकक आह... ए४३०/ ४:४७ | | | ४ ४ ० सकए मे विराम 








मेड #परेयु६ 282 | फोर क्‍0 ४8 कार [0|. एयर कफ: |. ० ।_. ०७ एक है। #। ॥2 ॥)/20, हों; 
४ ८६. ८ | है ५ ४9 है| [७ गम धि की के है 0 | ० | ॥॥| ६ लि २] ७| ४ | ३ 0) (8200& [५9॥% [४३ 
४ िफ 28 |. है 8 + ७ है] (७ 883 है 9 | ॥ | ॥६| (६ | +»| है क्‍28240 #80॥8 | /5/0) ॥0:।३१। 
६& ६ ४ /9ह80६ #ल[जेट है ।गह5 #५ (|. $ 9 है मे | पी 428/8 गा] 4५20४ 2। 
जडेड डेट हुए |. ऑक् % पूछे गम कक 0॥ | युदे। (थे ० |(49 | म 8 |. 0 | [000३ ॥६। 
/॥04/2 कमा फाह]0 | (8/8):8] 3 49 | ४ || ४ 2] [22 ४ | ॥9 | # +9७ [फ% | ३9.५ 
फेडेड ।02५ 88॥+ |. हे आाक | करके | 90|98 #ए[8७ + ४ ५9 |. ० ४ 8 हि ४ 4 | ०७ +208 | ॥0॥0% 
/2फ885 | ॥>३४ [४ +३] ॥३)॥७ 8/व६] ४७॥५ देम [| ० ० [९४ ॥३॥५। | | # 00, ५: 39७७ 2» 
>2४ #ाक 02 | फिसमाक फ्राकोयु [09 | [छा [_४३7७| ० ४ ० ४ (|; ,, हैः 098] 2० 
९] (3८2 89 | ॥७३४४ 08 +#९]७2)॥७ | ॥2]6%09 0% ७७७ |. ० दे है (| 0४ | # | ३७ ॥७8॥8 ५८ +28॥02| 2|> 
>9४ 400£ ॥६|॥|२ ।फ है 8 + है (9 | [8६] 58% ४ 0 ३ ॥0 ॥ | ० ० ॥ | मे | #8008 [30 | /9॥2॥0॥2] 2७० 
फांए]॥५॥२।४ 40 7# %|ह] !७ लक मम ६ ॥७ | #३| # है हुफए। | ४ +8(॥8 हे [28 
>ड8 4200४ ९] | ॥७ & ॥5 ४ $ | ६) ७ छिटी]0४704|| ०| #.३ 6 है] | [9 | ० | ८ ८ !५५: - [॥&॥004 
३४ 20£ ४९] | ॥७ & 77 # ५ 5 है| |७ फिल0और[घ | ०| ४8% पध्कायु३5| ३ | ५ 9 («8 | ():७॥9॥& [9४ 
६..४ ४... ॥85३ १४४ ४5 0 क्‍मे 5980३ रे श 9 चिप । + | हे 40" 22522. # 
39४६ ।00:£ ।६||४ । 4७ ४5 ## #६| ॥छ७ ले कह] ॥६ दतओई] | ४ 2 है] 5 | ७| ४ 42848 [५94% #/3 
>28 #/६४६ ०४) । 40३६ ७80७।६ # 9] 4० 8 + 48॥२ (॥४ | (| ॥+ 2६ । #8 ; 9॥2/9 2५४ 
॥फ%:॥४ | ४ # + मोह] | ॥७ 5& $ & + # ॥3 ४३ दे | हु 8 +# | 808 +2६ १९१५)०४ 
>2४ आाक्ि 22] |. फिक्षक आह] ७2७ | !9 & दि +४॥0 ॥7'२॥७ | ।08 | | चलिय मे फीि| ४ . ८४ | 2॥॥ण४१| +900॥02) ६४०६ 
मेक 40४ ४2] [टेा४अ | पोह[४४07७| ०| कहे दि 8 08| ७ | 28 | ऐं७ (2॥8 | 98/0/02 30॥8|६ “2. 
ग ४ | ॥2 है ४ ४ # ॥0: से मि 9 # है ॥) | ॥३॥ | ॥8)॥१ ; की न 22029 | (72॥2॥98/) (८४ 
3३४ ।98% ॥६॥॥४ ॥2% 9 8 है [७ |. [छह ७४ ॥७ | +8| कहे ॥ #+ लक कि +23[& रा 3६४9४) (/५४ 
8॥५ ७ & ७ ४ * ४ 8 ॥७ व्यिट8 +४०७ |. ०. ४ हर | | ७. ऐड ४2(3 | 828९ (28208) करे. में 
४५०७ अ्यफण | सयकककाा३ | 2 ३ ह8७8| + | ७७| | ४&/8 हक 3 5 


श्‌्‌ 


+0%४. ॥४१७ 
२9४ #क हु 
२४ (9४ 
शक 8 
39४8 ॥५४४ ४४ 
/4॥/ 
2 ४३४ ॥॥५ 
रु ५ ५ 
29४ ॥0%  ): ४] 
४०७ 
)2% ४॥४ 
४४४ (20४ ४४] 
£॥९ 3२६ 
। 

30% 84: 
9॥५ ॥3%%/१| 
3 आ३ से 

$ । (] 
अश् 3238 ४४] 
॥ 2000 
देकर 
प्रक्ठ कक १५ 


49 &# ४६| ७ 
फ्वावघ पमए]9 
हे ५ *0३] 39 
डे ४ #जयु।ओे 
फर्श पएह8॥७ 
5७४ ४8] ॥9 
980७8 58% 5 धर 
मे है ४ ४ है| २ 
4छ0४ »७ ४४ ६0७ 
॥9३ ४३ ४फाह) ॥9 
९६ 8४ + हे 
39३५ ४४४०४ +४.६॥७ 
4३९४ ७७४ ॥॥२)/0: 
स्षप्हह ॥॥ ४ है 
49800 ॥/ल्‍४१॥७ 
9स0१ #य 49 
48३ 3५8 ४8 3४॥७ 
रे ७ | ४४8॥2)/० 
| 0७४४8] 
श्ष०४ !फहु।8 
'ड्टे४ भार आयु 
फद्ठी। को $ 0 40 
क्‍98098 ४४३ #8॥६|॥२ 





प्र 


ह४६०५ 


छथ] ऋछ है छाए] 80. 98 ४७ साएए ४ ऐै 2] 
फेक 7080. ०. (हो छु [एड 0 ४ प्रफफ ४87 
मका जाछे ० मर ० झु | पफछ शक 
प्याफ दर ० ० 9 रत ८ 
ख्ंधहमप्ाः रण. ५ एछो०े छपष्ाएर. फऊ # फं55७ 
खाया 080 (98... ० भहै हु॥ 0. # [फिफ #धयू& 
फटे कार... «५. +$ ह/हाई फिर... ४ 7. फ 280 
9॥]%+% रै?एे 80. # ४ छ)]एऐ + है 3] 
काट कक है।0.. ५ 59 पचहुफि $+ है ऐफए +३७ 
जप शक छा 2४... 8. है. डएँ पा का मे ४१४ 
माथुक्त कण... ५ ५ अएओ हु. ४ ४ 8०४ 
के ५४ हाफ... ५ # है #!एडे+ हु. ४ ४ ४७२७ 
ये इत्र _्छा9 ०२. + अपर 8 ४ २24॥; 
ख्यजुकलिकाह दाह. २. ९० हमे है ०2 ७ 
या प्ण्दओ 0). 5 मर मे दे... इैं 
ोछ आह फरड]. २... + माहाश्क्डर से. ५ ८ 
खट्टे] भ|ह_ पर] ४. ०» हे ही ४ १223 
फडाक्8७दफे ०५ ० धएफरेब्मर है | ध 
पका कह ऐ३ ० 8. एइपुफकाः की 5 ५ 
फेर [+5४%फे ० (0 पाए +*+ पे ही 
एायुप्छ कपक अफ्द्देडे ०8) ० 5. 4४ 6-9 
05४5३ सम आप ० के. +े सै & 
छेड|५5७४३ हाणे ५ % संष्ाड फोे के सै0 
# 2७0३) 89 # 


५ 

ा 
20॥/900] 
पथ 
का+ 
| 

( 
पथ 
विश 
फ़+ 
७३७ 
इक 


पु 


432॥४ 


४ 


पु 


प्रा 


।7 
/98| 


0७ [७-७ 
॥9त9७ 
खशयु 

20॥082] 

ये ॥४॥०४४४४] 
एधह० 

है १०494 «॥ 

४०७ 0७888 
4४0७ 

30३॥ 

2008 

(टेक) रण 
०4८0] 








ज्ठ है 


घछ० ॥ 





















>208 709£ (2४) ७३४ मई (छ ऋो (98 |. ॥छ४३| +४ है छोटी | %॥ | ७ (रे 8४। & 898 [४॥% | 839 (५ ॥०६) 
४... फिट ॥कायशु॥ पहय]09 |. #काशुव ॥[माएु (9 |. ० ०.8 सिर: ओर ४ ६ [४०७ ५ पिधाशड | 8 
.. शकांग | फोड (5 कर] [छ ।... फार॥ काषांए | ॥ |. ४६ है | है | ॥६ ४2% ४298 |. ४७॥४ /0॥9 | ६ 
अेश8 कब 08॥2 | छकै५ #हदे 05[8/ 2] म्मिटे 0 १४ | ॥0॥0 |. 8५ है | दै। ४ अथ& | 0००५ 4200७ ( » 
॥48॥2 | फै9 0५ #एछहह)।0 जिद 8४ 4 | ० | (७०४ | ए2४७ ७ ४ [06 |8॥8 [४५% ७६9७ | $ 
!9%॥2॥> 490% 4१५४ ४»!९] | 4४३७ ४#६ ॥2 कह |. मीठे _ ह | 8|6 # &220[8& | 2/22% [हर | ० 
पैन |... छाए #कर)।) (885| #8/ह७ (8) | सै | न्‍क्किए्रं| 8 | & | ऐफें।॥ ४७७ [के ६४/2/४ | ३४ 
२३४ ।मरे ॥8)2 |... शक्रीफ़ पाइ|७ छ छ भी ७६] | ४8 |. मद घिुझफए | 4७ # अ्श्& | [४४७ #पकथे७ | ०४९ 
फाहकओे | ॥0% 0४ | कर8॥9 छे ा३5॥कराक सभा ० |. ० ० || 4 ४४५७ | 9/॥॥0॥8| 2|9 | ७४ 
४. ६ | हे १४9 आायुदिर] |... णासु॥8 चाय) |. ० | #े | ||  [फस-2 0६ | 0॥2% |. ४9७(३/ | ८ 
2६ ४१३॥&६ ४४] फोड्क काय[ओ | मा ७2 ७३७ | + | ४ मद के हे 28 |. ॥७४॥७४ । खिजाड | बट, 
१४ 288 फट |. मर 0 0 यु |. छाई करत फोर] |. ०० |. #हे कक ध््् [9०४6४ | 8४ 
२98 ।202 8६] | ४ ॥॥४% | ॥0 ४४४ ४रि| | ० | दे हम | गे मिल 2288 | 22॥98॥ | 22% [899 | ६४६ 
>४ (9४ हे हा कटे (8 निट] ४४ है।& | 48 | ४6 _ं| | दे 'अडिप5 |... (०५% | #209 2050 | ४४३ 
के 2 9 00%%05 पफडह (७३ 95846 0 | ० 9 | #हटे | 8&| ४ &29॥8 हो, >22४ | 3४४8 
29६ ४०६)।७ !६|।४ ३! | (50/8॥ 05स] (09|98/% 80७४५ पे नह ० ० मै [हे >स 40| # म 4090७ 2(900 | ०४३ 
(८ ८ हि व५५ (न म। 2: (मद ॥2/| कप 4 ० ० है| 45 कि है | जऔफ)। 0 हा (४१६६ ॥४%६ | ३३३ 
शिकार॥ | फेडुक्रकायु। | हक आाह9 | ०| ० | 8डे। दे # शी | ०88 
>20 ७६४ ।६॥|७ ' 4 है (६ #5 [के -. (फल | सु 7 20 ि |; 48 मु ॥0॥2२५ (9ै७7४६ | ०888 
॥2५:७॥६ | 50 0 ४8 (छह (के ४ 95 ३७ [७ | ४४ 850द३| #। # स्थ्यूड | ७०8 |. ६28 १४ हा ! | 
५३४ ।29॥१ ४४] किक आह [8 |. 8 ७ आते |. ०। +# & हल 3], "पक । 888 !' 
ह । 4७ ५७ #॥३) (9 (ऐ४] ॥७ ५४७ | +६ | ४३ ० ६ #|[. #थ्प& 5 मा #2 गा हे ; 
(न 8 8 है ॥> 2)0६ कक ० के ४ 72/: | ॥2॥!00॥०| 4220 हे 
(२) | #[ट+3ज | | ४ [एके |. जाए /___ 2६ | 288 








# 20/]8०] ।2# 7 # 






















छोक रफ | रात ४िधा। कर 49 |... 99% 8 % ६ 39 | (४ | सुछ छेद ख *>६६ | (६) ४१४६] 
शिक्ता> |. फेर ।क काश १७ | 2४ ।ह॥७ ७४७ फैु७| ० ० ९४।| | ४ रन छा | 
सकल |. कया /0 0 0॥0 [70000 हक कैप 882) | ०५ |. ० ० | के | $+|. िंडछ | छह ००७8 | का 
व | विद: 8 # धायदाओ| | यु अकठ सफर ए9 |. ० ० 7. कण | + ह ७ |. 002+ | ॥000% (७७ | $7 
३८ (॥0 डे 0०४ ४] ५ #लाए॥9 ॥98] 5000७ ४७ ि ३ है ने 2% ॥४९४)९ 
29% ४४४८ :2 | कप: | 80॥08 ४।४७९॥२ * ४ [४९+ हे | ॥9| # | पछ ७४७0७ | ४)७| . ४७४ ४९७७ | ») 
शिकाने [फेसट ७ ४ कप 2203/ 0४३६७ छक्का | ० ० ४8६ ७ | # [003७ 0 ॥0 7 पर 6 
मेक ४४२०5 8/ | ॥9 है 00४ ॥% हायर | ॥8 #]| कक क्री] | 3. + [६७७ ३ | ७ # ४०७ | 0७ + आऔ७ | 
शि5 ४७ [छेड्षा॥। कर पास 9| 0१४४8 ०| ० चथध | कह # ऐड | काश |. 0७॥8908 | ६४ 
शिकाधओे |... फंड! 5 $ (७ 4७ & ७ ७ है ॥9 | ॥४। (८ 88 ४| ४७ &्श€ 4 ॥३ | 8१ 
5 88 [फिलेशक #0 ४8.० 8 |... 9:98 +७१ १७ |. ० | (है घुफ | 28| + कि #भूछ |... ५... (089) [७३ | ० 
४७४8 । 9ह४0४ #५३8॥२ 680 कराता के |. ० ० [० | ॥8 | 8 धर ४१४ | ०३2७ ॥2£॥)४ | ३४ 
॥श% 98 ॥४३४॥४फह [६७ | मह७|. वछार] 849 0७9 |. ० ० ४+ कं 8 | ४ «  शिं88 48 0४५४७ | ५४ 
३३ 70७४ ४६॥» | (३५ 8॥ है|) आयु 409 | $ | है? छह | ४ ५ | #8%८ ६ |. #ाफाओे (273॥0४ | 0॥ 
धुल |. से ए७ पक काया | यु कह शक छ | # |. 8७ | # ६ |... [धा५ 8४६/४ | 88 
छत | राह कष्ट 9. | 0988 0४9 छह |. + (३) ४ ॥ | ७ [228 ४8७ | 002५ |. 0/॥४२५७)> | ज8 
2/% 25 | 2३07 #|8 (पे 97% (४४ ।82॥9 | ४ | #्य ४ [8 ॥े। मे पु छः &%0 | 8 
लुक | 4ेहतव # #& (| ॥. ॥5 2] 5 8 है 40 | ४७। ४0७ 9 (७9 | ४ ब्याह क ३४:४२) ह8 
22% 298 | कह्ठा5 देक४॥ 208 | यु अक्म 0७ ॥ए३)७ |. ० 6 हुई | +| ४ # +] 24॥%| | 00४ [४८ | ८8 
अर भाक )89 कह !क $ पक |. फट कह फल | ०| ० 2] | ७ फिछे | 00७2२ ४५४७ | ३8४ 
५१४४ |. ३९४ ३४ ४६७ |... ाइ३ १४ है# ॥9 | ॥क | ५8 छा +| फे ५ कफ |... 280४8 | ०॥॥ 
>> अबू 250 | फेसए्हे४ ४ आये पे आय # फह्का | ॥४ |. 89: 8 | 8|_ खथ७& |. कैप एक | १४३ 
६ ए0% +छ६!७ छोड] कप ।82) | ० | ४६ लाई | 09 | + ०३2७ | ३ ३४४४९ | 3६8३ 
मे ॥बल ४४] फ् महिय | ०४४ (पम्ट) ए २8080) 
कै ॥छ20 ४ ऊह[5/9 | माशुमद कमाई [88] | ०. ५]. एथ३ 7शु्फा: 
दर गे पर लत 2३28 ॥808॥ 
हि 92 ४8४ ४६॥४ |यदहर] + देह ।802 ४ | ० द 








४ कु |. ॥9 4%8 यु [9 
5 । 290%:४॥ ॥छ85४ #छर!० 
"8 मिकि हु |... फिक्षेकाए लधर!8 

5 # गफे४ 3800 | 9090६ 0 ४३.४ (छ 
“, 8 ॥00 ॥०९] ॥७३ ४ ४१ ७ 


१ जिला | छेदटे/ "रे ४7४ हि 
>> डक माफ ४४३ |. फट्ठे। ॥% ४82४ 
; 2]0०5४ |. है ४ कस? 

)9%०॥ | दे ७ के $ मे पट 0 


+98६-॥958 १६))।२ ॥७३ ७.४ %४8 (७ 

॥%०४७ | ेड्धक ५ श्र (0 
५४३४ ॥093 ।६॥७ | ॥980% (४६ #३] ७१९)(४ 
»8४ 00% ४४५॥ | ॥92]200%% ४४! 
जे फोन 2]9 |. )8 है १7४ #कर[ऐे 


]9॥%:9॥8 | ॥छ29॥५५ ४] 2) 

 ॥2॥%:४॥४ [9 है 5 8 » # || !२ 

।2//: ]७ 3 ५ ४६ | 

3७६ 4002 ॥0॥> । फै/टर8 #8ट॥0 

[.. जडड क्रीक्क (8॥ | से सैर /9र)( 
|; धुल +.. फड्टे३ ए४ हट! 
५३४ कगार (8७ ॥ प्र ४० सिछोटीत 
+ 32॥%(२४ 


॥॥%:2॥४ | ४सतफ् सम ततय 


! 
| 


जे 


है 






+ 
ञ 


हे कि 
१०] कि | क्र 
है] कक किम हर के कम हम हे 


॥३४४ 2७ |“ 
॥9 [|छोवियी कक ॥पट 2 | ? |. 


[948 2४ ४8 (४४: 
]छ३ ##ह।७: 

।9 8 #]%+ ॥920: 
[0४०] & ४०॥४ ५ 
(सयटर| 0४४ है ।0: 
(908 ४8/% ॥एरॉं2 
[कार] ॥8३| 0-४ 
्यटु जय०5 8:१0 
(७ ६] 8 ४ ६ ७ 
॥०७ 2] 8 $ ॥५ | 9 
8 88 $ | है 49 | ३५ 
छक्के | ० 
[9 काय| कहर। के. 
ज)०स 0फटरेगे 

-.. [छाक है ।9। ० 
छन्‍]8 ४४ ४४ |. ० 
॥७9 |] 8 ४ ४ ७१ ९. 9 | ० 
॥9 8 #शओे | ४४ 
|90]8 + कहे कमीेद्धा 
[छा] 88 #| है ॥3 
, #गिट्रिपछ पीर 

' कम] कह फ्ु | 
उछेट] » 8 संस | (व 


| ० 


दि 














()३) || 








न पा प्पि० 


।6 | 
० 
2 
हक 


ह #० रे दि फ़्फ्रि प्र ८््ी दर का + थई ४ छल / प्र छः र्थट ७ स्नि प्र द्रि 4 








हा अं 0072% 4% 98[ 
५ पिला छह 
फ्े पिफ॥2 |. 0॥02% | 0॥22% (|2४2। 
०4 १२ स्थित € 453+-२ ७८५ 
दै +28(॥& (फाफ | ड38 ४०४ 
हे किक |. फम४ |... 48०४ 
8] 8.90 &:॥9050 (४४०)७ 
49 [४४३ ॥९।२॥०(८] 9%५७ 
| #898 +२.9(॥8 ५9% [9000६ 
# [फफिसओे 428॥8 |; ५2॥£ 
3४ |... ४&#2& | 0॥22% [0॥02%॥६ 
है 39 :2(88 | ४०३६ 
॥५ | 22238  &2॥8 | ॥0॥2॥४/६| 2% ४ 
दै हर ]94% 80॥9 5: 
8६ ७28 | 9॥22% |. ॥0॥224 हि 
के ६... | शशि | 2020| ५४ 
ध 63) । ४0६ | +28 28:28) 
के श्र (५ |... ४:४२/१३| 
| &248 |. ॥४॥00: >29 #॥/23 
॥> | 99 (28 | 0॥70% | 0/-2% ४॥॥3 
४ | 0 +28. ८. 2०४५ ॥2/शिद 
& ॥073 ५% ॥>798 
8 चिकन 70/॥72% )222# है 
| किए) |... 4००७ | (॥४०9) 9॥//०थ/ 


कु 





#” 67 35 


0 कट 
४१7 


ज्वणज, 5 


। है ६९ छ छे४४७ हथ्पीगहकाओ ओेपकानुए (५४ ४७०४ ॥9७ ७६ ४७॥ 'है ६५७ 8 ७६ 28४४ 8 ०8] !४९ ेएिघ-- 2३ 
प2..०००६3०.००२००९ल्‍ल्‍०6३ल62३ु३ुल३ल8०६३६ल६ल8ल268ल2_---०>नननेननम+ ० प+++-+-++न्न्ननन नी फ लत ना न नन नम ननननन सन लगन नए 
| 


4 












> 2छ४ 2॥७॥. ४ ॥६४४७ #४ ६ ७ 48 ॥६॥४४॥५ ॥9 | 8३ ४३ 8४ | ॥9 | |. ध्थूछ | +१४४७ कड़े | ९० 
यक 998 ४0 | 88६ ४४७७७ ४छे के कफर 48 |. ७ छ 8 ६ 9 ४8४ |... का ४४७/४७४ | ३३| 
>ध्४ माया हुए |... 0३ ७ ४१8२७ | 8 शुण+ क्षका: ० | 88४ |. # ४ ० | + [9]. &2७ | शा ३४४ | २, 
३४७ 9७७ ७७ | 8३७७ १७४७ ४४४॥७ एछछु| धधाछ | ० ॥३ै।. है हुक | 2 | + कि आय |... गक [0४५७४ | १3 
५३४ 2७४४ ९) पे है ४9 से 7 'छे 8 ॥ है ॥8 है; ५ (४) |] ० | $ | छ 22 | अछ0 |. शि/४ ॥8 | 83; 
829७ ३७5 ४छ३७ स्का प्थछ ० ० 8 06 + | सछ |. छा५ |. थक इन्हे | १3) 

>कक कक ४ऐै| का आह |. हए0॥79 |४ ३ | »३ #_ फ # म्थूछ |. 02५ 2७ | 83 

२9४ ४ ४९) | ४३ ४४७ ४ ४९३७ हल कफ््छ ०.० हुए है शिंक्त | को | 8 # 032] ४/४४ | ६३ 

29४ आय 320 | ॥शम5 0 काश | _ 0 खत पकाए पदक |. ० |. ५ अुशह | ४ 8 ५ +॥02५ 2७ | ढ3) 

394 98 | ॥8508 9568] ४8९७ |... /क्रमा्साणे ० ०। मल है| ॥9| ४ 0) 3 ४90 | ४१) 

च७ ४०.७ .॥% | 'रे!एर 08 4॥३र0 ष॥ 09 | + | (९४ चुप 0 5 22४ |. मठ पंथ ०)े 

|. मे ५ ७४ ३७४ | !9३२७ ४७४७ 88 2७ छक्का ०| ह#0। हे #| दे (ह #। माह | मकर विआर 

,. 2७ | ॥8 अशक्त कार 0० 098%+$% है!9| ० | 8४४७ ही 9| + | ४ किम. ४ (2293) ४४ | 

४ ५ (७३ >. |. ४ इ्: ४७ ४६५ ७ |. ४ 2६ ४९ मा |. $ ्ठ हुए # 5] गा (0222०) हा फ ; 
॥. लक | खषकक |.. पे केबल |. झममद्देक | ७४| २50 ।. थे | 7 | 5 श्् कप हपा का 
प्ि मा , गत ्‌ ऊछसमओफ्देी| ० ८] कफ फे। मै हे ्ट 
[" ही ॥क्६ ४५ ४540 श्ं 'े हि कप छत को उ ४॥४४:७ ४०४६ 8 न ह्‌ 

७